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मुस्कान चली गई

मुस्कान चली गई

----------- सुमन शर्मा

कभी- कभी मेरी बहुत इच्छा होती है, किसी आंतकवादी से साक्षत्कार हो जाए और मैं वह सारे प्रश्न जो मन के भीतर हैं, उससे पूछ डालूँ।मुझे बहुत आश्चर्य होता है , कि ये आतंकवादी अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए मासूम लोगों को क्यों अपना निशाना बनाते हैं।

एक अँधेरे से भरी रात को, जब में गहरी नींद में सोई हुई थी। उस रात , न जाने कैसे , स्वपन में मेरी यह इच्छा पूर्ण हो गई।

आंतकवादी मेरे सामने खड़ा था। उसके हाथ में मशीन गण देख कर नेरे रोंगटे खड़े हो गए। मेरा पूरा बदन थरथर काँप रहा था , लेकिन फिर , उससे मैंने, अपने मन के भीतर छिपे, सभी प्रश्नों को पूछ लिये ।

मेरा आतंकवादी के साथ वार्तालाप शुरु हो जाता है।

मैं, सबसे पहले उससे पूछती हूँ, ‘तुम्हे मनुष्य कहुँ या अमनुष्य?’ वह ठहाका मार कर ज़ोर से हंसा और बोला, "जो आपका दिल कहे वो कहो हमें क्या फर्क पड़ता है।" मैंने कहा हाँ यही तो प्रॉब्लम है, "तुम्हें कुछ असर नहीं होता ,चाहे कोई मेरे या जीये।"

मेरा पहला प्रश्न था, ‘‘ तुम अपने हित के लिए मासूम लोगो की हत्या क्यों करते हो?’’ आंतकवादी ने जवाब दिया, ‘‘हत्या कहाँ करते हैं? हम तो मुक्ति दिलाकर समाज सेवा करतें हैं।’’ मैंने कहा,‘‘ ‘समाज सेवा’ जैसा शब्द तुम्हारे मुँह से अच्छा नहीं लगता।’’ वह बोला, ‘‘आप हमें गलत समझ रहीं हैं, बहिन जी! हम तो अपनी जान पर खेल जाते हैं और अपने माल की कुर्बानी देतें हैं। लोगों को मुस्बतों से छुटकारा दिलातें हैं।’’ मैंने गुस्से से कहा, ‘‘नहीं! तुम बिल्कुल गलत कह रहे हो। तुम तो स्थान-स्थान पर बम विस्फ़ोस्ट करके लोगों की जान लेते हो।’’ आतंकवादी सिर हिलाकर इंकार कर रहा था। मैंने आंतकवादी को झिेझोड़ कर पूछा, ‘‘ बताओ! तुमने बाजारों में बम्ब विस्फोट करके क्या मासूम लोगों की जान नहीं ली?’’ आतंकवादी फिर ठहाका मार कर हँस रहा था।

वह बोला, ‘‘बाजार की मंहगाई को क्या लोग झेल पा रह हैं। क्या मँहगाई से लोग नहीं मर रहे? मिलावटी सामान से क्या लोग नहीं मर रहे ? अपने बच्चों को आप दो मिनिट में पकने वाले नूडल्स क्या नहीं खिलते थे। अब आप, कहो आप को मैं मानुष कहूँ या अमानुष ? सारे दिन टी वी में आँख गड़ाकर सास -बहु के सीरियल देखने वाली महिलाओं ने कभी सोचा, कि दो मिनट में पकने वाला खाद्य पदार्थ ,उनके बच्चों के स्वास्थ्य के लिए अच्छा है या नहीं। अपने समाज में झूठा दिखावा करने के लिए क़र्ज़ पर क़र्ज़ लेने वाले क्या क़र्ज़ न उतार पाने की सूरत में, क्या वह लोग आत्महत्या नहीं कर रहे?’’

मैंने कहा, "चलो, यदि यह मान लिया जाए, कि लोग मंहगाई से मर रहे हैं। लेकिन हाई कोर्ट के बाहर क्यों विस्फोट किया?’’ मेरे सवाल के जवाब में आतंकवादी ने कहा, ‘‘वहाँ खड़े लोग, ‘जी’ ही कहाँ रहे थे?’’ मैंने आश्चर्य से पूछा, ‘‘क्या मतलब है तुम्हारा?’’ उसने जवाब दिया, ‘‘ वह तो हर पल मर रहे थे। बरसों से मुकदमा लड़ते लड़ते वैसे भी मर ही चुके थे।’’ आप लोगोँ ने ही तो डायलॉग बनाया है ,तारीख पे तारीख ,तारीख़ पे तारीख़ मिली है, माई लोर्ड! कभी इन्साफ नहीं मिला।"

मैं अपनी बगले झांकने लगी। मैंने , अगला सवाल पूछने के लिए हिम्मत जुटाई।

मैंने कहा, ‘‘लेकिन तुमने तो अस्पताल को भी नहीं छोड़ा। अस्पताल में विस्पफ़ोट करना तो मानवता के सख्त खिलाफ है।’’ आतंकवादी ने जवाब दिया, ‘‘तुम्हारे अस्पतालों में भी, सब कुछ मानवता के खिलाफ ही होता है। वहाँ के मरीजों को देखकर तो. हमें दबड़े में बन्द मुर्गे याद आ जाते हैं, जिन्हें हलाल करने के लिए दाना डाला जाता है। कुछ मरीज तो इसलिए ठीक किए जाते हैं, ताकि उनके शरीर से गुर्दे जैसा कीमती अंग निकाल सकें। यहाँ के मरीज अपनी बीमारी से छुटकारा तो शायद ही पाते हों, हाँ कोई नई बीमारी वह अपने साथ जरुर ले जाते होगें । यदि अस्पताल में उनका ईलाज करके उन्हें ठीक भी कर दिया जाता है, तो वह अस्पताल का भारी बिल देखकर मर जाते हैं। हमने तो उन्हें हर चिंता से मुक्त कर दिया।"

मैंने फिर पूछा, ‘‘संसद पर हमला करने मैं तुम्हारी क्या समाज सेवा है?’’ आतंकवादी ने कहा, ‘‘ संसद सदस्यों के प्रति, झूठी सहानुभूति दिखाने की जरुरत नहीं है। हमें सब ज्ञात है।’’ मैंने पूछा, ‘‘क्या ज्ञात है? वह बोला, ‘‘चुनाव जीतने के बाद यह सदस्य चार साल तक जनता से सीधे मुँह बात भी नहीं करते। चार वर्षों तक जनता अपने किए पर पश्चाताप करती है। पाचवें वर्ष वह फिर जनता के बीच आकर तरह-तरह से जनता को रिझाने में जुट जातें हैं। भोली भाली जनता फिर से मूर्ख बन जाती है।

तभी मेरी नींद खुल गई। मेरे होठों से मुस्कान चली गई थी। मैं सोच मैं पड़ गई, क्या आतंकवादी सही कह रहा था? क्या आतंकवाद सचमुच विभिन्न शक्लों में हमारे देश में छाया हुआ है। क्या हम सब बिना हथियार उठाए , बिना मुँह छिपाए सरे आम समाज में ,छाती फुलाकर कर घूमने वाले ,सफ़ेद पोश आतंकवादी हैं ?

--------सुमन शर्मा

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