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अधूरी बाज़ी

अधूरी बाज़ी

मेरे सामने मेज़ पर शतरंज पड़ा था। मोहरे भी अपनी अपनी चाल चल कर एक जगह ठहर गए थे। जो एक बाज़ी के अधूरे रह जाने की गवाही दे रहे था।

मैं अभी भी जतिन दा की उपस्तिथि को महसूस कर सकता हूँ। मैं सुन सकता हूँ कि वो पूरे उत्साह के साथ मुझे हरा देने का दावा कर रहे हैं। शतरंज पर पड़े मोहरे उनके स्पर्श को आकुल प्रतीत हो रहे हैं जैसे वे भी उनकी तरह मुझे हराना चाहते हों। किंतु मोहरों को अब प्रतीक्षा ही करनी पड़ेगी। चाहत तो मेरी भी है कि जतिन दा मुझे हरा कर अपनी जीत का जश्न मनाते पर अब ऐसा संभव नहीं है।

जतिन दा मेरे मौसेरे भाई थे। उम्र में मुझ से कुछ ही महीने बड़े थे किंतु उनका मेरे प्रति प्यार एक बड़े भाई की भांति था। इसीलिए मैं उन्हें जतिन 'दा' कह कर बुलाता था। बचपन में मैं उनके घर आता जाता था। पर सही मायनों में हमारी मित्रता कालेज के दिनों से आरम्भ हुई थी। हम दोनों एक ही कॉलेज में थे। विषय अलग थे किंतु हमारे मन एक दूसरे से मिलते थे। हम साथ साथ घूमते, फिल्में देखते खूब मस्ती करते थे। उन दिनों हमारे भीतर बहुत जोश था। हम अक्सर राजनीति, धर्म, सामाजिक कुरीतियों पर गर्मागर्म बहस करते थे। उस युवावस्था मैं हमारे भीतर एक अलग ही ऊर्जा थी। हम पर बहुत कुछ बदलने का जूनून सवार था।

उन्हीं दिनों मुझे एक नया शौक लगा था। फोटोग्राफी करने का। मैंने कुछ पैसे जमा करके एक कैमरा खरीदा था। मैं अपना कैमरा लेकर निकल जाता और जो कुछ पसंद आता उसकी तस्वीर खींच लेता। फिर जब वह तस्वीरें डेवलप होकर आतीं तो जतिन दा इन तस्वीरों को देख कर कहते कि तुम्हें फोटोग्राफी की अच्छी समझ है। इसे छोड़ना नहीं।

हँसते खेलते ना जाने कब कालेज के दिन ख़त्म हो गए। जैसा अक्सर होता है कालेज की पढ़ाई के बाद हम दोनों ज़िंदगी की जद्दोजहद में फँस गए। उसके बाद घर गृहस्ती की ज़िम्मेदारियां आ गईं। अब जीवन में वो बेफ़िक्री नहीं रही थी। सब कुछ बदल देने की ऊर्जा कम हो गई थी। हमने परिस्थितियों के अनुसार खुद को ढालना सीख लिया था। समय के साथ साथ सारे शौक भी समाप्त हो गए थे। हम दोनों भी अब यदाकदा किसी रिश्तेदार की शादी में मिलते थे या साल में एक आध बार एक दूसरे को चिट्ठी या कोई कार्ड भेज देते थे। हमारे बीच अब यही संपर्क रह गया था।

दो वर्ष पूर्व हमारे रिश्ते की दोबारा शुरुआत तब हुई जब जतिन दा ने भी उसी बिल्डिंग में फ्लैट खरीदा जहाँ मैं रहता था। हम दोनों ही अवकाश प्राप्त थे और अकेले थे। किंतु मेरी मनसिक स्तिथि उन दिनों अच्छी नहीं थी। अपनी इकलौती संतान की मृत्यु का दर्द मुझे भीतर ही भीतर खाए जा रहा था। हालांकि जतिन दा भी अकेलेपन से जूझ रहे थे किंतु उन्होंने जीवन से हार नहीं मानी थी। ६८ वर्ष की उम्र में भी उनके भीतर एक जुझारूपन था। उनके इसी उत्साह ने जीवन के उस कठिन दौर से बाहर निकलने में मेरी सहायता की।

हम रोज़ सुबह टहलने जाते, राजनैतिक और सामाजिक मुद्दों पर बहस करते। अक्सर हम फिल्म देखने या बाहर खाना खाने भी जाते थे। मेरे पीछे छूट चुके फोटोग्राफ़ी के शौक को फिर से जीवित करने का श्रेय भी जतिन दा को ही जाता है। उन्होंने ही मुझे मेरे जन्मदिन पर नया निकोन का कैमरा दिलाया। सबसे पहली तस्वीर मैंने उन्हीं की खींची। उसे देख कर चहकते हुए बोले।

"देखो आज भी मैं कितना हैंडसम लगता हूँ। "

मैंने उस तस्वीर को फ़्रेम करा कर उन्हें भेंट कर दिया। जिसे उन्होंने उस दीवार पर टांग दिया जहाँ हम शतरंज खेलते थे।

अपनी जवानी के दिनों में हमने कभी शतरंज नहीं खेला था। यह शौक जतिन दा को बाद में लगा था। उन्होंने मुझे भी खेलना सिखा दिया। शतरंज हमारे इस रिश्ते की दूसरी शुरुआत की एक मज़बूत कड़ी थी। रोज़ दोपहर ठीक चार बजे जतिन दा मेरे फ्लैट की घंटी बजाते थे। मैं कॉफ़ी तैयार रखता था। कॉफ़ी पीते हुए हम गपशप करते थे फिर उसके बाद जमती थी शतरंज की बाज़ी। जतिन दा बड़े उत्साह के साथ शतरंज खेलते थे। जब भी जतिन दा मुझे अपनी किसी चाल में फंसा लेते थे तो बहुत उत्साहित होकर कहते।

"अब बच कर दिखाओ तो जानूं।"

या जब कभी स्वयं मेरी किसी चाल का तोड़ निकालते तो ख़ुशी से उछल पड़ते।

"देखा ऐसे निकलते हैं चाल से।"

मुझे उनका यह उत्साह देख कर बहुत अच्छा लगता था।

परसों भी ठीक चार बजे उन्होंने फ्लैट की घंटी बजाई। हमने कॉफ़ी के साथ गपशप की फिर शतरंज खेलने बैठे। पिछली दो तीन बाजियां मैंने जीती थीं। जतिन दा ने पुरे उत्साह के साथ मुझे चुनौती दी।

"देखना आज की बाज़ी तो मेरे नाम होगी। "

हमारा खेल बहुत रोमांचक स्तिथि में था। मैं अपनी चाल सोंच ही रहा था कि मैंने देखा जतिन दा अपना सीना पकड़े हुए हैं। वे पसीने से तर थे। मैंने फ़ौरन उन्हें बिस्तर पर लिटाया और एम्बुलेंस को फोन किया। किंतु कोई फ़ायदा नहीं हुआ जतिन दा जा चुके थे।

अक्सर शतरंज खेलते हुए जतिन दा कुछ दार्शनिक भाव से कहते थे।

"ये जीवन भी शतरंज की बिसात है जिस पर हम सब नियति के साथ खेल रहे हैं। नियति अपने मोहरे इस प्रकार चलती है कि कभी कभी हम उसकी चाल में फँस कर रह जाते हैं। यदि उसकी चाल से बाहर निकल आते हैं तो खुश होते हैं यदि न निकल सके तो दुःखी होते हैं। ऐसे ही सुख और दुःख के बीच जीवन चलता रहता है। फिर एक दिन नियति अचानक ही हमारा खेल समाप्त कर देती है और हम यूं ही बाज़ी को छोड़कर चले जाते हैं। "

जतिन दा को भी नियति ने मात दे दी थी। किंतु जीवन को सम्पूर्णता से जीने की सीख जो उन्होंने मुझे दी थी वो मेरी आखिरी सांस तक मेरे साथ रहेगी। जीवन में एक बार फिर मैं तन्हा हो गया हूँ किंतु इस बार टूटूंगा नहीं। मैंने दीवार पर लटके जतिन दा के चित्र को देखा फिर अपना कैमरा लेकर निकल पड़ा जीवन के बहाव की तस्वीरें लेने के लिए।

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