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मैं और वो....

वो और मैं

कॉटेज सचमुच बहुत सुंदर थी। अब किराया अधिक होने की शिकायत नहीं थी। यह जगह मेरे अगले उपन्यास को लिखने के लिए आदर्श जगह थी। बहुत तलाश के बाद मुझे इंटरनेट के ज़रिए इस कॉटेज का पता चला था। कॉटेज के मालिक संजीव मसंद एक ब्रिटिश नागरिक थे। पिछले तीन सालों से इस कॉटेज में कोई नहीं रह रहा था। इसकी देखरेख की ज़िम्मेदारी संजीव मंसद ने अपने दोस्त गिरीश आहूजा को दे रखी थी। संजीव चाहते थे कि यह कॉटेज किराए पर दे दी जाए। इसका ज़िम्मा भी गिरीश आहूजा पर ही था।

मैं इंटरनेट पर किसी शांत पहाड़ी स्थान पर रहने की जगह तलाश रहा था। तब मुझे इस कॉटेज का विज्ञापन दिखा। विज्ञापन में संपर्क के लिए गिरीश आहूजा का मोबाइल नंबर व ईमेल दिया गया था। मैंने पहले उन्हें ईमेल भेज कर कॉटेज के बारे में जानकारी भेजने को कहा। गिरीश आहूजा ने कॉटेज के बारे में विस्तार से जानकारी देते हुए ईमेल भेजा। साथ में कॉटेज की कुछ तस्नीरें भी भेजीं। शर्त थी कि कॉटेज कम से कम तीन माह के लिए दी जाएगी और किराया पेशगी देना होगा।

हलांकि मुझे किराया अधिक लगा था पर कॉटेज सुंदर थी। यह एक छोटे से हिल स्टेशन पर थी। यह जगह पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र ना होने के कारण शांत थी। यहाँ मैं मन लगा कर लिख सकता था। सही कहूँ तो मैं लिखने के लिए शाति नहीं चाहता था। बल्कि मन की शांति की तलाश में यहाँ आया था।

दो महीने पहले ही मेरा मेरी गर्लफ्रेंड के साथ ब्रेकअप हुआ था। हमारा रिश्ता पाँच साल का था। जल्द ही हम शादी करने वाले थे। लेकिन तभी मैंने अपनी ज़िंदगी का अहम फैसला लिया जो रीना को पसंद नहीं आया। उसने अलग होना ही सही समझा।

मुझे बचपन से ही लिखने का शौक तो था पर कभी भी मैं स्कूल और कॉलेज की मैगज़ीन से आगे नहीं बढ़ा। मैं जिस परिवेश में पला था वहाँ पढ़ लिख कर एक अच्छी नौकरी करना सबसे सुरक्षित माना जाता था। अतः मैंने भी एमबीए करने के बाद एक मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी करना शुरू कर दिया। मेरी मेहनत और काबिलियत के कारण मैं तरक्की की सीढ़ियां चढ़ते हुए रीजनल मैनेजर से जनरल मैनेजर के पद पर आ गया।

मैं कंपनी के फाइनैंस विभाग में था। दिन भर मेरा वास्ता वित्तीय आंकड़ों से रहता था। लेकिन इसके बावजूद मेरे भीतर का लेखक अभी भी ज़िंदा था। जो बाहर आने को बेचैन था। पर काम के बोझ के कारण मैं जबरन उसे भीतर ही दबा रहा था। मैं अपनी इस कोशिश में बहुत हद तक कामयाब भी रहा था। मैं अपने भीतर के लेखक को पीछे कर पूरी तरह से जनरल मैनेजर की भूमिका में था। तभी एक दिन वॉट्सऐप पर मुझे एक वीडियो मिला। एक चालीस पैंतालीस साल के आदमी ने पीछे छूट गए अपने गाने के शौक को फिर से शुरू किया और अब सोशल मीडिया पर छा गया था। इस वीडियो ने मेरे भीतर बैठे लेखक को संजीवनी प्रदान कर दी। अब तो वह समय समय पर बाहर निकलने के लिए मुझसे झगड़ने लगा। अब मैं भी उसे दबाना नहीं चाहता था। मैंने तय कर लिया कि चाहे कितनी भी व्यस्तता हो मैं अपने भीतर छिपी लेखन प्रतिभा को दुनिया के सामने लाने की पूरी कोशिश करूँगा।

बहुत दिनों से एक कहानी मेरे विचारों में सांस ले रही थी। बस उसे शब्दों से सजा कर दुनिया के सामने पेश करना था। मुझे अपने लिए जो भी समय मिलता मैं उस कहानी को उपन्यास की शक्ल देने में लगा देता। दस माह की मेहनत के बाद मैंने अपने पहले उपन्यास दस्तक के ज़रिए साहित्य जगत में प्रदेश किया। एक ऑनलाइन पब्लिशिंग हॉउस ने इसका प्रकाशन किया। इस उपन्यास को पाठकों से अच्छा प्यार मिला। इससे उत्साहित होकर मैंने दूसरा उपन्यास लिखना शुरू किया। इस बार एक प्रकाशन ग्रुप ने मेरे उपन्यास का पेपरबैक संस्करण निकाला। इसे पाठकों द्वारा हाथों हाथ लिया गया।

लेखन के क्षेत्र में मिली सफलता ने मुझे उत्साह से भर दिया। अब मैं इस क्षेत्र में अपना एक मुकाम बनाना चाहता था। पिछले दो उपन्यास लिखते समय मुझ पर अपनी नौकरी का भी बोझ था। मैं पूरा ध्यान लिखने में नहीं लगा पा रहा था। फिर भी मेरे लेखन को पसंद किया गया था। अतः अब मैं चाहता था कि अपना पूरा ध्यान सिर्फ लिखने पर लगाऊं। मैंने नौकरी छोड़ने का फैसला किया।

यह फैसला मेरे लिए आसान नहीं था। ना ही इस फैसले पर पहुँचने की कोई जल्दी दिखाई। मैं यह समझता था कि नौकरी में एक नियमित आय मिलती रहेगी। नौकरी छोड़ कर लेखन के क्षेत्र में जाना जोखिम भरा है। पर जब तक स्वयं को स्थापित ना कर सकूं तब तक काम चलाने लायक जमा पूंजी मेरे पास थी। सबसे बड़ी बात खुद पर पूरा यकीन था। मैंने अपना मन पक्का कर फैसला रीना को बता दिया।

कुछ पल शांत रहने के बाद रीना ने मेरे फैसले पर अपनी राय दी।

"माफ करना पर मुझे यह फैसला समझदारी वाला नहीं लगा। क्या ज़रूरत है अच्छी खासी नौकरी छोड़ कर यह जोखिम उठाने की।"

"ज़रूरत है..मै अब अपने आप को एक लेखक के तौर पर स्थापित करना चाहता हूँ।"

"हाँ तो लिखो। तुमने दो उपन्यास लिखे हैं ना। आगे भी लिखो।"

"मैं चाहता हूँ कि अपना सारा ध्यान केवल लिखने में लगाऊं।"

रीना ने मेरी बात को अनसुना करते हुए कहा।

"देखो रूपेश तुम यह पागलपन छोड़ दो। हम जल्द शादी करने वाले हैं। इस समय तुम यह बेकार की बात सोंचने लगे।"

उसकी बात सुन कर मुझे धक्का लगा।

"तो तुम मेरे फैसले में मेरा साथ नहीं दोगी। तुम्हें मेरी काबिलियत पर यकीन नहीं है।"

रीना ने भी पूरी गंभीरता से जवाब दिया।

"मुझे एक सुरक्षित भविष्य चाहिए। जो तभी होगा जब तुम नौकरी ना छोड़ो।"

"तुम्हें लगता है कि मेरा फैसला सही नहीं है। मैं तुम्हें सुरक्षित भविष्य नहीं दे सकूंगा। तुम मुझ पर ज़पा भी भरोसा नहीं करती।"

"बात भरोसे की नहीं है रूपेश। पर यह जानते हुए कि सामने दलदल है मैं उसकी तरफ कदम नहीं बढ़ा सकती हूँ। मैं सही फैसला लेने में तुम्हारी मदद कर सकती हूँ। पर सब जानते हुए तुम्हारे साथ दलदल में नहीं कूद सकती हूँ।"

मैं उसके चेहरे की तरफ देख रहा था। उसने अपनी बात जारी रखते हुए कहा।

"मेरी यही सलाह है कि तुम यह फैसला बदल दो। बाकी तुम्हारी मर्ज़ी। सोंच कर अपना फैसला मुझे बता देना। ताकि मैं अपना फैसला कर सकूं।"

रीना अपनी बात कह कर चली गई। मैंने अपने निर्णय को दोबारा परखा। पर मेरा मन भी उसे बदलने को तैयार नहीं था। नतीजतन हमारा ब्रेकअप हो गया। कई दिन लगे मुझे इसके दुख से उबरने में। फिर सोंचा जिस मकसद के लिए अपना पाँच साल पुराना संबंध तोड़ा अब उसे अपने दुख में नज़रअंदाज़ करना ठीक नहीं है। मैं लिखने में मन लगाना चाहता था। इसके लिए उस माहौल से निकलना ज़रूरी था। इसलिए मैं इस हिल स्टेशन पर आ गया।

यह जगह सचमुच शांत और खूबसूरत थी। सुबह शाम मैं सैर पर जाता था। बाकी समय अपने उपन्यास को देता था। कुछ दिन मामला थोड़ा ढीला रहा फिर उपन्यास लेखन ने गति पकड़ ली। दोपहर में कभी कभी गिरीश आहूजा आकर मेरे साथ कुछ समय बिताता था। वह एक अच्छा इंसान था। उसके अपने सेबों के बाग थे। हम विभिन्न विषयों पर बात करते थे। पर एक दूसरे के निजी जीवन में बेवजह झांकने की कोशिश नहीं करते थे।

रोज़ शाम मैं पश्चिम वाली पहाड़ी पर जाकर बैठ जाता था। वहाँ बैठ कर डूबते सूरज को देखना अच्छा लगता था। वहाँ जाते मुझे करीब एक हफ्ता हो गया था। पर उस दिन मुझे वहाँ एक लड़की बैठी मिली। देखने में वह बेहद आकर्षक थी। बार बार मेरी नज़र उसकी तरफ ही जा रही थी। मेरा मन उससे बात करने का हो रहा था। मैंने हिम्मत कर पूँछा।

"मैं कई दिनों से यहाँ आ रहा हूँ। पर आपको नहीं देखा। आप शायद आज कल में ही यहाँ आई हैं।"

वह लड़की मेरी तरफ देख कर मुस्कुराई।

"मैं यहीं की रहने वाली हूँ। आप शायद बाहर से आए हैं।"

मुझे लगा कि वह भी बातचीत आगे बढ़ाना चाहती है। मैंने जवाब दिया।

"जी सही कहा आपने। मेरा नाम रूपेश है। मैं गुरुग्राम से आया हूँ। मैं एक लेखक हूँ। अपने नए उपन्यास के लिए इस खूबसूरत जगह पर आया हूँ ताकि शांति से लिख सकूं।"

"मुझे भी किताबें पढ़ने का बहुत शौक है।"

"चलिए तो मुझे एक पाठक मिल गया।"

यह सुन कर वह हंस दी। हमारे बीच और भी कुछ बातें हुईं। मैंने जानना चाहा कि वह कहाँ रहती है तो उसने बड़ी खूबसूरती से टाल दिया। उसके बारे में केवल एक ही बात पता चल सकी। उसका नाम शीतल था।

हम रोज़ ही उस पहाड़ी पर मिलने लगे। अब मुझे बेसब्री से शाम होने का इंतज़ार रहता था। उसके साथ बातें करने में मुझे बहुत अच्छा लगता था। रोज़ वह मुझसे पूंछती थी कि आज उपन्यास की कहानी कहाँ तक पहुँची। मैंने दिन भर में जो लिखा होता वह उसे सुनाता। सुन कर वह आवश्यक परामर्श देती थी। उसके सुझाव अक्सर सही होते थे। घर आकर मैं कहानी में उसके अनुसार सुधार कर लेता था।

हम दोनों के बीच कुछ अजीब था तो यही कि वह हमारे बीच एक दूरी बनाए रखने की कोशिश करती थी। ताकि मैं उसे छू ना सकूं। मुझे यह कुछ अजीब अवश्य लगता था। पर मै भी ऐसा कुछ नहीं करना चाहता था जिससे हमारी दोस्ती टूट जाए।

मुझे उसका साथ बहुत अच्छा लगता था। रिश्ते के टूटने से मेरे मन में जो अवसाद जमा हो गया था वह अब धीरे धीरे कम हो रहा था। एक दिन मैंने शीतल को अपने और रीना के बारे में बता कर पूंछा कि क्या मेरा फैसला सही था। उसने कुछ गंभीर होकर जवाब दिया।

"रूपेश बात यह नहीं है कि मैं तुम्हारे फैसले के बारे में क्या सोंचती हूँ। मायने रखता है कि तुमको क्या लगता है।"

"मुझे तो अपना फैसला सही लगा।"

"तो यह फैसला सही है। क्योंकी यह फैसला तुमने अपनी ज़िम्मेदारी पर लिया है। इसका जो परिणाम हो तुम अपने ऊपर लेने को तैयार हो। क्योंकी तुम्हें थुद पर यकीन है।"

उसकी बात सुन कर मुझे तसल्ली हुई। पर मेरे मन में अभी भी एक सवाल था।

"मेरा फैसला ठीक है तो रीना ने उसे स्वीकार क्यों नहीं किया।"

शीतल ने फिर उसी गंभीरता से जवाब दिया।

"देखने का नज़रिया है। तुम अपने दृष्टिकोंण से देख रहे हो। उसने अपने नज़रिए से देखा। उसके नज़रिए से वह भी सही है। हाँ मैं यह कहूंगी कि उसका तुम्हारा रिश्ता पाँच साल पुराना था। उसे तुम पर यकीन करना चाहिए था।"

शीतल की बात सुन कर मेरे मन में जो भी दुविधा थी खत्म हो गई। मेरा मन हल्का हो गया था।

मुझे शीतल से मिलते हुए लगभग डेढ़ महीना हो गया था। इस वक्त में मेरा उपन्यास आधे से अधिक पूरा हो चुका था। उसमें शीतल के सुझावों का बड़ा योगदान था। मैं उस पर पूरी तरह भरोसा करने लगा था। मेरे मन में जो होता था निसंकोच उससे कह देता था। मैंने अनुभव किया था कि उसके मन में भी कुछ बातें हैं। मैं चाहता था कि वह भी मुझसे उतना ही खुल कर बात करे। पर अपने बारे में वह कभी कुछ नहीं बताती थी। मैं उसके बारे में जानने को उत्सुक था।

अगली बार जब मैं शीतल से मिला तो मैंने उससे कहा।

"शीतल मैं तो हमेशा अपने दिल की हर बात तुमसे कह देता हूँ। पर तुम कभी मुझसे अपने दिल की बात नहीं करती हो। ना ही अपने बारे में कुछ बताती हो।"

मेरी बात सुन कर वह मुस्कुरा कर बोली।

"तुम मेरे बारे में जानना चाहते हो। समय आमे पर मैं तुम्हें सब कुछ बताऊंगी।"

"तो वह समय कब आएगा ?"

मेरी बात का जवाब उसने सिर्फ मुस्कुराहट से दिया। उसकी मुस्कुराहट में एक रहस्य था। मैं उस रहस्य के पार जाना चाहता था। दरअसल मैं मन ही मन उसकी ओर आकर्षित था। इसलिए चाहता था कि बात एकतरफा ना रहे। वह भी मुझ पर उतना ही यकीन करे जितना मैं उस पर करता हूँ। इतने दिनों से हम उस पहाड़ी पर ही मिल रहे थे। मुझे लगा कि यदि मैं उसे अपनी कॉटेज में बुलाऊं तो वहाँ शायद वह खुल कर बात करे। गिरीश कुछ दिनों के लिए बाहर गया था। अतः दोपहर में उसके आने की संभावना नहीं थी। सही मौका जान कर मैंने उसे अपनी कॉटेज में आने का नियंत्रण दिया।

"चलो फिर मैं उस वक्त का इंतज़ार करता हूँ। पर तुम मेरे कॉटेज में तो आ सकती हो। कल साथ लंच करते हैं।"

मैं उसे कॉटेज का रास्ता बताने लगा तो उसने कहा कि वह यहाँ की हर चीज़ से वाकिफ़ है।

"मैं कल दोपहर आ जाऊंगी। पर लंच नहीं करूंगी। हम सिर्फ बातें करेंगे।"

"पर लंच क्यों नहीं। यकीन मानो मैं एक अच्छा कुक हूँ।"

"यूं समझ लो कि यह मेरी एक शर्त है।"

मैंने आगे कोई बहस नहीं की। मेरे लिए यही बहुत था कि वह मेरी कॉटेज में आने को तैयार थी।

अगले दिन में उसके आने की राह देख रहा था। मैंने सोंचा लंच ना सही फ्रूट सैलेड ही बना लूं। वह तो खा ही लेगी। मैं किचेन में फ्रूट सैलेड की तैयारी कर रहा था कि अचानक पीछे से आवाज़ आई।

"हैलो रूपेश...."

मैंने घूम कर देखा तो शीतल खड़ी थी।

"मैं अक्सर मेन डोर बंद करना भूल जाता हूँ।"

"मुझे फर्क नहीं पड़ता है। मैं तो बंद दरवाज़े के पार चली जाती हूँ।"

कह कर वह मुस्कुराई।

"अच्छा तब तो तुम बहुत काम की हो। मुझे कभी पैसों की तंगी हुई तो तुमसे मदद ले सकता हूँ। तुम बैंक के बंद दरवाज़े के पार जाकर चुपचाप पैसे निकाल लाना।"

अपनी बात कह कर मैं ज़ोर से हंस दिया।

"यहाँ क्या कर रहे थे। लंच के लिए तो मैंने मना किया था।"

"हाँ पर थोड़ा फ्रूट सैलेड तो खा सकती हो।"

"मैं कुछ खाऊंगी ना पिऊंगी।"

"लगता है आज तुम्हारा व्रत है।"

"ऐसा ही समझ लो..."

मैंने नैपकिन से हाथ पोंछे और उसे लेकर हॉल में आ गया।

"तो तुम मेरे बारे में जानना चाहते हो। आज मैं तुम्हें सब कुछ बताऊंगी।"

मैं उसके बारे में जानने को उत्सुक था। वह ना जाने किस चीज़ की तरफ ताकते हुए सोंचने लगी। जब उसने बोलना शुरू किया तो उसकी आवाज़ में दर्द झलक रहा था।

"मेरा पूरा नाम शीतल सेनगुप्ता है। मेरे पापा दार्जिलिंग में एक टी स्टेट के मालिक थे। मम्मी ओडिशी डांसर। उन दोनों में कभी नहीं बनी। लगभग रोज़ ही झगड़े होते थे। वो दोनों आपसी मनमुटाव में इस कदर उलझे रहते थे कि मेरी ओर ध्यान ही नहीं देते थे। मैं बिल्कुल अकेली थी। मेरे मन की सुनने वाला कोई नहीं था।"

शीतल ने मेरी तरफ देखा। उसकी आंखों में पीड़ा थी। उसने आगे कहना शुरू किया।

"मैं जब चौदह साल की थी उन दोनों का तलाक हो गया। मम्मी दूसरी शादी कर विदेश चली गईं। पापा ने खुद को शराब में डुबो दिया। मुझे बोर्डिंग स्कूल भेज दिया गया। वहाँ मैं और भी अधिक अकेली हो गई। मुझे पेंटिंग्स बनाना पसंद था। उनके ज़रिए मैं कैनवास पर अपने मन के भाव दर्शाती थी। कॉलेज के बाद मैंने अपनी पेंटिंग्स की प्रदर्शनी लगानी शुरू कर दी। लोग मेरी पेंटिंग्स को सराहते तो मुझे अच्छा लगता था। मन की उदासी कुछ कम हुई।"

वह कुछ देर रुकी। मैं बस शांत बैठा उसके मन की तकलीफ को महसूस करने का प्रयास कर रहा था।

"पापा के जाने के बाद उनका टी स्टेट और बाकी जायदाद मुझे मिल गई। मैं समझ नहीं पा रही थी कि उसका क्या करूं। मैंने टी स्टेट पापा के एक दोस्त को बेंच दिया। मेरे हाथ अच्छी खासी रकम लगी। मैंने सोंचा क्यों ना कुछ दिन किसी शांत जगह पर जाकर आराम से बिताऊं। मुझे इस जगह का पता चला तो मैं यहाँ आ गई। मैंने एक कॉटेज किराए पर ले लिया। इधर उधर घूमते हुए मैं यहाँ की खूबसूरती को अपने कैनवास पर उतारती थी।"

मैं शीतल की बात बड़े ध्यान से सुन रहा था। इतने दिनों में मैने महसूस किया था कि उसके दिल में कोई दर्द छिपा है। आज पहली बार वह अपना दिल मेरे सामने खोल रही थी।

"रूपेश मेरे पास दौलत थी। लोग मेरी पेंटिंग्स को पसंद करते थे। पर मैं भटक रही थी एक ऐसे इंसान की तलाश में जो मेरे दिल में झांक सके। वहाँ फैले अंधेरे को अपने प्यार की रौशनी से दूर कर सके। मेरी तलाश विप्लव पर खत्म हुई। वह टीवी सीरियल का निर्माता था। लंबी छुट्टियां बिताने यहाँ आया था। हम दोनों एक दूसरे के नज़दीक आ गए। वो दिन मेरे लिए सबसे अच्छे दिन थे। पहली बार मुझे कोई ऐसा मिला था जिसे मैं अपना कह सकती थी। विप्लव भी बात बात पर मेरे लिए अपने प्यार का इज़हार करता रहता था। इस तरह करीब एक महीना बीत गया। मेरे मन में अब अपना परिवार बसाने की इच्छा ने जन्म ले लिया था। मैंने विप्लव से शादी के बारे में बात की।"

शीतल एक बार फिर रुकी। मैं जानने को उत्सुक था कि विप्लव ने क्या कहा।

"अगले दिन जब मैं सो कर उठी तो विप्लव घर में नहीं था। मुझे उसके हाथ का लिखा खत मिला। उसमें लिखा था कि वह एक आज़ाद पंछी है। शादी के जाल में नहीं फंस सकता। तुम मुझे भूल जाओ।"

मेरे भी प्यार ने मुझे छोड़ दिया था। मैं शीतल की तकलीफ को महसूस कर रहा था।

"मेरे सपनों का संसार बसने से पहले उजड़ गया। मेरे दिल का अंधेरा और गहरा गया। कुछ दिन तो मैं घर से निकली ही नहीं। फिर धीरे खुद को संभाला। मैं रोज़ शाम उसी पहाड़ी पर जाकर बैठ जाती और ढलते सूरज को देखती रहती थी।"

मैंने उसे सांत्वना देने के उद्देश्य से कहा।

"मैं तुम्हारा दुख समझ सकता हूँ। मैंने भी ऐसा ही दर्द झेला है।"

वह कुछ नहीं बोली। मैंने आगे कहा।

"मैं तुमसे अपने दिल की बात कहना चाहता था। इसलिए तुम्हें यहाँ बुलाया था। मैं तुम्हें प्यार करता हूँ। यकीन दिलाता हूँ कि मैं तुम्हारे दिल के हर कोने को अपने प्यार से रौशन कर दूंगा। क्या तुम मेरे साथ अपने सपनों का संसार बसाओगी ?"

मैं शीतल के फैसले की प्रतीक्षा करने लगा। उसने मेरी तरफ देख कर कहा।

"जो तुम चाहते हो वह नहीं हो सकता है।"

उसका फैसला सुन कर मुझे धक्का लगा। पर मैं समझ सकता था कि उसके लिए एकदम से किसी पर यकीन करना आसान नहीं है। मैंने अपना पक्ष रखा।

"देखो मैं जानता हूँ कि तुम्हारा दिल दुखा है। पर मैं एकदम से कोई निर्णय करने को नहीं कह रहा हूँ। तुम आराम से सोंच कर फैसला करो।"

मेरी बात सुन कर शीतल बोली।

"बात समय की नहीं है। मैं जानती हूँ कि तुम एक सच्चे दिल के इंसान हो। जो कह रहे हो वही करोगे। पर मेरी और तुम्हारी दुनिया अलग है।"

शीतल की यह बात सुन कर मैं आश्चर्य में पड़ गया।

"हम दोनों की दुनिया अलग है इसका क्या मतलब हुआ ?"

शीतल फिर रहस्यमई तरीके से मुस्कुराई।

"समझाती हूँ....मैंने तुम्हें बताया था कि मैं रोज़ शाम पहाड़ी पर जाकर बैठती थी। एक दिन में पहाड़ी पर बैठी थी। तभी मुझे बकरी के बच्चे की आवाज़ सुनाई पड़ी। वह किनारे पर था और डरा हुआ था। मैंने सोंचा कि उसे अपनी गोद में उठा लूं। नहीं तो वह नीचे गिर सकता है। मैं उसे बचाने गई। पर संतुलन बिगड़ जाने के कारण खुद नीचे गिर गई।"

मैं फटी फटी आंखों से उसे देख रहा था।

"सही समझा तुमने...मेन डोर बंद ही था। मैं दरवाज़े के पार निकल कर अंदर आ गई। इसलिए मैं कोशिश करती थी कि तुम मुझे छू ना सको। मैने कुछ खाने पीने से मना कर दिया क्योंकी मुझे इसकी ज़रूरत ही नहीं।"

मैं अजीब सी स्थति में था। मन में भय और आश्चर्य का मिला जुला भाव था। मेरी स्थिति को समझ कर शीतल ने कहा।

"रूपेश तुम्हें मुझसे डरने की ज़रूरत नहीं। मैंने तुममें एक सच्चा दोस्त देखा है। मेरे दिल को बहुत शांति मिली है। शायद मेरी भटकती रूह को भी शांति मिल जाए। मैं बस यही चाहूंगी कि तुम सदैव खुश रहो।"

शीतल मेरे सामने से अचानक गायब हो गई। मैं हतप्रद सा बैठा था।

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