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मैं कौन हूँ भाग २

काम

वासना नहीं है,

वह तो है

प्रकृति और जीवन चक्र की

स्वाभाविक प्रक्रिया,

कामुकता वासना हो सकती है।

काम है प्यार के पौधे के लिये

उर्वरा मृदा।

काम है सृष्टि में

सृजन का आधार।

इससे हमें प्राप्त होता है

हमारे अस्तित्व का आधार।

काम के प्रति समर्पित रहो

वह भौतिक सुख और

जीवन का सत्य है।

कामुकता से दूर रहो,

वह बनती है

विध्वंस का आधार

और व्यक्ति को करती है

दिग्भ्रमित।

यह सब सोचते-सोचते ही राकेश जाने कब सो गया। सुबह सूर्योदय से पूर्व ही राकेश तैयार हो चुका था। पल्लवी अपने पिता के निर्देशानुसार राकेश को बद्रीनाथजी के दर्शन कराने ले जा रही थी। उसके पिता को आर्थोराइटिस था। वे साथ में जाने से असमर्थ थे। जिस समय वे घर से निकले उस समय सूर्योदय में कुछ कसर थी। पहाड़ों के पीछे से कुछ रौशनी आने लगी थी। वे पैदल चले जा रहे थे। राकेश के पैरों के साथ ही उसके विचारों का सिलसिला भी चल रहा था।

सूर्योदय हो रहा है, और सत्य का प्रकाश विचारों की किरणें बनकर सभी दिशाओं में फैल रहा है। हर ओर कैसी आनन्ददायी शान्ति व्याप्त है। यह शान्ति सभी को समान रुप से प्राप्त होने वाला प्रकृति का उपहार है जो उसे सृजन की दिशा में प्रेरित कर रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि तमसो मा ज्योतिर्गमय के रुप में दिन का शुभारम्भ हो रहा है। ऐसे ही समय में हमारा दिल और दिमाग परमात्मा की कृपा का अनुभव करता है। यही सब सोचते-सोचते वे मन्दिर पहुँच जाते हैं। पल्लवी आपनी स्वाभाविक लज्जा के कारण मौन थी तो राकेश अपने विचारों में खोया हुआ मौन था। मन्दिर आया तो जैसे दोनों की चेतना जागृत हो गई।

पूजा के उपरान्त घर वापिस आते समय राकेश और पल्लवी के बीच सहज स्वभाविक बातचीत होती है। पल्लवी के बातचीत के सलीके, उसकी समझ और उसके विचारों से राकेश बहुत प्रभावित होता है। घर पर आकर पल्लवी अपने प्रतिदिन के कामों में लग जाती है। राकेश उसके पिता के पास जाकर बैठ जाता है। उनके बीच चर्चाओं का सिलसिला चल पड़ता है। उसके पिता राकेश को बतलाते हैं कि किस तरह चीन के आक्रमण के समय चीनी सेनाएं बद्रीनाथ के करीब तक पहुँच गईं थीं। उस युद्ध के शहीदों की स्मृति में बना स्मारक आज भी उनकी याद ताजा कर रहा है। वे उसे भगवान बद्रीनाथ जी का पूरा इतिहास भी बतलाते हैं। इसी प्रकार विभिन्न विषयों पर बातचीत करते-करते ही भोजन भी तैयार हो चुका था। भोजन बहुत स्वादिष्ट था। राकेश पल्लवी के पाक-कौशल से भी प्रभावित होता है। वह उसे इतना स्वादिष्ट भोजन कराने के लिये धन्यवाद भी देता है। भोजन के बाद राकेश उसके पिता से अनुमति लेकर घूमने निकल पड़ता है। वह शहीदों के स्मारक पर जाता है। वहाँ कुछ देर रूकने के बाद वह आसपास के प्राकृतिक सौन्दर्य को देखने के लिये घूमता रहता है। शाम होने लगती है तो वह पल्लवी के घर वापिस आता है।

जब वह वापिस आता है तो पल्लवी के पिता राकेश को देखकर बोल पड़े- बेटा! तुम बहुत भाग्यशाली हो। तुम जिनकी प्रतीक्षा कर रहे थे वे आज ही आ गये। तुम्हें अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। राकेश ने देखा कि उनके पास ही एक सन्यासी बैठे हुए हैं। उनके सारे केश ऐसे श्वेत हैं जैसे किसी ने उन्हें उजले कपास से बनाया हो। इकहरी और दीर्घ काया है। मुख पर लालिमा युक्त तेज है। उनकी आँखों में सम्मोहन है। राकेश ने आगे बढ़कर उनको शीष रखकर प्रणाम किया और वहीं पास में पालथी मारकर बैठ गया। पल्लवी के पिता ने उन महात्मा को राकेश का परिचय दिया और उसके बद्रीनाथ पहुँचने की वृत्तान्त बतलाया। वे मौन होकर शान्त भाव से राकेश की ओर देखते रहे। बात समाप्त होने के बाद वे कुछ देर मौन रहकर बोले- बेटा! तुम्हारे मन में जो प्रश्न है वह बहुत महत्वपूर्ण है मुझे आश्चर्य है कि उसके समाधान के लिये तुम इतनी दूर तक आये हो। मैं अगर संक्षिप्त उत्तर दूँ तो बस इतना समझ लो कि ईष्वर ने इस सृष्टि का सृजन किया है और मानव उसकी सर्वश्रेष्ठ कृति है। हम, तुम और सब उसकी सृष्टि की अनवरतता के हेतु हैं।

महात्मा जी का उत्तर सुनकर राकेश को जैसे मन चाहा वर मिल गया हो। उसके मन की सारी ऊहापोह समाप्त होकर उसके चेहरे पर संतुष्टि के भाव झलकने लगे। वह प्रसन्न हो गया था। उसके बाद उनके बीच वार्तालाप चलता रहा। वे सभी तन्मय थे। उनका ध्यान तब टूटा जब पल्लवी ने आकर भोजन तैयार होने की सूचना दी।

अगले दिन सुबह दरवाजे पर दस्तक हुई। पल्लवी ने दरवाजा खोला तो सामने एक दम्पति खड़े थे। उन्होंने उससे कहा कि वे राकेश के माता-पिता हैं। राकेश क्या वहीं ठहरा हुआ है? पल्लवी ने सहमति व्यक्त करते हुए उनका अभिवादन किया और उन्हें भीतर अपने पिता के पास ले गई। उस समय उसके पिता महात्मा जी के साथ ही थे, राकेश भी वहीं था। राकेश जैसे ही अपने माता-पिता को देखता है वह सुखद आश्चर्य से भर उठता है और आगे बढ़कर उनके चरण स्पर्श करता है। एक आत्मीय प्रसन्नता का वातावरण पूरे कक्ष में छा जाता है। आपस में परिचय के उपरान्त सन्यासी जी उनसे कहते हैं आप लोग दूर से आये हैं। थोड़ा विश्राम आदि कर लीजिये मैं भी जिस प्रयोजन से आया हूँ वह कार्य सम्पन्न कर लूँ। फिर संध्याकाल में जब बैठेंगे तो चर्चा होगी।

महात्मा जी राकेश को साथ लेकर चले जाते हैं। पल्लवी के पिता और राकेश के माता-पिता उसी कमरे में बैठकर बातें करने लगते हैं। पल्लवी के पिता ने उनसे कहा-

आप ने क्यों कष्ट किया। आपका बेटा तो इतना समझदार है। महात्मा जी उसकी उस जिज्ञासा को शान्त कर चुके हैं जिसके कारण वह यहाँ आया था। अब तो वह घर वापिस ही आने वाला था।

हम तो यह सोचकर चले आये कि हमें भी बद्रीनाथ जी के दर्शन हो जाएंगे। हमारे मन में आपसे मिलने की भी इच्छा थी। आपने उसे परदेश में सहारा दिया है, हम लोगों को उसका समाचार देकर हमारी चिन्ता को दूर किया और महात्मा जी से मिलवाकर राकेश को सच्चा रास्ता भी दिखलाया है। इसीलिये हमने सोचा कि हम स्वयं आकर आपके प्रति अपना आभार जताएं।

आपका आना तो हमारे लिये सौभाग्य की बात है। लेकिन आपका सामान कहाँ है?

हम पास ही के गेस्ट हाउस में ठहरे हैं?

घर होते हुए भी आप गेस्ट हाउस में ठहरें यह तो अच्छा नहीं लगा। उन्होंने पल्लवी की ओर उन्मुख होते हुए उसे नौकर के साथ जाकर समान ले आने के लिये कहकर सामान बुलवा लिया।

महात्मा जी का बद्रीनाथ जी में भी आश्रम था। वे ठहरते तो इनके यहाँ थे किन्तु लोगों से अपने उसी पुराने छोटे से आश्रम में मिला करते थे। वहां वे गोमुख जाने के पहले रहते थे। वे राकेश को लेकर उसी आश्रम में गये थे। वहाँ जब वे और राकेश एकान्त में बैठे थे उस समय महात्मा जी ने उससे कहा- प्रभु ने इस सृष्टि में वैभव व प्रसन्नता पूर्वक मानव जीवन बिताने हेतु हमें जन्म दिया है। हमारा जीवन कैसा हो? हमारे लक्ष्यों का निर्धारण हमें स्वयं इस प्रकार करना चाहिए कि उससे राष्ट्र और समाज लाभान्वित हो। भाग्य व समय एक दूसरे के साथ चलते हैं। वे कभी भी एक दूसरे के विपरीत नहीं होते। मानव जीवन इसके परिणामों को प्रसन्नता और शोक के रुप में प्राप्त करता है। यही हमारे जीवन का सत्य है।

इस दृष्टि से देखा जाए तो इस समय तुम्हें गूढ़ दार्शनिक विषयों की अपेक्षा जीवन के व्यावहारिक विषयों पर अपने को एकाग्र करना चाहिए। पहले उस संसार को समझ लो जिसमें रह रहे हो फिर उस संसार को समझने का प्रयास करना जो हमारी दृष्टि से परे एक अलौकिक सृष्टि है।

राकेश उनकी बातों को स्वीकार करते हुए उन्हें आश्वस्त करता है कि वह पहले अपना अध्ययन पूरा करेगा। अपने परिवार, समाज और देश के लिये समर्पित रहेगा। वह इतना कहते हुए स्वामी जी के चरणों में अपना सिर रख देता है। स्वामी जी स्नेह पूर्वक उसके सिर पर हाथ रखकर उसे सुखी जीवन और सफलता का आशीर्वाद देते हैं।

उधर पल्लवी राकेश के माता-पिता को बद्रीनाथ जी के दर्षन कराने ले जाती है। वहाँ से लौटकर भोजन के उपरान्त राकेश और पल्लवी के पिता साथ-साथ बातें करते हुए विश्राम करते हैं तथा पल्लवी राकेश की माँ को ले जाकर बद्रीनाथ धाम का बाजार घुमाती है।

संध्या हो रही थी, पल्लवी अपने दैनिक कार्यों में व्यस्त थी तभी राकेश की माँ और उसके पिता जी को एकान्त मिला। राकेश की माँ ने उनसे पल्लवी के संबंध में चर्चा करते हुए उसके गुणों की तारीफ की। उसके पिता ने भी उसकी तारीफ की और उसे अपनी बहू बनाने का विचार व्यक्त किया। राकेश की माँ ने कहा- हमें राकेश से भी पूछ लेना चाहिए। सेठ निहालचंद ने अपनी सहमति देते हुए राकेश के मन की बात जानने का जिम्मा उसकी माँ को ही सौंप दिया।

स्वामी जी राकेश के साथ जब घर वापिस आये तो उसकी माँ ने राकेश को अलग ले जाकर अपने और पिता जी के विचारों से उसे अवगत कराते हुए उसकी मर्जी जानना चाही। राकेश ने कहा- माँ! मैंने तो इस प्रकार से सोचा ही नहीं है। फिर अभी मुझे अपनी पढ़ाई भी पूरी करना है। ऐसे में जैसा भी आप लोग उचित समझें मुझे स्वीकार है।

कुछ समय बाद जब सब लोग महात्मा जी के समक्ष बैठे थे तभी राकेश के पिता ने स्वामी जी से अपने मन की बात कही। स्वामी जी ने उनसे कहा- आचार-विचार की दृष्टि से दोनों की जोड़ी उत्तम है। मैं पल्लवी को बचपन से जानता हूँ। राकेश को भी आज और कल में जितना जान पाया हूँ उसके अनुसार कह सकता हूँ कि आपके मन में जो विचार आया है वह उत्तम है। लेकिन लोकाचार का तकाजा है कि आपने तो पल्लवी का घर-द्वार देख लिया किन्तु अभी उसके पिता ने कुछ भी नहीं देखा है। अच्छा होगा कि एक बार वे आपके घर जाएं और फिर उसके बाद ही आप दोनों इस रिश्ते को आगे बढ़ाएं। महात्मा जी की बात सभी को अच्छी लगी और सब इसके लिये सहमत हो गए। विदा होने के पूर्व महात्मा जी ने सेठ निहालचंद को एक रूद्राक्ष की माला और गोमुख से लाया हुआ गंगाजल आशीर्वाद स्वरुप दिया।

समय तेजी से गुजरता है। अगले वर्ष दोनों का विवाह बद्रीनाथ धाम में ही धूमधाम से सम्पन्न होता है। महात्मा जी आकर विवाह में दोनों को अपने आशीर्वाद देते हैं और उनके माता-पिता को एक सुन्दर-सुशील बहू के रुप में बेटी मिलने की बधाई देते हैं। उसी समय सेठ निहालचंद महात्मा जी सहित सभी के सामने राकेश से कहते हैं कि मैं कौन हूँ के उत्तर में तुम्हे पत्नी तो मिल गई लेकिन अब कहीं यह मत खोजने लगना कि ’’यह कौन है?’’ या ’’हम कौन हैं?’’