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अपनी अपनी मरीचिका - 1

अपनी अपनी मरीचिका

(राजस्थान साहित्य अकादमी के सर्वोच्च सम्मान मीरा पुरस्कार से समादृत उपन्यास)

भगवान अटलानी

(1)

शायद ही कोई ऐसा धंधा करने वाला दुकानदार होगा जिसे लोग कई नामों से पुकारते हों। उसे हेय दृष्टि से देखते हों। नाम सुनकर मुँह बिचका देते हों। लेकिन मेरे धंधे पर ये सब बातें लागू होती हैं। कबाड़ी, कबाड़िया, कबाड़े वाला, लौह-लंगड़़वाला, रद्‌दी वाला, न जाने कौन-कौन से नाम देते हैं लोग मुझे। किसी से कहिए कि अमुक का धंधा भीख माँगना है या अमुक चोरी करने का, जेब काटने का धंधा करता है। उसके होंठों पर मुसकराहट पसीने की बूंदों की तरह उभर आएगी। लेकिन छोटा धंधा करने वाले किसी हेय आदमी की तस्वीर शायद मेरे धंधे का नाम सुनकर ही उभरती है।

एक बात और। शायद ही कोई धंधा होगा, शायद क्या इस मामले में तो भरोसे के साथ कह सकता हूँ कि ऐसा कोई धंधा नहीं है इस धंधे के अलावा जिसके निहितार्थ हों। चतुर, हेरा-फेरी करने वाला व्यक्ति जो तेज तर्रार भी हो और जिसकी आस्था उल्टे-सीधे तरीकों से अपना मतलब निकालने में भी हो, रोजमर्रा की जिदगी में कबाड़ी या कबाड़िया कहलाता है। मेरे बेचने का माल कबाड़ कहलाता है और काम बिगड़ जाए तो लोग बेसाख्ता कह उठते हैं, सारा कबाड़़ा कर दिया ! कबाड़ करने, कबाड़ बनाने, कबाड़ होने का मतलब है, काम ऐसा बिगड़ा है कि उसे अब ठीक करना या सुधारना बहुत मुश्किल है। जबकि जो कबाड़ मैं बेचता हूँ उसका उपयोग करने वाले जानते हैं कि कई बार बाजार में किसी और दुकान पर वह चीज नहीं मिलती जिसकी उन्हें जरूरत है।

कोई पुरानी कार मिस्त्री के पास पड़ी है। उसके इंजन के काम में आने वाला कोई पुर्जा खराब है। मिस्त्री अपने शहर के बाजारों के अलावा अन्य शहरों, महानगरों के बाजारों में तलाश करता है लेकिन पुर्जा उसे नहीं मिलता। आखिर थक-हारकर मेरे पास आता है। ढ़ूंढ़ने में समय ज़रूर लगाना पड़ता है, मगर पुर्जा उसे मिल जाता है। थोड़ी-बहुत ठोका-पीटी, कुछ कतर-ब्योंत, वेल्डिंग करके किसी गले हुए टुकड़े की मरम्मत कराने की जरूरत भले ही पड़़ जाए मगर उस पुर्जे को इस्तेमाल करके वह इंजन चालू करता है। पुरानी कार फिर दौड़ने की स्थिति में आ जाती है। हो सकता है वह कार सत्तर, अस्सी या सौ साल पुरानी हो और दौड़ता पाकर उसका मालिक विटेंज कार रैली में शामिल होने का फैसला कर ले। हो सकता है, इनाम भी जीत लाए।

लेकिन इतना सब कैसे संभव हुआ? मेरे कारण ही न? उसी कबाड़ी, कबाड़िए या कबाड़़े वाले के कारण जिसके व्यवसाय को हेय दृष्टि से देखा जाता है, संभव हुआ यह सब। कबाड़, जिसे मुहावरे के रूप में बेकार हो गई चीज की संज्ञा मिलती है, समझ, दिमाग और अनुभव वाले आदमी के लिए सोना बन जाता है। मेरे लोग गली-मौहल्लों से जो कुछ खरीदकर लाते हैं, उसे बेचा ही इसलिए जाता है क्योंकि वह उपयोगी नहीं रहा है। फ्यूज हो चुके बल्ब, तीन टाँग का स्टूल या कुरसी या मेज़, साइकल या स्कूटर या कार के टायर-ट्‌यूब, जंग खाया हुआ स्टोव, पीपे, बोतलें, प्लास्टिक की टूटी हुई बाल्टियाँ, टूटे हुए मग, साइकल, स्कूटर या कार के बेकार करार दिए गए पुर्जे, अखबार, पत्रिकाएं, पुरानी बेकार महसूस होने वाली किताबें, क्या क्या गिनाया जाए? किसी का रेफ्रिजरेटर खराब हो गया। हजार-दो हजार रुपए लेकर मिस्त्री ठीक कर गया। पंद्रह-बीस दिन चला, फिर बंद हो गया। तुरंत मेरी याद आती है।

सिलाई मशीन, मिक्सी, पंखा, पुराने होने पर उपयोगिता विहीन सामान को निकालने के लिए सबको मेरी जरूरत पड़ती है। मोल-भाव करके, कम-ज्यादा जितना भी मैं उन्हें देता हूँ और कोई देने वाला नहीं होता। समझने वाला आदमी अपनी जरूरत के अनुसार छाँटकर चीजें ले जाता है। उनका इस्तेमाल करके चमत्कार करता है। दूसरों के लिए जो कबाड़ है उसे अपनी समझ और अनुभव के पारस पत्थर से रगड़़कर सोने में बदल देता है।

कभी-कभी मुझे लगता है कि कबाड़ और कबाड़ वाले को लेकर जो भ्रम लोगों ने पाले हुए हैं उन्हें दूर करने के लिए कुछ किया जाना चाहिए। फिर विचार आता है कि ये भ्रम बने रहने में ही मेरा फायदा है। लोकमानस में वही व्यक्ति कबाड़ी है जो येन-केन-प्रकारेण काम बनाने में विश्वास रखता है। किंतु कबाड़ का धंधा करने वाला व्यक्ति धोखेबाज या उल्टी-सीधी उठापटक करने वाला माना जाता है, ऐसा नहीं है। उसके धंधे को हेय दृष्टि से भले ही देखा जाता हो किंतु उसे बेईमान नहीं माना जाता। मोल-भाव करके वह झाड़़-झंखाड़ खरीदता है, अनिश्चित अवधि के लिए पैसा फंसाकर उसे अपने पास रखने का खतरा उठाता है तो मोल-भाव करके उसी झाड़-झंखाड़़ को बेचता भी है। हर धंधे की अपनी आवश्यकताएँ, अपनी मर्यादाएँ हैं। मोल-भाव इस धंधे की अहम्‌ जरूरत है। लोग भी समझते हैं। इसी समझ के अनुसार अपनी पुरानी कबाड़ हो गई चीजें बेचते हैं, और इसी समझ के अनुसार ज़रूरत पड़ने पर छाँटकर चीजें खरीदते हैं। मोल-भाव न उन्हें पहले अखरता है और न बाद में बुरा लगता है। लेकिन सच कहा जाए तो मैं पुरानी चीजों का डिपार्टमेंटल स्टोर चलाता हूँ। पुश्तैनी धंधा है। बड़े-बुजुर्गों ने अपने तरीके से चलाया। जो आया, ढेर में शामिल होता गया वाली बात मैं नहीं करता। पढा-लिखा हूँ। किताबें पढने का शौक है। इस धंधे में नहीं आता तो या किताबें लिखता या किताबें बेचता। सलीका पसंद हूँ। जगह काफी बड़ी है। उसे अलग-अलग हिस्सों में बाँट रखा है। लोहा, लकड़ी, कल-पुर्जे, फर्नीचर, रबड़़़-प्लास्टिक, सजावटी चीजें, अखबारों की रद्‌दी, मतलब कि अलग-अलग विभागों में सामान बँटा हुआ है। लेन-देन के लिए एक आदमी रखा हुआ है। है तो वह पीेर-बावर्ची-भिश्ती सब कुछ, मगर मैं उसे मैनेजर मानता हूँ। मैं सिर्फ पैसे का लेन-देन करता हूँ, किसी जरूरी ग्राहक से निपटना हो तो उससे दो-दो हाथ करता हूँ या फिर मसनद लगाकर अधलेटा सा होकर पुरानी अखबारों, किताबों, पत्रिकाओं को देखता-पलटता-पढ़ता रहता हूँ।

गली-मोहल्ले में फेरी लगाकर बोरी, साइकल या ठेली पर कबाड़ खरीदकर लड़के-लड़कियाँ, मर्द-औरतें मेरी दुकान पर लाते हैं। बोतलों, डिब्बों, अँगरेजी- हिंदी-दूसरी भाषाओं की अखबारों, पत्रिकाओं, किताबों, पीपों, बोरियों, कट्‌टों और इसी तरह की कुछ चीजों के बाजार-भाव हम लोगों को मालूम होते हैं। लाने वाले ने चाहे जिस भाव में खरीदा हो, हमें उससे मतलब नहीं होता। बाजार-भाव के अनुसार चीजों की खरीद के दाम हमारे यहां तय होते हैं। फुलकारी, मेरा मैनेजर लेन-देन तय करके हाँका लगाता है और मैं भुगतान कर देता हूँ। नकद भुगतान, बिना हील-हुज्जत या सुबह-शाम का हवाला दिए। जिन चीजों के दाम तय नहीं होते, उनके लिए फुलकारी को थोड़ी मगजपच्ची करनी पड़़ती है। मगर ऐसे मामलों को भी वही निपटा देता है। कभी ज्यादा नौबत आई तो भले ही मुझे दखलअंदाजी करनी पड़े वरना आम तौर पर ये बातें मुझ तक नहीं आती हैं। हाँ, ऐसी चीजों के बारे में फुलकारी खरीदने से पहले या खरीदने के बाद मुझसे बात जरूर कर लेता है। यह इसलिए जरूरी है क्योंकि ये चीजें बेचते समय ग्राहक का सामना कई बार मुझे करना पड़ता है। पेशेवर फेरी लगाने वाले आम तौर पर दोपहर के बाद सामान लेकर आते हैं। वैसे यह सिलसिला दिन-भर चलता रहता है। कुछ लोग अपना कबाड़ बेचने सीधे चले आते हैं। खासतौर से पुरानी अखबारें, पत्रिकाएँ और किताबें लेकर कई लोग खुद ही दुकान पर आते हैं। उन्हें संदेह होता है कि फेरी वाले कम तोलते हैं। दुकान पर आकर तोल और मोल दोनों के बारे में उन्हें फायदा ही होता है।

कुछ कंपनियाँ, सरकारी विभाग, सरकारी और गैर-सरकारी कारखाने, मोटर गैराज टेंडर लेकर या बोली लगाकर अपना कबाड़ बेचते हैं। टेंडर भरने और बोली लगाने के लिए मैं ही जाता हूँ। ये काम एक तो सीधे-सादे तरीकों से हो नहीं पाते और दूसरे इनके लिए लागत भी ज्यादा करनी पड़़ती है। टेंडर या बोली बड़ी होती है तो कभी-कभी हम दो-तीन कबाड़़ वाले मिलकर सौदा करते हैं। मिल-बाँटकर भागीदारी तय करके पैसा लगाते हैं और फिर माल को अपनी-अपनी लागत के अनुसार बाँट लेते हैं। दूसरे धंधों में एक व्यापारी दूसरे का गला काटने का मौका तलाश करता रहता है मगर हमारे धंधे में या तो भाईचारा है या फिर दुआ-सलाम है। किसी की किसी से दुश्मनी नहीं है। जिनमें भाईचारा होता है वे तो अपने पास न होने की हालत में कई बार ग्राहक को यहाँ तक बता देते हैं कि जो चीज आपको चाहिए वह अमुक कबाड़़ वाले के पास मिल जाएगी।

कई चीजें जो हमारे पास आती हैं, सप्ताह में एक बार कंपनी या फैक्टरी का आदमी आकर ले जाता है। बोरियाँ, कट्‌टे पचास और सौ के बंड़ल बनाकर बारदाने वालों को दे देते हैं। अखबारों, पत्रिकाओं, किताबों की फुटकर खपत कागज की थैलियाँ बनाने वालों में होती है लेकिन इनकी बड़़े पैमाने पर खरीद कागज की मिलें करती हैं। बोतलें, प्लास्टिक और रबड़़ का कबाड़़ खरीदने के लिए कारखानों, कंपनियों के एजेंट होते हैं। कहीं से पैसा एक हफ्ते और कहीं से एक महीने की मियाद में मिलता है। हमारे पास कबाड़ पहुँचने और हमसे कबाड़ खरीदने का एक तयशुदा, लगा-बँधा तरीका है। जितना रुपया धंधे में लगा हुआ है, वह घूमता रहता है। दाल-रोटी निकलती रहती है। ज्यादा मारा-मारी, रोना-धोना, चिंता-फिक्र, तेजी-मंदी का तनाव नहीं है। फुलकारी के कारण मैं तो सचमुच शहंशाह हूँ। हाय-तौबा फुलकारी करता रहता है, उसका मीठा फ़ल मैं खाता हूँ। कहने को फुलकारी भी यही कहता है कि मैं गुत्थियाँ न सुलझाऊं तो यह धंधा चलाना मुहाल हो जाए। मगर ये गुत्थियां हर वक्त तो सुलझानी नहीं पड़़तीं। हर वक्त फुलकारी को मुँह देना पड़़ता है। फुलकारी नहीं होता तो मसनद और किताबें सब छूट जाती। दूसरे कबाड़़ वालों की जो हालत देखता रहता हूँ वही मेरी भी होती।

अखबारों, पत्रिकाओं, किताबों की जो रद्‌दी दुकान पर आती है, दिन में एक बार उस पर नजर जरूर डालता हूँ। पढने के लिए जो कुछ ठीक लगता है, निकाल लेता हूँ। चार-छः दिन में पढकर उसे फिर रद्‌दी के हवाले कर देता हूँ। हालाँकि कई बार इतनी कीमती और नायाब किताबें, हस्तलिखित पांड़ुलिपियाँ, पच्चीस-तीस साल पुरानी पत्रिकाएँ आ जाती हैं कि उन्हें सहेजकर रखने की इच्छा हो जाती है। मगर मैं जानता हूँ कि पढने के लिए मिलने वाली किताबों का सिलसिला और धंधे में लगने वाला समय किसी पढी हुई किताब को दोबारा पढने का मौका मुझे नहीं देगा। इसलिए किसी किताब, अखबार या पत्रिका को सँभालकर रखने का मोह मैंने कभी नहीं पाला। हां, कभी हस्तलिखित पांड़ुलिपि मिल जाती है तो उसे ज़रूर रखता हूँ, लेकिन वह भी धंधे के लिहाज से। पुस्तकालय, संग्रहालय, पुरातत्व वाले या शोधार्थी कई बार बड़ी कीमत देकर पांड़ुलिपियाँ खरीद लेते हैं।

अपने धंधे की बदौलत बिना पैसा खर्च किए जितनी और जैसी किताबें पढने का मौका मिलता है वैसा मोका किसी दूसरे धंधे में बिलकुल नहीं मिलता। किताबें बेचने के धंधे में भी नहीं। वहाँ किताबेंं होती हैं, लेकिन उन्हें पढने की फुरसत नहीं मिलती। पुस्तकालय में नौकरी करके ज़रूर मनचाही किताबें पढी जा सकती थीं किंतु वह नौकरी होती, धंधा नहीं। शायद ही कोई लेखक होगा जिसका साहित्य की दुनिया में नाम हो और मैंने उसे न पढा हो। टालस्टाय, चेखव से लेकर हेर्मिग्वे और उधर शेक्सपीयर से लेकर होमर, डांटे तक विदेशी लेखकों की सभी मशहूर किताबेंं मैंने पढ ली हैं। अपने देश के भी रवींद्रनाथ टेगौर, शरतचंद्र, प्रेमचंद, यशपाल, अज्ञेय किसे नहीं पढा है मैंने? बस पुस्तकों के पीछे धंधा खराब नहीं करता हूँ। तभी पढता हूँ जब फुरसत में होता हूँ और फुलकारी की बदौलत फुरसत मुझे खूब मिल जाती है। धंधे की माँग हो तो चलते वाक्य को पूरा पढ़ने का लालच भी नहीं करता हूँ। जहाँ का तहाँ छोड़कर, पूरी तसल्ली से, पूरा मन लगाकर वह काम करता हूँ। इस मामले में मैं बिजली का बटन दबाने जितना समय लेता हूँ। आने वाले को लगता है कि मैं किताब केवल इसलिए पढ रहा था क्योंकि फुरसत में था और मुझे वक्त गुजारना था। कोई काम होता तो जरूर मैं उसी को कर रहा होता।

यों तो पढने के लिए मुझे हमेशा कुछ-न-कुछ मिलता है, मगर ईद या दीपावली से पहले घरों में जब सफाई और सफेदी होती है, कई अनूठी किताबें आ जाती हैं। जो लोग किताबें सहेज-सँभालकर रखते हैं, सफाई के दौरान घर-परिवार की तरफ से एक खास तरह के दबाव में होते हैं। उस दबाव के कारण किताबों, कागज-पत्रों की छंटाई होती है। जरूरी और गैर-जरूरी के हिसाब से गैर-जरूरी महसूस होने वाली किताबे छंटकर रद्‌दी में बिक जाती हैं।

क्योंकि ज़रूरी और गैर-ज़रूरी तय करने के लिए कोई पैमाना नहीं होता, इसलिए उस समय जैसी मनःस्थिति हुई, उसके अनुसार छंटाई होती है। इन सब बातों का फायदा मुझे मिलता है। धंधे के हिसाब से तो मिलता ही है, मनचाही किताबों के हिसाब से भी मिलता है। जो किताबें साल के उन महीनों में मिलती हैं, मेरी किताबें पढने की भूख का ज्यादातर हिस्सा उनसे ही पूरा होता है। हमेशा थोड़़ा-बहुत जो कुछ मिलता है उसे इसमें जोड़़कर मेरी सालभर की जरूरत पूरी हो जाती है।

ठेकों से जो चीजें मिलती हैं उनमें सबसे ज्यादा रुचिपूर्ण मुझे परीक्षाओं की उत्तर-पुस्तिकाएं लगती हैं। उत्तर-पुस्तिकाएं बोर्ड की हों या विश्वविद्यालय की, उनमें से कुछ में ऐसी रोचक बातें लिखी होती हैं कि बस मजा आ जाता है। किसी में परीक्षक से उत्तीर्ण करने के लिए अनुनय होती है तो किसी में करुण चित्र खींचकर नौकरी की दृष्टि से परीक्षा उत्तीर्ण करने की आवश्यकता पर बल होता है। ऐसी बातें सचमुच लड़कियाँ लिखती हैं या लड़के, मैं नहीं जानता, मगर उत्तर-पुस्तिकाओं में इसी रूप में लिखी होती हैं गोया लड़की ही मुसीबत की मारी हुई है। ऐसे किसी किस्से को पढ़ पाने की चाह में कई-कई बार तो मैं सौ-सौ उत्तर-पुस्तिकाएं पलट जाता हूँ, तब जाकर कहीं एकाध इबारत मिलती है। लड़के बेचारे मानकर चलते होंगे कि परीक्षक पुरुष ही होगा, तभी तो लड़की के रूप में अनुरोध करते हैं। यदि पता लग जाए कि उत्तर-पुस्तिका परीक्षिका के पास जाएगी तो संभव है कि लिंग परिवर्तित करने की परेशानी उन्हें झेलनी न पड़़े। बहरहाल उन इबारतों का आनंद उठाने के लिए मैं तब तक प्रयत्नशील रहता हूँ जब तक सभी उत्तर-पुस्तिकाओं को नजर से निकाल नहीं लेता।

कभी-कभी सोचता हूँ कि परीक्षा की उत्तर-पुस्तिका जैसी नीरस सामग्री के पहाड़ में से सरसता के इन छोटे-छोटे टुकड़ों की तलाश में इतना समय मैं क्यों खराब करता हूँ? इतना समय पुस्तकें पढने में क्यों नहीं लगाता हूँ? ठीक-ठीक तो नहीं कह सकता किंतु शायद इसके पीछे किसी के व्यक्तिगत जीवन में ताक-झांक करके रस लेने की मानसिकता है। मुझे आत्मकथाएँ पढना अच्छा लगता है। कमलादास की 'माई स्टोरी', अमृता प्रीतम की ‘रसीदी टिकट' ने आत्मकथाओं में भी मुझे ज्यादा आनंद दिया। कारण फिर शायद वही है। इन किताबों ने मुझे कमलादास और अमृता प्रीतम की जिदगी के उन हिस्सों को देखने का मौका दिया जिन्हें आमतौर पर नहीं देखा जा सकता। व्यक्तिगत जीवन के अपारदर्शी परदे जब पारदर्शी बन जाते हैं तो आदमी के अंदर बैठे असंस्कृत जीव को अचछा लगता है। वर्जित फल को खाने की आदम की चाह और व्यक्तिगत जीवन में झांकने की आदमी की ललक में गहरा संबंध है। व्यक्तिगत जीवन के विपरीतगामी हिस्सों की झलक तो और भी ज्यादा रोमांचित करती है। तभी तो तृतीय पुरुष श्रोता को प्रशंसा की तुलना में निंदा अधिक आकर्षित करती है। उत्तर-पुस्तिकाओं में भले ही अच्छे अंक प्राप्त करने की नीयत से झूठ गढ़कर किस्सा लिखा गया हो किंतु व्यक्तिगत जीवन की जिन पर्तों को देखने का अवसर वह किस्सा देता है, उसमें भरपूर रोमांच होता है।

मुझे सबसे ज्यादा तलाश जिस चीज की रहती है, वह है डायरी। जीवन के अंतरंग क्षणों का ऐसा लेखा-जोखा सबके सामने जिसे कोई जुबान पर भी नहीं लाना चाहता। अखबारों, कागजों, किताबों और पत्रिकाओं के ढेर में किसी डायरी का मिलना वरदान की तरह है और वरदान आसानी से कहां मिलता है? सालों-साल इंतजार करने के बाद कभी एक डायरी हाथ लग जाए तो लगता है कि खजाना मिल गया। बिना किसी दुराव-छिपाव के, बिना किसी लाग-लपेट या परहेज के जो जैसा है वैसा ही डायरी में लिखा जाता है। डायरी पढते हुए मुझे तो ऐसा लगता है जैसे विचारों के जंगल में एक अलफ नंगा आदमी इस भरोसे के साथ घूम रहा है कि उसे कोई देख नहीं रहा और मैं पूरे होशो-हवास समेटे उसे बहुत करीब से देख रहा हूँ। डायरी लेखक पुरुष हों या महिलाएँ, जब तक संभव है, डायरी को जान से ज्यादा सँभालकर रखते हैं। उसकी पोशीदगी संदेहास्पद बन जाए तो रद्‌दी में बेचने की बात नहीं सोचते, उसे जला डालते हैं। रद्‌दीी में डायरी तब आती है जब रद्‌दी बेचने का काम उन्होंने किया हो जो निरक्षर हों या फिर गलती और असावधानी से डायरी रद्‌दी के ढेर में मिल गई हो। रद्‌दी बेचने के लिए पुस्तकें, कागज-पत्र छाँटने का काम निरक्षर लोगों को सौंपा नहीं जाता। असावधानी से डायरी रद्‌दी में चली जाए इतना लापरवाह आदमी शायद डायरी नहीं लिखेगा।

उत्तर-पुस्तिकाओं की इबारतें पढकर, लिखने वालों को देखने की इच्छा कभी नहीं हुई है। वैसे इस तरह की इच्छा पूरी करना संभव भी नहीं होता, किंतु मन में ऐसी इच्छा कभी जागी ही नहीं। अब तक मुझे कुल दो डायरियाँ मिली हैं। पहली डायरी के अंतिम पृष्ठ पर आत्महत्या से पहले की मनःस्थिति लिखी हुई थी। स्पष्ट था कि मृत्युपूर्व की गई घोषणा की तरह डायरी का यह पृष्ठ लिखने के बाद लेखक ने आत्महत्या कर ली होगी। दूसरी डायरी मुझे पिछले दिनों मिली थी। कल ही पढकर पूरा किया है उसे। पुस्तकों की तरह डायरी को दुकान पर बैठकर पढना संभव नहीं है। ग्राहकों से बातचीत के कारण डायरी पढने में पड़ने वाला व्यवधान मुझे उत्तेजित करता है। खुद को सँभालता हूँ, तब भी ग्राहक से मन लगाकर बातचीत नहीं कर पाता। इस डायरी को भी मैंने घर पर पढकर पूरा किया है। रोजमर्रा के काम रोककर, पत्नी की नाराजगी मोल लेकर और रात को देर-देर तक जागकर इसे पढा है मैंने।

पिछली बार तो डायरी-लेखक से मिलने, उसे देखने की उत्सुकता अंतिम पृष्ठ पढकर समाप्त हो गई थी, किंतु इस बार डायरी-लेखक से मुलाकात करने की इच्छा बहुत बलवती है। उसका सबसे बड़़ा कारण यह है कि वह व्यक्ति मेरा जाना-पहचाना है। डायरी का रद्‌दी में मिलना यह तो साबित करता ही है कि लेखक इसी शहर में रहता है या इसी शहर में रहता था। मन-मस्तिष्क और विचारों में उथल-पुथल मची हुई है। इस उथल-पुथल को किसी से बाँट नहीं सकता। अशांत मन को तसल्ली तभी मिल सकती है जब मैं डायरी-लेखक को ढूंढकर उससे मिल लूंगा। अनपेक्षित तरीके से ऐसे कुछ सवालों के जवाब इस डायरी में हैं जो मेरे लिए डायरी-लेखक से ज्यादा महत्त्वपूर्ण हैं। डायरी में आदमी कभी झूठ नहीं लिखता। अगर इसमें लिखा सब कुछ सच है तो जीवन की जिन गलियों को पार करते हुए मैं यहाँ तक पहुँचा हूँ, उनकी बनावट और बुनावट पर नए सिरे से सोचना पड़़ेगा। अगर इसमें लिखा सब कुछ पूरी तरह सच नहीं है तो डायरी-लेखक से मिलकर सच की जानकारी लेनी होगी। मैं अपने आपको संदेह का लाभ देना चाहता हूँ इसलिए डायरी-लेखक से मिलना चाहता हूँ। उसने सच लिखा है तो अपने किए हुए पाप का प्रायश्चित उसी से पूछना पड़ेगा। बीते समय को पकड़कर वापस ले आना किसी के वश में नहीं होता, मेरे वश में भी नहीं है। मगर बीते हुए समय में हुई भूल को धोने के लिए आज क्या किया जा सकता है, यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है। इस महत्त्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर नहीं मिला तो मृत्युपर्यंत एक दिन के लिए भी मैं चैन से नहीं सो पाऊँगा। इस डायरी को पढकर ये सवाल मेरे सामने क्यों उठ खड़़े हुए, यह बात कोई भी मुझसे पूछना चाहेगा। इसका जवाब मैं बाद में दूंगा। पहले चाहूँगा कि आप उस डायरी को शब्दशः पढ़ लें। डायरी लेखक का सोच, उसका चरित्र-गठन, जीवन-व्यवहार, भविष्य के सपनों के बारे में आप भी अपना मानस बना लें। इसके बाद जो बात हम करेंगे, वह प्रश्नोत्तर के रूप में न होकर विचार-विमर्श के रूप में होगी।

डायरी को आप उसी तिथि-क्रम में पढिए, जिसमें लिखी गई है। इतनी छूट मैं आपसे जरूर चाहूँगा कि डायरी की जिस तारीख को पढकर मुझे अपने विचारों में तूफान उठता महसूस हुआ, उस तारीख के बाद अपने अंदर की झंझावात का जिक्र कर दूं। मैं समझता हूँ ,यह रियायत आप मुझे देंगे।

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