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अपनी अपनी मरीचिका - 7

अपनी अपनी मरीचिका

(राजस्थान साहित्य अकादमी के सर्वोच्च सम्मान मीरा पुरस्कार से समादृत उपन्यास)

भगवान अटलानी

(7)

10 मई, 1951

आज प्रथम वर्ष एम.बी.बी.एस. की अंकतालिका लेकर आया। 72 प्रतिशत अंक आए हैं और कक्षा में सातवां स्थान है। कक्षा के अन्य छात्र- छात्राओं की तुलना में अपना मूल्यांकन करता हूँ तो स्वयं को सर्वश्रेष्ठ तीन-चार लड़कों-लड़कियों में से एक पाता हूँ, इसके बावजूद सातवें स्यान पर धकेल दिया गया हूँ। धकेलना शब्द का प्रयोग मैं जान-बूझकर कर रहा हूँ। सँभलता नहीं और बाकायदा रणनीति बनाकर नहीं चलता तो सातवां स्थान भी नहीं मिलता।

मेडीकल कॉलेज में आने के बाद कुछ आश्चर्यजनक नतीजों पर पहुंचा हूँ। डॉक्टर पिता के बेटे-बेटियाँ यहां ज्यादा मेधावी माने जाते हैं। परीक्षा में अच्छे अंक पाने के लिए छात्र का पढाई में अच्छा होना आवश्यक नहीं है। पैसा और पिता का पद छात्र-छात्रा की प्रतिष्ठा निर्धारित करता है। लड़कियों के मामले में खूबसूरती, वाचालता, इस्तेमाल करने की संभावनाएँ और बातचीत व व्यवहार में चतुराई का सीधा संबंध उनकी अंकतालिका से होता है।

रैगिंग वाले प्रकरण में वरिष्ठ छात्रों के साथ समझौते के बाद पार्टी होने तक पढाई की तरफ ध्यान देने का अवसर नहीं मिला। इसके बाद दशहरे और दीपावली के कारण छुट्टियां आ गईं। पहला टैस्ट सितंबर में हो चुका था। मैं रैगिंग वाले मामले में बुरी तरह उलझा हुआ था। बिस्तर जरूर छोड़ दिया था, लेकिन घाव अब भी पूरी तरह ठीक नहीं हुए थे। ऊपर से आए दिन वरिष्ठ छात्रों के साथ कभी कहा-सुनी और कभी मार-पीट होती रहती थी। किताबें अधूरी थीं। कक्षाओं में जाना नहीं होता था। अगर जाना होता भी था तो दिमाग कहीं और होता था। पढाई या तो होती नहीं थी या पढने में मन नहीं लगता था। ड़िसैक्शन हॉल में जाता जरूर था किंतु घर या पुस्तकालय में मनुष्य की शरीर-रचना का ठीक प्रकार से अध्ययन न करने के कारण लाश की चीर-फाड़ करने के बाद आंतरिक भागों की समझ बन नहीं पाती थी। अपेक्षा के अनुकूल, पहले टैस्ट में अंक अच्छे नहीं आए। सबसे ज्यादा अंक शहर एस.पी. के लड़के मुकुल को और दूसरे स्थान पर अंक एक खूबसूरत, तेजतर्रार कान्वेंट शिक्षित आधुनिका अनुराधा को मिले। मैं हमेशा पढाई में होशियार विद्यार्थी रहा हूँ। पहले टैस्ट में अंक अच्छे नहीं आए तो मन को बहुत खराब लगा। सिर्फ इस बात को लेकर तसल्ली थी कि पढाई ठीक से हो नहीं पाई, इसलिए अच्छे अंक न आना स्वाभाविक है। व्यर्थ के कामों में समय बरबाद हो रहा है, पता नहीं कितने दिन इसी तरह समय की बरबादी होती रहेगी, यह सोच-सोच का झूझलाहट होती थी। स्थितियों और उपलब्धियों की पृष्ठभूमि में अपने कार्य-निष्पादन को लेकर मी असंतोष का भाव मन में बना रहता था। झुंझलाहट और असंतोष मिलकर मुझे बेचैन करते थे। बेचैनी से मुक्ति पा सकूं, तुरंत इसका कोई रास्ता दिखाई नहीं देता था। रैगिंग प्रकरण में गतिविधियों का केंद्रबिंदु बन गया था। इसलिए जब तक समझौता नहीं होता, समाधान नहीं निकलता, तनाव से मुक्ति संभव नहीं लगती थी। तनावग्रस्त रहकर एकाग्रता के साथ पढाई करने की कल्पना की नहीं जा सकती थी।

नेता के रूप में मान्यता मिल गई थी, इसलिए हर तरह का विवाद, लड़ाई-झगड़ा, मतभेद और तकरार सुलझाने के लिए मेरी ओर देखा जाता था। रैगिंग प्रकरण से मेरी छवि अपने सहपाठियों के बीच जुझारू, साहसी और निर्विवाद नेता के रूप में स्थापित हुई थी, जबकि मेडीकल कॉलेज के स्तर पर माना जाने लगा था कि एक चतुर, होशियार, लगनशील और विद्यार्थियों के हितों के लिए जिजीविषा तथा संकल्प के साथ संघर्ष करने वाला संभावनायुक्त नेता संस्थान को मिल गया है। भविष्य में मेडीकल कॉलेज के सभी छात्रों की समस्याओं को दूर करने की दृष्टि से आवाज बुलंद करके जरूरत पड़ने पर टेढी अँगुली करके भी धारा का रुख अपनी चाही हुई दिशा में मोड़़ने के लिए दम-खम के साथ अड़ जानेवाले व्यक्ति के रूप में विभिन्न स्तरों पर मुझे देखा जाने लगा था। यह छवि रैगिंग प्रकरण के कारण बनी थी। जब रैगिंग प्रकरण का सम्मानजनक हल निकला और माफी माँगने के बाद भी हम लोगों की जीत की दुंदुभि सर्वत्र बजने लगी तो नेता के रूप में मेरी छवि छात्रों के मन-मस्तिष्क में मजबूती के साथ स्थापित हो गई। कक्षा के स्तर पर निर्विवाद और कॉलेज के स्तर पर आलोचना व समर्थन के मिश्रित स्वरों में मेरी चर्चा होने लगी। जो लड़का पहले वर्ष ही बेझिझक होकर वरिष्ठ छात्रों से टकराने का दुस्साहस कर सकता है, वह आगे चलकर क्या करेगा? वरिष्ठ छात्रों के बीच में भी यह बातचीत का विषय वन गया।

छात्रनेता से यह अपेक्षा तो की जाती है कि वह स्वेच्छा से आगे आकर हर मुश्किल व उलझी हुई स्थिति की बागड़ोर अपने हाथ में लेगा, किंतु यह अपेक्षा उससे नहीं की जाती कि वह पढाई में भी आगे रहेगा। मानकर चला जाता है कि इधर-उधर के झंझटों में हाथ डालने में उसकी रुचि अधिक होती है। पढ़ने के लिए उसके पास पयप्ति समय नहीं होता है। पढाई में रुचि भी बहुत नहीं होती है। इसलिए काम-चलाऊ अंकों से वह परीक्षाएँ उत्तीर्ण करता है। आमतौर पर छात्रनेता का व्यवहार होता भी इस मान्यता के अनुरूप है। अपनी नेतृत्व-क्षमता का उपयोग करके परीक्षा में उत्तीर्णांक प्राप्त करने का प्रयत्न वह अधिक करता है। अध्ययन और मेधा के परिणामस्वरूप परीक्षाएँ उत्तीर्ण करे, इसमें उसकी रुचि कम होती है। अच्छे अंक आएँ या योग्यता-सूची में नाम हो या योग्यता-सूची में वह पहले स्थान पर हो, यह अपेक्षा न शेष लोग उससे करते हैं और न वह स्वयं ऐसा सोचता है।

दूसरे लोग भले ही इसे मेरी नेतृत्त्व क्षमता मानकर मुझे नेता के रूप में स्वीकार कर लें किंतु मैँ खुद को सबसे पहले विद्यार्थी मानता हूँ। विद्यार्थी का सर्वोच्च उद्‌देश्य विद्या अर्जित करना होता है। उसमें अच्छा भाषण देने की प्रतिभा हो सकती है, उसमें अच्छा लेखक होने के गुण हो सकते हैं, वह अच्छा खिलाड़ी हो सकता है, उसमें नेतृत्व प्रदान करने की क्षमता हो सकती है किंतु वह विद्यार्थी पहले है। उसमें बैठा भाषणकर्ता, उसमें छिपा लेखक, उसमें कुलाँचें भरता खिलाड़ी और उसमें मचलता मुद्‌दों को हाथ में लेनेवाला नेता उसके विद्यार्थी तत्त्व के सामने गौण होता है। विद्यार्थी के रूप में जो दायित्व उसने अपने ऊपर लिया है, उसे निभाना उसका पहला कर्त्तव्य है। इस कर्त्तव्य से विमुख होकर वह अच्छा विद्यार्थी नहीं बन सकता। उद्‌देश्य से भटककर भले ही वह अच्छा भाषणकर्ता बन जाए, अच्छा खिलाड़ी बन जाए, अच्छा लेखक बन जाए या अच्छा नेता बन जाए किंतु है वह अधूरा ही। पूर्णता की बात तो वह तभी सोच सकता है जब विद्यार्जन का अपना उद्‌देश्य उसकी दृष्टि से एक क्षण के लिए भी ओझल न हो।

मेडीकल कॉलेज में आने से पहले किसी ने मेरी नेतृत्व क्षमता को नहीं पहचाना। मुझे लगता है, मैं डायरी ठीक ही लिख लेता हूँ। अपने विचारों को, धटनाओं की मनःस्थिति को जिस तरह चाहता हूँ, डायरी में अंकित कर सकता हूँ। अपनी बात को सुनने वालों तक अच्छी तरह पहुँचा दे, उन्हें महसूस करा दे कि जो कुछ कहा गया है सार्थक है, यही गुण अच्छे भाषण-कर्ता में अपेक्षित है न? रैगिंग वाले मसले पर जो भाषण मुझे देने पड़े उनका असर स्पष्ट रूप से दिखाई देता था। प्रतिदिन सुबह घूमने जाता हूँ। व्यायाम करता हूँ। शरीर ठीक है। खेलों में कभी भाग नहीं लिया किंतु यदि किसी खेल में हाथ आजमाऊँ तो बुरा नहीं रहूँगा। लेकिन मेडीकल कॉलेज में मैंने डॉक्टर बनने के लिए प्रवेश लिया है। नेता के, लेखक के, भाषणकर्ता के, खिलाड़ी के गुण मुझमें हो सकते हैं किंतु यहां मैं हूँ ही इसलिए क्योंकि मुझे एक कुशल चिकित्सक बनना है। कुशल चिकित्सक मैं अन्य प्रतिभाओं के आधार पर नहीं बन सकता। उसके लिए मुझे पढना ही पड़ेगा। प्रयोग करने ही पड़ं़ेगे, अस्पताल में मरीजों को देखना ही पड़ेगा। ये सभी काम किए बिना मैं अच्छा चिकित्सक नहीं बन सकता। ये काम करके मैं अपने कर्तव्य का निर्वाह करूँगा। मुझे बस, इतना ही करना होगा। अच्छे अंक उसी तरह मिलेंगे, जिस तरह हमेशा, हर परीक्षा में मिलते हैं।

मैं वैचारिक स्तर पर स्पष्ट था। पहले टैस्ट में अपनी स्थिति देखकर चुभन महसूस हुई थी। रैगिंग प्रकरण के ताबूत में पार्टीवाली कील लगते ही मैंने एकाग्र भाव से अध्ययन शुरू कर दिया। दशहरे और दीपावली की छुट्टियों का मैंने भरपूर उपयोग किया। जितने दिन खुला रहा, उतने दिन नियमित रूप से पुस्तकालय जाता रहा। शेष समय में खरीदी हुई पुस्तकों से धर पर पढता रहा। जिन लड़कों से निकटता बनी थी, उनसे घुमा-फिराकर किताबें लाकर पढता रहा और नोट्‌स तैयार करता रहा। बेकार गँवाए लगभग साढे तीन महीनों के नुकसान की भरपाई करने की मैंने पूरी कोशिश की। दीपावली के बाद नवंबर में जब कॉलेज खुला तो मेरी स्थिति बेहतर थी। मुझमें आत्मविश्वास आ गया था। आसन्न दूसरे टैस्ट में अपनी स्थिति मेें सुधार की दृष्टि से मुझे शंका प्रतीत नहीं होती थी। मुझे लगने लगा था कि मेरा मूल स्वरूप दिशा पकड़ने के लिए पूरी तरह तैयार है।

नवंबर के अंत में दूसरा टैस्ट हुआ। एनेटॉमी, फिजियालॉजी, लैबोरेटरी एक्सपेरीमेंट, डिसैक्शन सभी विषयों में मैं अपने प्रदर्शन से संतुष्ट था। मौखिक रूप से पूछे गए प्रश्नों के लगभग सभी उत्तर मैंने ठीक दिए। पहले टैस्ट के कारण जो असंतोष का भाव मुझमें पैदा हुबा था, वह पूरी तरह तिरोहित हो गया। लगभग एक माह की पढाई के बाद जो आत्मविश्वास मुझमें पैदा हुआ था, उसमें वृद्धि हो गई। मुझे भरोसा था कि इस टैस्ट में मुझे अच्छे अंक मिलेंगे। पिछले टैस्ट के अंकों के साथ जोड़ने पर मेरी स्थिति चाहे बहुत अच्छी न बने किंतु दूसरे टैस्ट में मुझे मिलनेवाले अंक मेरी सामान्य छात्र और अच्छे नेता की अब तक बनी छवि को पूरी तरह बदल देंगे। अच्छा नेता सामान्य छात्र तो बन सकता है किंतु अच्छे अंक नहीं ला सकता। रो-धोकर परीक्षा तो उत्तीर्ण कर सकता है किंतु योग्यतम छात्रों में से एक नहीं हो सकता। दूसरे टैस्ट का परिणाम इस प्रचलित धारणा को जबरदस्त धक्का पहुँचाने वाला होगा।

किंतु दुसरे टैस्ट का परिणाम आया तो मैं दंग रह गया। आशा के सर्वथा प्रतिकूल दूसरे टैस्ट में भी मुझे मिलनेवाले अंक पहले टैस्ट के अंकों के आसपास थे। इस बार भी सर्वाधिक अंक मुकुल और अनुराधा को मिले थे। टैस्ट के बाद बुने सपने टूट गए। मुझे लगता था कि मुझमें कोई बड़ी कमी है जो रुकावट बन रही है। उस कमी को पहचानने की मैं जितनी कोशिश करता, निराशा उतनी ही बढती जाती थी। जितनी पढाई इस बार मैंने की है, वहुत कम सहपाठियों ने उतनी पढाई की होगी। पुस्तकालय में पिछले एक माह में जितना समय मेरा गुज़ारा है, किसी एक ने भी इतनी देर पुस्तकालय में बैठकर अध्ययन नहीं किया है। जितनी पुस्तकें, जितने अलग-अलग लेखकों की पुस्तकें पढकर मैंने नोट्‌स तैयार किए हैं, शायद ही किसी छात्र-छात्रा ने उतनी पुस्तकें, उतने लेखकों की पुस्तकों को देखा होगा। मेरी अंग्रेजी अच्छी है। अपने उत्तर अच्छी तरह लिखने की कला मुझे आती है, इसका प्रमाण अब तक परीक्षाओं में मुझे मिले अंक हैं। लिखित टैस्ट अच्छे हुए, प्रयोगशाला और डिसैक्शन में मैंने सब कुछ अच्छा किया। मौखिक प्रश्नों में से लगभग सबके उत्तर मैंने ठीक दिए। फिर मुझे अच्छे अंक क्यों नहीं मिले ?

दो-एक दिन बहुत निराशा और तनाव में गुजरे। मैं चिंतातुर था, लेकिन समझ नहीं पा रहा था कि चिंता-निवारण के लिए क्या करूँ। अपनी पद्धति में कोई परिवर्तन करूँ तो कैसा? किताबें बदलकर पढूं तो कौनसी? जितना समय लगाकर एक महीना मैं पढा था, उससे ज्यादा समय देकर पढना कम-से-कम मेरे लिए तो संभव नहीं था। अंत में मैंने सभी विषयों के अध्यापकों से मिलकर अपनी कमियाँ जानने का प्रयत्न करने का निश्चय किया। पूरा दिन कक्षा के बाद या उन्हें ढ़ूंढ़-ढ़ूंढ़कर मैंने उनसे पूछा कि मुझे सुधार के लिए क्या करना चाहिए? किसी ने पढाई पर ध्यान देने के लिए कहा। किसी ने बाकी गोरख-धंधों से निकलने के लिए कहा। किसी ने चलताऊ जवाब दिया। किसी ने टालमटोल की। किसी ने मुसकराकर केवल इतना कहा, कोशिश करते रही।

मेरा असंतोष बढ गया। अपनी असफलता का कारण जाने बिना मुझे चैन नहीं था। मैंने मुकुल और अनुराधा से बात करना तय किया। दोनों टैस्ट उन दोनों ने अच्छे अंकों से उत्तीर्ण किए हैं। प्रश्नों के जो उत्तर उन्होंने दिए, प्रयोगशाला व डिसैक्शन हॉल में जो कुछ उन्होंने किया, मौखिक प्रश्नों के जिस ढंग से जवाब उन्होंने दिए, किताबें जो उन्होंने पढी, नोट्‌स जो उन्होंने बनाए और कॉलेज के बाद पढने का जो कार्यक्रम उन्होंने रखा, उसकी जानकारी मुझे अपने सुधार में मदद दे सकती है। किसी से कम, किसी से ज्यादा लेकिन कक्षा के सब लड़के-लड़कियों से मेरी बातचीत होती रहती थी। कॉलेज के बाद उस दिन मैं मुकुल के घर चला गया। अपने आने का मकसद न बताकर गप-शप करते हुए मैंने इस बार टैस्ट में पूछे गए प्रश्नों की चर्चा छेड़़ दी। मौखिक परीक्षा में पूछे गए प्रश्नों और उत्तरों पर उससे बात की। डैड बॉडी की एनेटॉमी पर उसके सामने अपनी जिज्ञासाएँ रखीं। मेंढक पर प्रयोगों के बारे में उससे तर्क-वितर्क किए।

उससे अगले दिन खाली पीरियड में मैंने अनुराधा से चाय पिलाने के लिए कहा। दो लड़कियों को साथ लेकर वह कैंटीन चली आई। यों तो पहले वर्ष के छात्र-छात्राओं के लिए वरिष्ठ छात्रों की ओर से घोषित वर्जित क्षेत्रों में से कैंटीन भी एक थी। किंतु रैगिंग के बहाने सारी वर्जनाएँ तोड़ने के बाद हमारी कक्षा के लड़के-लड़कियाँ मुक्त-भाव से कैंटीन में आते रहते थे। चाय पीते हुए हलके-फूलके ढंग से मैंने अनुराधा से भी उन विषयों पर बात की जिन पर पिछले दिन मुकुल से चर्चा हुई थी। अतिरिक्त रूप से केवल इतना किया कि प्रारंभ में मैंने अनुराधा की योग्यता की प्रशंसा की। उससे कहा कि तुम तो हमारी कक्षा का सितारा हो। मुकुल और तुम, दोनों के कारण हमारी कक्षा की बौद्धिक पहचान है। अनुराधा की बौद्धिक प्रतिभा की प्रशंसा जाहिर करने से मुझे यह लाभ हुआ कि टैस्ट के बारे में पूछी गई हर बात को उसने बहुत रस ले-लेकर सुनाया।

मुकुल और अनुराधा से बातचीत के बाद मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। विषय के बारे में उनकी जानकारी मेरी तुलना में कम थी। पुस्तकें उन्होंने मेरी तुलना में कम पढी थीं। पढाई को समय उन्होंने मेरी तुलना में कम दिया था। मौखिक परीक्षा में दोनों से प्रश्न पूछने की औपचारिकता का निर्वाह क्रिया गया था। मुझसे मौखिक परीक्षा में जैसे ओर जितने प्रश्न पूछे गए, वैसे और उतने प्रश्न यदि उन दोनों में से किसी से पूछे जाते तो निश्चय ही उनमें से कोई भी उतने प्रश्नों के उत्तर नहीं दे पाता, जितने प्रश्नों के उत्तर मैंने दिए थे। अभिव्यक्ति, बिषय की समझ, स्पष्टता, योग्यता और परिश्रम किसी भी दृष्टि से मैं उनसे बेहतर था। विषय की आमने-सामने बैठकर की गई चर्चा में भी वे दोनों मुझसे कमजोर थे। मैं समझने में असमर्थ था कि फिर मुकुल और अनुराधा में ऐसा वया है जिसके कारण उन दोनों को कक्षा में सर्वाधिक अंक मिले?

मुझे लगा, मेरी तीसरी आँख खुल रही है। सर्वाधिक अंक पानेवाले दस विद्यार्थियों की मैंने तालिका बनाई। इस तालिका में पहले टैस्ट में प्राप्त अंक भी सम्मिलित किए। विश्लेषण करने पर मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि पहले से लेकर दसवें स्थान तक अंक पानेवाले सभी विद्यार्थी किसी-न-किसी रूप में प्रभावशाली थे। आई० सी ० एस० अधिकारी या डॉक्टर के पुत्र-पुत्री या भाई-बहन होने के नाते वे लोग अधिक अंक पाने के अधिकारी बने थे। दस में से केवल अनुराधा ही ऐसी थी जिसका संरक्षक उच्च पदस्थ अधिकारी या डॉक्टर नहीं था, मगर उसका शारीरिक आकर्षण और उसके साथ निकटता स्थापित करने की आकांक्षा अनुराधा की योग्यता के मानदंड बन गए थे। योग्यता का आधार जब पढाई नहीं है, अंक जब टैस्ट में किए गए प्रदर्शन के आधार पर नहीं दिए जाते तो मुझे अच्छे अंक कहां से मिलते? मैं परेशान हो गया। अंक कम मिलने के कारणों की तलाश करते-करते जिस जगह आकर खड़ा हो गया था, उससे आगे रास्ता बंद था। बंद रास्ते को कैसे खोला जाए, यही मेरी परेशानी का कारण था। मैं, जिसका पिता थड़ी पर फल बेचता हो, ऐसा साधनहीन छात्र अध्यापकों की दृष्टि में किस तरह काम का लड़का बन सकता है? आई० सी० एस० अधिकारी सरकार और प्रशासन के स्तर पर उनके लिए उपयोगी हैं। शहर एस ० पी० पर किया गया उपकार जरूरत के समय उनके लिए उपयोगी है। सहकर्मी या वरिष्ठ डॉक्टर पेशे की दृष्टि से उनके लिए उपयोगी हैं। खूबसूरत और वाचाल लड़कियाँ उनकी किसी-न-किसी वासना की पूर्ति को ध्यान में रखते हुए उपयोगी हैं। मैं कैसे उपयोगी बन सकता हूँ उनके लिए?

बहुत सोच-विचार के बाद मैं इस निर्णय पर पहुँचा, सच है कि जो कुछ मेरे पास है, उसकी उनमें से किसी के लिए कोई उपयोगिता नहीं है। मेरी नेता की छवि उनके लिए बेकार है। अधिक-से-अधिक उनमें से कोई सोच सकता है कि किसी अवसर पर अपने किसी प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ मेरा इस्तेमाल किया जा सकता है। अयाचित, अनपेक्षित अवसर की प्रतीक्षा में मुझे कोई पालना नहीं चाहेगा। पालेगा भी तो रूखी-सूखी रोटी ही देगा। भाषण, लेखन आदि तो यों भी कॉलेजों में सजावट के सामान की तरह होते हैं। मेधा का कोई मूल्य है नहीं। पैसा मेरे पास है नहीं। कोई भौतिक लाभ मैं पहुँचा नहीं सकता। उनकी किसी भी इंद्रिय के लिए मेरा कोई लाभ नहीं है। इसलिए कोई दूसरा तरीका सोचना होगा। बंद रास्ता खोलना जरूरी है। मुझ जैसी स्थितियों में फंसा छात्र अपनी प्रतिभा को नाली में बहता देखकर छटपटाते हुए दम नहीं तोड़ना चाहेगा। दीवार से टकराकर सिर लहूलुहान करना पसंद करेगा, मगर रास्ता खोलने का प्रयत्न वह छोड़़ेगा नहीं। बाबा की तरह, सिंधी समुदाय की तरह, रास्ता खोलने की समस्या मेरे सामने थी। जिजीविषा के साथ बुद्धि और मेहनत से बाबा के, सिंधी समुदाय के किए हुए प्रयत्नों ने रंग दिखाना शुरू कर दिया है। मैं भी पूरी ताकत, बुद्धि ओर परिश्रम से इस समस्या का मुकाबला करूँगा। उसी के अनुरूप मैंने एक योजना बनाई।

कक्षा में लेक्चर देते समय कभी-कभी अध्यापक हम लोगों से प्रश्न पूछ लेते थे। हम लोग भी समझने के लिए उनके सामने कुछ शंकाएँ रखते थे। अध्यापक अपनी प्रकृति के अनुसार सारी शंकाओं का समाधान करते थे। कोई प्रश्न का सीधा उत्तर देता था, कोई प्रश्न के आधार पर कुछ दूसरे प्रश्न पूछकर बात समझाता था। कोई हममें से ही किसी से उठकर उस शंकाविशेष का समाधान करने के लिए कहता था। कक्षा में से किसी का हाथ न उठने पर ही वह स्वयं शंका का समाधान करता था। कुछ कक्षा में अध्यापकों द्वारा पूछे गए प्रश्नों के आधार पर, कुछ सहपाठियों द्वारा उठाई गई शंकाओं के आधार पर, कुछ लेक्चर पर चलनेवाली बहस के आधार पर और कुछ पहले व दूसरे टैस्ट में प्राप्त अंकों के आधार पर मैंने ऐसे छात्रों की सूची बनाई जो मेधावी थे किंतु जिन्हें उनकी योग्यता के अनुसार अंक नहीं मिले थे। प्रत्येक छात्र से मैंने व्यक्तिगत रूप से बातचीत की तो पता लगा कि उनमें से हर एक परेशान है। किंतु यह बात उनकी समझ में नहीं आ रही थी कि कोई भी अध्यापक ऐसा क्यों करता है? वे ठीक लिखते हैं, ठीक उत्तर देते हैं, खूब पढ़ते हैं फिर भी उनको अंक कम मिलते हैं। मैंने अपना विश्लेषण उनके सामने रखा तो वे चाैंक गए। एक बार तो उन्हें इस विश्लेषण पर विश्वास नहीं हुआ। किंतु मैंने जब उनके सामने योजना रखी तो उन्हें लगा कि इस योजना के कार्यान्वयन में तो कोई खतरा मोल लेने की बात मैं कह ही नहीं रहा हूँ। किसी का विरोध नहीं करना है, किसी की शिकायत नहीं करनी है, किसी से झगड़ा नहीं करना है। मेहनत पहले से ज्यादा करनी है। सक्रियता पहले से ज्यादा रखनी है। कक्षा में खुलकर बात करनी है। लेक्चर का विषय पहले ही पढकर पूरी तैयारी के साथ कक्षा में जाना है। बस, बुद्धि को या समझ को जाँचने-परखने के लिए जो अध्यापक प्रश्न पूछते रहते हैं, उनका मुँह मुकुल और अनुराधा की ओर मोड़ना है। उन दोनों के निरुत्तर रहने पर हम लोगों में से ही किसी दूसरे को उसका उत्तर देना है।

हम लोगों ने साथ या आसपास बैठने का आग्रह कभी नहीं किया। कक्षा में जहां जगह मिल गई, बैठ गए। किंतु हर एक लेवचर में बहस, प्रश्न, प्रतिप्रश्न बढ़ गए। दिन में एक-दो अवसर ऐसे जरूर आ जाते जब हममें से कोई कहता, ‘‘सर, मुकुल जानता होगा।'' ‘‘सर, अनुराधा को आता होगा।'' ‘‘सर, मुकुल के लिए तो यह बहुत आसान प्रश्न है।'' ‘‘सर, अनुराधा की तो यह बात रटी हुई है।''

प्रत्यक्ष रूप से मुकुल और अनुराधा के खिलाफ कुछ न कहते हुए, हम तोप का दहाना चालाकी से उनकी तरफ मोड़ देते। उन दोनों के धराशायी होने पर हम न हँसते और न मजाक उड़़ाते। हममें से ही कोई उठता और कहता, ‘‘सर, मैं बताऊँ?''

कुछ छात्र महत्त्वाकांक्षी होते हैं किन्तु किसी-न-किसी के कारण उनकी महत्त्वाकांक्षा पूरी नहीं हो पाती। सर्वाधिक अंक पानेवाले विद्यार्थी ऐसे लोगों की ईर्ष्या का कारण बन जाते हैं। वश नहीं चलता, इसलिए उनका कुछ बिगाड़ तो नहीं पाते, किंतु उनकी छीछालेदर ऐसे छात्रों को अच्छी लगती है। हमारी कक्षा के अधिकांश छात्र स्वयं को बुद्धिमान, होशियार और समझदार मानते हैं। अंक प्राप्त करने के समर में वे टिक नहीं पाते थे। इसलिए एक खामोश, अज्ञात आक्रोश उनमें पनपने लगा था। मुकुल और अनुराधा कक्षा के सर्वाधिक अंक लेनेवाले विद्यार्थी थे। उन दोनों को ही लगातार नीचा देखना पड़़ रहा था। हम सायास चेष्टा करते थे कि उनके विरुद्ध कोई शब्द हमारी जुबान से न निकले, किंतु विद्यार्थियों का वह ईर्ष्यालु वर्ग धीरे-धीरे उनके ऊपर फ़ब्तियाँ कसने लगा। अध्यापकों को महसूस होने लगा कि विद्यार्थी मुकुल और अनुराधा को कक्षा के सर्वाधिक योग्य विद्यार्थियों के रूप में स्वीकार नहीं करते। सक्रिय रूप से बहस में भाग लेने, प्रश्न उठाने, मुकुल और अनुराधा द्वारा अनुत्तरित प्रश्नों के भी उत्तर देने के कारण एक नया समूह उभर आया। इस समूह को दरगुजर करने या इस समूह की प्रतिभा को नकारने या इस समूह को गौण मानकर ध्यान न देने की प्रवृत्ति पर पहले अंकुश लगा। फिर क्रमशः मुकुल और अनुराधा मुख्य धारा से किनारों की तरफ़ धकियाए जाने लगे। उनके प्रति पूरी सहानुभूति के बावजूद अध्यापक उन्हें संरक्षण देने की स्थिति में नहीं थे। ऐसा वातावरण बनाने के लिए, अध्यापकों के सोच को उद्‌वेलित करके उन्हें मेधा को महत्त्व देने के लिए तैयार करने की प्रक्रिया में हम सबको कठिन परिश्रम करना पड़़ा। पाठ तैयार करके यदि समय मिलता तो हम लोग सभी या एक, दो, तीन जितने लोग भी मिल जाते, पाठ पर आपस में बहस, बातचीत करते। पाठ को समझने में जो कच्चाई रह जाती, वह उस बहस और बातचीत में दूर हो जाती। सबसे बड़ी बात यह थी कि सब लोगों ने मन से यथास्थिति के साथ समझौता कर लिया था। बुद्धि उनके पास थी, मेधा उनके पास थी, पाठ्‌य-पुस्तकें उनके पास थीं, वे मेहनत करना चाहते थे, किंतु हताश थे कि मेहनत का प्रतिफल उन्हें नहीं मिलता। दिशा बदलती प्रतीत हुई तो मेहनत करने का उत्साह बढ़ गया। कुछ मेधावी छात्र एक अध्याय पढकर उस पर बातचीत कर लें तो बाकी रह क्या जाता है? पूर्वापेक्षा हमारी तैयारी का अनुपात भी बहुत बढ़ गया।

तीसरे टैस्ट में वर्चस्व उन विद्यार्थियों का रहा जो सचमुच सुपात्र थे। मुकुल और अनुराधा झटके से छः-सात सीढियाँ लुढक गए। तीसरे टैस्ट में मैं तीसरे स्थान पर रहा। तीनों टैस्टों के अंक मिलाएं तो मैं कहीं नहीं था मगर वार्षिक परीक्षा चालीस अंकों की थी। साठ में से अब तक जो अंक हमें मिले थे, इन चालीस में से प्राप्त अंकों में जोड़कर वर्ष-भर की स्थिति बननी थी। जनवरी में तीसरा टैस्ट, अप्रैल में वार्षिक परीक्षा, 10 मई को परिणाम और कक्षा में सातवाँ स्थान। यह स्थान अगले वर्ष सातवाँ नहीं रहेगा, में आश्वस्त हूँ।

मेडीकल कॉलेज में प्रवेश के बाद पहली बार डिसैक्शन हॉल में जाते हुए जो अनुभूतियाँ हुईं, उनकी चर्चा नहीं करूँगा तो अपनी डायरी की सार्थकता को संदेहास्पद सिद्ध करूँगा। बड़़ा-सा हॉल। फार्मेलीन की तेज गंध। दिमाग को अजीब तरह की दहशत और रहस्य में डूबने को विवश करता वातावरण। मेडीकल कॉलेज में पढ़ते हैं। मुर्दे का डिसैक्शन किए बिना मानव की शरीर-रचना को ठीक प्रकार से समझना संभव नहीं है। चीर-फाड़़ करके मुर्दे के अंग-प्रत्यंग का अध्ययन करना भावी डॉक्टर के लिए जरूरी है। फार्मेलीन में नहीं रखा गया तो मुर्दा शरीर सड़़-गल जाएगा। चीर-फाड़़ करने के लिए मुर्दे को बिना कपड़़े पहनाए, बिना चादर ओढाए डिसैक्शन टेबल पर रखना पड़़ेगा। मेडीकल कॉलेज में प्रवेश लेनेवाला प्रत्येक विद्यार्थी इन सच्चाइयों से परिचित होता है। किंतु कुछ डिसैक्शन हॉल का रहस्यमय वातावरण, कुछ फार्मेलीन की तेज गंध, कुछ नंगे, कुछ काले, कुछ विकृत मुँह वाले मुर्दे, कुछ सीजर्स, कुछ फोरसैप्स, कुछ स्केलपेल जैसे डिसैक्शन के काम में आने वाले उपकरण, कुछ संस्कार, कुछ भ्रांतियां, कुछ वहम मिलकर विचित्र अहसासों से भरते हैं। सहपाठियों की स्थिति विचित्र थी। दो-एक लड़कियाँ बेहोश होकर गिर गईं। लड़के हों या लड़़कियाँ, दहशत सबके चेहरों पर पढी जा सकती थी। मेरे मन-मस्तिष्क पर हावी हो जाएँ, भयभीत करनेवाली ऐसी भावनाएँ तो पैदा नहीं हुई किंतु आठ-दस दिनों तक हर समय लगता था कि मेरे हाथों से मुर्दा शरीरों की गंध आ रही है और मेरा सिर फार्मेलीन की गंध से चकरा रहा है। धीरे-धीरे अभ्यस्त होने के बाद तो मुर्दा शरीरों पर जाने-अनजाने कोहनी टिका कर खड़े होने में भी कोई संकोच नहीं होता था, किंतु पहले कुछ दिन लगता था कि हम एक कमरे में कई मुर्दों के साथ बंद कर दिए गए हैं। सीजर्स, फोरसैप्स और स्केलपेल से छूते ही ये मुर्दे उठकर बैठ जाएँगे और हमारा गला पकड़़ लेंगे।

काका भोजामल के लड़़के उल्हासनगर से दुकान समेटकर जयपुर आ गए हैं। एक गली में किराए पर दुकान लेकर उन्होंने किराने का काम शुरू किया है। काका भोजामल ने भाग-दौड़ करके दो कमरों और रसोईघर, स्नानघर वाला एक मकान किराए पर लिया है। दो में से एक कमरा हॉलनुमा है। परदा लटकाकर उन्होंने उस कमरे को दो हिस्सों में बाँट दिया है। व्यावहारिक रूप से उनके पास तीन कमरे हो गए हैं। परिवार में आठ वयस्क और पाँच बच्चे हैं। जोड़़-तोड़़ बैठाकर काम चलानेवाली स्थिति बनी हुई है। किराने की दुकान दोनों विवाहित भाई सँभालते हैं। वीरू थड़ी पर नौकरी करता है। थड़ी से होनेवाली आमदनी, किराने की दुकान से होनेवाली बचत और वीरू का वेतन मिलाकर परिवार का खर्च आराम से चल जाता है। थड़ी पर काम इस बीच काफी बढ़ गया है। आकर माल लेने वाले लगे-बंधे ग्राहक पूर्वापेक्षा काफी संख्या में बढे हैं। बाबा को कुछ ठेके लेने में सफ़लता मिल गई है। ठेके का माल निश्चित समय पर पहुँचाने का काम वीरू करता है। कुछ ग्राहकों के घरों पर भी नियमित रूप से माल जाता है और वीरू ही यह माल पहुँचाता है। भाव लगाना, ग्राहकों को सँभालना, स्थायी ग्राहक को बनाए रखना, अन्य स्थानों से छिटककर आए ग्राहक को झेलना और थड़ी की सार-सँभाल मुख्यतः काका भोजामल करते हैं। मंड़ी से माल की खरीदारी, विभिन्न संस्थानों और ठेकों से संबंधित व्यक्तियों से संपर्क, महत्त्वपूर्ण ग्राहकों के साथ निकटता जैसे काम मुख्यतः बाबा करते हैं। दोनों पहले की तरह सब कुछ एक-दूसरे को बताते हैं। ज़रूरी हुआ तो पहले एक-दूसरे से सलाह करते हैं, इसके बाद उस काम में हाथ डालते हैं। सब देखने वालों को लगता है कि बाबा और काका भोजामल भाई हैं। कोई बाबा को छोटा भाई समझता है और कोई काका भोजामल को।

मीनू से मिलना होता रहता है। कभी मैं काका भोजामल के घर चला जाता हूँ और कभी मीनू हमारे यहाँ आ जाती है। जब उनके घर जाता हूँ तब तो मीनू से कोई विशेष बात नहीं हो पाती है किंतु जब मीनू हमारे यहां आती है तो ढंग से बातचीत हो जाती है। उसके पास बताने को अधिक कुछ होता नहीं है। कोई सहेली उसकी है नहीं। पड़ोस की दो-तीन लड़कियों के साथ हँसना-बोलना भर हो जाता है। वह पढती नहीं है। सारा दिन धर का काम और घर का वातावरण। मेरे पास मेडीकल कॉलेज की बातों का भंडार होता है। किसी-न-किसी तरह की उलझन होती है। आक्रोश, सिद्धांत और व्यवहार की गंध में रची-बसी घटनाएँ होती हैं। यह अब भी मेरे लिए आश्चर्य का कारण है कि इस तरह की पृष्ठभूमि, इस तरह के संस्कार, इस तरह की शिक्षा-दीक्षा न होते हुए भी मीनू ठीक वैसा ही क्यों सोचती है, जैसा कि मैं सोच रहा होता हूँ। मेडीकल कॉलेज की बिल्डिंग भी उसने कभी नहीं देखी, मगर मेडीकल कॉलेज की कार्यविधि, वहाँ की अंदरूनी समस्याएं, वहाँ की राजनीति उसे इतनी जल्दी समझ में आ जाती है कि एकाएक विश्वास नहीं होता। मैं नहीं जानता कि पूर्वजन्म के संस्कार होते हैं या नहीं होते, मैं यह भी नहीं जानता कि पुनर्जन्म सचमुच होता है या नहीं होता, किंतु मीनू के मामले में पूर्वजन्म के संस्कारों और पुनर्जन्म के सिद्धांत पर विश्वास करने की इच्छा होती है। इसे मेरी विवशता भी कहा जा सकता है, क्योंकि मीनू की समझ और उसके सोच की व्याख्या करने के लिए मेरे पास कोई तर्क नहीं है।

सारा साल चली गहमागहमी के बावजूद मैंने दो ट्‌यूशन निभाए हैं। योग्यता छात्रवृत्ति की राशि मार्च के प्रारंभ में मिली। प्रवेश के समय मेडीकल कॉलेज की फीस, ऐप्रन, दो जोड़ी सफेद पैंट-कमीज के लिए गत वर्ष बाबा को इधर-उधर से रुपया जुटाना पड़़ा था। यद्यपि किताबें मैंने वही खरीदीं जो बहुत जरूरी थीं। मगर बाबा के ऊपर किताबों का बोझा भी पड़़ा। ट्‌यूशन और छात्रवृत्ति से आए हुए रुपए बाबा ने मुझसे लिये नहीं, मैंने थोड़़ा-बहुत ही खर्च किया होगा। बाकी रुपया इस साल की फीस में काम आएगा।

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