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अपनी अपनी मरीचिका - 3

अपनी अपनी मरीचिका

(राजस्थान साहित्य अकादमी के सर्वोच्च सम्मान मीरा पुरस्कार से समादृत उपन्यास)

भगवान अटलानी

(3)

14 जनवरी, 1949

आज सुबह मैं शरणार्थी शिविर में सिंध में छोड़ी हुई संपत्ति के दावों के संबंध में प्राप्त प्रार्थना-पत्रों की जाँच करके रजिस्टर में उनका इंद्राज कर रहा था कि एक सुखद घटना घटी। अप्रत्याशित होने के कारण वह सुखद लग रही थी या अनपेक्षित को साकार पाकर, मैं कह नहीं सकता। मगर काका भोजामल को अचानक सामने खड़़ा देखकर मैं उछल पड़ा। मैंने आगे बढकर उनके चरण-स्पर्श किए तो उन्होंने उठाकर मुझे गले से लगा लिया। आँखों में पानी भरकर, रुंधे गले से वे बाबा के, अम्मा के, हमारे साथ रवाना हुए रिश्तेदारों के, गाँव और पास-पड़ोस के लोगों के हाल-चाल पूछते रहे। मैं उनके हर प्रश्न का उत्तर देता रहा। उनके साथ पूरा परिवार था। काकी, दो विवाहित बेटे, उनकी पत्नियाँ, पाँचों पोते पोतियाँ, एक अविवाहित बेटा मेरा समवयस्क वीरू और बचपन से मेरे साथ खेली उनकी चौदह वर्षीय बेटी मीनू।

जब हमारा परिवार सिंध से चला था तब काका भोजामल का विचार हिंदुस्तान आने का नहीं था। दो मकान, दो दुकानें, सौ बीघा उपजाऊ जमीन छोड़कर पराए देश जाने का विचार उन्हें मूर्खतापूर्ण लगता था। हिंदू-मुसलमान सबके साथ उनके प्यार-मोहब्बत के संबंध थे। उन्हें लगता था कि झगड़े-फसाद चार दिन चलेंगे। पुरानी अदावतें निकलेंगी। इसके बाद अमन-चैन हो जाएगा। पुराने हालात बहाल हो जाएंगे। व्यापार-कारोबार, खेती-बाड़ी, दुनिया-जहान का चक्र पुरानी रफ्तार से चलने लगेगा। धीरज के साथ हालात का सामना करने की जरूरत है। डरकर भाग जाना कायरता पूर्ण है। विभाजन का अर्थ यह तो नहीं होता कि इधर से हिंदू और उधर से मुसलमान भाग-भागकर दूसरी तरफ जाएँ। जो बदहाल हैं, जिनके पास खाने-कमाने का कोई वसीला नहीं है, वे भले ही भागें। लेकिन जमा-जमाया काम-धंधा छोड़कर भागना कहाँ की समझदारी है?

बाबा के स्पष्ट और पुरजोर आग्रह के बाद भी काका भोजामल टस-से-मस नहीं हुए थे। उल्टा बाबा को वे समझाने की चेष्टा करते रहे थे कि जाने की बात मत सोचो। आने की योजना बाबा ने गुप-चुप तरीके से बनाई थी। काका भोजामल को भी उन्होंने यही कहा था कि लड़की की शादी में कराची जा रहे हैं। हालाँकि वे समझ गए थे और बाबा से यह बात कह भी दी थी, किंतु बाबा ने रवाना होने का कार्यक्रम उन्हें नहीं बताया था। आखिरी बार बाबा की मुलाकात जब काका भोजामल से हुई थी तो उन्होंने उदास होकर बाबा से कहा था, ‘‘अगर कभी वापस लौटने की बात सोचो तो सीधे चले आना। मेरे घर को पराया घर मत समझना।''

बाबा भी अंदर से उदास हो गए थे। मगर बाहर से हँसकर बोले थे, कभी क्यों भोजामल, हफ्ते भर बाद ही लौटते हैं। लौटकर तुम्हारी ओताक में कचहरी करेंगे। उसी काका भोजामल के लिए स्थितियाँ धीरे-धीरे विपरीत होती चली गई थीं। गाँव के सदियों से साथ उठने-बैठने वाले मुसलमानों का मिजाज और रवैया बदलने लगा था। वह तो फिर भी चल जाता मगर हिंदुस्तान से आए मुहाजिरों के कारण वातावरण विस्फोटक हो गया था। गाँव में काका भोजामल के अलावा एक भी हिंदू घर बाकी नहीं बचा था। साथ निभाने की बातें कहने वाले लोगों के आश्वासन उन्हें मक्कारी से भरे महसूस होने लगे थे। वीरू और मीनू की पढाई साल भर से बंद थी। जमीन पर दूसरों के हल चलने लगे थे। दुकानों से सौदा-सुलफ लोग ले जाते और पैसा देने का नाम नहीं लेते। शिकायत की सुनवाई कहीं नहीं थी। पता नहीं कैसे शिकायत सुनने वालों के पास पहुँचाई हुई फरियाद झगड़े का कारण बन जाती। हर ऐरा-गैरा उन्हें उलटा-सीधा धमका जाता। औरतों का घर से बाहर निकलना मुहाल हो गया। दूर-दूर तक ऐसा व्यक्ति, दोस्त, परिचित, रिश्तेदार, हमदर्द नजर नहीं आता था जिससे अपनी तकलीफ कह सकें। दिन-रात दहशत की रहस्यमय परछाइयों से गुजरते। उन्हें लगता, विभाजन ने उनकी अंदर और बाहर दोनों तरफ की, इस और उस दोनों जहानों की आजादी छीन ली है। दूसरों के रहमो-करम पर जीकर भी ये सलामत रहेंगे, कोई उन्हें कुछ नहीं कहेगा, बेफिक्री से अपने घर में रह सकेंगे, इस बात का कोई भरोसा नहीं है। इन तनावों से गुजरते हुए अंततः उन्होंने हिंदुस्तान आने का फैसला किया। मकान और जायदाद बेचनी चाही तो लोगों ने उनसे कहा, ”क्यों बेच रहे हो? इसलिए ही न, ताकि हिंदुस्तान भाग सको। भागकर जाओगे तो ये मकान और दुकान वैसे ही हमारे हो जाएँगे।”

किसी तरह मिट्‌टी के मोल मकान बेचे। दुकानें बेचीं। जमीनें बेचीं। घर और दुकानों का सामान, माल, असबाब बेचा। उस रकम से सोना खरीदा और कुछ जेवरों के रूप में, कुछ छिपाकर हिंदुस्तान ले आए। घर के बिस्तर, भाँडे-बरतन, कपड़े-लत्ते और तनहाई में बिताए हुए सत्रह महीनों की तनावपूर्ण दहशतजदा यादें उनके साथ थीं। और था पछतावा कि जब बाबा ने उन्हें हिंदुस्तान चलने के लिए कहा था, तब उन्होंने इनकार क्यों किया? क्यों सत्रह महीनों का संत्रास आमंत्रित करने का दुराग्रह अंत तक उन्होंने बनाए रखा?

मैं काका भोजामल के परिवार के सब लोगों से उल्लास पूर्वक मिला। उन लोगों को कैसा लग रहा था, मुझे नहीं मालूम, लेकिन मेरे हृदय में अपनत्व छलक रहा था। मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि वीरू को या मीनू को जीवन में कभी देख पाऊँगा। हम लोग चाहे जिन परिस्थितियों में रहते हों किंतु एक ढर्रे में शामिल हो गए थे। काका भोजामल के परिवार से मिलकर एकरसता का एकचक्रीय क्रम टूट गया था।

कागजात भरवा कर शिविर कर्मचारियों को सौंपकर मैं उन्हें अपने बैरक में ले आया। अम्मा गेहूँ साफ कर रही थी। उसे मैंने कोई सूचना नहीं दी, कुछ नहीं बताया। काका भोजामल के परिवार को साथ ले जाकर अम्मा के सामने खड़़ा हो गया। अम्मा ने पहले तटस्थता के साथ, फिर भौचक्की होकर और अंत में अविश्वास के साथ उनकी तरफ देखा। तब तक काकी ने नीचे बैठ कर अम्मा को गले लगा लिया था। दोनों के चेहरों पर खुशी की लौ चमकी और फिर दोनों फूट-फूटकर रोने लगीं। बिछुडी हुई अंतरंग सहेलियों के मिलन का वह अद्‌भुत दृश्य था। काकी की दोनों बहुएँ और मीनू भी अपनी-अपनी चुन्नियों से आँखें पोंछने लगी थीं। काका भोजामल की बहुओं और उनके लड़कों ने अम्मा के पांव छुए। मैंने लाकर चटाइयाँ बिछा दीं। यहाँ न हमारे पास पलंग थे, न हिंदोरे और न चारपाइयाँ। वे सब चटाइयों पर बैठे तो अम्मा ने उठकर पापड़ पकाए। टिन का एक डिब्बा खोलकर उसने सिंध से लाई हुई काँसे की एक छोटी थाली में तिल के लड्‌ड़ू निकाले। पापड़ और तिल के लड्‌ड़ू उन लोगों के सामने रखकर मुझे पानी लाने के लिए इशारा करते हुए उन्होंने कहा, ''हिंदुस्तान में तो त्यौहारों का पता ही नहीं लगता है। आज मकर संक्रांति है। लो भाऊ, तिल के लड्‌डू खाओ।''

‘‘तुमने न बताया होता तो हमें पता ही नहीं लगता कि आज मकर संक्रांति है।''

''मैं जानती हूँ, कितनी परेशानियाँ झेलनी पड़ती हैं डेरे-डंडे उखाड़़कर किसी दूसरी जगह ले जाने में।'' कुछ देर तक खामोशी छा गई। लगा, वहाँ बैठा हर एक अतीत के समुद्र में डुबकियां खा रहा है। अम्मा ने ही कहा, ''लो न, अदी! सिंध की तरह चाँदी के वर्क लगे तिल के लड्‌डू तो यहाँ मैं खिला नहीं सकती, जो है उसे ही मुँह में डालो।'' अम्मा का गला भर आया है।

तिल के लड्‌डू और पापड़़ खाकर सबने पानी पीया तो अम्मा ने मुझसे कहा, ''बेटा, इनको मर्दाने और जनाने शौचालय ओर स्नानघर दिखा दे। कई दिनों की थकान होगी। नहा-धोकर भोजन करेंगे तो थोड़ी राहत मिलेगी।''

शौचालय और स्नानघर हमारी बैरक से थोड़ी दूर थे। दिखाकर लौटा तो अम्मा भोजन बनाने की तैयारी कर रही थी। अम्मा ने कोने में बुलाकर मुझसे पूछा, ''बेटा, तू सब्जी ला सकता है क्या?''

उनके प्रश्न के अंतर्निहित अर्थ को मैं समझ रहा था। सब्जी लाने के लिए पैसे नहीं थे। न उनके पास और न मेरे पास। मैंने पूछा, ''दाल तो होगी न?“

''है तो सही। लेकिन शायद पूरी पड़ेगी नहीं। चलो, कोई बात नहीं है। पड़ोसियों के पास देखती हूँ।''

मेहमानों को सब्जी तो क्या दाल भी माँगकर खिलाने की बात कहते समय अम्मा की मनःस्थिति को मैं अच्छी तरह समझ रहा था। काका भोजामल के आने के बाद काम पर जाने की मेरी इच्छा नहीं थी। लेकिन काम से छुट्‌टी करने की विलासिता मेरे लिए संभव नहीं थी। मैंने पालिश का सामान उठाया और अम्मा से कहा, ''मैं काम पर चलता हूँ। आठ बजे तक आ जाऊँगा। अपने साथ सब्जी और दाल लेता आऊँगा। पड़ोसियों से कौन-सी दाल लाओगी? वैसे काका भोजामल के रहने और राशन का बंदोबस्त कल सुबह तक हो जाना चाहिए।''

अम्मा कुछ पल सूनी आँखों से मुझे देखती रही। फिर बोली, ''तू दो मिनट रुक। मैं पड़ोसियों के पास होकर अभी आती हूँ।'' अम्मा को लौटने में देर नहीं लगी, ''काम चल जाएगा। उनके पास इतनी ही दाल थी। आज तुम्हारे लौटने तक उनका चूल्हा भी ठंडा रहेगा। चने की दाल लेकर आना। इस कटोरे में पाव-भर दाल आती है। घर के लिए भी थोड़ी-सी दाल आ सके तो देखना, कल बनाने के लिए घर में कुछ नहीं है।''

आठ बजे तक लौटना जरूरी था, इसलिए मैं लौट तो आया मगर अपने साथ पाव भर चने की दाल और एक समय काम चल सके, इतनी ही सब्जी ला सका। जब तक अम्मा भोजन तैयार करे, मैं शिविर कार्यालय में गया। आशा के अनुरूप कार्यालय बंद था। कल काका भोजामल के लिए रहने की जगह और राशन का बंदोबस्त नहीं हो पाया तो क्या होगा? जिस बैरक में हम रहते थे, वहां इतनी गुंजाइश नहीं थी कि हमारे अलावा आठ बड़ों और पाँच बच्चों का एक भरा-पूरा परिवार सो सके। फिर जितना भी था, सामान उसी जगह रखा हुआ था।

घर लौटा तो थकान और चिंता की गहरी परछाइयाँ चेहरे पर थीं। मैं सीधा अम्मा के पास पहुँचा। अम्मा ने भरपूर नजर मेरे चेहरे पर डाली, ''कहां गया था?'' काका भोजामल की दोनों बहुएँ अम्मा के साथ लगी हुई थीं, परेशान-सी। कम बरतनों में भोजन तैयार करने का अवसर उन्हें पहली बार मिला था।

''शिविर कार्यालय।''

''वहां इस समय तुझे कौन मिलता? बंद पड़़ा था न?''

''हाँ। मैंने सोचा, काका भोजामल के बारे में अगर कुछ तय हो गया हो तो पूछ आऊँ।''

माँ ने बहुत स्नेहपूर्वक मुझे देखा, ''कोई बात नहीं, सुबह देख लेना। जब तक भोजन तैयार हो जाए, देख आ ! अगर पड़ोस के दोनों घरों में खाना-पीना हो गया हो तो वीरू के साथ जाकर बिस्तर लगा दे। सभी मर्दों के बिस्तर वहीं लगेंगे। अपना बिस्तर भी उनके साथ लगा लेना। एक-एक बिस्तर पर दो-दो लोग सो जाएँगे। हम औरतें यहीं सो जाएँगी।''

सीमित साधनों के बावजूद अम्मा की प्रबंध कुशलता और मेहमान नवाजी देखकर आश्चर्य की लहर मुझे गीला कर गई। सिंध में घर भरा-पूरा था। लंबा-चौड़़ा मकान था। वहाँ केवल तंगदिली ही मेहमान नवाजी के रास्ते की रुकावट बन सकती थी। अम्मा क्योंकि तंगदिल नहीं थी, इसलिए वहां जो भी आता, पूरा सम्मान पाकर खुश होकर लौटता था। किंतु यहाँ मेहमान को खिलाने के लिए पर्याप्त सामग्री नहीं है। दोपहर में दाल पड़ौसियों से उधार ली। कल बनाने के लिए न दाल है, न सब्जी और न ये चीजें खरीदने के लिए पैसे। मेहमानों को सुलाने के लिए बिस्तर नहीं हैं। बिस्तर बिछाने के लिए जगह नहीं है। फिर भी संतुलित रहकर अम्मा सारी व्यवस्थाएँ करती जा रही है। न टूटती है, न परेशान होती है और न आगंतुकों के प्रति किसी प्रकार का अवज्ञाभाव, किसी प्रकार की अश्रद्धा पैदा होती है उसके मन में। उपलब्ध साधनों में मेहमान के लिए सर्वश्रेष्ठ जो कुछ किया जा सकता है करो, यह संस्कार शायद अम्मा का मौलिक संस्कार नहीं है। सिंध का मौलिक संस्कार है। चाहे असंतुलित हो जाऊँ या परेशान महसूस करूँ, मगर मैं भी तो उसी संस्कार के वशीभूत सुबह से जद्‌दोजहद कर रहा हूँ।

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