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अपनी अपनी मरीचिका - 9

अपनी अपनी मरीचिका

(राजस्थान साहित्य अकादमी के सर्वोच्च सम्मान मीरा पुरस्कार से समादृत उपन्यास)

भगवान अटलानी

(9)

3 फरवरी, 1952

एक सप्ताह के बाद अम्मा आज घर आई है। घर की सफाई, झाड़-फूँक मैं करता था। बाबा और मैं भोजन के लिए काका भोजामल के धर जाते थे। उनके घर में स्थानाभाव है इसलिए रात को अपने घर आकर सोते थे। अम्मा पूरा समय काका भोजामल के घर रहती थी। 31 जनवरी को मीनू का विवाह था। विवाह से तीन दिन पहले रस्में शुरू हो गई थीं। अम्मा का दिन के समय काकी की मदद के लिए उनके घर जाना तो एक महीना पहले ही शुरू हो गया था। बड़ी, मंगौड़ी, खींचे, पापड़, दान-दहेज के सामान की खरीदारी, लेन-देन की तैयारी, साड़ी, सूट, जेवर, मिठाई, विवाह-गीत पता नहीं कितने काम थे जिनमें से किसी एक काम को भी अम्मा की मदद के बिना करते हुए काकी को ऐसा लगता था जैसे कोई भारी गलती कर जाएँगी। हालांकि दो लड़कों की शादियाँ उन्होंने अपने हाथों से की थीं। दो-दो बहुएँ थीं घर में। फिर भी अम्मा की सलाह के बिना वे एक इंच आगे नहीं खिसकती थीं।

अनुभवी अम्मा भी कम नहीं है। मेरी तीन बुआओं की शादियाँ उसने देखी हैं। उनमें से एक की शादी स्वतंत्र रूप से अम्मा और बाबा ने की है। लेन-देन के मामलों में अम्मा की रुचि है। विवाह से पहले और सगाई के बाद समधी टकरा जाएँ तो लड़़कीवालों को क्या करना चाहिए? विवाह के बाद किसको वया देना चाहिए? कौन से त्यौहारों के अवसर पर कपड़े, मिठाई, फल, नकद क्या और कितना भेजना चाहिए? लड़़के का जन्म हो तो लेन-देन क्या़ होगा? सामाजिक संबंधों के निर्वाह की दृष्टि से किस स्तर के लोगों को क्या देना चाहिए? ये बातें अम्मा बखूबी जानती है। दूर-दूर से महिलाएँ उससे मशविरा लेने आती हैं। विशेष रूप से सिंध में जिस गाँव में बाबा रहते थे, उसके आसपास के क्षेत्रों के निवासी जो विभाजन के बाद यहाँ चले आए हैं, अम्मा की लेन-देन संबंधी राय को बहुत महत्त्वपूर्ण मानते हैं। कम-ज्यादा का विवाद होने पर यदि कोई कह देता है कि अम्मा से राय लेकर उसके आधार पर सारा काम किया है तो सामान्यतः बात वहीं समाप्त हो जाती है। कभी-कभी मैं मजाक में कहता भी हूँ, ‘‘अम्मा, लेन-देन के मामलों में सलाह देने की तुम फीस तय कर दो। पूछने वालों की संख्या बढ जाएगी।''

अम्मा निश्छलता के साथ हँस देती है, ‘‘फीस तो मैं तय कर दूँगी लेकिन वसूली का काम तुझे करना पड़ेगा।''

मीनू का विवाह जयपुर में ही हुआ है। आयु अभी सत्रह वर्ष है। विवाह के लिए यह इतनी उम्र नहीं है कि काका भोजामल जल्दी करते। पुराने लोग हैं। लड़के-लड़कियों की शादियाँ जल्दी करते रहे हैं। सिंध में तेरह-चौदह की लड़की और सोलह-सत्रह के लड़के का विवाह कर दिया जाता था। संभवतः वही मानसिकता मीनू के मामलें में भी रही हो। काका भोजामल चाहते थे कि वीरू का विवाह भी मीनू के विवाह के साथ कर दिया जाय। रिश्ता हो नहीं सका और मीनू के विवाह के लिए लड़़केवाले जोर डाल रहे थे। इसलिए वीरू का विवाह अभी नहीं हुआ। अन्यथा फलों की थड़ी पर नौकरी करनेवाले वीरू की शादी भी हो जाती। काका प्रयत्नशील रहेंगे। जल्दी ही हो जाएगी, वीरू की शादी। शायद वह स्वयं भी इच्छुक है। नौकरी ही सही, मगर काम से तो लग गया है वीरू? यह योग्यता क्या विवाह के लिए पर्याप्त नहीं है?

यह मानसिकता मुझे आश्चर्यचकित करती है। लड़का या तो बेरोजगार है या बहुत कम कमाता है। अगर कहा जाए कि पत्नी के साथ अलग घर बसाए तो उसे दिन में तारे नज़र आने लगें! बहू घर में आएगी तो केवल रोटी-कपड़़ा तो देना नहीं पड़ेगा उसे। आना-जाना, उठना-बैठना, लेेना-देना, घूमना-फिरना, पिक्चर-सिनेमा, क्या है जो बिना पैसे के हो जाता हो ! साल-दो साल बाद बच्चे होंगे। जरूरतें और बढेंगी। खर्च और चढेंगे। खर्च की पूर्ति नहीं कर पाएँगे तो परिवार में खींचतान होगी। तनाव बढेगा। परिवार टूटने की नौबत आएगी। जब मुझ जैसा अनुभवहीन इतना सब कुछ समझ सकता है तो काका भोजामल जैसे अनुभवी व्यक्ति को यह बात समझ में क्यों नहीं आती? संभव है, इस मामले में कोई ऐसी गुत्थी हो जिसे अनुभव की कमी के कारण सुलझाने की कोशिश मुझे ज्यादा उलझाती हो।

मीनू जाएगी और वीरू की बहू आएगी। घर के सदस्य जितने पहले थे, उतने ही अब रहेंगे। यह सरलीकरण भी मेरी समझ से परे है। मीनू की साजसज्जा, उसके हार-सिंगार पर कितना खर्च आता है? उसे पिक्चर-सिनेमा दिखाने कितनी बार लें जाते हैं महीने में? उससे मिलने, केवल उससे मिलने कभी कोई रिश्तेदार आते हैं क्या? उनकी मेहमाननवाजी पर क्या कुछ भी खर्च नहीं होता? मीनू को मायके जाना पड़़ता है? मीनू के कपड़े और बहू के कपड़े क्या एक जैसे होते हैं? मीनू को सोने के लिए क्या अलग जगह देते हो? फिर मीनू जाएगी और बहू आएगी, मात्र इतना कहकर मुद्‌दा कैसे खारिज कर सकते हो?

संयुक्त परिवार है इसलिए इस तरह के महत्त्वपूर्ण फैसले निभ जाते हैं और इस तरह के फैसले लिये जाते हैं इसलिए संयुक्त परिवार में दरार पड़ती है। बहू को अपनी हर गोपनीय और खुली जरूरत के लिए सास-ससुर की ओर देखना पड़ेगा तो उसकी मनःरिथति की क्या दशा होगी? पति अपनी कमाई से उसकी जरूरतें और इच्छाएँ पूरी करने की स्थिति में नहीं होता, इसलिए परमुखापेक्षी होना उसकी मजबूरी होती है। जरूरतें जब सास-ससुर को पूरी करनी हैं तो बहू के गुण-अवगुण, घर के सदस्यों के साथ मधुर-कटु संबंध, उठने-बैठने और बात करने का सलीका, कामकाज में सक्रियता-निष्कियता आकलन का आधार बनते हैं। आकांक्षाओं की लाश ढोती, घसीटती बहू जब प्रौढ़ होने लगती है तब जाकर कहीं बात मनवाने्‌ की अवस्था में आ पाती है। दाँत टूट जाने के बाद बादाम किसे अच्छे लगेगें भला? घर का लड़का निठल्ला है, बेरोजगार है, कम कमाता है; लेकिन पुरुष होने के नाते उसकी जरूरतें पूरी हो जाती हैं। घर की बहू सुघड़ है, सुंदर है, कामकाज में होशियार है, चतुर है, लेकिन महिला होने के नाते उसका दमन होता रहता है। लड़का कमा नहीं रहा है, लड़ता-झगड़़ता है, घरवालों से उसका व्यवहार अच्छा नहीं है, ताने बहू को दिए जाते हैं। ऐसी विसंगतियाँ देखकर तो महसूस होता है कि प्रत्येक भारतीय महिला गरीब की जोरू है, घर के पुरुष और वरिष्ठ सदस्यों को अधिकार है कि वे जैसा चाहें वैसा सलूक उसके साथ करें।

बाबा थड़ी से लौटे नहीं थे। अम्मा ने भोजन की थाली लगाकर मेरे सामने रखी और स्वयं भी सामने आकर बैठ गई। काकी ने मीनू के लिए कौनंसे गहने बनवाए, कितना सोना दिया, कितनी साड़ियाँ और सूट दिए, ये बातें विस्तार से बताती रही अम्मा। इन जानकारियों में विशेष रुचि नहीं थी मेरी इसलिए ‘हाँ-हूँ' करता रहा। अचानक अम्मा हँसने लगी। मैंने आश्चर्य से अम्मा की तरफ देखा, ‘‘तेरी काकी एक मजेदार बात बता रही थी।''

‘‘ऐसी कौनसी मजेदार बात है जो तुम्हें याद आ गई और तुम अपनी हँसी नहीं रोक सकीं?''

‘‘सुनेगा तो तू भी मेरी तरह हँसेगा।''

‘‘हँसूँगा तो तब न, जब तुम बताओगी।''

‘‘जब इस लड़के की बातचीत चल रही थी, मीनू ने तेरी काकी से कहा था कि तेरे साथ शादी की बात चलाकर देखे।''

‘‘अच्छा!'' मुझे आश्चर्य हुआ।

‘‘मीनू के साथ तेरा कोई चक्कर तो नहीं था?'' अम्मा ने हँसते-हँसते पूछा।

‘‘अम्मा!'' मैं चीखा, ‘‘यह बात तुमने सोच कैसे ली?'' भोजन की थाली वहीं छोड़कर मैं खड़ा हो गया।

हाथ धोकर, पानी पीकर मैं घर से बाहर निकल गया। मीनू का अपनी माँ से अनुरोध और अम्मा की शंका, दोनों ही मेरे लिए कल्पनातीत बातें थीं। मीनू के हृदय में मुझे पति के रूप में पाने की इच्छा यदि किसी समय पैदा हुई थी तो उसने प्रत्यक्ष या परोक्ष संकेत क्यों नहीं दिया? रैगिंग के चक्कर में आई चोटों के बाद प्रतिदिन हाल-चाल पूछने आती थी। उसका रोजाना आना, मेरे प्रति उसकी चिंता और संलग्नता का परिचायक था। किंतु मन-ही-मन ऐसा भी कुछ चाहने लगी है मीनू, यह संकेत तो लिया नहीं जा सकता था उसके नियमित आगमन से। मेडीकल कॉलेज में चले घटनाचक्र का विवरण मैं मीनू को सुनाता था। वह कभी विस्तार से अपनी बात नहीं कहती थी, राय नहीं देती थी। मेरे साथ सहमति जरूर व्यक्त करती थी। मुझमें कभी कमजोरी नजर आती थी तो हिम्मत जरूर बढाती थी। घर-बाहर के सब लोग लड़़ाई को प्रपंचों की संज्ञा देकर उनसे बचने की सलाह देते थे तो इस लड़़ाई को लड़ने की बात कहकर मेरा आत्मबल जरूर बढाती थी। किंतु कभी शालीनता छोड़ी हो, कभी फासला घटाने की चेष्टा की हो, कभी कोई द्विअर्थी बात कही हो, ऐसी कोई घटना मुझे याद नहीं है।

कोई तर्क मुझे यह समझाने की स्थिति में नहीं था कि अपनी भावनाएँ मीनू ने मुझ तक क्यों नहीं पहुँचाई जबकि ऐसा करने के अनेक अवसर उसको मिलते थे। मैं अपनी गतिविधियों की विस्तृत कहानियाँ जब उसे बता रहा होता था, हम कमरे में बैठे रहते थे। अम्मा का बार-बार आना-जाना जरूर होता रहता था, मगर जिस तरह निरपेक्ष भाव से मैं अपनी बात कहता रहता था, अवसर देखकर उसी तरह वह भी संकेत दे सकती थी। कभी यह भी नहीं कहा उसने कि मुझे घर छोड़ आओ। हमारे और उसके. घर के फासले को तय करने में लगनेवाला समय भले ही बहुत कम होता किंतु संकेतात्मक रूप में मन की बात कहने के लिए तो वह दूरी, वह समय बहुत था। मीनू के मस्तिष्क में मुझसे विवाह करने का विचार एक दिन के सोच की परिणति तो होगा नहीं। अकेले-अकेले जो विचार-मंथन उसने किया होगा उसमें मुझे शरीक करने की कोई कोशिश क्यों नहीं की उसने?

संभव है मेरी धारणा, मेरे झुकाव के बारे में वह आश्वस्त न हो पाई हो। यदि मैं उसके प्रति झुकाव महसूस करता तो पहल करके उसके सामने यह बात जरूर रखता। किसी प्रकार का कोई संकेत मैंने उसे नहीं दिया कि मेरे हृदय में उसके प्रति प्रेम-भाव है। पत्र लिखकर, फूल देकर, छुकर, सौंदर्य की प्रशंसा करके या किसी दूसरी लड़की की तुलना में श्रेष्ठ बताकर मैंने कभी नहीं जताया कि मीनू का होना मेरे लिए कोई भिन्न अर्थ रखता है। आकर्षण यदि एकतरफा है तो आकर्षित सदैव अपूर्ण अनुभव करता है। मेरी ओर से आकर्षण की अभिव्यक्ति किसी भी रूप में कभी नहीं हुई। मीनू अपनी ओर से संकेत देती तो किस भरोसे पर? मैं उसमें इस दृष्टि से कोई रुचि दिखाता नहीं था। परोक्ष-अपरोक्ष संकेत नहीं देता था। संकेत को मैं ग्रहण नहीं करता तो उसकी मनःस्थिति पर क्या प्रभाव पड़ता? वह अपनी -नजर में कितनी अपमानित महसूस करती? प्रणय निवेदन की पहल अपने देश में लड़कियाँ करें, यह स्वीकृत धारणाओं के विपरीत है। अपनी लज्जा, अपने संकोच, लिहाज व स्वभाव के कारण पहल की अपेक्षा लड़कियों से की भी नहीं जाती।

क्या कोई ऐसा तरीका नहीं है जिससे लड़की अपने मनोभाव संप्रेषित कर सके? सम्मान को दाँव पर लगाए बिना अपनी भावनाओं को वरेण्य तक पहुँचाने का क्या कोई उपाय लड़की के पास नहीं होता है? मुसकान में आमंत्रण का सम्मिश्रण करके, हँसी में आकर्षण का घोल मिलाकर या मुद्राओं में आसक्ति का आसव सम्मिलित करके क्या कोई लड़की अपने मनोभावों को स्पष्ट नहीं कर सकती? प्रत्युत्तर न पाकर दूसरे पक्ष के मनोभावों की जानकारी भी उसे मिल जाएगी। प्रत्युत्तर के अभाव में नारी अपमानित, तिरस्कृत और पीड़ित अनुभव करके प्रतिहिंसा पर उतारू हो सकती है। ऐसे अनेक आख्यान भारतीय साहित्य में मिलते हैं। वह खामोशी से प्रतिपक्ष के नकार को स्वीकार करके अपना रास्ता चुन सकती है। ऐसे अनेक आख्यान भी भारतीय साहित्य में उपलब्ध हैं; किंतु मीनू अपनी भावनाओं को व्यक्त करना चाहती तो कर सकती थी, इसमें कोई संशय नहीं है। अपनी हलचल मन में बनाए रखकर काकी से औपचारिक प्रस्ताव का अनुरोध मीनू ने क्यों किया? काकी से बातचीत के बाद भी मोनू की मुझसे कई बार भेंट हुई होगी। उस बातचीत का हवाला दे देती तब भी पर्याप्त होता।

अगर मीनू ने अपने मन की बात मुझे बता दी होती या मनोभावों का संकेत मुझे दे दिया होता या काकी ने उसी समय अम्मा के सामने मीनू की इच्छा के अनुरूप प्रस्ताव रख दिया होता या अम्मा ने मुझसे मीनू से विवाह के संबंध में पूछ लिया होता तो मेरी प्रतिक्रिया क्या होती? क्या मैं स्वीकार करता? क्या मैं विचार करने के लिए समय माँगता? वया मैं स्पष्ट इनकार कर देता? क्या मैं पढाई की बात कहकर टाल जाता? क्या करता मैं उस समय? मेरे सामने यक्ष प्रश्न है। मैं सचमुच नहीं जानता कि मेरी प्रतिक्रिया क्या होती? मीनू मुझे समझदार लगती है। मेरी बाल सखी है। कम पढी-लिखी होने के बावजूद वैचारिक दृष्टि से मुझे प्रभावित करती है। उसके और मेरे विचार मिलते हैं। कद-बुत, चेहरे-मोहरे की दृष्टि से बहुत आकर्षक नहीं, तो भी ठीक है। मुझे पढाई पूरी करने में चार साल तब लगेंगे जब मैं एम.बी.बी.एस. के बाद पढाई छोड़ दूं। एम ० एस ० या एम ० डी ० करूं तो तीन साल और चाहिए। इससे पहले मैं स्वयं अम्मा-बाबा पर निर्भर रहूँगा। विवाह करके पत्नी को लाकर उनका भार और बढा दूँ? पत्नी को जीवन-भर सालती रहने वाली पीड़ाओं की सौगात दूं, यह मैं किसी स्थिति में नहीं चाहूँगा। पढाई पूरी करने और आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर हो जाने से पहले मैं विवाह करने की बात सोचूंगा भी नहीं।

मीनू को अपनी प्रेयसी या भावी पत्नी के रूप में मैंने कभी नहीं देखा। बचपन से साथ खेले, बड़़े हुए हैं। एक-दूसरे को समझते हैं। एक-दूसरे को पसंद करते हैं। यह तो मैं जानता हूँ, किंतु दो लड़कों में ये सब बातें नहीं हो सकती हैं क्या? क्या मित्रता केवल लड़कों के बीच हो सकती है? सखीत्व क्या केवल लड़कियों के मध्य हो सकता है? लड़के और लड़की के संबंध मित्रतापूर्ण नहीं हो सकते क्या? लड़का और लड़की मात्र प्रेमी-प्रेमिका, पति-पत्नी, भाई-बहन या ऐसे ही किसी बंधन में बाँधे जा सकते हैं? मित्रता का बंधन उन्हें जोड़ नहीं सकता? समझ, पसंद और चाहत का रिश्ता मित्र के रूप में लड़के और लड़की नहीं रख सकते कभी? जरूरी है कि लड़के और लड़की के संबंधों के बीच वासना होगी ही? ठीक है कि अधिकांश स्थितियों में लड़के-लड़कियों के संबंध वासना एवं शरीर आधारित होते हैं किंतु क्या हर लड़के और लड़की के बीच विकसित संबंधों को केवल लिंग-भेद के साथ जोड़कर देखा जा सकता है?

मीनू मेरे साथ अपने संबंध मित्रवत्‌ मानती हो, ऐसा नहीं हो सकता क्या? हम दोनों में से किसी एक ने भी भाई-बहन या ऐसे किसी रिश्ते का नाम नहीं दिया है अपने संबंधों को कभी। शब्द की बात महत्त्वपूर्ण नहीं है, भावना के स्तर पर मीनू ने मुझे मित्र के रूप में देखा है हमेशा। बचपन में खेलते थे तब भी, अब अपना दुःख-सुख बाँटते थे तब भी। कहा चाहे कभी न हो किंतु रैगिंग प्रकरण में मारपीट के बाद बारह दिन बिस्तर पर रहने की अवधि में जब भी मीनू आती थी, उसकी आँखों में मेरे प्रति चिंता होती थी। प्रारंभ में वहां भय और चिंता का मिश्रण होता था। बाद में मेरा पक्ष सुनकर, मेरे इरादों की जानकारी पाकर और मेडीकल कॉलेज के अनेक विद्यार्थियों का संकल्प देखकर, भय का भाव उसकी आँखों से तिरोहित हो गया था। मगर उसकी आँखों से झाँकती चिंता पूरी तरह तभी समाप्त हुई थी जब समझौता ही गया था। जहां शब्दों का प्रयोग अनावश्यक हो जाता है, जहाँ पोर-पोर से गुंजित होती मंगलकामनाएँ वायुमंड़ल को कंपायमान करती रहती हैं, वहाँ सरल भाव के अतिरिक्त अन्य किसी भावना की बात सोचना भी ठीक नहीं है।

मीनू के विवाह की बातचीत चली तो मित्र को खो देने का डर उसको आतंकित कर गया होगा। पति न अपेक्षा करता है और न स्वीकार करता है कि उसकी पत्नी परपुरुष के साथ किसी प्रकार के संबंध रखे। पुरुष के साथ मित्रता की अवधारणा के अभाव में स्त्री-पुरुष के मित्रवत्‌ संबंधों की बात उसके जहन में आती नहीं है। पति अन्य पुरुष के साथ उसके संबंधों को केवल अनैतिकता की दृष्टि से देखता है। इसलिए विवाह के साथ मित्रता का गला घोंटने की अनिवार्यता ने मीनू को प्रेरणा दी होगी इस पथ का अनुसंधान करने की जो विवाह के बाद भी मित्र को उससे दूर न कर सके। मित्रता को बचाने का यही रास्ता उसे उचित लगा होगा। इसके बाद ही मीनू ने काकी से कहा होगा कि मेरे साथ विवाह की चर्चा करके देखे। इससे पहले मेरी तरह मीनू ने भी हमारे संबंधों को इस रूप में नहीं देखा होगा। अन्यथा हाव-भाव, तौर-तरीका, आँखों की भाषा, शब्द-चयन, शरीर-विन्यास, कुछ-न-कुछ उसके मनोभावों की चुगली कर देता। हर तरह मेरे सामने वह सामान्य रहती आई। कभी विशेष पोशाक पहनकर या श्रृंगार करके मुझे लुभाने की कोशिश उसने नहीं की। मैंने मीनू को प्रेयसी या भावी पत्नी के रूप में देखा नहीं, इसलिए ऐसी कोई अपेक्षा कभी नहीं की उससे। शरीर हमारी मित्रता का माध्यम होते हुए भी हम दोनों के लिए गौण रहा।

मीनू की ओर से विवाह की इच्छावाली बात सुनकर अम्मा यदि सोचती है कि हमारे बीच कोई चवकर रहा होगा, तो उसका दोष क्या है? अम्मा ही क्यों, कोई भी अगर इस बात को सुनेगा तो ठीक यही सोचेगा जो अम्मा ने सोचा है। बचपन से साथ खेले-कूदे, पढे-लिखे, पले-बढे लड़के-लड़़कियाँ एक-दूसरे के प्रति आसक्त हो जाते हैं, इसको सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है। यह सिद्ध करने की आवश्यकता जरूर है कि उन परिस्थितियों में बड़़े हुए बच्चे एक-दूसरे को चाहते हुए भी वासनाओं से हटकर केवल मित्र-भाव के वशीभूत प्यार कर सकते हैं। मित्रता को बचाने के लिए एक-दूसरे के साथ विवाह की बात सोच सकते हैं, अन्यथा विवाह के माध्यम से एक-दूसरे को पा लेने की बात वे नहीं सोचते। अम्मा ने तो बाद में सोचा होगा, काकी और पता लगने के बाद काका भोजामल ने ऐसा पहले सोचा होगा।

नहीं मालूम, काकी ने अम्मा को यह बात कब बताई? मीनू की सगाई से पहले, सगाई के तुरंत बाद या पिछले दिनों जब विवाह की तैयारियों के सिलसिले में अम्मा वहीं थी? मीनू की बात सुनकर हो सकता है काकी ने उसे डांटकर चुप करा दिया हो। हो सकता है, काकी हँसकर चुप हो गई हों। काकी ने काका भोजामल को यह बात अवश्य बताई होगी। काका भोजामल की प्रतिक्रिया क्या रही होगी? काका भोजामल ने तो खैर किसी भी स्थिति में सीधी बात बाबा से नहीं की होगी। या तो सलाह-मशविरा करके बात को वहीं दबा दिया होगा या फिर काकी ने अम्मा से पूछा होगा। मीनू की इचछा या मीनू से मेरे विवाह की चर्चा यदि काकी ने अम्मा से उस समय की होती तो अम्मा उन्हें चाहे जो कुछ कहे, मगर मुझसे जरूर कहती।

इसलिए काकी ने तब अम्मा से मीनू के संदर्भ में न पूछकर मेरे विवाह के बारे में पूछा होगा। हस्ब मामूल अम्मा ने कह दिया होगा, ‘‘अभी तो वह पढ़ रहा है, अदी। इस समय शादी करने का मतलब होगा घंटी अपने गले में बांधना।''

काकी ने हँसकर बात बदल दी होगी। हो न हो, काकी ने मीनू के मन की बात अम्मा को इन दिनों ही बताई है। अम्मा ने चाहे जो कुछ सोचा हो मगर वह भी काकी की तरह यह बात सुनकर हँसी जरूर होगी। काकी ने अम्मा को और अम्मा ने काकी को अपने मन की शंका नहीं बताई होगी, किंतु आज अम्मा ने जो प्रश्न मुझसे हँसते-हँसते पूछ लिया है, आशंका बनकर वह प्रश्न काकी के मस्तिष्क में उठा जरूर होगा। काकी मीनू की माँ है। अम्मा मेरी माँ है। काकी मुझे बचपन से देखती रही है। अम्मा मीनू को बचपन से देखती रही है। इसके बावजूद यदि मीनू ओर मेरे संबंधों के प्रति काकी और आम्मा आशंकित हैं तो मेरे नाराज होने का कोई कारण नहीं है इसमें। दोनों जो कुछ देखती-सुनती रही हैं उनका सोच उसके अनुरूप है कि पुरुष दोस्ती करते हैं। महिलाएँ सहेली बनाती हैं। पुरुष और महिला की मित्रता की भी कोई संज्ञा हो सकती है, यह बात उन्हें मालूम नहीं है। विवाह-प्रस्ताव की हलचल ने मीनू को इस संबंध पर विचार करने की प्रेरणा दी वरना मैं भी अम्मा से हुई बात को आरोप मानने के बाद ही सोचते-सोचते इस निर्णय पर पहुँचा हूँ। मैं व्याख्या करके मीनू और अपने बीच स्थापित मित्रता के घनीभूत संबंध को समझा सकता हूँ। संभवतः मीनू अब भी ऐसा न कर सके। लेकिन अनेक अत्यंत स्पष्ट धाराओं के बीच बहती एक अंतरधारा को पहचानने की आशा मैं क्यों करता हूँ? अम्मा से नाराज होकर, भोजन की थाली छोड़कर क्यों चला आता हूँ मैं? क्यों मैं महसूस नहीं करता कि हर आँख इतनी गहराई में पल्लवित पुष्प को नहीं देख सकती?

मीनू का सोच यथार्थपरक है। भारतीय समाज में, विशेषकर सिंध के रूढ़िग्रस्त समाज में, पुरुष-स्त्री की मित्रता को समझना बहुत मुश्किल काम है। संभवतः इस विचार-मंथन के बिना भी मैं विवाह के बाद मीनू से संपर्क करने की अतिरिक्त चेष्टा नहीं करता। किंतु अब मैं समझ सकता हूँ कि ऐसी कोई भी कोशिश भविष्य में मीनू के लिए परेशानी का कारण बन सकती है। मित्र की परेशानी का कारण मैं बनूँ, यह मेरी अंतिम वरीयता होगी। हम एक-दूसरे को नहीं देखेंगे, एक-दूसरे से नहीं मिलेंगे, एक-दूसरे से बात नहीं करेंगे तब भी एक-दूसरे के प्रति शुभेच्छाएँ रखेंगे। हम एक-दूसरे से चाहते ही क्या हैं इसके अतिरिक्त? पहले भी मंगलकामनाएँ की थीं, अब भी हित चाहते हैं और भविष्य में भी एक-दूसरे को प्रसन्न देखकर हमें प्रसन्नता मिलेगी। मीनू के विवाह की सूचना से मुझे कभी ऐसा नहीं लगा कि मेरा कुछ मुझसे छीना जा रहा है। अच्छा ही लगा कि उपयुक्त घर में उसका विवाह हो रहा है। पहले मीनू के विवाह से मुझे कोई तकलीफ नहीं थी, अब अम्मा की बात सुनकर मीनू के शुभ की कामना अधिक बलवती हुई है। मीनू मुझे पहले भी समझदार लगती थी, अब उसकी समझ को सलाम करने को जी चाहता है।

***

जीवन में अच्छा-बुरा जो कुछ होता है, क्या वह पूर्व निर्धारित होता है? एक ग्राहक दुकान पर आता है। नटराज की पुरानी काँसे की मूर्ति ढेर में से उठाता है। ध्यान से देखता है। उस पर हुई खुदाई का अध्ययन करता है। कहाँ से खरीदी? जिससे खरीदी, उसके पास कहाँ से आई? कबाड़ वाले को यह कलात्मक मूर्ति क्यों देनी पड़ी बेचनेवाले का? इस तरह के अनेक प्रश्न पूछता है। मूर्ति की कीमत पूछता है। ग्राहक ने मूर्ति के संबंध में इतने प्रश्न पूछे हैं, प्रश्न पूछते समय ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है कि कोई मूर्ख भी समझ सकता है, ग्राहक को मूर्ति बहुत पसंद आई है। मैं कहता हूँ, ‘‘आप पारखी हैं, साहब। आपसे मोल-भाव मैं नहीं करूँगा। जो कुछ देंगे, लेकर रख लूँगा। ग्राहक सौ का एक नोट देता है ओर मूर्ति उठाकर चला जाता है। दो-चार रुपए में खरीदी हुई मूर्ति एक सौ रुपए में बिक जाती है। मैंने मूर्ति की कीमत तक नहीं बोली। फिर भी मुझे अनायास इतना मुनाफा हो जाता है। क्या उस ग्राहक से वह लाभ पूर्व निर्धारित था? मूर्ति अब तक अगर नहीं बिकी तो क्या इसलिए क्योंकि आज पूर्व निर्धारित समय पर इसी ग्राहक को आकर इसे खरीदना था? यदि मैंं कबाड़ बेचने-खरीदने का धंधा न करता होता तो क्या यह ग्राहक फिर भी आता? मेरे प्रयत्न का कोई महत्त्व नहीं है? मैं दुकान पर नहीं बैठूं तब भी क्या यह ग्राहक मुझे रुपया दे जाएगा, क्योंकि उसका देना और मेरा लेना पूर्व निर्धारित है?

सक्रियता और निष्क्रियता, कर्म और अकर्म का भाग्य के साथ रिश्ता कई बार इतना भ्रमित करता है कि समझ में नहीं आता, क्या सच है और क्या झूठ है? अचानक मिल जाने वाला आदमी या स्थायी रूप से जुड़़कर बिछुड़़ने वाला आदमी भाग्य के किसी निश्चित विधान के अनुसार अचानक मिलता है या बिछुड़़ने के लिए मिलता है, यह प्रश्न डायरी पढने के बाद लगातार मुझे परेशान कर रहा है। बेटे-बेटी का जन्म इसी घर में क्यों हुआ? माता-पिता, भाई-बहन, मौसी-भाभी के रूप में इन लोगों के साथ ही संबंध क्यों बने? दोस्ती अमुक व्यक्ति के साथ ही क्यों हुई? महत्त्वपूर्ण होते हुए भी ये प्रश्न कभी सिर नहीं उठाते। किंतु अच्छी लगने वाली स्त्री या प्रिय लगने वाला पुरुष यदि वितृष्णा पैदा करने लगे तो उसका कारण गुण-दोष के अलावा कुछ और भी हो सकता है, यह शंका डायरी लेखक ने तुर्शी के साथ मेरे मस्तिष्क में उतार दी है। कल जिसे हम पसंद करते थे, उसमें केवल गुण थे, दोष एक भी नहीं था, यह बात विश्वसनीय नहीं है। हमने संपूर्ण गुण व दोषों के साथ उसे स्वीकार किया था। आज यदि उसके दोष इतने भारी महसूस होते हैं कि गुणों के परखच्चे उड़़ जाते हैं और हम संबंध तोड़ देने का फैसला करते हैं तो गुण और दोष इस फैसले के अकेले कारण नहीं ही सकते। यह शंका और भी बलवती होकर सताने लगती है जब ऐसा हादसा जीवन संगिनी के साथ हुआ हो।

डायरी-लेखक मीनू को पसंद करता है किंतु उसे पत्नी के रूप में उसने कभी नहीं देखा। मीनू ने अपनी माँ से कहा था कि डायरी-लेखक के साथ विवाह की बात चलाकर देखे, यह जानकारी उसे आश्चर्यचकित करती है। किंतु जब दोनों के बीच शारीरिक संबंधों का संकेत मिलता है तो वह क्रोधित हो जाता है। यद्यपि शारीरिक संबंधों की शंका डायरी-लेखक की अपनी माँ ने व्यक्त की है जिसे वह बहुत आदर की दृष्टि से देखता है, फिर भी यह शंका उसे आरोप जैसी प्रतीत होती है। उसकी बिगड़ी मनःस्थिति का सबसे बड़़ा कारण शायद यह है कि जो उसने नहीं किया, नहीं सोचा वह उसके ऊपर आरोपित किया जा रहा है। उसे अपराधी ठहराया जा रहा है उस अपराध के लिए जो उसने न कभी किया है और न कभी जिसे करने की बात उसके मस्तिष्क में आई है। इसलिए उद्वेलित होकर वह भोजन की थाली बीच में छोड़कर घर से निकल जाता है। भटकता रहता है और सोचता रहता है कि यह सब हुआ तो कैसे हुआ, क्यों हुआ?

डायरी-लेखक नतीजे पर पहुंचता भी है। यही नतीजा उसे मीनू की समझदारी को सलाम करने की प्रेरणा देता है। डायरी-लेखक मंथन के बाद जिस नतीजे पर पहुँचता है उससे सहमति और असहमति हो सकती है, किंतु एक कोशिश के बाद डायरी-लेखक के प्रति अपने सख्य भाव को भाग्य के भरोसे छोड़ देने की प्रवृत्ति मीनू के कार्यकलापों से जरूर स्पष्ट होती है। मीनू ने प्रयत्न का संतोष अपने खाते में लिख लिया। प्रयत्न की सफलता और असफलता तो पूर्व निर्धारित है। पूर्व निर्धारित की जानकारी नहीं होती, इसलिए बुद्धि के अनुसार प्रयत्न किए जाते हैं। भाग-दौड़, जोड़-तोड़़, उठा-पटक करने की चेष्टा होती है। मीनू को भी पूर्व निर्धारित की जानकारी नहीं थी, इसलिए अपनी सामर्थ्य के अनुसार सबसे बड़ी कोशिश उसने की। अपनी माँ से सत्रह वर्षीय, पुराने संस्कारों वाली लड़की जब अपनी पसंद के लड़के के साथ विवाह की बात चलाने के लिए कहती है तो उसके मन में जबरदस्त उथल-पुथल नहीं मची होगी, यह मानने का कोई कारण नहीं है। माँ क्या सोचेगी? क्या कहेगी? इतनी बड़ी बात कहने से पहले इस सत्रह वर्षीय साधारण पढी-लिखी लड़की के मन में ये प्रश्न न जाने कितनी ध्वनियों और प्रतिध्वनियों के साथ गूँजे होंगे। झंझाओं के शोर में से बचते-बचाते यदि वह सत्रह वर्षीय संकोची लड़की अपनी माँ से मन की बात कहने का साहस जुटा पाई तो निश्चय ही मन की उस बात का दबाव किसी और दबाव से ज्यादा होगा।

सफलता मिलने पर वांछित मिल जाएगा। मित्रता को चिरस्थायी बनाने की ललक हो या अचेतन में यह अहसास कि डायरी-लेखक से ज़्यादा अच्छा पति नहीं मिलेगा, मीनू ने अपनी कोशिश में असफल रहने पर बनने वाली स्थितियों के बारे में जरूर सोचा होगा। डायरी-लेखक का साथ हमेशा के लिए छूट जाएगा। भविष्य में उसके साथ संपर्कों में प्रगाढ़ता नहीं रह पाएगी। पति के घर में खुशी मिले या न मिले, उसी में संतुष्ट रहना होगा, दूसरे शब्दों में कहा जाए तो मीनू ने असफलता को भाग्य मानकर स्वीकार करने का मानस बना लिया होगा। भाग्य का अर्थ है, पूर्व निर्धारित घटनाक्रम से दो-चार होने की अनिवार्यता, प्रयत्न का कोई प्रभाव न होने की विवशता और होनी को स्वीकार करने की विकल्पहीन मजबूरी। मीनू के मन को जितनी भी पीड़़ा क्यों न मिली हो, किंतु पूर्व निर्धारित के सामने विवशता के कारण जीवन से विरक्ति पैदा नहीं हुई उसमें। डायरी-लेखक से विवाह की इच्छा पूरी नहीं हुई, इसलिए मीनू ने अन्न-जल का त्याग नहीं किया। आजीवन अविवाहित रहने की घोषणा नहीं की। आत्महत्या करने की कोशिश नहीं की। स्वाभाविकता और सरलता नहीं छोड़ी। सक्रिय, चपल और हँसमुख बनी रही। कम-से-कम जाहिर तो नहीं हुई इनमें से कोई प्रतिक्रिया उसके व्यवहार में।

डायरी-लेखक के भाग्य ने उसे और मीनू को बार-बार मिलाया। सिंध में बिछुड़़े तो उल्हासनगर में शरणार्थी शिविर में मिले। शरणार्थी शिविर में बिछुड़़े तो जयपुर में मिले। व्यावसायिक संबंधों के कारण मीनू और डायरी-लेखक के पिता में पारिवारिक संबंध गहरे हुए। मीनू और डायरी-लेखक को एक-दूसरे को अधिक निकटता से समझने का अवसर मिला। लगता है सांसारिक जीवन में एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति के साथ संबंध रखने, मिलने, बात करने का समय ठीक उसी तरह निश्चित होता है जिस तरह कहा जाता है कि निश्चित सांसें लेने के बाद उसका सांसारिक जीवन समाप्त हो जाता है। मृत्यु की भाषा में सोचें तो संबंधों की एक निश्चित उम्र होती है। आदमी की तरह वह पूर्व निर्धारित उम्र पूरी होते ही संबंधों की मृत्यु हो जाती है। मीनू और डायरी-लेखक के संबंधों की पूर्व निर्धारित साँसें भाग्य ने उन्हें बार-बार मिलाकर पूरी कर दीं। जो बची-खुची होंगी, अंतिम साँसों की तरह बीमार संबंधों के रूप में दोनों ढोते रहेंगे।

इस सिद्धांत के अनुसार, किस व्यक्ति की उम्र कितनी लंबी है जिस तरह यह कहना संभव नहीं है, उसी तरह संबंधों की उम्र कितनी लंबी रहेगी, यह कहना भी संभव नहीं है। फुलकारी मेरे धंधे का आधार है। बिना उसके मैं अपने आपको पंगु महसूस करता हूँ। क्या उसके साथ मेरे संबंधों की उम्र भी पूर्व निर्धारित है? इस जन्म में उम्र पूरी नहीं होगी तो अगले जन्म या अगले जन्मों तक संबंध चलते रहेंगे? इस जन्म में पूरी होती है तो उसी क्षण संबंध टूट जाएँगे, जिस क्षण उनकी उम्र समाप्त हो जाएगी? मीनू के डायरी-लेखक के साथ संबंध विवाह के कारण ग्रहण ग्रस्त हुए। उसने इससे पहले ही स्वयं को संबंधों की मृत्यु का दुःख झेलने के लिए मानसिक रूप से तैयार किया। किंतु जिन संबंधों के कारण मीनू ने डायरी-लेखक के साथ अपने संबंधों को मृत्यु की राह पर जाने दिया, उनकी अबाधता की जानकारी उसे थी क्या? क्या उसको मालूम था कि भाग्य ने पति के साथ संबंधों की जो उम्र निर्धारित की है, वह क्या है? यह अज्ञान सांसारिक जीवन का सबसे बड़़ा ज्ञान भी है और सबसे बड़़ा त्रास भी है।

मुझे पता लग जाए कि फुलकारी के साथ मेरे संबंधों की उम्र कम से कम इस जन्म में तो पूरी नहीं होगी तो मैं फुलकारी को सताने लगूँ, परेशान करके उसका शोषण करने लगूँ, इसकी संभावना बढ़ जाएगी। अगला क्षण अज्ञात है इसलिए अपनी बुद्धि से जो निर्णय मैं इस क्षण लेता हूं उसके परिणाम की जानकारी मुझे नहीं होती। जीवन में विविधता, रोमांच, दुःख, सुख, पीड़़ा, कष्ट आदि से संबंधित प्रत्येक अनुभूति विरलता और सघनता के साथ इसीलिए हो पाती है क्योंकि पूर्व निर्धारित अज्ञात होता है। फुलकारी मेरी दुकान छोड़कर किसी और कबाड़़वाले के पास जाना चाहता है। यदि मुझे मालूम है कि फुलकारी रुकेगा नहीं तो मैं उसे रोकने के लिए कुछ नहीं करूँगा। यदि मुझे मालूम है कि फुलकारी मुझे छोड़कर जाएगा नहीं तो मैं उसके जाने को लेकर चिंता नहीं करूँगा। फुलकारी को भी अगर पता है कि मेरे साथ उसके संबंधों की उम्र अभी लंबी है तो वह मुझे छोड़कर जाने की बात सोचेगा ही नहीं। ये आरोह-अवरोह, उद्वेग-संवेग के ज्वार-भाटे व्यक्ति के जीवन से निकल जाएँ तो फिर बचेगा क्या? एकरस जीवन किसे अच्छा लगेगा।

डायरी-लेखक सौच-विचार के बाद इस नतीजे पर पहुँचा है कि मीनू ने उसके साथ मित्रता को चिररथायी बनाने के लिए अपनी माँ से विवाह का प्रस्ताव रखने का आग्रह किया था। उसका निष्कर्ष है कि मीनू के मन में डायरी-लेखक के साथ विवाह की बात इससे पहले कभी नहीं रही। अन्यथा बातचीत, भंगिमा, मुस्कान, हाव-भाव से वह इस प्रकार का संकेत जरूर देती। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि उम्र कम होने के कारण माता-पिता की ओर से अभी विवाह की बात चलाने की कल्पना उसने न की हो? मन के किसी कोने में इच्छा रही हो कि डायरी-लेखक के साथ विवाह हो जाए किंतु स्पष्टता के अभाव में संकोच के कारण, जल्दी न होने के अहसास ने, उसके मन में इस आशा को बनाए रखा हो कि डायरी-लेखक के हृदय में यदि उसका स्थान है तो संकेत वही देगा। विवाह की बात चल रही है, यह जानकारी मिलने के बाद डायरी-लेखक के सामने प्रणय-निवेदन करने की बजाय उसे अपनी माँ से आग्रह करना ज्यादा ठीक लगा हो। डायरी-लेखक यदि इच्छुक होगा तो उसे भी अपने माता-पिता को कहना पड़ेगा। यदि औपचारिक प्रस्ताव मीनू के माता-पिता की ओर से जाता है और डायरी-लेखक इच्छुक है तो अपनी सहमति दे देगा। इच्छुक नहीं है तो मीनू सीधी बात करे, उससे भी कोई लाभ नहीं होगा। इन बिन्दुओं को ध्यान में रखकर स्वयं कभी संकेत न देने वाली और फिर माँ से आग्रह करने वाली बात मीनू के लिए अनपेक्षित है क्या?

डायरी-लेखक मीनू को अच्छी तरह जानता है। इसके आचार, विचार, व्यवहार से भली-भाँति परिचित है। मीनू के संदर्भ में जिस नतीजे पर वह सोच-विचार के बाद पहुँचा है, उसके ठीक होने की संभावना ज्यादा है। किंतु मीनू के व्यवहार का विश्लेषण करने पर यह निष्कर्ष भी निकल सकता है, इससे इन्कार शायद डायरी-लेखक स्वयं भी न कर सके। इस निष्कर्ष के खिलाफ़ केवल एक ही दलील बनती है। क्या सत्रह वर्ष की एक लड़की इतनी अधिक परिपक्व हो सकती है? यह दलील इतनी वजनदार है कि इसको ध्यान में रखकर तौलने के बाद डायरी-लेखक का सोच अपने निष्कर्ष की तुलना में मुझे अधिक ठीक लगता है।

मीनू समझदार है। डायरी-लेखक के साथ मित्रता की बलिवेदी पर चढकर विवाह करना होगा, यह बात अच्छी तरह जानती है। भारतीय समाज में विवाह के बाद परपुरुष के साथ शरीर विहीन मित्रता भी स्वीकार्य नहीं है, इस सच्चाई का अहसास उसे बखूबी है। अपने माहौल से, अपने संस्कारों से इतनी समझ उसमें पैदा हो गई है कि समाज की स्वीकृत मर्यादाओं के अंदर रहकर ही उसे जीवन व्यतीत करना है। इसलिए एक अपरिचित के साथ फेरे लेते हुए, वह मित्र जिसे पति के रूप में पाने का प्रयत्न उसने किया था, भूत बनकर उसे न आतंकित कर पाया और न उसकी परछाई ही पड़़ने दी उसने अपने ऊपर। कबाड़ बेचता हूँ। इन्सान साँस लेता है। कबाड़ निर्जीव है। हो सकता है मेरा सोचना ठीक न हो किंतु डायरी-लेखक के साथ मीनू का विवाह हो जाता, तो दोनों के लिए ज्यादा अच्छा होता। मीनू को मित्र पति के रूप में मिल जाता और डायरी-लेखक को ऐसी पत्नी मिल जाती, जिसके विचार उससे मिलते थे।

मेरी गुत्थी पूर्वापेक्षा सुलझी है। किंतु अब भी वह इतनी उलझी हुई है कि उसे पूरी तरह सुलझा देखने के लिए मुझे इंतजार करना पड़ेगा।

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