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अपनी अपनी मरीचिका - 10

अपनी अपनी मरीचिका

(राजस्थान साहित्य अकादमी के सर्वोच्च सम्मान मीरा पुरस्कार से समादृत उपन्यास)

भगवान अटलानी

(10)

11 अगस्त, 1952

बीता कल रविवार था और आने वाले कल जन्माष्टमी की छुट्‌टी है। पंद्रह अगस्त का अवकाश भी इसी सप्ताह है। इसलिए बाहर से जयपुर आकर पढ़ने वाले अधिकतर लड़के घर चले गए हैं। कक्षा में उपस्थिति कम थी, इस कारण से पहला पीरियड पढाने आए अध्यापक ने छुट्‌टी कर दी। इसके बाद सबका मन ऐसा उखड़ा कि साइकिलें उठाकर पिकनिक मनाने निकल गए। आठ बजे घर लौटा हूँ। कई दिनों से डायरी लिखने की बात सोच रहा हूँ। दिमाग में बहुत-सी सामग्री इकट्‌ठी हो गई है। कॉलेज में पढाई नहीं हुई इसलिए रात को पढ़ने की अनिवार्यता नहीं है। रोजाना तो जो आज पढाया गया और कल पढाया जाएगा, उसे मैं रात को पढता हूँ। सुबह पाँच से सात बजे तक यह मानकर पढाई करता हूँ कि मुझे कॉलेज की पढाई के सहारे नहीं, अपनी पढाई के सहारे उत्तीर्ण होना है। आठ बजे कॉलेज पहुँचना होता है। सात बजे उठकर, नहा-धोकर, खा-पीकर, साइकल लेकर निकलता हूँ। तब जाकर कहीं दौड़ते-भागते कॉलेज पहुँच पाता हूँ।

इस साल परीक्षाएँ विश्वविद्यालय ने ली थीं। मार्च में वार्षिक परीक्षाएँ हुईं। तीन टैस्ट इस साल भी हुए लेकिन उनके आधार पर केवल दस प्रतिशत अंक जोड़कर वार्षिक परीक्षा का परिणाम घोषित हुआ। पिछले साल जो नींव हमने डाली थी, पुख्ता हो गई है। कम-से-कम हमारी कक्षा में, योग्यता अंकों का आधार होती है। प्रथम वर्ष की तरह योग्यता के अलावा सब कुछ महत्त्वपूर्ण है, वाली बात अब नजर नहीं आती। इसी के कारण पिछले साल जो भरोसा मैंने स्वयं को दिया था, उसे सार्थक करते हुए मैं कक्षा में तीसरा स्थान बना पाया। वर्ष-भर दिए गए टैस्ट रहे हों, चाहे कक्षा में पढाए जाने वाले विषयों पर बातचीत, बहस और प्रश्नोत्तर, योग्य एवं मेधावी छात्र की मेरी छवि में निखार ही आया। सहपाठियों के बीच भी और अध्यापकों के बीच भी मेरी प्रतिभा की धाक बढी। इस वर्ष कॉलेज की ओर से वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में भाग लेकर मैंने अपने लिए तीन पुरस्कार और कॉलेज के लिए दो शील्ड़ जीते। प्रवेश के प्रारंभिक दिनों में बनी नेता वाली छवि अब पूरी तरह बदलकर ऐसे छात्र की छवि में परिणत हो गई है जो होशियार, पढाई में तेज, मिलनसार, पाठ्‌येतर गतिविधियों में सक्रिय और नेतृत्व की क्षमता रखने वाला है। कक्षा का कोई भी महत्त्वपूर्ण या सामूहिक काम मेरी सहमति के बिना नहीं होता। बीस लड़कों की हमारी मंडली पूर्ववत्‌ बनी हुई है।

रैगिंग के विकल्प के रूप में गत वर्ष जो नई परंपरा हमने शुरू की थी, चालू वर्ष में वह परंपरा लुप्त या कमजोर न हो जाए, इसका पुख्ता इंतजाम हम लोगों ने किया था। हमारी मंडली ने सतर्कता के साथ स्थितियों पर नजर रखी। द्वितीय वर्ष के किसी छात्र ने प्रारंभिक दो-चार दिनों में नए छात्रों में से किसी को अगर रैगिंग के लिए पकड़ा तो हमने उसे घेर लिया। उससे पूछा कि पिछले साल तेरी रैगिंग किसने की थी? नकारात्मक उत्तर मिलने पर कुछ समझाकर और कुछ डांटकर हमने गत वर्ष प्रारंभ की गई नई परंपरा के अनुसार जुलाई के पहले या दूसरे सप्ताह में नए लड़कों को चाय-पान के लिए बुलाकर उस परंपरा को आगे बढाने का आग्रह किया। द्वितीय वर्ष के उन छात्रों को हमने बुलाया, जिनकी अपनी कक्षा पर पकड़ थी। रैगिंग और चाय-पान के कार्यक्रम के बारे में उनसे बातचीत की। गत वर्ष की तरह इस वर्ष भी दस जुलाई को ही द्वितीय वर्ष के छात्रों ने प्रथभ वर्ष के छात्रों को चाय-पान के लिए आमंत्रित किया। कोशिश रहेगी कि हम लोग जब एम0बी0, बी0एस0 करके निकलें तो चाय-पान का कार्यक्रम मेडीकल कॉलेज में इतने सुदृढ रूप से प्रचलित हो जाए कि रैगिंग करने वाली बात किसी को याद ही न रहे।

बाबा की आमदनी पहले की तुलना में कई गुना बढ गई है। उनके सामने अभी अनेक लक्ष्य हैं, जिनकी पूर्ति के लिए उन्हें पैसा जमा करना है। थड़ी बेचकर बाबा एक पक्की दुकान लेना चाहते हैं। रहने के लिए मकान खरीदना चाहते हैं। अम्मा की बाँहों को सोने की चूड़ियों से भर देना चाहते हैं। अपने लिए सोने की चैन ओर हीरे की अँगूठी खरीदना चाहते हैं। जो कुरता वे पहनते हैं उसके लिए सोने के बटन बनवाना चाहते हैं। हीरे की लौंग और हीरे जड़़े बुंदे दिलवाकर अम्मा की सिंध की अधूरी इच्छा पूरी करना चाहते हैं। फिलहाल बाबा बाजार में पैसा ब्याज पर चलाते हैं। काका भोजामल ने परिवार के बढे खर्चों के बावजूद मीनू की शादी की है। बाबा मुझे कई बार ट्‌यूशन छोड़ने के लिए कह चुके हैं। उनसे मैं कुछ नहीं कहता, मगर ट्‌यूशन करता रहता हूँ। फीस, किताबों की कीमत, जमाने की रंगत के अनुसार कपड़़े, नई साइकल पर उन्होंने बरवक्त पैसा खर्चा किया है। हर महीने सौ रुपए वे मुझे हाथ-खर्च के लिए देते हैं। छात्रवृत्ति मुझे इस वर्ष भी मिली है। ट्‌यूशन, छात्रवृत्ति और बाबा के दिए हुए हाथ-खर्च में से बचाकर एक हजार रुपया मैंने पिछले साल भर में अम्मा को दिया है। लक्ष्यपूर्ति के लिए, संभावित खर्चों को ध्यान में रखते हुए बाबा कंजूसी करते हों, ऐसा बिलकुल नहीं है। मेरा और अम्मा का हाथ उतना ही खुलता है, जितना ्‌ज़रूरी होता है। ईंधन के मामले में चूरीमिट्‌टी के लड्‌ड़ू बनाने वाली बात हो या हर दूरी पैदल तय करने वाली नीति, अम्मा फिजूलखर्ची बिलकुल नहीं करती है। खर्च के बारे में जो नियम उसने अपने लिए यहाँ आने के तुरंत बाद निर्धारित किए थे, वह ध्यान पूर्वक अब भी उनका पालन करती है।

मीनू को विवाह के बाद पति के साथ भोजन के लिए बुलाया था। काका भोजामल और उनके पूरे परिवार को भी आमंत्रित किया था। मीनू के पति शराब पीते हैं या नहीं पीते, मैं नहीं कह सकता, लेकिन बाबा के बहुत आग्रह करने के बाद भी हमारे घर में उन्होंने शराब नहीं पी। बाबा व काका भोजामल शराब पीते रहे और मीनू के पति सोडा वाटर। मीनू नई दुलहन के कपड़ों में थी और खुश लग रही थी। ससुराल में अपने पति के साथ सोनू खुश रहे, हम सब भी तो यही चाहते हैं। मैं और वीरू परोसगारी कर रहे थे। बाबा, काका भोजामल, मीनू के पति और काका भोजामल के दोनों विवाहित लड़के साथ बैठे थे। चारपाइयाँ मिलाकर, उन पर चादरें बिछाकर बैठने की व्यवस्था थी। मीनू वहीं चारपाई पर बैठी गपशप में भाग ले रही थी। कभी वह उठकर रसोईघर की तरफ चली जाती, कभी यहाँ-वहाँ खड़ी होकर भतीजों-भतीजियाों के साथ चुहल करती और कभी चारपाई पर टाँगें लटकाकर बैठ जाती। शादी के बाद अपने मायके में आकर लड़की जैसा महसूस करती है, वैसा ही निश्िंचत और स्वतंत्र मीनू महसूस कर रही थी। डॉक्टर साहब संबोधन के साथ दो-एक बार मीनू के पति ने अपने पास बैठाकर मुझसे निकटता स्थापित करती चाही, लेकिन परोसगारी की जिम्मेदारी होने के कारण मैं उनके पास बैठकर विशेष बातचीत नहीं कर पाया। यों भी उनके साथ निकटता का कोई औचित्य नहीं था। मुझे अकारण उनके घर जाना नहीं है। उन्हें अकारण हमारे घर आना नहीं है। गलती से कभी काका भोजामल के घर मुलाकात हो जाए तो अलग बात है, अन्यथा सालों साल शायद मुलाकात भी न हो हमारी। फिर निकटता बढाने की औपचारिकता में उलझने से क्या लाभ? मैंने तो मीनू से भी उस दिन औपचारिक बातचीत ही की। अपनी सीमाएँ और मर्यादाएँ जानने वालों के लिए अच्छा यही होता है कि वे उनका उल्लंघन न करें। मीनू के पति शिष्ट और मिलनसार हैं। देखने-सुनने में अच्छे हैं। कम-से-कम मुझे तो वे ठीक ही लगे।

कॉलेज छात्रसंघ के महासचिव ने इस वर्ष सबसे ज्यादा निराश किया। मुझे अपराध-बोध इसलिए होता है क्योंकि कक्षा के साथियों ने, कुछ अन्य लोगों ने महासचिव पद का चुनाव लड़ने के लिए पुरजोर आग्रह किया था, मगर मैंने उन्हें टाल दिया था। वैसे तो इससे पहले जो लड़़के छात्रसंघ के महासचिव बने हैं, छात्रों के हित में उन्होंने क्या किया है, यह बात मुझे मालूम नहीं है, किंतु महासचिव के रूप में मैं जो कुछ करता, वह तो दूर रहा वर्तमान महासचिव ने ऐसा मान लिया कि बाहुबल के सहारे कॉलेज तो क्या पृथ्वी की संपदा को भी भोगा जा सकता है। उसके कुकृत्य देख-देखकर मैं अपने निर्णय पर पछताता रहा। अपनी भावनाओं की विस्तृत चर्चा मैंने अपने साथियों से की तो उन्होंने भी पलटकर सारी स्थितियों का दोष मेरे ऊपर मढ़ दिया।

जो बातें मुझे अच्छी नहीं लगीं, उन्हें गिनने बैठूंगा तो सूची बहुत लंबी हो जाएगी। सबसे पहले पिकनिक के दौरान और उसके बाद अगले कुछ दिनों में ऐसी बातें सामने आईं, जिन्हें देख-सुनकर हमारे कान खड़े हो गए। वर्षा ऋतु में किसी समय प्रतिवर्ष मेडीकल कॉलेज के सभी विद्यार्थियों की एक पिकनिक आयोजित की जाती है। पिकनिक का आयोजन छात्रसंघ करता है। हर साल पिकनिक का पैसा जोड़कर फीस कॉलेज में जमा कराई जाती है। लगभग आठ हजार रुपयों की धनराशि छात्रसंघ के महासचिव के पास पिकनिक के लिए उपलब्ध रहती है। पिकनिक स्थल पर आने-जाने के लिए बसें, नाश्ते के अलावा दाल, बाटी, चूरमे की व्यवस्था, हाउजी, तीन टांग की दौड़, जलेबी दौड़, कॉलेज किंग व कॉलेज नवीन के रैफल, म्यूजीकल चेयर जैसे खेलों के बीच साल-भर याद रखने लायक मौज-मस्ती का वातावरण रहता है। विद्यार्थी पिकनिक की प्रतीक्षा करते हैं।

इस बार सभी विद्यार्थियों को सुबह साढे नौ बजे कॉलेज बुलाया गया था। अकेला लड़का, अकेली लड़की, एक लड़का और एक लड़की साथ, दो लड़के साथ, दो लड़कियाँ साथ इस प्रकार पाँच वर्गों में कॉलेज से आमेर तक साइकल दौड़ का आयोजन किया गया था। पिकनिक में जाने वाले प्रत्येक लड़के और लड़की के लिए पाँच में से किसी-न-किसी वर्ग में भाग लेना आवश्यक था। स्टाफ सदस्यों में से कोई भी बस में विद्यार्थियों के साथ नहीं जाता था, इसलिए बसों की व्यवस्था नहीं की गई। आमेर की दूरी कॉलेज से केवल आठ मील है। इसलिए किसी विद्यार्थी को इस प्रतियोगिता में भाग लेने में परेशानी नहीं हुई। सबको बहुत आनंद आया। प्रत्येक वर्ग में सबसे पहले आमेर पहुँचने वालों को पुरस्कार दिए गए।

आमेर पहुँचकर सबको एक केला और एक सेब दिया गया। इसके बाद विभिन्न खेल शुरू हुए। हो-हल्ला, छेड़छाड़, चीख-चिल्लाहट, गीत-नृत्य के बीच भोजन का समय हो गया। भोजन चल ही रहा था कि हमने देखा, महासचिव सहित कुछ लड़के एक तरफ पेड़ों के झुरमुट में बैठे शराब पी रहे थे। हमने जान-बूझकर दरगुज़र किया। भय तो था ही कि तूल पकड़ने पर यह बात कोई दूसरा रूप भी ले सकती है। भोजन समाप्त हुआ तो शाम के पाँच बज चुके थे। लड़के-लड़कियों को साइकलों से लौटना था। कम-से-कम एक घंटे का रास्ता था। बीच में घाटी पड़ती थी। महासचिव और उनके साथी शराब पीकर फैल रहे थे, आपस में झगड़़ रहे थे और गालियाँ दे रहे थे। पहल करके दस-दस के मिश्रित समूहों में हमने लड़के-लड़कियों को वापस भेजना शुरू किया। सबके जाने के बाद महासचिव और उसके साथियों को साइकलों के डंडों पर बैठाकर किसी तरह हमने उनके घरों पर पहुँचाया।

दूसरे दिन कॉलेज में पिकनिक की मौज-मस्ती की जगह महासचिव और उसके साथियों के किस्से सबकी जुबान पर थे। सब लोग उनके आचरण पर थू-थू कर रहे थे। विशेष रूप से लड़कियाँ इतनी अधिक क्षुब्ध थीं कि उनमें से कई भविष्य में पिकनिक में न जाने की कसम खा रही थीं। तभी पता लगा कि साइकल दौड़ प्रतियोगिता रखकर बसों का जो पैसा बचाया गया था उसे महासचिव और उसके साथी आपस में बाँटकर खा गए हैं। पिकनिक के लिए उपलब्ध राशि में से बचाकर उसका दुरुपयोग करने की बातें हम लोग पहले सुनते थे, मगर योजनापूर्वक इस मद में से एक बड़ी रकम डकार जाने की कोई बात हमने इससे पहले नहीं सुनी थी। अगले कुछ दिनों में छात्रसंघ के महासचिव सहित लगभग सभी पदाधिकारियों की हमने खूब ख्िांचाई की। लेकिन उन्होंने स्वीकार नहीं किया कि पिकनिक के पैसे में से उन्होंने किसी प्रकार की हेरा-फेरी की है। मेरे प्रति दुर्भावना के बीज भी महासचिव के मन में इस घटना के बाद की गई उसकी ख्िांचाई के कारण पड़े। आगे चलकर एक मामले में उसने मुझसे हिसाब चुकता करने की कोशिश ही नहीं की, उस कोशिश में सफलता भी मिली उसे।

दोपहर के समय मेरे लिए न घर जाकर भोजन करना संभव होता है और न टिफिन साथ लेकर आना ठीक लगता है। बाबा की कमाई में वृद्वि के कारण आर्थिक दृष्टि से मैं उतना दबाव महसूस नहीं करता था। नाश्ता करके और दूध पीकर मैं घर से आता था किंतु शाम को घर लौटने तक पेट के लिए यह सब पर्याप्त नहीं होता था। मैंने छात्रावास में रहने वाले अपने सहपाठियों के साथ अतिथि के रूप में छात्रावास के भोजनालय में दोपहर का भोजन करना शुरू किया। भोजन का हिसाब भोजनालय के मासिक खर्च में जितने समय भोजन हुआ, उसका भाग देकर निकाला जाता है। अतिथि ने जितने समय भोजन किया है उसके आधार पर संबंधित छात्र से राशि ले ली जाती है। जितने लड़कों के अतिथि के रूप में भोजन करता था, मैं उन्हें भुगतान दे देता था। इस व्यवस्था में और कोई परेशानी नहीं थी। बस, अलग-अलग छात्रों को, उनके साथ अतिथि के रूप में किए गए भोजन का पैसा देने के लिए मुझे हिसाब रखना पड़ता था।

मेडीकल कॉलेज के विद्यार्थियों के लिए चार छात्रावास हैं। एक छात्रावास में लड़कियाँ रहती हैं। शेष तीन में से एक में स्नातकोत्तर कक्षाओं के छात्र, दूसरे में तृतीय से पंचम्‌ वर्ष के वरिष्ठ छात्र और तीसरे में प्रथम व द्वितीय वर्ष के वरिष्ठ व कनिष्ठ छात्र रहते हैं। चारों छात्रावासों में भोजनालय चलते हैं। भोजनालय की व्यवस्था संबंधित छात्रावास में रहने वाले छात्रों के चुने हुए प्रतिनिधि करते हैं। छात्रसंघ पर महासचिव के रूप में जिस छात्र का कब्जा रहता है उसी के चहेते छात्र भोजनालय की व्यवस्था के लिए चुने जाते हैं। भोजनालय के लिए जो सामान, आटा, दाल, घी, तेल, सब्जियाँ, दूध, दही, पनीर आदि खरीदा जाता है उसमें ये लोग हेराफेरी करते हैं। छात्रावासों के भोजनालयों में प्रति समय भोजन का खर्च यदि एक आना भी बढ़ जाता है, तो हजारों रुपए महीना इधर-उधर हो जाते हैं।

सारी व्यवस्था का दायित्व क्योंकि चुने हुए छात्र प्रतिनिधि का होता है इसलिए मैंने औपचारिक रूप से कनिष्ठ छात्रावास के भोजनालय के छात्र प्रतिनिधि से संपर्क किया। उसने कहा, ‘‘मेरे बिचार से कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए, फिर भी मैं महासचिव से पूछकर बताऊंगा।''

दो दिन बाद उसने बताया, ‘‘महासचिव ने वार्डन से बात की थी। नियमानुसार छात्रावास के भोजनालय में नियमित रूप से भोजन केवल वे छात्र कर सकते हैं जो छात्रावास में रहते हैं। तू डे-स्कॉलर है इसलिए नियमित रूप से भोजन वाली बात नहीं बन सकती। तू अतिथि के रूप में भोजन करता रह न, क्या दिक्कत है?''

मुझे मालूम था कि नियमों में किसी डे-स्कॉलर को छात्रावास के भोजनालय में भोजन करने की सुविधा देने का प्रावधान नहीं है। यदि छात्र प्रतिनिधि चाहे तो बिना शोर-शराबे के ऐसी व्यवस्था कर सकता है। किसी को नुकसान हो नहीं रहा है इसलिए खामोशी से इस तरह की व्यवस्था हो जाती है। भोजनालय का खर्च छात्रों में बँट जाता है। कॉलेज की ओर से किसी प्रकार का अनुदान मिलता नहीं है। जितनी अधिक संख्या में भोजन करने वाले होंगे, प्रति छात्र खर्च उतना ही कम आएगा। इस कारण से किसी को इस तरह के अनुरोध को स्वीकार करने में हिचकिचाहट नहीं होती है। मैंने छात्र-प्रतिनिधि से कुछ नहीं कहा। कनिष्ठ छात्रावास के वार्डन से मिला। महासचिव ने सचमुच उससे संपर्क किया था। उसने कहा, ‘‘नियमानुसार छात्र के लिए छात्रावास में रहना जरूरी है किंतु इसमें एतराज होना नहीं चाहिए। इंतजाम तो आप लोग ही करते हैं, देख लीजिए। नियमों के कारण मैं तो कुछ करने की स्थिति में हूँ नहीं।''

चीफ़ वार्डन से मिला तो उसने वार्डन से बात करने के लिए कहा। वार्डन से हुई बातचीत का विवरण उसे दिया तो उसने वार्डन से बात करके और स्वयं एक बार नियम देख लेने के बाद मिलने के लिए कहा। मैं दुबारा मिलने गया तो उसने भी वार्डन वाली बात दोहरा दी, ‘‘लिखित में तो इजाजत नहीं दी जा सकती, लेकिन सब कुछ आप लोगों के हाथ में है। वैसे भी सारे काम नियमों के अनुसार कौन करता है?''

प्रशासनिक स्तर पर काम बनता न देख मैं अपने कुछ साथियों को लेकर महासचिव के पास गया, ‘‘बॉस, देख लीजिए न, कोई रास्ता निकल सकता हो तो निकालकर नाम लिखवा दीजिए।''

‘‘तुम्हें रोकता कौन है? अतिथि के रूप में भोजनालय में भोजन करने से तुम्हें कोई रोके तो बताओ। जब ऐसे ही काम निकल रहा है तो नियम क्यों तुड़वाते हो?''

उससे बहस करने की, दलीलें देने की बहुत कोशिश की मगर उसका जवाब एक ही था, ‘‘अतिथि के रूप में भोजन करने से तुम्हें कोई नहीं रोकेगा। हमें नियम तोड़़ने के लिए मजबूर मत करो।''

मेरे साथियों ने वापस लौटकर उसे जमकर गालियां दीं। मगर भोजनालय का सदस्य नहीं बनने दिया तो नहीं ही बनने दिया उसने। यद्यपि इससे उसको कोई लाभ नहीं हुआ, किंतु पिकनिक वाले दिन का हिसाब उसने चुकता कर दिया।

उसकी तोड़़फोड़़ और भुजबल से समस्याएँ सुलझाने की प्रवृत्ति के कारण उन दिनों ही एक हंगामा हो गया। हमारे कॉलेज के दो छात्र मोटरसाइकल से अजमेर जा रहे थे। जयपुर से तेईस मील आगे दुर्धटना हो गई। ट्रक ने मोटरसाइकल को पीछे से टक्कर मारी। दोनों लड़़के गिरे और ट्रक उनके ऊपर से निकल गई। मौके पर ही दोनों की मृत्यु हो गई। खबर मेडीकल कॉलेज पहुँची तो कुछ छात्र मोटरसाइकलों से तुरंत रवाना हो गए। महासचिव ने प्रिसिंपल से बात करके उनसे माँग की कि दोनों छात्रों के मृत-शरीर जयपुर लाने के लिए एम्बुलेंस उपलब्ध कराई जाए। प्रिसिंपल ने इस माँग को अस्वीकार कर दिया। उनका कहना था कि छात्र निजी कारणों से, निजी वाहन से अजमेर जा रहे थे। शासन या अस्पताल या कॉलेज से उनकी यात्रा का प्रत्यक्ष या परोक्ष कोई संबंध नहीं था। राजमार्गों पर न जाने कितनी दुर्घटनाएँ प्रतिदिन होती हैंं। उनमें न जाने कितने लोगों को जान से हाथ धोना पड़ता है। जब उनके लिए एम्बुलेंस नहीं जाती है तो छात्रों के लिए भी एम्बुलेंस नहीं जाएगी। एम्बुलेंस गई तो लोग आरोप लगाएँगे कि दुर्धटना में मृत लड़के क्योंकि मेडीकल कॉलेज में पढ़ते थे, इसलिए यह पक्षपात हुआ है। महासचिव ने प्रस्ताव रखा कि एम्बुलेंस में पैट्रोल लड़के भरवा देंगे। प्रिसिंपल ने यह बात भी नहीं मानी। उनका निर्णय पूर्ववत्‌ था, ‘‘एम्बुलेंस ले जानी है तो किराया-भाड़ा अग्रिम जमा कराइए।''

विवश होकर महासचिव ने किराया जमा कराके एम्बुलेंस भिजवाने के आदेश कराए। उसके साथ कुछ छात्र एम्बुलेंस में ही दुर्घटनास्थल के लिए निकल गए। दोनों छात्रों के सफेद चादर से ढके मृत शरीर लेकर एम्बुलेंस और मोटरसाइकलों का काफिला वापस लौटा। उधर पोस्टमार्टम की प्रक्रिया चल रही थी और इधर महासचिव दुःखी व क्रोधित छात्रों को गुस्से से उफनते हुए कह रहा था, ‘‘हमारे दो होनहार साथियों के मृत शरीर लावारिस सड़क के किनारे पड़े थे और प्रिसिंपल हमें नियम दिखा रहे थे। कायदे कानून आदमी के लिए होते हैं, आदमी कायदे-कानून के लिए नहीं होता है। जो नियम हमारे ऊपर सवार हो जाएँ, ऐसे नियम हमें नहीं चाहिएं। ऐसे नियमों को हम आग लगा देंगे। ऐसे नियम बनाने वालों को हम फूक देंगे। हमारे शहीद साथियों की आत्माएँ अपने अपमान का बदला लेने के लिए तड़प रही हैं। हम उनके अपमान का बदला लेंगे। इन बड़ी-बड़ी इमारतों के विशाल कमरों में बैठकर अपने आपको शहंशाह समझने वालों को हम बता देंगे कि भारत में अब राजाशाही और सामंतवाद नहीं चलेगा, कि भारत में अब लोकतंत्र है। यहाँ वही होगा, जो जनता चाहेगी।''

इस तरह का भड़़काने वाला भाषण सुनकर छात्रों की मनःस्थिति पर जो विपरीत प्रभाव पड़ने की आशंका होती है, वही हुआ। भाषण के दौरान ही नारेबाजी, पत्थरबाजी, तोड़़-फोड़़ और आगजनी शुरू हो गई। पुलिस आई। लाठीचार्ज हुआ। आँसू गैस के गोले छोड़कर क्रुद्ध छात्रों को तितर-बितर किया गया। महासचिव सहित धेरे में आने वाले छात्रों को पुलिस पकड़कर ले गई। माहौल शांत हुआ तो पता लगा कि भवन के शीशे पत्थरों की मार से टूट गए थे। मुख्य दरवाजा आग से झुलस गया था। कॉलेज के अहाते में खड़ी बस को तोड़़-फोड़़ करने के बाद स्वाहा कर दिया गया था। स्टील और लोहे के मलबे के अलावा बस की जगह कुछ नहीं था।

महासचिव ने हिंसा भड़़काकर प्रिसिंपल के सैद्धांतिक एतराज का हिंसक जवाब दिया। प्रिसिंपल के एम्बुलेंस भेजने से इनकार करने के बाद रुपए जमा कराके काम तो निकाला ही गया था। अब प्रश्न उन रुपयों का था जो एम्बुलेंस के लिए जमा हुए थे। प्रिसिंपल ठीक था या नहीं? उसने अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुए छात्रहित में एम्बुलेंस भेजने की बात न मानकर ठीक किया या नहीं? एम्बुलेंस भेजने की स्थिति में हो सकता है प्रिसिंपल पर पक्षपात करने के आरोप लगते, किंतु एम्बुलेंस न भेजने पर जो तूफान उठा, उसका अनुमान प्रिसिंपल ने लगाया था या नहीं? इन प्रश्नों के उत्तर हिंसा से मिलने संभव नहीं हैं। एम्बुलेंस का पैसा जमा कराके, मृत शरीर मंगवाकर, पोस्टमार्टम करके दाह-संस्कार करा दिया जाता। लड़के मेडीकल कॉलेज में पढते थे, एम्बुलेंस मेडीकल कॉलेज की है, इस आधार पर जमा कराए गए रुपए वापस माँगने की कार्रवाई चलाई जा सकती थी। मिल जाते बहुत अच्छा, नहीं मिलते तब भी इतने से रुपयों को इज्जत का प्रश्न बनाकर कॉलेज में हिंसा फैलाना उचित नहीं ठहराया जा सकता। बाहुबल और शक्ति प्रदर्शन के आधार पर समस्याओं का हल निकालने में विश्वास करने वाले महासचिव को यह बात समझ में नहीं आ सकती कि वह गुंडों का सरदार नहीं है। मेडीकल कॉलेज में पढ़ने वाले पढे-लिखे युवक-युवतियों, देश के भावी डॉक्टरों ने चुनकर उसे महासचिव की कुरसी पर इसलिए नहीं बैठाया है ताकि वह अपनी सत्ता को कायदे, कानूनों और नियमों से ऊपर समझने लगे। चतुराई के साथ स्थितियों में सुधार करने का दायित्व सौंपा गया है उसे। सत्तामद में चूर होकर स्थितियों को बिगाड़़ने के लिए उसे महासचिव नहीं चुना गया।

मैं और मेरे साथी इस घटना पर कई दिनों तक बातचीत करते रहे। कुछ दिनों तक तो हमारी बातचीत का केंद्र बिंदु महासचिव और उसका विध्वंसात्मक सोच ही रहा। वैचारिक रचनात्मकता के अभाव में व्यावहारिक रचनात्मकता की कल्पना की नहीं जा सकती। पद का दुरुपयोग करने वाला कोई भी व्यक्ति शायद रचनात्मक हो ही नहीं सकता। रचना में भी वह अपना लाभ तलाश करेगा। उन्हें लगता है कि प्रभुत्व धौंस से मिलता है, आतंक से मिलता है, हिंसा से मिलता है, गुंडागर्दी से मिलता है, मारपीट से मिलता है, डरा-धमकाकर गलत को मनवा लेने से मिलता है। किंतु इस तरह के लोग यदि नेतृत्व सँभालते हैं तो अपने अनुयायियों को भी उन्हीं कीटाणुओं का भंड़ार बना देंगे। विध्वंसात्मक सोच वाले पतवारधारी कहाँ ले जाएँगे हमारे नवस्वतंत्र देश को? एक बार तो महासचिव को पद से हटाने के लिए अभियान चलाने की बात भी उठी थी। किंतु लगा कि यह काम करने से कॉलेज में झगड़े होने लगेंगे। मेडीकल कॉलेज को गृहयुद्ध में झोंकने का निर्णय महासचिव के सोच से कम विध्वंसात्मक कहलाएगा क्या? कुछ महीनों की बात है। इसके बाद तो छात्रसंघ का काम यों ही समाप्त हो जाएगा।

कुछ दिनों के बाद मैंने एक ऐसा दृश्य देखा जिसने मुझे पूरी तरह हिलाकर रख दिया। रात को दस बजे का समय होगा। नवंबर का महीना था और दूसरा टैस्ट चल रहा था। मैं घर पर बैठा पढ़ रहा था कि बायोकैमिस्ट्री के एक सूत्र ने अटका दिया। कोई दूसरी पुस्तक देखकर उसे समझने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। टैस्ट दूसरे दिन सुबह होनेवाला था, इसलिए उसी समय उठकर मैंने साइकल निकाली। अम्मा को बताकर छात्रावास आया। सीढियाँ चढ़कर जैसे ही मैं बाईं ओर मुड़ा, मेरा ध्यान एल आकार में बनी दाहिनी विंग की ओर चला गया। पूर्णतः नग्न एक लड़की बरामदे में जलती ट्‌यूबलाइट की दूधिया रोशनी के बावजूद एक कमरे से निकलकर दूसरे कमरे में जा रही थी। मैं भौंचक्का-सा अपने स्थान पर ठिठक गया। इच्छा हुई, जाकर देख आऊँ कि क्या मामला है? किंतु पाँव उठे नहीं।

बाईं ओर चलता हुआ मैं अपने सहपाठी के कमरे में आया। दरवाजा खुला था और वह टेबल लैंप की रोशनी में दीवार के साथ तकिया लगाकर बिस्तर पर बैठा पढ रहा था। मुझे देखकर वह मुसकराया। मैं चारपाई पर बैठ गया। ‘‘इस समय कैसे आना हुआ?''

‘‘बताता हूँ। पहले यह बता कि पहले तल्ले की दाहिनी विंग में कौन कौन रहते हैं?''

‘‘क्यों?'' उसके होंठों पर रहस्यपूर्ण मुस्कान थी।

‘‘यों ही।''

‘‘मैं जानता हूँ कि यह सवाल तू क्यों पूछ रहा है।.''

‘‘क्यों पूछ रहा हूँ?''

‘‘यहाँ आते समय दाहिनी विग में कुछ देखा था?''

‘‘हां, देखा था।'' मैंने सहमति में सिर हिलाया।

‘‘तुम्हें पहली बार पता लगी हैं ये बातें?'' वह विस्मित था।

‘‘यहाँ यह सब रोजाना होता है?'' मैं अपने अज्ञान पर आश्चर्यचकित था।

‘‘दाहिनी विंग में लाल और प्रेम के कमरे हैं। दोनों के घर यहीं हैं, इसलिए ज्यादातर यहाँ रहते नहीं हैं। महासचिव ने दोनों से कमरों की चाबियाँ ले रखी हैं। हर रोज लड़की आती है। महासचिव, उसके कुछ साथी लाल के कमरे में और कुछ साथी प्रेम के कमरे में नंगे पड़़े रहते हैं। शराब चलती रहती है। यहाँ आते ही लड़की भी नंगी हो जाती है और उसी अवस्था में दोनों कमरों में घूमती रहती है। महासचिव के साथी भी नग्नावस्था में एक से दूसरे कमरे में जाते रहते हैं। दोनों कमरों के बीच में पड़़ने वाले कमरों में रहने वाले लड़के भी चाहें तो थोड़़ा हँस-बोल आते हैं। लेकिन ये बातें तो सारा मेडीकल कॉलेज जानता है। तुझे क्या सचमुच पहली बार पता लगी हैं ये बाते?''

‘‘तूने कभी बताया नहीं तो पता कैसे लगता?''

‘‘मैं तो सोचता था, तुझे सारी बातें मालूम हैं।''

‘‘महासचिव की इन हरकतों से तुम लोगों की पढाई पर कोई असर नहीं होता?''

‘‘होता क्यों नहीं है? दाहिनी विंग के कुछ लड़के तो पढ़ते ही इस तरफ आकर हैं।''

‘‘फिर तुम लोगों ने वार्डन से शिकायत क्यों नहीं की?''

‘‘तू समझता नहीं है, महासचिव बड़़ा शातिर है। एक तो वह डे स्कॉलर है। उसके नाम दोनों में से कोई भी कमरा नहीं है। शिकायत करेंगे तो लाल और प्रेम मारे जाएँगे।''

‘‘गलत कामों के लिए कमरा देंगे तो मरेंगे नहीं?''

‘‘चल, मान लिया। मगर महासचिव चतुर्थ वर्ष में पढता है, फिर भी ये धंधे कनिष्ठ छात्रावास में करता है। अपने फंसने की जगह तो उसने छोड़ी ही नहीं है।''

‘‘क्यों, वार्डन आकर अपनी आँखों से नहीं देख सकता? ये लोग चोरी छिपे तो कुछ करते नहीं हैं।''

‘‘वार्डन भी सारी बातें जानता है। उससे डरता है इसलिए चुप है।''

सूत्र समझकर मैं लौट आया। अगले दिन टैस्ट देने के बाद मैंने पूरा घटनाक्रम अपनी मंडली को सुनाया। कुछ लोगों के पास यह खबर उड़ती उड़ती पहुँची थी। मगर उन्होंने अफ़वाह मानकर उस पर विश्वास नहीं किया था। बाकी लड़कों के लिए यह जानकारी पूरी तरह नई थी। मामला गंभीर था। यदि कुछ किया न गया तो कनिष्ठ छात्रावास व्यभिचार का अड्‌डा बना रहेगा। लपटें उठीं तो निरपराध लड़के भी फँस जाएँगे। पहले हुई वारदातों की तरह इस घटना को दरगुज़र करना संभव नहीं था। सवाल कुछ महीनों का नहीं है अब, हर दिन और हर रात का है। इतना खुलकर सब कुछ चल रहा है, इसका अर्थ है कि महासचिव को प्रशासनिक स्तर पर किसी का डर नहीं है। बुद्धिबल यदि काम नहीं करता और बाहुबल का ज़वाब बाहुबल से देना पड़ता है तब भी हम पीछे नहीं हटेंगे, हमारी मंडली ने निश्चय किया।

छात्रावास के लड़के यदि मौखिक या लिखित शिकायत करते हैं तो उनमें से कुछ के साथ गुंडागर्दी की जा सकती है। दस-पंद्रह लड़कों ने आकर कमरे में ही यदि किसी को पकड़़ लिया तो भरोसा नहीं है कि कितने लोग उसकी मदद के लिए पहुँचेंगे। लड़कों में साहस की कमी नहीं है किंतु इस तरह का उपाय ज्यादा अच्छा रहेगा कि महासचिव और उसके साथी कोई झमेला खड़़ा न कर सकें। हमारी मंडली या मंडली में से कुछ चुने हुए छात्र या कोई एक, उदाहरण के लिए मैं स्वयं, अगर महासचिव को समझाने की चेष्टा करेंगे तो हो सकता है वह इसे चुनौती के रूप में ले। हमने सलाह, धमकी और चुनौती तीनों का मिला-जुला रूप अपनाने की योजना बनाई।

एक विस्तृत शिकायती-पत्र की तीन प्रतियाँ हमने तैयार कीं। एक प्रति प्रिंसिपल के लिए, दूसरी प्रति चीफ वार्डन के लिए और तीसरी प्रति अपने लिए। महासचिव की सारी कारगुजारियों का उल्लेख तो हमने उस शिकायती-पत्र में किया ही, उसके साथ कनिष्ठ छात्रावास के वार्डन द्वारा जान-बूझकर की जा रही अनदेखी का भी जिक्र किया। कक्षा में सार्वजनिक रूप से इस शिकायती-पत्र का पाठ किया गया। सुझाव और संशोधन मांगे गए। वहीं छात्रावास में रहने वाले अपने सहपाठियों से हमने शिकायती-पत्र पर हस्ताक्षर कराए। प्रथम वर्ष के छात्रों को हमने इस झगड़े में नहीं डाला। कारण स्पष्ट था कि उन्हें डराने, धमकाने ओर आतंकित करने की संभावनाएँ अधिक थीं। रैगिंग के मामले में हमारी कक्षा ने जो रौब-दाब कायम किया था, उसके कारण हममें से किसी पर हाथ डालने से पहले महासचिव को दस बार सोचना पड़ता। इस कार्यवाही को हमने गुप्त रखने की कोई चेष्टा नहीं की। हम चाहते थे कि बात महासचिव तक पहुँचे ताकि वह बौखलाए।

दूसरे दिन सुबह हमारी मंडली के सभी बीस सदस्य महासचिव के पास पहुँचे। गुड मार्निंग आदि के बाद मैंने शिकायती-पत्र की प्रिसिंपल के पास भेजने के लिए तैयार की गई प्रति आगे बढाते हुए कहा, ‘‘बॉस, छात्रावास में रहने वाले हमारे सहपाठी यह पत्र प्रिंसिपल को देने जा रहे थे। पता लगा तो हमने ले लिया। आप जरा देख लीजिए।''

महासचिव ने पत्र को आद्योपांत अक्षरशः पढ़ा। हमारी आशंका के प्रतिकूल वह बिल्कुल भी उत्तेजित नहीं हुआ। पहले मुसकराया और फिर बोला, ‘‘यार, यह सब तो चलता रहता है कॉलेज में।''

मैंने गंभीरता के साथ कहा, ‘‘बॉस, अगर यह सब चलता है, तो नहीं चलना चाहिए। कम-से-कम आपको यह सब करने से बचना चाहिए।''

‘‘किसी को बुरा लगता था तो मुझे बता देता। लड़कों को परेशान करने की मंशा तो हमारी कभी रही नहीं।''

‘‘मान लीजिए बॉस, हमें पता नहीं लगता और यह पत्र प्रिंसिपल के पास पहुँच जाता तो कितना बुरा होता?'' कहते-कहते शिकायती-पत्र मैंने महासचिव के हाथ से वापस ले लिया। ‘‘हम लोगों का निवेदन मानें तो कम-से-कम छात्रावासों में इस तरह के काम करना बंद कर दीजिए।''

उस दिन मन-ही-मन मैंने फैसला किया कि अगली बार छात्रसंघ के महासचिव पद के लिए चुनाव लडं़ूगा।

सितंबर में चुनावों की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। इसलिए पदचाप अभी से सुनाई देने लगी है। चुनाव लड़़ने के इच्छुक लड़के-लड़कियों के नाम फिजा में तैरने लगे हैं। मंडली में कई बार मेरे महासचिव पद के लिए चुनाव लड़़ने के बारे में चर्चा होती रही है। पिछले महासचिव से मिले दुःख-दर्द जब भी बातचीत में आते हैं, कोई-न-कोई साथी कह देता है, ‘‘तू चाहे इस साल भी चुनाव मत लड़। लेकिन फिर हमें दुःखी मत करना। गलत बातों से ज्यादा तकलीफ तुझे ही होती है और तू अपनी तकलीफ खत्म करने के लिए हमें दुःखी कर देता है।''

‘‘चुनाव तो इस साल इससे लड़़वा लेंगे, लेकिन करेगा तब भी यह हमें ही दुःखी। हमारे बिना इसे न स्वर्ग में कोई पूछेगा और न नर्क में।'' एक ज़ोरदार ठहाका गूंज उठता है, जिसमें एक ठहाका मेरा भी होता है।

मेडीकल कॉलेज की पढ़ाई बिना अस्पताल और मरीजों के अधूरी होती है। पिछले साल तक हम लोगों को पढ़ाई के सिलसिले में या कुछ सीखने के लिए अस्पताल जाने की जरूरत नहीं पड़ती थी। इस साल से अस्पताल में जाने का सिलसिला शुरू हो गया है। जुलाई से नवंबर मेडिसिन के विभिन्न विभागों में और दिसंबर से अप्रेल तक सर्जरी से संबंधित विभागों में दो घंटों के लिए जाना होगा। पाँच-पाँच के समूहों में अलग-अलग वार्डों में जाकर मरीजों को देखना होगा। मरीजों को जांचकर निदान तक पहुँचने का प्रयत्न करना होगा। मरीज की फाइल देखकर जानकारी लेनी होगी कि कौनसे लक्षण हों तो कौनसी बीमारी हो सकती है? निदान असंदिग्ध बनाने के लिए कौनसी जांच करानी चाहिए? जांच के परिणामों का विश्लेषण कैसे करना चाहिए? केस हिस्ट्री लेते समय कौनसे प्रश्न मरीज से पूछे जाने चाहिएं? मरीजों की सेवा करने की स्थिति में तो अभी नहीं हैं मगर उनकी सेवा कैसे की जाए, यह समझ निश्चय ही वार्ड पोस्टिंग से विकसित हो जाएगी। इन थोड़े से दिनों में अनुभव हुआ है कि वार्ड में जाकर दो घंटे व्यतीत करने वाली बात न हमें अर्थवान लगती है और न वार्डों में हमें गंभीरता से लिया जाता है। मरीजों को पता होता है कि हम सीख रहे हैं या पढ़ रहे हैं, इसलिए वे हमारे प्रश्नों के उत्तर बेदिली से देते हैं। नर्सिंग स्टाफ और रेजीडेंट डॉक्टर काम के बोझ से पहले ही इतने दबे हुए हैं कि हमारी शंकाओं, जिज्ञासाओं और प्रश्नों को सुनकर वे झुंझलाने लगते हैं। अध्यापकगण जब कक्षा लेते हैं तब भले ही वार्ड में भरती मरीज विशेष के बारे में चर्चा कर ली जाय अन्यथा वहाँ हम लंगड़ों की तरह दौड़ने की चेष्टा में संलग्न होते हैं। वार्ड से मन को उखाड़़ने के लिए ये कारण पर्याप्त हैं। हम जबरदस्ती कितना सीख लेंगे? जो सीखेंगे वह सचमुच कैसा होगा? संभव है अभी शुरुआत है इसलिए ऐसा लगता हो, भविष्य में स्थितियाँ मनोनुकूल लगने लगें। फिलहाल तो लगता है कि वार्ड पोस्टिंग को लाभदायक बनाने की दृष्टि से हाथ-पैर हमें ही मारने पड़़ेंगे।

यों तो चुनाव के बारे में किसी प्रकार की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती, फिर भी मैं मानता हूँ कि छात्रसंघ के महासचिव पद का चुनाव मुझे जीत जाना चाहिए। अपनी कक्षा के शत-प्रतिशत मत मुझे निर्विवाद रूप से मिलने चाहिएं। अब तक मैंने जो भी सामूहिक काम किया है उसमें पूरी कक्षा को साथ लेने की कोशिश की है। यह कोशिश रस्म अदायगी के रूप में की गई हो, ऐसा भी नहीं है। मैंने स्वयं विचार किया, तैयारी की। हमारी मंडली ने बैठकर विचार रखे। मेरे विचारों में जो खामियाँ नजर आईं, उन्हें सुधारकर मंडली के सब साथियों की सहमति से योजना का प्रारूप बनाया। उस प्रारूप को पूरी कक्षा के सामने रखा। वहां भी सबसे विचार मांगे। सबकी बातें पूर्वाग्रह मुक्त होकर सुनीं। उनके आधार पर फिर कोई फेरबदल करनी पड़ी तो की। योजना को अंतिम रूप देकर उसके कार्यान्वयन की दृष्टि से यदि आवश्यक हुआ तो कक्षा के छात्र-छात्राओं को दायित्व दिए। उन दायित्वों की पूर्ति की दृष्टि से अपनी मंडली के साथियों से चर्चा की। सफलता मिली तो उसे अपनी सफलता न कहकर पूरी कक्षा की सफलता कहा। ऐसे में कक्षा के सभी सहपाठी स्वाभाविक रूप से मुझे प्यार भी करते हैं और मुझे सम्मान भी देते हैं। कोई लड़ाई मैंने अपने लिए नहीं लड़ी। हर लड़ाई पूरी कक्षा के लिए लड़ी है।

चतुर्थ और अंतिम वर्ष के छात्र जानते हैं कि रैगिंग के खिलाफ लड़़कर मुझे व्यक्तिगत रूप से कितना सहना पड़़ा है। पहली बार रैगिंग के दौरान जो मार मुझे पड़ी थी, उसे भूलना वरिष्ठ छात्रों के लिए आसान नहीं है। चतुर्थ वर्ष के कई छात्र चश्मदीद गवाह हैं, जब छात्रावास में तोड़ देने वाली यातनाओं के बीच पूछे गए इस प्रश्न का कि बोल सीनियर्स की बात मानेगा या नहीं, हर बार मैंने एक ही उत्तर दिया था, ‘‘गलत बात नहीं मानूंगा।''

बेहोश होकर भी वरिष्ठ छात्रों की गलत बात मैंने नहीं मानी। वह गलत क्या सचमुच सबके लिए गलत था? एक साँस में बीस गालियाँ देने की फरमाइश हमारी कक्षा के न जाने कितने छात्रों से की गई होगी। उनको तो यह फरमाइश गलत नहीं लगी। मुझे गलत लगी, मैं लड़़ा। लड़ा ही नहीं, लड़ता चला गया। इसके बाद भी वरिष्ठ छात्र मुझे अनेक समस्याओं से जूझते देखते रहे। गत वर्ष पिकनिक के बाद महासचिव और उसके नशे में धुत्‌ साथियों को साइकलों पर लादकर उनके धरों पर पहुँचाने का काम किसके कारण हुआ? लड़कियों को छात्रावास में लाकर वातावरण प्रदूषित करने का अपराध करने वाले महासचिव को सही रास्ते पर लाने का काम किसने किया? वरिष्ठ छात्र बखूबी जानते हैं। यदि कोई वरिष्ठ छात्र महासचिव का चुनाव लड़़ता हो तो इस कारण से मित्रों के कुछ मत उसे मिल जाएँ अलग बात है, अन्यथा चतुर्थ और अंतिम वर्ष के छात्रों के अधिकांश मत भी मुझे मिलने चाहिएं।

प्रथम और द्वितीय वर्ष के छात्रों के लिए तो रैगिंग के वीभत्स आतंक से मुक्ति ही पर्याप्त होनी चाहिए, मेरे समर्थन में खड़े होने के लिए। रैगिंग के स्थान पर पिछले साल और इस साल जो आयोजन प्रथम वर्ष के विद्यार्थियों के लिए द्वितीय वर्ष के विद्यार्थियों ने किया उससे तो प्रारंभिक दो-ढाई महीनों में मेडीकल कॉलेज में दिखाई देता वातावरण ही बदल गया है। गाहे-बगाहे, स्पष्ट आभास होता है कि उनकी दृष्टि में मेरी जगह केवल वरिष्ठ छात्र की ही नहीं है बल्कि उनकी आँखों में मेरी परछाई अतिमानव के रूप में बनती है। प्रथम वर्ष के छात्रों को चुनाव लड़ने का अधिकार नहीं होता है। उनका पूरा समर्थन मुझे मिलना चाहिए। द्वितीय वर्ष के छात्र भी निश्चित ही मुझे मत देना चाहेंगे।

फिर नेतृत्व की क्षमता के साथ जो परीक्षाएँ अच्छे अंकों से उत्तीर्ण करता हो, वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में अपने कॉलेज का नाम रोशन करता हो, स्वयं भी पुरस्कार जीतकर लाता हो और कॉलेज को भी शील्ड दिलाता हो ऐसा महासचिव पद का प्रत्याशी दूसरा कौन होगा? ऐसा जुझारू, संयत, आदर्शवादी छात्र मुझे तो मेडीकल कॉलेज में नजर नहीं आता, जिसमें नेतृत्व की क्षमता तो है किंतु नेताओं वाले अवगुण नहीं हैं। कोई दूसरा विद्यार्थी ऐसा छात्र ढूँढ़ पाएगा, मुझे नहीं लगता। इसलिए मैं मानता हूँ कि महासचिव पद का चुनाव मुझे जीत जाना चाहिए।

जो आशंका मुझे इन दिनों बार-बार त्रस्त करती है, वह किसी दूसरे को विचित्र लग सकती है। चुनावों में हार-जीत का भय मुझे नहीं सताता। मुझे डर इस बात से लगता है कि महासचिव के रूप में दायित्वों का निर्वाह करते हुए मैं अपनी पढाई का नुकसान न कर बैठूं। मैं इस बिंदु पर बहुत स्पष्ट हूँ कि मेडीकल कॉलेज में मैंने डॉक्टर बनने के उद्‌देश्य से प्रवेश लिया है। मैं रैगिंग करा सकता हूँ। सुविधाओं को तिलांजलि दे सकता हूँ। महासचिव बनने से इनकार कर सकता हूँ, किंतु पढाई का नुकसान बरदाश्त नहीं कर सकता।

इस वर्ष वाडोर्ं में पोस्टिंग की शुरुआत हुई है। वार्ड में जाकर सीखने की दृष्टि से स्थितियाँ पूर्णतः विपरीत हैं। जब तक स्वयं रुचि लेकर पीछे नहीं पड़ूंगा, सीखने को कुछ नहीं मिलेगा। महासचिव के रूप में जो कुछ मैं करना चाहता हूँ वह इतना समय साध्य, इतना श्रम साध्य होगा कि आग्रहशील बनकर वार्ड में नया कुछ सीखा जा सके, इतनी सुविधा शायद न मिले। महासचिव पद का चुनाव लड़ने की दृष्टि से मुझमें आज भी यदि हल्की सी हिचकिचाहट पैदा होती है तो उसका कारण यह आशंका है। निर्णय लेने से पूर्व मैं अधिकतम विचार करने का पक्षधर हूँ। एक वार निर्णय कर लेने के बाद डूबना-तैरना मुझे कतई पसंद नहीं है। किंतु निर्णय लेते समय मुझे जानकारी नहीं थी कि महासचिव के दायित्वों और वार्डों में सीखने के बीच टकराव हो सकता है। अब स्पष्ट रूप से इस संकट को मैं देख रहा हूँ। अन्य विद्यार्थियों की तरह वार्ड के दो घंटे गपशप में या कैंटीन में गुजार नहीं सकता। इस समय को आगे-पीछे किया नहीं जा सकता। पुस्तकें तो मैं घर पर रात-भर जागकर भी पढ़ सकता हूँ लेकिन वार्ड में दो घंटे निर्धारित अवधि में ही रहना होगा।

प्रत्येक समस्या में ही उसका समाधान छिपा होता है। महासचिव पद को अपनी इच्छाओं के अनुसार गरिमा प्रदान करते हुए, महासचिव के रूप में मेडीकल कॉलेज में चिरस्मरणीय काम करते हुए अपने मूल दायित्व के निर्वाह की दृष्टि से जो समस्याएँ मेरे सामने आ सकती हैं इस समय मैं केवल उनका अँधेरा पक्ष देख पा रहा हूँ। उन समस्याओं का उजला पक्ष भी निश्चित रूप से होगा। मेरी दृष्टि समस्याओं के कुहासे में आज भले ही उलझ गई हो किंतु कल जब मैं उस कुहासे में प्रवेश करूँगा तो आर-पार देख पाऊँगा। आज तक मैं समस्याओं पर विजय हासिल करता आया हूँ। मुझे विश्वास है कि कल भी विजय मेरी होगी। आशंकाओं से भयभीत होकर मैं पीछे नहीं हटूंगा। अपनी प्राथमिकताओं की जानकारी मुझे भली-भाँति है। वरीयता क्रम से दृष्टि हटाए बिना मैं अपने सभी संकल्प पूरे करूँगा। मैं संकल्पपूर्ति का संकल्प लेता हूँ।

महासचिव पद के लिए अपनी जीत की संभावनाओं का आकलन करते हुए संभवतः मेरा विश्लेषण एक आत्ममुग्ध व्यक्ति का स्वकथन बन गया है।

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