क्लासमेट
'मकान का नक्शा न हुआ। ताजमहल का टेंडर हो गया। आखिर कब तक चक्कर लगवाएंगे ये लोग? बड़बड़ाते हुए विपिन नगर परिषद परिसर में ही बनी कैंटीन में आकर बैठ गया।
उसने आर्डर लेने आए लड़के को एक कप चाय लाने को कहा और कुर्सी पर सिर झुकाकर इसकी प्रतीक्षा करने लगा। वह सरकारी तंत्र में व्याप्त अकर्मण्यता और भ्रष्टïाचार को कोसने लगा कि आखिर अधिकारियों-कर्मचारियों का यह रवैया देश को किस तरफ ले जाएगा? दो दिन के काम के लिए दो-दो महीने लगा देते हैं। किसी भी सरकारी दफ्तर में चले जाएं, चपरासी से लेकर अधिकारी तक सब मुंह फाड़े बैठे हैं। काम जायज है या नाजायज इस पर विचार करने की फुरसत किसी को नहीं है। सब जल्दी से जल्दी अपना घर भर लेना चाहते हैं कि पता नहीं कल कमाई का अवसर मिले या नहीं। जितना सरकार देती है, उससे तीन-चार गुणा ज्यादा ये लोग ऊपर से कमा रहे हैं। फिर भी संतुष्टिï दिखाई नहीं देती।
कैंटीन का लड़का चाय का कप रख गया तो वह इन ख्यालों को झटककर चाय पीने लगे। लेकिन ख्याल कोई कपड़े का टुकड़ा थोड़े ही है कि झटककर दूर गिरा दिया जाए। वह जितना इन ख्यालों को झटकने का प्रयास करता, उतने ही ज्यादा ख्याल उसके मन-मस्तिष्क में उमडऩे-घुमडऩे लगते। वह सोचने लगा कि जब तक ये लोग राजकीय सेवा में नहीं आते, तब तक ही सरकारी व्यवस्था को कोसते हैं। उस समय साक्षात्कार में या नौकरी के लिए कहीं भी जाते समय वे बड़े गर्व से कहते हैं कि हम इस पूरी व्यवस्था को बदल देंगे। किसी के साथ अन्याय न करेंगे, न करने देंगे और ईमानदारी से सारा काम करेंगे लेकिन जैसे ही नौकरी लगती है, व्यवस्था का हिस्सा बनकर रह जाते हैं। व्यवस्था बदलने का दावा चांदी की चकाचौंध में जाने कहां खो जाता है।
अचानक उसे कोई पुरानी बात याद आ गई और वह मुस्कुरा दिया। फिर आत्मग्लानि का एहसास भी हुआ कि कितने विश्वास से उसने कहा था, 'नगर परिषद से मकान का नक्शा पास करवाना तो अपने बाएं हाथ का खेल है। बस एक बार जाने की देर है। बैठे-बैठे काम न हो जाए तो कहना। आखिर अपना बल्लू नगर परिषद में आयुक्त हो गया है।Ó
'बल्लू ऽऽऽÓ बल्लू का नाम याद आते ही विपिन के मुंह का स्वाद बिगड़ गया। उसने मेज के एक कोने में पड़ी कचरे की टोकरी में पिच्च से थूक दिया। बल्लू अर्थात् बलवन्त सिंह इस नगर परिषद में आयुक्त है। जब वह स्थानांतरित होकर इस शहर में आया था तो विपिन मारे खुशी के उछल ही पड़ा था। आखिर बल्लू उसका सहपाठी रहा था-क्लासमेट! नवीं से लेकर बारहवीं कक्षा तक वे साथ पढ़े थे सरकारी स्कूल में। चार साल का साथ कम नहीं होता। कक्षा में वही तो उसका सबसे अजीज हुआ करता था। दोनों साथ ही आते-जाते, सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेते। लोग उनकी दोस्ती देखकर राम-लक्ष्मण की जोड़ी का उदाहरण देते। जात-बिरादरी का होने के कारण अधिकांश लोग उन्हें भाई ही समझते थे।
विपिन और बल्लू दोनों ही मध्यमवर्गीय परिवार से सम्बद्ध थे। विपिन के पिता कपड़े की छोटी सी दुकान चलाते थे जबकि बल्लू के पिता सरकारी स्कूल में प्रधानाध्यापक थे। दोनों के घरों में भी कोई ज्यादा फासला नहीं था। रोज सुबह स्कूल समय से पहले विपिन बल्लू के घर पहुंच जाता या बल्लू विपिन के घर। वहां से दोनों साथ-साथ ही स्कूल जाते थे। कक्षा में भी दोनों साथ बैठते और साथ-साथ ही घर लौटते। विपिन नहीं जानता था कि आजकल के युवा सितारों को लेकर बनी फिल्म 'हम साथ-साथ हैं का शीर्षक बडज़ात्या बंधुओं को किसने सुझाया था, लेकिन यह सच है कि आज से पन्द्रह वर्ष पूर्व जब वह स्कूल में पढ़ता था तो उसने बल्लू के साथ मिलकर यह नारा दिया था। बाद में यह नारा इतना प्रसिद्ध हुआ कि पूरे स्कूल में उन्हें देखते ही बच्चे कहते थे- हम साथ-साथ हैं।
स्कूल टाइम के अलावा भी उनका अधिकांश समय साथ ही गुजरता था। होमवर्क हो या खेल का मैदान। कहीं पिकनिक का कार्यक्रम हो या फिल्म देखने का। वे हमेशा साथ रहते थे। पूरे स्कूल में ही नहीं, दोनों मौहल्लों में उनकी जोड़ी मशहूर हुआ करती थी। स्कूल खो-खो और एथलेटिक्स में उन्होंने जाने कितने पुरस्कार जीते थे। स्कूल के हर कार्यक्रम में वे हमेशा आगे ही रहते थे। दोनों ने साथ-साथ ही स्नातक तक पढ़ाई करने के बाद राज्य प्रशासनिक सेवा की तैयारी करने का मन बनाया था। उन्हें पूर्ण विश्वास था कि दोनों साथ मेहनत करेंगे तो निश्चय ही बड़े अधिकारी बनेंगे।
यह भाग्य की बात है कि बारहवीं की परीक्षा खत्म होने के आखिरी दिन विपिन के पिता दिल का दौरा पडऩे से परलोक गमन कर गए। उसके परिवार पर मानो दुख का पहाड़ टूट पड़ा। घर में कोई दूसरा बड़ा न होने के कारण दुकान संभालने की जिम्मेदारी विपिन पर आ पड़ी। पिता की रस्म पगड़ी के बाद विपिन दुकान पर बैठने लगा। कुछ दिनों बाद बारहवीं की परीक्षा का परिणाम आया तो विपिन और बल्लू दोनों ही प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुए थे। नया सत्र शुरू होने से पहले बल्लू उसके पास आया था। मशविरा करने कि किस कॉलेज में दाखिला लिया जाए। लेकिन घर की जिम्मेदारियों को देखते हुए विपिन ने नियमित अध्ययन छोड़कर दुकान संभालने की अपनी मजबूरी जता दी थी। उसके इनकार के बाद बल्लू ने राजधानी जाकर आगे की पढ़ाई करने का निर्णय किया था। उसके घर वालों ने कोई एतराज नहीं जताया और बल्लू जयपुर में रहकर पढऩे लगा। बाद में उसके पिता का स्थानांतरण भी जयपुर के निकट किसी स्कूल में हो गया। कुछ समय तो बल्लू व विपिन में पत्र व्यवहार रहा लेकिन बाद में शनै:-शनै: यह कम होता हुआ अंतत: बंद हो गया। कभी कभार खबर मिल जाती थी कि स्नातक की पढ़ाई के बाद बल्लू ने राज्य प्रशासनिक सेवा की परीक्षा दी और उसका चयन भी हो गया है। फिर उसके विवाह की खबर भी सुनने को मिली लेकिन न तो बल्लू ने उसे बुलाया था और न ही वह अपने विवाह में उसे बुला पाया था।
दुकानदारी संभालते हुए स्वयंपाठी छात्र के रूप में विपिन ने भले ही स्नातकोत्तर तक पढ़ाई कर ली थी लेकिन वक्त के साथ ही वह पक्का व्यापारी बन गया था। वह अपना अधिकांश समय दुकान पर ही बिताता था। उसने काम भी काफी बढ़ा लिया था। अपनी दुकानदारी में व्यस्त रहते हुए वह घर-परिवार को भी कम ही समय दे पाता था। इसी के चलते पता नहीं चला और पन्द्रह वर्ष का लम्बा अरसा पलक झपकते गुजर गया। इसी बीच उसने स्थानीय अखबार में खबर पढ़ी कि बलवन्त सिंह नगर परिषद के आयुक्त बनकर उनके शहर में आए हैं। खबर पढ़कर वह खुशी से फूले नहीं समाया था। बलवन्त सिंह होगा वह लोगों के लिए, उसके लिए तो वह बल्लू ही है! उसका बचपन का यार। आज वह बड़ा अफसर हो गया तो क्या आखिर तो दोनों ने एक ही थाली में खाया है।
आयुक्त बलवन्त सिंह से सार्वजनिक कार्यक्रमों में उसकी एक-दो बार मुलाकात हुई थी। वह लोगों के बीच अपने रुतबे को देखकर खुल नहीं पाया था। फिर भी दोनों ने एक-दूसरे को पहचाना था और हालचाल पूछे थे। विपिन ने उसे घर आमंत्रित भी किया लेकिन बल्लू ने यह कहकर टाल दिया कि कभी छुट्टïी के दिन आ जाना, दोनों साथ ही चलेंगे लेकिन काम-धंधे की व्यस्तता के चलते विपिन ही समय नहीं निकाल पाया था।
बलवन्त सिंह को शहर में आए छ: माह गुजर गए थे। इसी दौरान लम्बे समय से टल रही नए मकान की योजना को विपिन ने मूर्त रूप देने का निर्णय किया। उसे पूर्ण विश्वास था कि नगर परिषद से मकान का नक्शा पास करवाना तो उसके बाएं हाथ का खेल है, आखिर वहां सबसे बड़ा अधिकारी बल्लू उसका जिगरी यार है।
विपिन ने एक इंजीनियर से मकान का नक्शा बनवाया था और अन्य जरूरी कागजात लेकर नगर परिषद पहुंच गया था। बलवन्त सिंह उससे मिले लेकिन न तो कोई उत्साह दिखाया और न ही चाय-पानी के बारे में पूछा। अलबत्ता इतना जरूर किया कि चपरासी को बुलाकर कह दिया कि इन्हें निर्माण शाखा में ले जाओ और कागजी कार्रवाई पूरी करवा दो। कहना साहब ने भेजा है।
इसके बाद जो चक्कर लगाने शुरू हुए तो रुकने में ही नहीं आए। पहले ड्राफ्टमैन, फिर कनिष्ठ अभियंता के आगे-पीछे घूमकर उन्हें मौका दिलाया। भूखंड की बकाया लीज और गृहकर की राशि जमा करवाई। नगर परिषद के किसी भी मद में बकाया नहीं होने का 'नो ड्यूज सर्टिफिकेट हासिल किया। सात दिन में चक्कर लगा-लगाकर वे हार गए थे लेकिन नक्शे पर आयुक्त के हस्ताक्षर नहीं हो पाए थे। वह जब भी आयुक्त कक्ष में जाने लगता, उसे 'साहब किसी जरूरी बैठक में व्यस्त हैं कहकर रोक दिया जाता। एक दिन चपरासी ने बताया कि साहब खुद मौका देखने जाएंगे, उसके बाद ही नक्शा पास होगा। अब देखो साहब को कब समय मिलता है, मौका देखने का!
विपिन हैरान था कि जब सारी कार्रवाई हो चुकी है तो बल्लू को नक्शे पर हस्ताक्षर करने में क्यों एतराज हो रहा है? आखिर उसके मातहतों ने तो मौका देखा ही है, फिर मैं कोई गलत काम भी नहीं कर रहा। कोई गया-गुजरा आदमी भी नहीं हूं। शहर के प्रतिष्ठिïत व्यापारियों में गिनती होती है, बचपन का दोस्त है मेरा। बिना मौका देखे हस्ताक्षर नहीं कर सकता क्या?
विपिन इन्हीं ख्यालों में खोया था कि अचानक एक व्यक्ति ने सामने बैठते हुए कहा, 'कहो सेठ, आज इधर कैसे आ गए?
विपिन ने देखा-माथे पर तिलक लगाए, दोनों हाथों की सभी अंगुलियों में भांति-भांति के नगों की अंगुठियां धारण किए एक नेता टाइप व्यक्ति उसके सामने बैठा था विपिन को उसका चेहरा जाना-पहचाना लगा लेकिन याद नहीं आया कि उसे कहां देखा है। विपिन ने असमंजस में कहा, 'माफ कीजिएगा, मैंने आपको पहचाना नहीं।
'ओ! मुझे नहीं पहचाना! वह हैरानी से बोला, 'मैं वकील हूं। वकीलचंद बाल्मीकि। याद है हम तीसरी-चौथी और पांचवीं क्लास में साथ पढ़े हैं।
विपिन को याद आ गया। वकीलचंद उसके साथ पढ़ता था लेकिन वह हमेशा उससे दूर ही रहता था। क्योंकि एक बार उसके साथ खेलते हुए विपिन की मां ने देख लिया था और उसे बुरी तरह पीटा था। विपिन की मां का कहना था कि नीच जाति के लड़कों के साथ खेलने से अपना धर्म भ्रष्टï हो जाता है।
इस घटना के बाद उसने वकीचंद से कुछ कहा तो नहीं था लेकिन उससे दूर-दूर रहने लगा था। वह हैरान था कि इतने वर्षों के बाद श्री वकीचंद ने उसे पहचान लिया था। इन वर्षों में गंगा में बहुत पानी बह चुका था। विपिन के दिल से मां की मार का भय निकल चुका था और बदलते वक्त के साथ वह भी ऊंच-नीच के दायरे से ऊपर उठ गया था। उसने गर्मजोशी से वकीलचंद से हाथ मिलाया और कैंटीन वाले लड़के को दो चाय के साथ कुछ नमकीन भी लाने का आदेश दिया।
दोनों के बीच बातचीत का सिलसिला चला तो वकीलचंद ने बताया कि वह वर्षों से नगर परिषद में सफाई कर्मचारी है और पिछले तीन साल से सफाई कर्मचारी महासंघ का जिलाध्यक्ष भी। इस कारण अब तो उसे खुद काम करने की जरूरत ही नहीं पड़ती। नेतागिरी से ही फुरसत नहीं मिलती। नगर परिषद में उसे अफसरों के साथ-साथ ठेकेदारों-कर्मचारियों और उनसे जुड़े कई लोगों का ध्यान रखना पड़ता है। आखिर राजनीति भी तो एक काम है।
अपनी रामकहानी सुनाकर वकीलचंद ने उसके यहां आने का कारण जानना चाहा। विपिन ने उसे शुरू से अंत तक पूरी बात बताई और बोला, 'अब सात दिन से साहब के चक्कर लगा रहा हूं, लेकिन उन्हें समय ही नहीं मिलता।
'अब मिल जाएगा। कहते हुए वकीलचंद उठ खड़ा हुआ। नक्शे वाली फाइल उसने अपने हाथ में ले ली थी। काउंटर पर आकर विपिन ने चाय-नमकीन का भुगतान करना चाहा तो वकीलचंद ने रोक दिया, 'यार तुम मेरे दफ्तर में आए हो तो कायदे से चाय मेरी तरफ से होनी चाहिए कि नहीं। विपिन के बार-बार कहने पर भी कैंटीन वाले ने पैसे नहीं लिए और वकीलचंद अपने खाते में लिखने का कहकर बाहर निकल गया। विपिन उसके पीछे-पीछे था। आयुक्त कक्ष के बाहर विपिन को देखकर चपरासी रोकने लगा तो वकीलचंद ने 'मेरे साथ है कहकर चुप करा दिया। वकीलचंद ने एक झटके में आयुक्त कक्ष का द्वार खोला और सीधे बलवन्त सिंह के सामने पहुंच गया। विपिन डरा-सहमा सा उसके साथ था। वकीलचंद ने साहब को नमस्कार किया और बिना किसी औपचारिकता के फाइल उनके सामने रखकर बोला, 'साहब ये अपुन का क्लासमेट था। बहुत अच्छा आदमी है। मकान का नक्शा पास करना है। सब कार्रवाई पूरी है। आप 'चिड़ी बैठा दें। बलवन्त सिंह ने एक बार विपिन को देखा और फिर वकीलचंद को और अनमने भाव से चुपचाप नक्शे पर 'चिड़ी बैठा कर फाइल वकीलचंद की ओर खिसकाकर बोले- हम तो दोनों साथ-साथ ही...।
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