Hawao se aage - 9 books and stories free download online pdf in Hindi

हवाओं से आगे - 9

हवाओं से आगे

(कहानी-संग्रह)

रजनी मोरवाल

***

खाली बोतल

शिखा ने बरसों बाद फ़िर से कलम चलाना शुरू किया है | वह भीतर से कितनी घबराई हुई है | “न जाने फिर से विचार उपजेंगें या नहीं ? भावनाएँ जो बरसों-बरस दिल-ओ’ दिमाग में सुसुप्त पड़ी थीं वे पुनः जागृत होकर इन नए हालातों में नए विषयों से प्रभावित होंगी या नहीं ?” “तुम इन सवालों से ऊपर उठकर सोचों, शिखा !” प्रशांत उसका हौसला बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते |

“हम्म...जानती हूँ किन्तु यही सवालात तो मुझे लिखने को प्रेरित करेंगे |”

“तुम वहीं से शुरुआत करों जहाँ से तुमने फिर से कलम थामने का निश्चय किया है |”

“मने ?”

“खाली बोतल, समुद्र, लहरें, तुम, मैं और वही उम्दा विचार कि बच्चे इस देह में फ़ोरन पार्टिकल होते हैं |” “खाली बोतल ? हम्म ...बढ़िया शीर्षक है |” शिखा ने अपने-आपको आश्वस्त किया हो जैसे | उसने नई डायरी निकाली और दिनाँक 1 अगस्त वाला पृष्ठ खोला फ़िर काफ़ी देर तक उसे मंत्रमुग्ध होकर निहारती रही | नए कागज़ की ख़ुशबू उसे दीवाना बना रही थी | उसने अपनी प्रिय लाल रंग की रोशनाई वाली कलम उठाई और बड़े करीने से एक-एक शब्द को सजाते हुए कहानी का शीर्षक सजा दिया | उसकी कलम ऐसे डगमगाई जैसे पहली बार कोई बच्चा लिखना सीख रहा हो किन्तु वह जानती थी कि उसके दृढ़ निश्चय के समक्ष अब कोई व्यवधान नहीं आ सकता | प्रशांत दूर से बैठे उसे देख रहे थे उनकी आँखों में उस रोज़ एक असीम सुकून उतरा था | बरसों से उसके मन में यही ग्लानि घर बसाए बैठी थी कि शिखा ने उनकी गृहस्थी को सजाने-सँवारने के लिए लिखने को लेकर अपने उस जुनून को तिलांजलि दे दी थी | प्रशांत को इस बात का सदैव दुख रहता है कि उन्होने स्वयं क्यों नहीं कभी अपने शौक को बरक़रार रखने के लिए प्रेरित किया | ऐसा भी नहीं था कि उन्हें इस बात का एहसास न हुआ हो पर जब-जब भी उन्होंने शिखा से इस बारे में बात करनी चाही तो शिखा को उन्होंने घर की जिम्मेदारियों व बच्चों में खोया हुआ पाया | उन्हें लगा शायद शिखा ने अपनी मर्ज़ी से न लिखने का निर्णय लिया था और वह स्वयं ही अपने बच्चों का बचपन भरपूर जीना चाह रही थी |

“हम ऐसे ही तो होते हैं... एक खाली बोतल की तरह | माँ के गर्भ में से इस धरती पर आते हैं तो बिल्कुल निहत्थे, अनजान और खाली... है न प्रशांत ?”

“हाँ... सच है |”

“जैसे कि वह बोतल जो समुद्र में तैरती उस रोज़ देखी थी हमने जब हम मरीन ड्राइव पर बैठे थे |” “हाँ उस रोज़ तो मैं एक गजब करिश्माई अनुभव से गुज़री थी, जैसे वहाँ दूर आसमान में कोई शक्ति विराजमान थी और अचानक वह मेरी छठी इंद्रिय को झकझोरकर गुज़र गई थी |”

आजकल शिखा और प्रशांत रात के खाने के बाद यहीं 'मरीन ड्राइव' पर आ बैठते हैं दौनों घंटों तक यहीं बैठे-बैठे ज़िन्दगी के बीते लम्हों के सिरे पिरोया करते हैं | फिर भूतकाल से शुरु हुआ कोई किस्सा इस तट पर आकर दौनों के मध्य चुपचाप पसर जाता है और वे दौनों अपने जीवन के साथ-साथ गुजारे उन तेईस वर्षों को महसूस करते रह जाते हैं |

उस शाम अचानक से लहरों के साथ बहकर आई प्लास्टिक की खाली बोतल को देखकर शिखा ने कहा था... मनुष्य की प्रकृति भी इस गहरे समुद्र की मानिंद होनी चाहिए । जो कुछ भी उसका अपना नहीं है या यूँ कह लो कि “फॉरन पार्टिकल” है उसे यह अपने भीतर कभी समाहित नहीं होने देता । किसी न किसी युग में, सदी में या किसी न किसी दिन जरूर बाहर लाकर तट पर पटक देता है । तन साफ तो मन साफ ।

आख़िरकार बच्चे भी तो मानव शरीर में “फ़ॉरेन पार्टिकल” की तरह होते हैं | लाख कोशिशें करो फिर भी न तो शरीर, न ही गर्भ उन्हें हमेशा के लिए अपने भीतर सहेज कर रख सकता है, फिर कैसा मोह ? यह दुःख और यह खालीपन क्यों ?

प्रशांत का रिटायरमेंट कुछ ही महीनों पहले हुआ है | बच्चे छुट्टियों में विदेश से जब भी लौटते हैं तो ढेर सारे उपहारों से उनका छोटा-सा घर लद जाता है | “हम इतने उपहारों का क्या करेंगे ? इनमें से ज़्यादातर वस्तुएँ हमारे काम की भी नहीं हैं | रिश्तेदार भी प्रेम से दी गई वस्तुओं को अब एहसान समझ लेते हैं |” प्रशांत कुछ अधिक ही सच बोल जाते हैं | सत्य अधिकतर कटु होता है जिस पर शिखा अपने शब्दों की चाशनी चढ़ाने का भरसक प्रयत्न किया पर बच्चों तक प्रशांत के कुछ शब्दों की आँच पहुँच ही गई |

“अरे ! बच्चे इतने प्रेम से सात समुंदर पार करके गिफ्ट संजोंकर लाए हैं और तुम हो कि... रहने दो अगर तुम्हें नहीं चाहिए | इनकी छुट्टियाँ खत्म होने से पहले मैं अपने पोते-पोतियों से सारे गजेट्स ओपरेट करना सीख लूँगी और सबसे पहले तो मैं लेपटॉप चलाना सीखना चाहती हूँ | कागजों का गया ज़माना, अब डिज़ीटल इंडिया में पदार्पण कर गए हैं हम |” “माँ की उत्सुकता और उत्साह को देखकर बच्चे प्रशांत का कहा भूल जाते हैं | वे तो रात देर तक शिखा के चारों ओर जमघट लगाए बैठे रहते हैं और वहीं खाते-पीते हैं | फिर अपनी-अपनी पसंद के पुराने गानों की फरमाइशों का इसरार करते हैं | ऐसे मौकों पर प्रशांत अपने-आपको परिवार से दूर बहुत दूर खड़ा पाते हैं | प्रशांत को याद है शिखा बच्चों को अक्सर लोरियाँ गाकर सुलाया करती थी | कुछ तो वह फिल्मी लोरियों को अपने मन-मुताबिक शब्दों में ढालकर पैरोडी की शक्ल दे दिया करती थी | उनमें से एक तो उस वक़्त का है जब दोनों बच्चे माँ की गोदी में लेटे-लेटे सुनते थे- “फूलों का तारों का, सबका कहना है, एक हजारों में दौनों बेटू हैं, सारी उम्र दोनों को संग रहना है...”

“ऊँह... तुम्हारी लोरी का ही असर है कि दोनों संग-संग ही हमें छोड़कर विदेश जा बसे ये तुम्हारे लाडले |” प्रशांत ने अपनी भड़ास निकालने के लिए उनके करीब जाकर ज़ोर से कहा |
“व्हाट् इज़ द लोरी ग्रांड-पा ? बड़े बेटे की पाँच बरस की बेटी थोड़ा कन्फ्युज थी |
“लो और सुनो... अब इस पीढ़ी का क्या करोगी जो मुझे ग्रांड-पा और तुम्हें ग्रेनी बना रही है |” “कम ऑन डेड... स्टॉप ओवर रियक्टिंग | जब हम दोनों छोटे थे तो आपने हमें इंग्लिश स्कूलों में ही नहीं पढ़ाया बल्कि घर में भी आप हमारी अँग्रेजी सुधारने के लिए हमारे साथ अँग्रेजी में बातें किया करते थे |” बड़ा बेटा थोड़ा खुलकर प्रशांत के सामने आ गया था उस रोज़ | “लोरी मीन्स ललाबाई माय लिल प्रिंसेस |” प्रशांत अपने संतानों की संतानों से गठजोड़ टूटने नहीं देना चाहते थे | वे जानते थे कि एक पीढ़ी का दूसरी पीढ़ी से टकराव, समाधान व समझौते तलाशने का प्रयत्न करेगा किन्तु यही टकराव अगर पहली पीढ़ी का तीसरी पीढ़ी के साथ होगा तो वहाँ समाधान नहीं होगा बल्कि इगो क्लेश होंगे और परिवार टूटने की राह चल देगा | “हम्म... देख लो हमें डांट रहे थे और अपनी पोती को अँग्रेजी में समझा रहे हैं |” “मूल रकम से ज्यादा प्रिय उसका ब्याज़ होता है, माई डियर !” प्रशांत भी दोनों बेटों के सिरों के बीच अपना सिर सटाकर शिखा की गोदी में जगह बनाने की कोशिश करते हैं |

“यू स्टिल गेट पजेसिव अबाउट मम्मा..डेड ?” बच्चे प्रशांत के साथ ठिठोली करते हुए हँसते हैं और अंतत: दोनों बेटों के साथ पिता भी उस स्त्री की प्रेम भरी छाँव के तले सुकून से लेट जाते हैं जिसकी ममता ने बरसों-बरस उनके परिवार को सींचा है |

बच्चों के साथ के कुछ दिन शिखा व प्रशांत के जीवन के स्वर्णिम दिन होते हैं | हर बार बच्चे उन दोनों को अपने साथ ले चलने की ज़िद करते हैं | “आप आओ तो सही, हम सब संभाल लेंगे और कुछ ही दिनों में वहाँ भी आपको अच्छा लगने लगेगा | अब तो विदेशों में भी भारतीयों की भरमार है, आपको कंपनी मिल जाएगी | आप दोनों मंदिर, बाग-बगीचे और सीनियर सिटिज़न पार्क में अपना समय गुज़ार सकते हैं |” बड़ा बेटा माँ की हर संभव मनुहार करता है | “यस... मम्मा ! बोथ ऑफ यू, शुड कम देयर एंड लीव विथ अस नाऊ | माँ आपके लिए वहाँ एक लाइब्रेरी भी है जहां हिन्दी की तमाम किताबें उपलब्ध हैं | छोटा बेटा भी अपने हिस्से की मनुहार करके शिखा व प्रशांत को मनाने का प्रयास करता है | “हिन्दी की किताबें ? लाइब्रेरी ? हाँ... हम जरूर आएंगे कुछ दिनों के लिए |” “कुछ दिनों के लिए, माँ... पर क्यों ?” “हमेशा वहाँ रहना अब इस उम्र में ? हमसे नहीं हो पाएगा बेटा, फिर तुम लोग हर साल तो छुट्टियों में यहाँ आ ही जाते हो |” “किन्तु माँ ऐसा कब तलक संभव है ? बच्चों के बड़े होने के साथ-साथ इनकी पढ़ाई और हमारी व्यस्तताएँ बढ़ती जाएंगी और फिर हमें भी इनके टाइम-टेबल के अनुसार चलना होगा |” छोटा बेटा अब इतना बड़ा हो गया कि अपने बड़े होते बच्चों की चिंता करने लगा है | शिखा हैरानी से अपने छुटकू के अचानक बड़े हो आए कद के सामने अपने-आपको बहुत बूढ़ा और थका हुआ महसूस करने लगी थी | “हाँ... सो तो है ! आख़िर हमने भी तो अपना समय तुम दोनों के टाइम-टेबल के साथ मैच कर रखा था | मैं देखूँ तुम्हारे पापा कहाँ चले गए अचानक, हमारी बातों के बीच न जाने कब उनकी दवा का समय भी बीत गया |” शिखा की आवाज़ में चिंता थी | इस चिंता की वजह प्रशांत को लेकर थी या फिर खुद के साथ प्रशांत के भविष्य को लेकर | अपने कमरे तक जाते वक़्त उसकी चाल में अचानक थकावट महसूस हुई थी | यूँ प्रतीत हो रहा था जैसे कई मीलों का सफर करके लौटी हो |

शिखा ने भीतर जाकर देखा तो प्रशांत गहरी नींद में सो रहे थे | प्रशांत के चेहरे पर उसने ठीक वही चिंता और उदासी पाई जो उस वक़्त उसने स्वयं के चेहरे पर महसूस की थी | वह बेहद एकाकी और उदास थी | चाहती थी प्रशांत के साथ दूर तक एक लंबी वॉक या लॉन्ग ड्राइव पर निकल जाए किन्तु प्रशांत को आधी नींद में जगाना उसे उचित नहीं लगा था | खा ने प्रशांत को कंबल से ढाँप दिया और स्वयं बगीचे में निकल आई | वह टहलते हुए बगीचे के उस खास कोने में चली आई | “बेस्ट आउट ऑफ वेस्ट !” वह मुस्कुरा दी | दरअसल वह कोना उसके दिल के बेहद करीब कब व कैसे होता चला गया ये तो उसे भी याद नहीं था किन्तु उस कोने की हरेक वस्तु से उसकी कोई न कोई याद जुड़ी हुई थी | बड़े बेटे की पहली दूध की बोतल जिसमें उसने गुलाबी सदाबहार का छोटा-सा पौधा उगा रखा था, जो उसे बेहद पसंद था... हर वक़्त उसमें फूल मुस्कुराया करते हैं | उसने स्नेह से उन्हें निहारा | शिखा चाहे कितनी भी उदास हो ये फूल उसकी उदासी हर लेते हैं | उसी पौधे के पीछे मनीप्लांट को सहारा देता हुआ छोटे बेटे का क्रिकेट बैट व तीनों विकेट अब भी मज़बूत इरादों के साथ जमे हुए थे | छोटा बेटा पाँचवी क्लास में था तब प्रशांत मेरठ से लाए थे | सोसाइटी के बच्चों को बैट दिखा-दिखाकर कितना खुश हुआ था वह | बड़ा होता गया तो क्रिकेट किट की जगह पर गिटार और बेडमिंटन रैकिट ने ले ली | शिखा ने बाद में उन्हें ड्राईंग रूम में सजा दिया था | इस बार सोच रही थी कि उसके बच्चों को उनके पिता के बचपन की यादें सौंप देगी | वे ले जाएँ शायद खेलें कभी उनसे या बजाएँ कोई सुरीला गीत जो छोटे बेटे को घर की याद दिलाए |

तुलसी के चौरे के नजदीक उसने दोनों की छोटी-छोटी साइकिलें सजा रखी हैं, जिनकी डलियाँ रंग-बिरंगे प्रकार के फूलों और भिन्न-भिन्न प्रकार के फर्न से लदी पड़ी हैं | बारिश का मौसम है सो घेर-घुमेर बेलों ने सायकिलों को पूरा ढँक रखा है | उसने पास से गुज़रते हुए साइकिल की घंटी बजा दी... रुकी-रुकी सी ट्रिन की आवाज़ के साथ उसका भी गला भर्रा आया | इसी घंटी को सुनकर वह दरवाजा खोलने दौड़ पड़ती थी | बच्चे स्कूल से थके आते थे | छोटे बेटे को तो तनिक भी देरी बर्दाश्त नहीं होती थी... शिखा के क़दमों में फिर वही तेज़ी उतर आई... वह तीव्र गति से आगे बढ़ गयी मगर फिर उसकी साँस फूलने लगी तो वहीं पड़ी गार्डेन चेयर पर वह धम्म से बैठ गई | सामने से प्रशांत दो कप चाय थामे चले आ रहे थे | शिखा की मनस्थिति समझने में उन्हें ज़रा देर नहीं लगी | चाय का कप पकड़ाकर उन्होंने हौले से शिखा का कंधा थपथपा दिया | “पिक्चर चलोगी ? बच्चे जा रहे हैं |” “अरे... कब प्लान किया ? मुझे बताया भी नहीं |” शिखा की परेशानी पर प्रशांत मुस्कुरा दिए|

“हमने ही तो उन्हें फैसले लेना सिखाया था, शिखा ! क्या तुम भूल रही हो ? अब ये निगलेक्टेड फीलींग्स क्यों ?” “हाँ... मैं ग्रीड़ी हो जाती हूँ प्रेम के समक्ष |” शिखा की आवाज़ का रूआँसापन प्रशांत को भीतर तक भिगो गया था | प्रशांत ने पास ही रखे रेडियो पर गज़लों वाला मूड सेट किया और आर्टिस्ट पर शिखा की पसंदीदा गायिका | शिखा ने वॉल्यूम तेज़ कर दिया दिया | उसकी पसंदीदा गायिका चित्रा सिंह की सुमधुर आवाज़ फिज़ाओं में दूर-दूर तक गूंजने लगी थी... सोचा नहीं अच्छा-बुरा, देखा-सुना कुछ भी नहीं, मांगा खुदा से रात-दिन, तेरे सिवा कुछ भी नहीं |” सा रे गा मा कारवां के पाँच हज़ार गानों वाला रेडियो शिखा ने ही प्रशांत को गिफ्ट किया था जब इसी बरस वह रिटायर होकर घर लौटे थे | शिखा ने वॉल्यूम कम कर दिया दिया और चाय ख़त्म करते हुए बोली-

“चलो बच्चों के साथ फिल्म देखकर आते हैं और शाम का खाना वहीं “केमलिंग” रेस्टौरेंट में खा लेंगे | बच्चों को वहाँ का चाइनीज़ खाना बहुत भाता है |” “देट्स लाइक माइ गुड गर्ल” प्रशांत ने खुश होते हुए बोला | “गर्ल... मैं ?” “हाँ... देखो ज़रा मेरी तरफ देखो ! कहीं भी कुछ भी तो नहीं बदला और सुनो ! मैंने एक सफ़ेद मोगरे की वेणी फ्रिज में लाकर रखी है उसे लगाना मत भूलना !” “अब इस उम्र में ?” “हाँ... मैं भी तो तुम्हारी पसंद की वही सफ़ेद टी-शर्ट पहनने वाला हूँ |” दोनों एक साथ हँस पड़े | “अच्छा सुनो... तुम्हारी वह कहानी कहाँ तक पहुँची ?” “वह...? अरे... वह तो बस अभी हाल ही पूरी हुई | उसे अपने नए लैपटॉप में टाइप करके सेव करना बाक़ी है, बस !” शिखा मुस्कराई |“खाली बोतल” जी ! अब वह कभी खाली नहीं रहेगी | बस एक नज़रिए का फर्क था | वह सदा प्रेम से, अनुभवों से और खूबसूरत यादों से भरी रहेगी |” शिखा का आत्मविश्वास देखकर प्रशांत ने राहत की सांस ली | आख़िरकार वे जानते हैं कि बच्चे भी तो मानव शरीर में “फ़ॉरेन पार्टिकल” की तरह होते हैं | लाख कोशिशें करो फिर भी न तो शरीर, न ही गर्भ उन्हें हमेशा के लिए अपने भीतर सहेज कर रख सकता है, फिर कैसा मोह ? यह दुःख और यह खालीपन क्यों ? “तो अगली कहानी कब शुरू करोगी ?“ पहले बच्चों के साथ जी भर एंजॉय कर लूँ | जब वे चले जाएंगे तो उनके वापस आने तक मैं और मेरी कलम !” “क्या मैं तुम्हारा मॉडरेटर बनने लायक हूँ ? अगर ये नौकरी तुम मुझे दे दो तो साथ में तुम्हारे पी.ए. का काम भी मैं फ़्री में ऑफर करता हूँ |” “मुझे मंजूर है, परंतु पहले टेस्ट देना होगा |” “बंदे को रोजगार की ख़ातिर आपकी शर्त मंजूर है |” वे दोनों कई दिनों बाद यूँ खुलकर हँसे थे | शिखा और प्रशांत दोनों हँसते-हँसते घर के भीतर चले गए | उसके बाद ठहाकों की मिली-जुली आवाज़ों से घर का कोना-कोना देर तक गूँजता ही रहा |

***