Hanuva ki Patni - 1 books and stories free download online pdf in Hindi

हनुवा की पत्नी - 1

हनुवा की पत्नी

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग 1

हनुवा धारूहेड़ा, हरियाणा से कई बसों में सफर करने, और काफी पैदल चलने के बाद जब नोएडा सेक्टर पंद्रह घर पहुंची तो करीब ग्यारह बजने वाले थे। मौसम में अच्छी खासी खुनकी का अहसास हो रहा था। चार दिन बाद दीपावली थी। हनुवा का मन रास्ते भर नौकरी, अपने घर भाई-बहनों, मां-बाप पर लगा हुआ था। दीपावली के एकदम करीब होने के कारण बहुत सी जगहों पर उसे रास्ते में दोनों तरफ घरों और बहुत सी बिल्डिंगों पर रंग-बिरंगी लाइटें सजी दिख रही थीं। सुबह धारूहेड़ा जाते और आते समय उसे लोग रेलवे स्टेशनों, बस स्टेशनों की तरफ जाते-भागते से दिख रहे थे। लग रहा था जैसे शहर खाली हो रहा है। इन लोगों के साथ हनुवा का भी मन बार-बार अपने घर इलाहाबाद के पास बड़ौत पहुंच जा रहा था।

आज भी वह रोज की तरह सेक्टर पंद्रह के कमरे पर जल्दी पहुंचने के लिए परेशान थी लेकिन उसका मन रोज के विपरीत बड़ौत अपने मां-बाप, भाई-बहनों के पास पहुंच जा रहा था। उसके साथ कमरे में चार और फ्रेंड रहती हैं। सभी इस परदेश में एक दूसरे की सुख-दुख की साथी हैं। उनका लैंडलॉर्ड मकान में नहीं रहता। उसने पूरे मकान में ऐसे ही चार किराएदार रखें हैं। वह किसी फैमिली वाले या जेंट्स को मकान किराए पर नहीं देता। गर्ल्स हॉस्टल बना रखा है। किराएदारों के लिए जो चार सेट बनवाए हैं उन में से हर सेट में चार से ज़्यादा लड़कियों को नहीं रहने देता।

हनुवा ने जब कमरे पर पहुंच कर कॉलबेल बजाई तो उसकी साथी सांभवी ने दरवाजा खोला। सामने हनुवा को एकदम थकी-हारी देखकर कुछ कहने के बजाए वह किनारे हट गई। उसके चेहरे की उदासी से वह समझ गई थी कि हनुवा आज भी खाली हाथ लौटी है। थकी वह भी थी लेकिन उसे हनुवा पर बड़ी दया आ रही थी। हनुवा कमरे में पड़ी चार फोल्डिंग में से एक पर धम् से बैठ गई। वह कुछ देर शांत बैठी रही। तब सांभवी ने पूछा ‘मैंने खिचड़ी बना रखी है। खाना अभी खाओगी। या पहले चाय बनाऊं?’ हनुवा बोली ‘तुमने खाया की नहीं?’ सांभवी के ना कहने पर उसने कहा ‘सांभवी तुम खा लो मेरा मन कुछ भी खाने-पीने का नहीं है।’ सांभवी ने कहा ‘खाना-पीना छोड़ने से क्या फायदा हनुवा? तुम्हारी हालत देखकर ही मैं समझ गई थी कि आज भी तुम खाली हाथ लौटी हो।

शाम को जब तुम्हें फ़ोन किया तभी तुम्हारी बातों से मुझे अहसास हो गया था कि वहां इंटरव्यू देना बेकार ही रहा। ये कंपनी वाले इस तरह दौड़ा कर ना जाने क्या पाते हैं?’ ‘पता नहीं, जो टाइम बताया था मैं उससे थोड़ी देर पहले ही ग्यारह बजे पहुंच गई थी। वहां पहले से ही बीस-पचीस लड़कियां बैठी थीं।’ हनुवा ने कुछ देर बाद उठकर पानी पीते हुए कहा। ‘मेरे बाद भी कई लड़कियां आईं। मुझे सब फ्रेशर ही लग रहीं थीं। मैं अंदर-अंदर खुश हो रही थी कि इंटरव्यू में इन सब पर भारी ही पड़ूंगी। अपना सेलेक्शन मैं तय मानने लगी।’

हनुवा बात करते-करते उठी और चाय बनाने लगी। सांभवी ने उससे एक दो बार खाने के लिए और पूछा था। उसके मना करने पर उसने अपने लिए खिचड़ी निकाल कर खाना शुरू कर दिया था। उसने ढेर सा टोमैटो सॉस और चिली सॉस भी ले लिया था। हनुवा चाय लेकर उसके सामने वाली बेड पर बैठ गई। दो तीन सिप लेने के बाद बोली ‘कंपनी बहुत बड़ी थी। मैंने सोचा बड़ी कंपनी है। सैलरी भी अच्छी होगी। चार महीने से खाली बैठी हूं, मिल जाए तो तुम सबका कर्ज उतार दूं।’

सांभवी ने हनुवा को बीच में ही टोकते हुए कहा ‘इतना टेंशन ना ले यार, आज नहीं तो कल मिल ही जाएगी। तब दे देना।’

‘टेंशन कोई लेता कहां है? वो तो परिस्थितियों के चलते हो जाता है। मैं यहां से गई तो थी बड़ी उम्मीदों के साथ लेकिन उन सारे कैंडिडेट्स के बाद जब मेरा नंबर आया, मैं पहुंची इंटरव्यू देने तो पहुंचते ही कहा गया कि ‘‘कॉल तो केवल फ्रेशर्स के लिए है। आपके पास तो पांच साल का एक्सपीरिएंस है।’’ यह सुनते ही मुझे लगा जैसे किसी ने मेरे गाल पर तमाचा जड़ दिया है। मेरे सारे सपने बीएसएनएल के सिग्नल की तरह अचानक ही टूट गए। जब मुझे लगा कोई उम्मीद नहीं है तो मैंने भी अपनी भड़ास निकाल देना ही ठीक समझा। मैं बिगड़ उठी कि ‘‘मुझे बेवजह क्यों बुलाया गया? मेरा टाइम, पैसा जो वेस्ट हुआ उसे कौन देगा?’’

मैं एच.आर. मैनेजर से मिलने के लिए अड़ गई। उन्होंने सिक्योरिटी गॉर्ड बुला लिए तो भी नहीं मानी। उन्हें लगा कि मुझे कैंपस से बाहर करने पर मैं वहां भी तमाशा कर सकती हूं तो उन लोगों ने एच. आर. मैनेजर को बुलाया। उसने भी मुझे समझाने की बहुत कोशिश की लेकिन मैं नहीं मानी। आखिर मुझे कन्वेंस, लंच मुझे जो परेशानी हुई उन सब को देखते हुए पांच हज़ार रुपए थमा दिए। मैंने सोचा जो मिल रहा है ले लो। चलो यहां से। टाइम भी बहुत हो रहा था। डर भी लग रहा था कि इनके गुंडे बदमाश कहीं पीछे ना पड़ जाएं। आखिर चली आई मन मसोस कर।’

सांभवी अब तक अपना खाना फिनिश कर चुकी थी। प्लेट किचेन में रख कर आई। वापस अपनी फोल्डिंग पर बैठते हुए कहा। ‘यार नौकरी नहीं मिली यह कोई बात नहीं है। लेकिन तुमने अकेले दम पर उनसे पैसा वसूल लिया ये बड़ी हिम्मत वाली बात है। मैं होती तो मुंह लटका कर चली आती। इतना बोलना कौन कहे सोच भी ना पाती।’

‘हिम्मत-विम्मत वाली कोई बात नहीं है। जिस कंडीशन से गुजर रही हूं, उससे आपा खो बैठी थी। रास्ते में कई बार ये बात दिमाग में आई कि मैं इतना कैसे कर गई?’ फिर हनुवा ने एक गहरी सांस लेकर कहा ‘देखो अभी और कब तक धक्के खाने हैं।’ उसने उठते हुए अपनी दो बाकी पार्टनर के बारे में पूछा ‘ये दोनों घर गईं क्या?’ सांभवी बोली ‘हां दोनों साथ ही निकलीं। सुहानी की ट्रेन चार बजे थी। और नीरू की छः बजे। बड़ी खुश थीं दोनों। जाते-जाते तुम्हें भी दीपावली की बधाई दे गई हैं। और ये लो दोनों ने ये गिफ्ट तुम्हारे लिए भी दिया है।’ सांभवी ने चॉकलेट के दो पैकेट हनुवा की तरफ बढ़ा दिए।

हनुवा ने पैकेट लेते हुए कहा ‘दोनों घर पहुंच जाएं तो कल उन्हें फोन करूंगी। और तुम कब जाओगी?’ आखिर में हनुवा ने सांभवी से पूछा तो वह बड़ी हताशा भरी आवाज़ में बोली ‘क्या जाऊं यार। यहां का किराया, सारे खर्चे, पी. एल.(पर्सनल लोन) की किस्त निकालने के बाद पैसा इतना बचा ही नहीं कि जा पाऊं। जाने पर आने का किराया भी चाहिए था। जितना पैसा मैं मां को देना चाह रही थी उसका आधा भी नहीं था। सोचा जाऊंगी तो दोनों बहनों,भाई, पैरेंट्स के लिये भी गिफ्ट नहीं लूंगी तो अच्छा नहीं लगेगा। वो लोग यहां के खर्चों के बारे में नहीं जानते। कुछ कहें भले ही न लेकिन सोच तो सकते ही हैं कि इतना कमाती है और....। इसलिए मैंने सोचा कि चलो मैं न सही वो सब तो खुशी-खुशी त्योहार मनाएं। इसलिए आज मैंने एमरजेंसी के लिए कुछ पैसे रखे बाकी सब पापा के अकाउंट में जमा कर दिए। मम्मी को फोन कर के बता दिया कि ऑफिस में एक ही दिन की छुट्टी मिल रही है। इसलिए नहीं आ पाऊंगी। पैसा भेज दिया है सब लोग खूब अच्छे से दीपावली मनाना।

भाई के लिए स्पेशली बोल दिया कि उसके लिए उसकी मन पसंद ड्रेस खरीदना। सबसे छोटा है। मम्मी तो बिल्कुल पीछे पड़ र्गइं कि जैसे भी हो दो दिन की और छुट्टी ले लो। तुम्हारे बिना सब बड़ा खाली-खाली लगेगा। हनुवा मां बहुत रोने लगी थी। मैंने बड़ी कोशिश की लेकिन मेरे भी रुलाई आ ही गई थी। उन्हें कैसे समझाती कि मेरी मजबूरी क्या है? वह बार-बार कह रही थीं ‘‘बेटा होली में भी नहीं आई। अब दिवाली भी।’’ उनको क्या बताती कि मम्मी जितना तुम सब का मन होता है उससे ज़्यादा मेरा भी मन करता है, तुम सब के साथ रहने, खाने-पीने, मजे करने का। लेकिन फिर नौकरी का क्या होगा? तब तो हालात और खराब हो जाएंगे। तब जो परेशानी होगी उससे यह दुख अच्छा है।’ बात पूरी करते-करते सांभवी की आंखों से आंसू टपकने लगे।

हनुवा जो चेंज करने के लिए उठी थी वह अपनी जगह खड़ी-खड़ी उसे सुनती रही। फिर उसके चुप होते ही बोली। ‘बड़ा गुस्सा आता है अपने लोगों की इस हालत पर। ना जीते हैं ना मरते हैं। इस समय तो मैं खुद तुम सब पर डिपेंड हूं। पैसा मेरे पास होता तो तुम्हें देकर मैं घर जरूर भेजती। चुप हो जा, खुद को ऐसे परेशान करने से फायदा भी क्या?’

हनुवा इतना कह कर चेंज करने चली गई। एक बड़ा और एक छोटा कमरा, किचेन, टॉयलेट इतने में ही चारों सहेलियां रहती हैं। इन सबने अपनी जरूरतों में भी बहुत सी कटौती कर रखी थी। इतनी ही चीजें साथ रखीं हैं कि बस ज़िंदगी चल जाए। चेंज कर के जब हनुवा फिर आई कमरे में तो सांभवी लेटी हुई थी। उसे नींद नहीं आ रही थी। मन घर पर लगा हुआ था। हनुवा को लगा कि शायद वो सोने के मूड में है तो वह आने के बाद चुप ही रही। अपनी फोल्डिंग पर बैठी तो पूरानी होने के कारण उसके जंग लगे पाइप, क्लंपों से चरचराहट की आवाज़ आई। जिसे सुन कर दूसरी तरफ मुंह किए लेटी सांभवी ने करवट ली और उसकी तरफ मुखातिब होकर कहा। ‘तुम्हें भूख नहीं लगी है क्या? बाहर कुछ हैवी नाश्ता कर लिया?

‘क्या यार तुम भी मजाक करती हो। ये तो कहो वहां पैसे मिल गए थे, तो आसानी से आ गई। नहीं तो आने के लिए किराया भी नहीं था। क्या करूं मूड इतना खराब हो गया था कि कुछ खाने-पीने का मन ही नहीं हुआ। फिर वहां से निकलते-निकलते ही बहुत देर हो गई थी।’

‘तो अब तो खा लो, कहो तो निकाल दूं’ सांभवी ने हनुवा की पस्त हालत देख कर कहा। हालांकि बात आधे-अधूरे मन से ही कही थी। हनुवा ने कहा ‘क्या खाऊं, भूख तो लगी है। खाली पेट पानी, चाय पी-पी कर पेट अजीब सा हो रहा है। दीपावली एकदम सामने खड़ी है। अभी तक घर कुछ पैसा भी नहीं भेज पाई। यह संयोग ही कहो कि वहां से पांच हज़ार मिल गए। कल सुबह पहले यह पैसे पापा के अकाउंट में जमा कर दूं तब जाकर मुझे चैन मिलेगा।’‘ठीक है, कुछ तो खा लो, नहीं तो गैस प्रॉब्लम करेगी। वैसे भी तुझे ये प्रॉब्लम बड़ी जल्दी होती है। चाहो तो खिचड़ी गरम कर लो। ठंडी हो गई हो गई होगी, अच्छी नहीं लगेगी।’

‘क्या अच्छी-खराब, पेट ही तो भरना है, जिससे चलती रह सकूं।’ फिर हनुवा ने खाना खाया और अपनी फोल्डिंग पर बैठ गई । सांभवी इस बीच बात करते-करते सो गई। उसकी नाक से खुर्र-खुर्र की हल्की आवाज़ आने लगी थी। हनुवा की आंखों में नींद की कड़वाहट थी, लेकिन वह सो नहीं पा रही थी।

सांभवी की बातों ने बड़ा उद्वेलित कर दिया था। कि उसके घर वाले उसे कितना चाहते हैं। उसे बार-बार बुला रहे हैं। वह भी जाने के लिए तड़प रही है। लेकिन अपने घर वालों की खुशी के लिए इतना परेशान है कि अपनी खुशी भी त्याग दी। यह सोच कर नहीं गई कि जाने पर किराए में ही बहुत सा पैसा खर्च हो जाएगा। तो वह कम पैसा दे पाएगी। उनकी खुशियां कहीं कम ना हो जाएं, तो अपनी खुशी को त्याग दिया। बाकी दोनों सहेलियां पहले ही चली गईं।

एक मेरा घर है। मेरे मां-बाप हैं। भाई, बहन हैं। सारी बातें हो जाती हैं। पैसे की भी बात हो जाती है। लेकिन इतने सालों में कोई एक बार भी नहीं कहता कि तुम कब आओगी? या आओगे? शायद उनके पास मेरे लिए शब्द नहीं होते होंगे। कि आओगी कहें या आओगे। ये भाषा को बनाने वालों को क्या ये ध्यान नहीं था कि हम जैसे लोगों के लिए भी कोई शब्द बनाते। कि लोग हमें गे कहें या गी। आखिर ऐसा कौन सा पहाड़ टूट पड़ता यदि हम जैसों के लिए भी भाषा में हमें परिभाषित करने वाले भी शब्द होते।

ना ऊपर वाले ने हमारे लिए कोई क्लियर स्पेस निर्धारित किया और ना नीचे वालों ने। लेकिन जब ऊपर वाले नहीं कर सके तो ये नीचे वाले कहां से करते। इनकी क्या गलती? हनुवा इन उलझनों में से निकलने की कोशिश करने लगी। जिससे सो सके। थकान से चूर हो रही थी। मगर दिल में घर की ओर से मिले ये शूल उसे ना सिर्फ़ बेध रहे थे। बल्कि जैसे बार-बार हिल-हिल कर दर्द और बढ़ा रहे थे। दर्द उसके उस अंग में भी आज ज़्यादा हो रहा था, जिसके कारण, ना वह इधर की थी ना उधर की। किधर की है इस पर भाषा तक मौन है।

मगर मां-बाप, वो क्यों मौन हैं? आखिर मैं उनकी संतान हूं। क्या यह सही है कि उनके बाकी बच्चों को किसी के ताने, किसी की हंसी, किसी की उपेक्षा ना सहनी पड़े, उनके बाकी बच्चों के शादी-ब्याह, कॅरियर पर कोई फर्क, कोई आंच ना आए, इसलिए एक बच्चे की बलि दी जा सकती है। क्या यह फार्मूला लागू होगा कि बाकी बच्चों के हित के लिए यदि एक बच्चे की बलि की आवश्यकता है तो उसे बेहिचक दे देना चाहिए।

उसके मन की पीड़ा, उसके सारे दर्द से किसी को कोई लेना-देना नहीं है। जैसे इस समाज को। और यदि यही करना था तो मुझे बचा कर क्यों रखा? मार डाला होता। यदि इसके लिए हाथ नहीं उठा पाए, नहीं हिम्मत जुटा पाए तो कम से कम हमें हमारे जैसे लोगों की दुनिया में जाने देते। वहां हम खुलकर अपने हिसाब से सांसें तो लेते। हंस-बोल तो सकते।

कुछ छिपाने के लिए हर क्षण चिंतित तो नहीं रहना पड़ता। हनुवा के मन में प्रश्नों की झड़ी लगी थी कि आखिर उसके साथ ऐसा क्यों किया गया? और लोगों की तरह मुक्त होकर क्यों नहीं रह सकती? उन्हीं की तरह नौकरी के लिए कहीं भी खुल कर ट्राई क्यों नहीं कर सकती? अन्य लड़कियों की तरह हर फैशन के कपड़े, बिंदास कपड़े क्यों नहीं पहन सकती? हां लड़कियों की तरह। उसका मन लड़कियों की ही तरह तो तितली बन आज़ाद उड़ना चाहता है। उसका मन मचल-मचल उठता है। लड़कियों की तरह खिलखिलाने, उछलने-कूदने के लिए। मगर वह कर कहां पाती है यह सब। हमेशा सबसे छिपती-फिरती है।

घर वाले भी तो बचपन से ही छिपाते आ रहे हैं। क्या-क्या जतन नहीं किए और करवाए मुझसे। और मैं भी कैसे-कैसे जतन करती रहती हूं कि इस मन-आत्मा से पूर्ण एक लड़की, शरीर से भी हूं ही। सिर्फ़ एक इस अंग को छोड़ कर। ईश्वर ने एक इस अंग के साथ भेद कर मेरी आत्मा, मन को हर क्षण रोने के लिए क्यों विवश कर दिया है? एक अंग पुरुषों का, बाकी शरीर, दिल लड़कियों का देकर आखिर किस पाप की सजा दी है।

या यह एक ह्यूमन एरर की तरह ही गॉड एरर है। जिसका परिणाम मैं भुगत रही हू। और एरर करने वाले को कोई फ़र्क़ नहीं। इस एक एरर से जान मेरी जा रही है। तीन दिन से दर्द के मारे रहा नहीं जा रहा है। कपड़े लूज पहनूं तो पोल खुलने का डर। आखिर क्या करूं, कहां मरूं जाकर?

हनुवा सोना चाह रही थी, मगर दर्द जो अब काफी बढ़ चुका था उसके कारण वह लेट भी नहीं पा रही थी। खाने के बाद दर्द बढ़ता ही जा रहा था। वह कभी बैठती, कभी लेटती, कभी कमरे में टहलती, टेस्टिकल में उठती दर्द की लहरों ने आखिर उसके बर्दाश्त की सीमा तोड़ दी। वह कराह उठी। दर्द ऐसी जगह कि ना उसे कोई दवा सूझ रही थी। ना कोई और तरीका।

उसने सोचा जरूरत से बहुत ज़्यादा टाइट इनरवियर के कारण तो यह नहीं हो रहा तो बाथरूम में जाकर उसे भी उतार आई। ऐसा वह इसलिए करती आ रही है शुरू से जिससे कपड़े के ऊपर से भी कभी किसी को शक ना हो। मगर दर्द तो जैसे पीछे ही पड़ गया। वह उठकर दूसरे कमरे में चली गई जिससे उसके कराहने की आवाज़ सांभवी को जगा ना दे। लेकिन आज तो ऐसा लग रहा था जैसे उसके साथ कुछ अशुभ होना तय है। दर्द इस कदर भयानक हुआ कि हनुवा सिर कटी मुर्गी सी तड़फ उठी, फड़फड़ा उठी। उसे अब इस तरह की किसी बात का ध्यान नहीं रहा कि सांभवी जाग जाएगी।

आखिर हुआ यही। उसके रोने कलपने की आवाज़ से सांभवी की नींद खुल गई। वह उसके पास कमरे में पहुंची और उसे एकदम से कंधों के पास पकड़ कर घबड़ा कर पूछा ‘हनुवा, हनुवा क्या हुआ तुम्हें। तुम जमीन पर क्यों पड़ी हो?’ सांभवी की आवाज सुन कर हनुवा की चैतन्यता अपनी सीक्रेसी को लेकर जैसे फिर सक्रिय हो उठी। उसने तड़पते हुए पेट में दर्द की बात कही। टेस्टिकल की बात एकदम छिपा गई।

सांभवी ने उसे हाजमें की एक दवा शीशी से निकाल कर दिया कि वह खा ले तो उसे आराम मिल जाएगा। लेकिन हनुवा ने मना कर दिया। क्यों कि दर्द सच में कहां है यह तो वही जानती थी। यह भी जानती थी कि उसे हाजमें की दवा की नहीं उस दवा की जरूरत है जो उसके टेस्टिकल में हो रहे दर्द को ठीक कर सके। लेकिन कौन सी दवा चाहिए ये वो भी नहीं जानती थी।

दर्द से उसके रोने कलपने को देख सांभवी घबरा उठी। उसने हनुवा से कहा कि वह थोड़ा धैर्य रखे, वह उसे हॉस्पिटल ले चलने की व्यवस्था करती है। लेकिन हनुवा ने उसे मना कर दिया। वह जानती थी कि डॉक्टर के पास जाते ही पोल खुल जाएगी। लेकिन दर्द ने जैसे उससे होड़ लगा रखी थी कि वह उसे हरा कर छोड़ेगा, वह उसकी पोल खोल कर रहेगा। दर्द और बढ़ गया। और भयानक हो गया।

उसे लगा जैसे उसके युरिन ट्रैक में कांच के कई टुकड़े रेंग रहे हैं। गहरे घाव कर कर के दर्द और बढ़ा रहे हैं। उसने अचानक ही महसूस किया कि उसे तेज़ पेशाब लग आई है। इतनी तेज़ कि तुरंत ना गई तो कपड़े खराब हो जाएंगे। वह हड़बड़ा कर उठी, सांभवी ने उसकी मदद की। वह किसी तरह दर्द से दोहरी होती। लड़खडा़ती टॉयलेट में घुस गई। इस हालत में भी वह अंदर से दरवाजा बंद करना ना भूली।

पेशाब का प्रेशर इतना तेज़ था कि वह बड़ी मुश्किल से क्षण भर में कपड़े खोल सकी। लेकिन पेशाब करना चाहा तो लगा वह टैªक में ही करीब आकर फंस गई है। भयानक प्रेशर भी हो रहा था। और प्रेशर देने पर अंततः भयानक दर्द के साथ यूरिन ट्रैक को जैसे चीरती हुई दो-तीन बूंदें टपकीं। जिसे देख कर वह सहम उठी। वह यूरिन नहीं ब्लड था। पीड़ा कई गुना बढ़ गई। वह चीख पड़ी इस पर उसके और बल्ड निकल आया। तभी दर्द के कारण वह गिर गई। उसे लगा जैसे उस पर बेहोशी छा रही है। उसने कुछ सोच कर किसी तरह दरवाजे की सिटकनी खोली, लेकिन निकलने की कोशिश में फिर लुढ़क गई।

जिस रहस्य को रहस्य बनाए रखने के लिए उसने बरसों से इतना कुछ किया, अब उसे इस चीज की कोई सुध-बुध नहीं रही। वह कपड़े भी पहन ना पाई। उसके पेट तक का हिस्सा बाथरूम से बाहर कमरे तक आ चुका था। शेष बाथरूम में ही था। उसकी चीखों के कारण सांभवी दरवाजे पर ही खड़़ी थी। वह घबड़ा कर उसे उठाने लगी। लेकिन बहुत कोशिश कर के भी वह उसे उठा नहीं पाई तो किसी तरह खींच-खांच कर कमरे में ले आई। उसे कपड़े पहनाए। अब तक हनुवा पूरी तरह बेहोश हो चुकी थी।

हनुवा को जब होश आया तो उसने अपने को एक हॉस्पिटल की एमरजेंसी में पाया। वह बेड पर थी। हाथ में ड्रिप लगी हुई थी और प्राइवेट पार्ट में कैथेटर। आंखों में उसकी बहुत जलन हो रही थी। उसे आस-पास कोई दिखाई नहीं दे रहा था। वह बेहद छोटे से कमरे में थी। उसने उठना चाहा तो देखा उसके दोनों हाथ बेड की साइड रॉड से बंधे हुए हैं। शरीर पर लाइट मिलेट्री ग्रीन कलर की हॉस्पिटल की ड्रेस थी। ट्राउजर और शॉर्ट टी-शर्ट जैसी शर्ट।

बदन पर यह ड्रेस देखकर वह सकते में आ गई। यह क्या? फिर क्षण भर में उसके सामने रात का दृश्य उपस्थित हो गया। उसकी आंखें जैसे फटी जा रही थीं। वह रो पड़ी। आंसू ऐसे झरने लगे मानो बादल ही फट पड़ा हो। शर्म ऐसे महसूस कर रही थी कि जैसे वह भरे चौराहे पर हज़ारों की भीड़ में अचानक ही निर्वस्त्र हो गई है।

अपने जिस तन को वह पिछले पचीस वर्षों से बड़े जतन से सबकी नजरों से बचाती आ रही थी जिससे वह अपने विशिष्ट तन के कारण, समाज में उपेक्षा, जलालत, हिमाकत सब से बची रहे। उसी रहस्य को इस मनहूस दर्द ने कैसे क्षण भर में बेपर्दा कर दिया।

ना जाने किन-किन लोगों ने उसे किशोर के गाये इस गाने की तर्ज पर देखा होगा कि ‘‘चांद की भी ना पड़ी जिनपे किरन, मैंने देखे उन हसीनो के बदन।’’ जिस बात को छिपाने के लिए उसने कितनी पीड़ा, कितनी तकलीफें झेलीं, कपड़े पहनने, सोने, कहीं जाने, हर क्षण क्या-क्या नहीं किया। वह क्षण में व्यर्थ हो गया। सांभवी ने ना जाने किस-किस को बताया होगा। मैं तो कपड़े भी नहीं पहन पाई थी। इसने सभी फ्रैंड को फ़ोन कर दिया होगा। उन सबने मेरे रहस्य को जान लिया होगा। रही-सही कसर यहां हॉस्पिटल में पूरी हो गई होगी।

यहां का स्टॉफ ना जाने क्या सोच रहा होगा? सब मुझे झूठी धोखेबाज समझ कर गाली दे रहे होंगे। कोई आश्चर्य नहीं कि सुबह के राउंड पर आते ही डॉक्टर, स्टॉफ मुझे डांटे, निकाल बाहर कर दें। सांभवी नहीं दिख रही है। असलियत जानते ही भाग गई होगी। तो क्या मैं यहां अकेली ही पड़ी रहूंगी? यहां के बिल का क्या होगा? पता नहीं कौन सा ट्रीटमेंट किया है? कोई यहां कुछ बताने वाला नहीं है। अब क्या होगा? इस जलालत, शर्मिंदगी से तो अच्छा था कि मर ही जाती। सभी चले गए थे। ये सांभवी भी चली गई होती तो अच्छा था। सबके सामने पोल तो ना खुलती। वहीं कमरे में बेहोश पड़े-पड़े मर जाती।

मगर ये भी मेरी तरह पैसे से हमेशा खाली ही रहती है। हनुवा कमरे में एक छोटे से बल्ब की रोशनी में मन में उठ रहे बवंडर से तड़प उठी थी भीतर तक। उसे यह सोचते देर नहीं लगी कि इस नर्क ज़िंदगी, सबसे कुछ छिपा कर जीने से अच्छा है कि मैं आत्महत्या कर लूं। ऊपर चल रहा यह पंखा भी ज़्यादा ऊंचा नहीं है। बेड की यह चादर काम आ जाएगी। मगर तभी उसका ध्यान अपने बंधे हुए हाथों की तरफ गया तो वह बिलख पड़ी। वह बंधे हुए थे। वह कुछ नहीं कर सकती थी। वह विवश थी फिर से एक बार दुनिया का सामना करने के लिए।

वह नहीं समझ पा रही थी कि अब वह पोल खुल जाने के बाद दुनिया का सामना कैसे करेगी? और यह दुनिया अब उसकी हक़ीक़त जानने के बाद उससे किस तरह का व्यवहार करेगी? क्या अब उस पर हंसी-ठिठोली अपमानजनक व्यवहार की बौछार होगी? क्या अब उसे कहीं नौकरी भी नहीं मिलेगी? सभी फ्रैंड थूकेंगी उस पर कि मैंने उन सब को धोखा दिया। उनकी इज़्जत उनकी भावनाओं से खिलवाड़ किया। कोई आश्चर्य नहीं कि यह सब मिलकर मेरी पिटाई ही कर दें। या पुलिस में कंप्लेंट कर दें कि मैं मर्द जैसी कैपेसिटी की होकर उन सबको धोखा देकर साथ रही। उनके साथ लड़की बन कर रही। ये सब मुझे कई सालों के लिए जेल भिजवा सकती हैं।

अपने बंधे हाथ को उसने छुड़ाने की कोशिश की लेकिन वो बड़ी मज़बूती से बंधे थे। जोर लगाने पर जिसमें वीगो लगा था उसमें दर्द होने लगा। दूसरे में भी पूरा जोर नहीं लगा पा रही थी। अपनी विवशता पर उसे रोना आ रहा था, विवशता से ज़्यादा उसे अकेलापन कचोट रहा था। घर की याद आ रही थी। लेकिन जब घर के लोगों की उपेक्षा, उसको लेकर उन लोगों का दिखावटी अपनापन याद आया तो दिल तड़प उठा कैसा घर ? किसका घर ? यहां पूरी दुनिया से मैं अपने को छिपाती फिरती हूं। और घर वाले मुझसे छिपते फिरते हैं।

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