Hanuva ki Patni - 2 books and stories free download online pdf in Hindi

हनुवा की पत्नी - 2

हनुवा की पत्नी

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग 2

उन सबके हावभाव से साफ पता चलता है कि वे नहीं चाहते कि मैं उन लोगों के पास पहुंचूं। सब कितनी फॉर्मेलिटी करते हैं। कहीं मैं उन सबको कुछ ज़्यादा ही तो परेशान नहीं करने लगी? वो सब मुझे अपनी खुशियों पर लगा ग्रहण मानते हैं। मुझे अब यह सब समझना चाहिए। अपने स्वार्थ के लिए कब तक उनके लिए ग्रहण बनी रहूंगी। वो मुझसे पीछा छुड़ाना चाहते हैं। मैं ही पीछे पड़ी रहती हूं। मगर लगता है कि अब समय आ गया है कि मैं बोल्ड स्टेप लूं। उन सब लोगों से अब हमेशा के लिए सारे रिश्ते खत्म कर लूं।

बस एक बार जाकर किसी तरह और मिल लूं। फिर कभी उस घर क्या, उस शहर की तरफ भी अब मुंह नहीं मोडूँगी । हनुवा बेड पर पड़े-पड़े आंसू बहाती रही, बंधे हुए हाथ बहुत परेशान कर रहे थे। उसने सोचा कि किसी को आवाज़ दूं। बुलाऊं और कम से कम हाथों को खुलवा तो लूं। डॉक्टर, नर्स को जब आना होगा तब आएंगे। उसने दो-तीन बार आवाज़ दी ‘एस्क्यूज मी, कोई है?’ मगर कोई रिस्पांस नहीं मिला। कुछ देर चुप रहने के बाद उसने फिर आवाज़ दी तो दरवाज़ा खुला और उनींदी सी सांभवी अंदर आई। उसने आकर उसके सिर पर प्यार से हाथ रखते हुए कहा ‘अब कैसी हो हनुवा?’

हनुवा कुछ बोल ना सकी। वह सकपकायी सी सांभवी को देखती रही। सांभवी का व्यवहार उसकी सारी आशंकाओं के विपरीत अत्यंत प्यार, अपनत्व भरा था। हनुवा को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या बोले। उसकी आंखों से आंसू निकल कर पहले की तरह उसकी कनपटी भिगोते रहे। तो सांभवी बोली ‘क्या हुआ हनुवा? इस तरह क्या देख रही हो? अब तबियत कैसी है?’ इस बार हनुवा ने सिसकते हुए पूछा ‘यहां मुझे तुम ले आई?’ उसके होठ फड़क रहे थे।

उसकी हालत देखकर सांभवी समझ गई कि हनुवा की इस समय असल परेशानी क्या है? उसके मन में क्या चल रहा है? उसने बड़े प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा ‘मैं समझ रही हूं तुम क्या सोच रही हो, क्या जानना चाहती हो? तुम्हें परेशान होने की ज़रूरत नहीं है। यहां भी किसी को कोई प्रॉब्लम नहीं हुई। और होगी भी नहीं, क्यों कि उनको तो पैसों से मतलब है।

डॉक्टर के लिए पेशेंट सिर्फ़ पेशेंट होता है। और कुछ नहीं। और घर से मैं तुम्हें अकेले ही ले आई थी। एम्बूलेंस से। घर पर कपड़े मैंने ही पहनाए थे। हनुवा यह समय यह सब सोचने,परेशान होने का नहीं है। तुम पहले ठीक हो जाओ। घर चलो तब सोचना। फिर इसमें सोचना क्या है? बहुत से लोग हैं इस तरह से। दुनिया में सबकी तरह अपनी नॉर्मल लाइफ जी रहें हैं।

देखती नहीं कितनी हैं तुम्हारी जैसी, जो जज, विधायक, मेयर, प्रिसिंपल, पुलिस बनी हैं। अपनी परफार्मेंस से बड़ों-बड़ों के छक्के छुड़ाए हुए हैं। मैं तो समझ नहीं पा रही हूं कि तुम अपनी फिज़िकल कंडीशन के कारण अपने को क्यों इतना टार्चर करती आ रही हो। मैं तुमसे इस बारे में बहुत पहले ही बात करना चाह रही थी। लेकिन तुम्हें जब खुद को हद से ज़्यादा छिपाते देखती तो चुप हो जाती।’ सांभवी की यह आखिरी बातें सुनते ही हनुवा चौंकते हुई बोली ‘क्या-क्या तुम?’

सांभवी ने उसे बीच में ही रोकते हुए कहा ‘हनुवा जब तुम हम लोगों के साथ रहने आई थी तो तीन महीने बाद ही मैं बाइचांस ही तुम्हारे बारे में जान गई थी।’

हनुवा चौंकी। उसने फटी-फटी सी आंखों से उसे देखते हुए पूछा ‘क्या?’

‘हां हनुवा।’

‘तो तुमने उस समय कुछ कहा नहीं। मैं बड़े आश्चर्य में हूं।’

‘हनुवा मैं इस समय भी कहां कुछ कह रही हूं। तुम बेवजह परेशान हो रही हो।’

‘नहीं मेरा मतलब बाकियों ने भी कुछ नहीं कहा।’

‘बाकियों से मैंने कुछ बताया ही नहीं। वे सब कुछ नहीं जानती। हां मेरी ही तरह बाकी सब भी जान गई होंऔर मेरी ही तरह कुछ नहीं कहा तो मैं नहीं कह सकती। लेकिन मुझे पक्का यकीन है कि वे सब नहीं जानतीं। क्योंकि उन सबने मुझसे इस बारे में आज तक कोई बात नहीं की। इसलिए तुम निश्चिंत रहो।

‘मगर तुम, तुम्हें गुस्सा नहीं आया कि मैंने.....’

‘हनुवा पहले ठीक हो जाओ, घर चलो तब यह सब बातें करना कि मुझे गुस्सा आया या नहीं आया, मैं क्यों अब तक चुप रही? आगे रहूंगी या नहीं? आगे क्या होगा? यह सब घर चल कर। हां इतना जरूर कहूंगी कि तुम बिल्कुल शांत रहो। कोई टेंशन लेने की ज़रूरत नहीं। किसी तरह की कोई प्रॉब्लम नहीं है। जो होगा, अच्छा ही होगा।’

सांभवी ने यह कहते हुए एक बार फिर उसके सिर को प्यार से सहला दिया। हनुवा को लगा कि जैसे ना जाने कितना बड़ा बोझ सांभवी के स्पर्श ने उतार दिया। आंखें उसकी फिर भर आई थीं। तभी दरवाज़ा हल्की सी आवाज़ के साथ खुला। डॉक्टर नर्स के साथ आए। उससे हाल-चाल पूछा। चेकप किया। और चले गए। वह बड़ी जल्दी में दिख रहा था।

हनुवा को फिर आश्चर्य हुआ कि डॉक्टर, नर्स ने भी कुछ नहीं कहा। नर्स ने बड़े यंत्रवत ढंग से उसके हाथ खोले थे। ड्रिप निकाल दी थी। वीगो भी। वहां एक बैंडेज लगा दिया था। हनुवा इतनी हैरान, परेशान थी, सहमी हुई थी कि सांभवी से पंद्रह मिनट की बातचीत के दौरान कई बार मन में आने के बाद भी हाथ खोलने के लिए कहने की हिम्मत नहीं कर सकी थी।

दिन में करीब तीन बजे तक उसे डिस्चार्ज कर दिया गया। उसे दवाएं वगैरह दे दी र्गइं। कुछ दवाएं बाहर से लेनी थीं। एक हफ्ते बाद फिर आकर चेकप कराना था। उसकी किडनी में दो से तीन एम.एम. तक के कई स्टोन थे। उन्हीं के कारण यह भयानक दर्द उठा था। शाम को वह सांभवी के साथ घर पहुंची। हनुवा बहुत थकान और कमजोरी महसूस कर रही थी। सांभवी ने उसे एक गिलास संतरे का जूस दिया। आते समय वह लेते हुए आई थी। दवाएं भीं। हनुवा बेड पर लेटने की बजाय बैठी रही तो सांभवी ने कहा ‘लेट जाओ। आराम करो।’

हनुवा ने कहा ‘नहीं लेटने का मन नहीं हो रहा है। तुम भी तो कल से थकी हो।’

‘हां... लेकिन मेरी और तुम्हारी थकान में फ़र्क है। और मैं यह भी जानती हूं कि तुम लेटना क्यों नहीं चाहती। तुम अब बेचैन क्यों हो?’ सांभवी की बात सुनकर हनुवा कुछ देर चुप रही, बैठी रही अपनी जगह। इस बीच सांभवी ने दूसरे कमरे में जाकर कपड़े चेंज किए। हॉस्पिटल जिन कपड़ों में गई थी उन्हें बाथरूम में डाला। हनुवा को भी एक सेट कपड़ा लाकर देते हुए कहा ‘चेंज कर लो। फ्रेश महसूस करोगी।’

हनुवा ने उसे प्रश्न भरी निगाहों से देखते हुए कपड़े लिए तो सांभवी ने पूछा ‘ऐसे क्या देख रही हो?’ ‘मैं-मैं ये पूछ रही थी कि हॉस्पिटल में कितना पैसा लगा। कैसे मैनेज किया तुमने।’‘थोड़ा आराम करने के बाद पूछती। इतनी जल्दी क्या है।‘‘नहीं सांभवी मैं बहुत बेचैन हो रही हूं।’’

‘अच्छा! ऐसा है कि हॉस्पिटल में करीब दस हज़ार लग गए। ये प्राइवेट हॉस्पिटल वाले ट्रीटमेंट के नाम पर लूटते हैं। मामूली सा हॉस्पिटल था फिर भी इतना पैसा ले लिया। उस समय तुम्हारी हालत देखकर मैं घबरा गई थी। इसलिए जैसे ही यह हॉस्पिटल नजर आया यहीं पहुंच गई। एम्बुलेंस की मुझे उम्मीद नहीं थी कि इतनी जल्दी आ जाएगी। मगर मौके से सब होता गया। और तुम हॉस्पिटल पहुंच गई।’

‘और पैसे ? वह कैसे मैनेज किए?’

‘वह भी बाइचांस ही समझो। पांच हज़ार तो मैंने तुम्हारी पर्स से ही निकाले। वही जो तुम्हें कल ही उस कंपनी से मिले थे। करीब चार हज़ार मेरे पास थे। मैं आज ही यह पैसे भी घर भेजने वाली थी। मगर तुम्हारी हालत देखकर प्लान बदल दिया। बाकी पांच हजार ऊपर वाली फ्रेंड से लिए वह सब भी आज ही अपने घर चली गईं।

सभी ने त्योहार की वजह ज़्यादा पैसे नहीं दिए। लेकिन फिर भी सबने थोड़े-थोड़े दिए तो पांच हज़ार हो गए। उससे काम चल गया। अभी मेरे पास करीब डेढ़ हज़ार रुपए और हैं। आगे हफ्ते भर की दवाओं का तो काम चल जाएगा लेकिन उसके बाद भी अगर दवा चली तो कुछ और इंतजाम करना पड़ेगा। बाकी खाने-पीने का भी सारा सामान खत्म ही है।’

सांभवी की बात सुनकर हनुवा की आंखें भर आईं। वह बड़ी देर तक बुत बनी रही। फिर बोली ‘सांभवी तुम सबका यह अहसान कभी ना भूलुंगी। तुमने तो जिस तरह से मैनेज किया उसके लिए तो वर्ड्स ही नहीं निकल पा रहे हैं। तुमने तो फ्रैंड नहीं एक पैरेंट्स का रोल प्ले किया है। तुम ना होती तो मैं निश्चित ही ना बच पाती।’ कहते-कहते हनुवा भावुक हो गई। गला रूंध गया। आंखें भर र्गइं। उसे इतना भावुक देखकर सांभवी भी भावुक हो गई। वह उसके करीब जाकर बोली ‘क्या हनुवा, ये तुम क्या अहसान-वहसान लेकर बैठ गई।

अरे हम एक जगह रहते हैं, एक दूसरे की हेल्प हम नहीं करेंगे तो कौन करेगा? घर वाले तो यहां रहते नहीं। यहां तो हमीं लोग एक दूसरे के फ्रेंड, नेवर, पैरेंट्स सब कुछ हैं। तो हम एक दूसरे की हेल्प नहीं करेंगे तो कौन करेगा। और इतना टेंशन करने की ज़रूरत नहीं है। तुम्हें ऐसी कोई बिमारी नहीं है कि जान चली जाए। मामुली सी स्टोन की बात है। वो भी दो-तीन एम.एम. के हैं। बाकी पैसों की जो प्रॉब्लम है वह भी देखी जाएगी। हमेशा ऐसा ही तो नहीं चलता रहेगा ना। अब तुम लेटो, आराम करो।’

सांभवी की बात सुनकर हनुवा एकदम से कुछ ना बोल सकी। कुछ देर चुप रहने के बाद बात को बदलते हुए बोली ‘तुम घर कब जाओगी ?’ हनुवा को सांभवी एक दिन पहले ही बता चुकी थी कि वह नहीं जा रही। लेकिन फिर भी हनुवा के मुंह से यह अचानक ही निकल गया। हनुवा की यह बात सुनकर सांभवी के चेहरे के भाव बदल गए। वह तुरंत कुछ ना बोल पाई। कुछ देर चुप रही तो हनुवा ने फिर पूछा ‘क्या हुआ ? तुम ऐसे चुप क्यों हो ?’ तो सांभवी ने कहा ‘अब क्या बताऊं? घर जाने की पूछ रही हो। मगर अब मुझे घर जाने की बात सोच कर ही डर लगने लगता है।’

‘घर जाने से डर लगने लगा है। क्या कह रही हो? ऐसा क्या हो गया?’

‘हां हनुवा। जैसे ही वहां जाने की बात आती है वैसे ही मैं घबरा उठती हूं। मन घबराने लगता है। वहां भाई-बहनों, पैरेंट्स और टूटते जा रहे मकान की हालत परेशान कर देती है। जब तक यहां रहती हूं तब तक कुछ रिलैक्स महसूस करती हूं। या जब तक घर भूली रहती हूं। याद आती है तो घबरा उठती हूं। पापा रिटायरमेंट के करीब पहुंच रहे हैं। फाइनेंसियल क्राइसेस इतनी है कि मदर की तबियत बराबर खराब रहती है। लेकिन उनके ट्रीटमेंट के लिए पैसा नहीं है। मेंटीनेंस ना होने के कारण मकान टूटता जा रहा है। जाती हूं तो यह सारी बातें लगता है जैसे मुझे नोच रही हैं।

पापा की हालत देखती हूं। उनके चेहरे पर इन सारी समस्याओं के लिए जो तड़फड़ाहट देखती हूं उससे दिमाग की नसें फटने लगती हैं। वो लोग हंसना-बोलना तो जैसे भूल ही गए हैं। पापा तो गंभीरता की मूर्ति बन गए हैं। बड़ा से बड़ा ज़ोक सुना डालो लेकिन हंसी तो छोड़ो उनके चेहरे पर मुस्कान की लकीर भी पूरी नहीं बनती। मुझे लगता है जैसे हम सारे बच्चे पैरेंट्स के लिए खत्म ना होने वाली मुसीबत बन गए हैं। जब तक घर पर रहो, मां से बात करो तो वो हम सबके भविष्य को लेकर इस कदर परेशान रहती हैं कि बस यही कहेंगी-

‘‘तुम तीनों की शादी का क्या करूं? कहां करूं?’’ जब पापा-अम्मा बैठते हैं अकेले तो भी उनके बीच घूम फिर कर बातें हमारी शादी पर ही केंद्रित होती हैं। वो लोग तब से और ज़्यादा परेशान, डरे रहते हैं जब से पास ही की एक फैमिली की लड़की किसी के साथ भाग गई। उस फैमिली की भी फिनांसियल कंडीशन हमारे ही जैसी थी।’

यह कह कर सांभवी फिर भावुक हो गई थी। हनुवा ने उसके चुप होते ही कहा ‘कोई भी पैरेंट्स बच्चों की शादी को लेकर आखिर क्षण तक हार नहीं मानता। वो हमेशा ही इसी कोशिश में रहते हैं कि बस बच्चों की शादी हो जाए। हां आस-पास की ऐसी घटनाएं हर संवेदनशील मां-बाप को परेशान करती ही हैं। तुम्हारे पैरेंट्स भी इसी तरह कोशिश में लगे ही होंगे। उन्होंने हार नहीं मानी होगी।’

हनुवा की बात पर सांभवी बड़ी उदासी भरी मुस्कान के साथ बोली ‘हमें रियलिटी को फेस करने की भी आदत डालनी चाहिए हनुवा। जो सच है उसे मान लेना चाहिए। आखिर उससे आंखें चुराने से क्या सचाई बदल जाएगी? मैं अपने पैरेंट्स से कई बार बोल चुकी हूं कि घर की जो कंडीशन है उसे एक्सेप्ट करिए।

हम एक भी शादी का खर्च उठाने के काबिल नहीं हैं, इस लिये आप हमारी चिंता छोड़ कर निश्चिंत हो कर जिएं। उस बारे में सोचना ही क्या जो हमारे वश में नहीं है। लेकिन वो लोग समझते नहीं। एक हारी हुई लड़ाई को लड़ते हुए खुद को खत्म किए जा रहे हैं। हनुवा मैंने शादी, हसबैंड, बच्चे इन सारी बातों के बारे में तभी से सोचना बंद कर दिया है जब से यह समझने लायक हुई कि एक लोअर इंकम ग्रुप के व्यक्ति के लिए अपने तीन-चार बच्चे पालना कितना कठिन है।

इज्जत के लिए एवरी टाइम लड़ते रहने वाले इन लोगों के लिए इस डॉवरी एरा में अपनी एक भी लड़की की शादी कर पाना उतना ही मुश्किल है जितना किसी एक्यूपमेंट के बगैर पानी पर चलना। तैरना नहीं। ऐसे में तीन लड़कियों की शादी के बारे में सोचना मेरी नजर में किसी पागलपन से कम नहीं है। और जिस दिन मेरी समझ में यह आया मैंने उसी दिन से मैरिड लाइफ, फ़ैमिली के बारे में सोचना ही बंद कर दिया।

यह मान लिया कि यह जीवन ऐसे ही बीतेगा। क्यों कि अपने देश में डॉवरी लेने की मानसिकता पूरे समाज का एक जींस बन चुकी है। जो किसी कानून, या गोली से नहीं बदलने वाली। इसे जैसी एजूकेशन से बदला जा सकता है, वह हमारे यहां है ही नहीं। और हो भी जाएगी तो मानसिकता बदलने में दो जनरेशन तो कम से कम निकल ही जाएगी। अब तुम्हीं बताओ ऐसे में कोई स्कोप नजर आता है तुम्हें। कोशिश तो मेरे पैरेंट्स जब हम बहने सत्तरह-अठारह की हुई तभी से कर रहे हैं। देखते-देखते दस साल बीत गए। लेकिन तब जहां से स्टार्ट हुए थे आज भी वहीं के वहीं खड़े हैं।

हनुवा मैं ये सोच कर परेशान होती हूं कि मैंने तो यह डिसाइड कर लिया है। लेकिन दोनों बहनों का क्या करूं? पता नहीं वो दोनों मेरी तरह कोई निर्णय ले चुकी हैं। या अब भी शादी का सुंदर सपना लिए जीए जा रही हैं। मेरी तरह वह दोनों भी जानती है कि डॉवरी के लिए पैंरेंट्स के पास पैसे नहीं हैं। और उसके बिना शादी होनी नहीं। उन बेचारियों की भी लाइफ बस यूं ही खत्म हो जाएगी। उन दोनों को लेकर मैं यह सोच कर भी परेशान होती हूं कि वह इन्हीं बातों के चलते कहीं पड़ोस वाली लड़की की तरह कोई क़दम ना उठा बैठें।’

‘लेकिन सांभवी मैं तो समझती हूं कि इस डॉवरी का जवाब यही है कि लड़के लड़कियां लव मैरिज कर लें।’‘ऐसा होता तो कितना अच्छा होता हनुवा,मैं खुद कर लेती। पैरेंट्स की सारी टेंशन दूर कर देती। लेकिन उधर जहां डॉवरी की समस्या है, वहीं इधर धोखाधड़ी की भी प्रॉब्लम है। लव के नाम पर आगे बढ़ते हैं, लड़की को यूज करते हैं फिर डिस्पोजल गिलास की तरह फेंक कर दूसरी पकड़ लेते हैं। लड़की विरोध करती है तो मार देते हैं।

एसिड डाल देते हैं। ब्लू फ़िल्म बना कर ब्लैक-मेल करते हैं। पॉर्न इंडस्ट्री में ये फ़िल्में डाल कर वहां से पैसे कमाते हैं। व्हाट्स ऐप पर डाल देते हैं। इतना ही नहीं अपने रीलिजन भी बदल कर फंसाते हैं। फिर रीलिजन चेंज करने को विवश करते हैं, ना करो तो मार डालते हैं। इधर डॉवरी की आग है। तो दूसरी तरफ भी यही है। मैरिड लाइफ की खुशियां पाने के लिए जो लाइफ है उस को ही रिस्क में डालने से मैं बचना चाहती हूँ बहनें क्या करेंगी ये वो ही जाने, मैं बड़ी होने के बावजूद उनसे ऐसी कोई बात डिस्कस नहीं करती। क्यों कि दोनों ही मुझसे कभी-कभी इतना रफ बोल देती हैं कि मन नहीं करता कि बात करूं।

कुछ साल पहले पढ़ने-लिखने के लिए मैंने कुछ बात की थी। तो छोटी ने जिस बदतमीजी से बात की उसके बाद से मैं हिम्मत नहीं कर पाती। हनुवा मैं सिर्फ़ इतना जानती हूं कि जब तक पैरेंट्स हैं तब तक ही मेरा घर से रिलेशन है। उनके बाद मुझे कोई उम्मीद नहीं दिखती कि भाई-बहन कोई रिलेशन रखेंगे। अभी से तीनों मुझसे ठीक से बात तक नहीं करते तो आगे क्या करेंगे?’

सांभवी अपनी बात पूरी करते-करते भावुक हो उठी। उसकी आंखों से आंसू टपकने लगे थे। उसकी हालत से ऐसा लग रहा था जैसे वह बरसों से भरी बैठी थी। मगर वह किसके सामने अपनी बात कहे, कब कहे कभी उसको कुछ समझ में नहीं आ रहा था। आज संयोगवश ऐसे हालात बने कि उसका गुबार फूट पड़ा। वह रोक ना सकी। और कह दिया। लेकिन उसके मन में जो भरा था वह कुछ ही निकल पाया। जो अतिरिक्त प्रेशर था वह सेफ्टी वॉल्व के रास्ते निकल गया। मगर शेष उसके मन में,उसके अंदर भरा ही रहा।

वह अपने फोल्डिंग बेड पर एकदम निश्चल बनी बैठी रही। हनुवा के सिर के ऊपर दीवार पर एकटक ऐसे देखती रही जैसे वहां बने किसी बिंदू पर ध्यान केंद्रित करने का प्रयास कर रही हो। और हनुवा उसे अचरज भरी निगाहों से देखती रही। कि ऐसी हंसमुख, हमेशा खुश रहने वाली लड़की के अंदर इतना दुख इतना मैग्मा भरा हुआ है। फिर भी यह कैसे हंसती मस्त रहती है। यह आखिर किस मिट्टी की बनी है? आज इस समय भी अपनी घुटन को ये पूरा कहां ओपन कर रही है। लगता है जैसे आवेश में आकर सब कुछ बोलने वाली थी। लेकिन फिर खुद को संभाल लिया। और फिर से खुद में कैद हो गई। इतना टेंशन इसके लिए अच्छा नहीं है। इसका दिमाग इस समय कहीं और ट्रांसफर करना जरूरी है। यह सोचते ही हनुवा ने कहा ‘सांभवी...’ अपना नाम सुनते ही सांभवी हनुवा की तरफ देखते हुए धीरे से बोली ‘हूं’

हनुवा ने उसे बड़े प्यार, स्नेह से देखते हुए कहा ‘सांभवी तुम मेरी वजह से कल से ठीक से खा-पी नहीं सकी हो। थकी भी बहुत हो। मैं सोच रही थी कि तुम इस समय कुछ बनाने के झंझट में नहीं पड़ो। मार्केट से ही अपनी पसंद का कुछ चटपटा सा खाने को ले आओ। मेरे लिए कुछ सादा सा ले लेना।’

हनुवा की बात सुन कर सांभवी ने कहा ‘अरे तुम भी कैसी बात करती हो। मैं थकी-वकी नहीं हूं। मैं बना लूंगी। सॉरी तुम्हें भूख लगी होगी मैं बातों के चक्कर में भूल ही गई। थोड़ा जूस रखा हुआ है। मैं तुम्हें देती हूं। उसके बाद जल्दी से बनाती हूं कुछ।’

‘नहीं सांभवी मुझे भूख नहीं लगी है। मैं तो तुम्हारे लिए कह रही हूं। थकी हो बाहर ही से ले आओ कुछ।’

‘हनुवा मुझे तुम्हारी दवा की चिंता है। मैं पैसे बचा कर रखना चाहती हूं। तुम बेवजह टेंशन ले रही हो। मैं बना लूंगी।’

लेकिन हनुवा की जिद के आगे सांभवी को मानना पड़ा। वह बाहर से अपने लिए मसाला डोसा ले आई। और हनुवा के लिए पैक्ड फ्रूट जूस ले आई। पाइन एप्पल का। और बिल्कुल सादी, दाल रोटी, चावल भी। साथ ही सांभवी ने डिश टीवी का भी पेमेंट किया। वो आज ही बंद होने वाला था। वह अपने अंदर चल रहे द्वंद्व से बचना चाह रही थी। सोचा नींद जल्दी आएगी नहीं। टीवी भी नहीं चलेगा तो मारे टेंशन के रात काटनी मुश्किल हो जाएगी। हनुवा तो दवा खा कर सो जाएगी।

दोनों ने साथ खाया। हनुवा ने दवाओं से खराब हो चुकी जबान का टेस्ट बदलने के लिए सांभवी से डोसा का थोड़ा हिस्सा ले लिया था। अब टीवी चल रहा था। सांभवी ने जो चैनल ऑन किया था उस पर उस वक्त फीयर फैक्टर कार्यक्रम चल रहा था। जिस में चार-मेल, चार फीमेल कंस्टेस्टेंट हिस्सा ले रहे थे। उन्हें स्टंट के कई स्टेप क्रॉस करने थे। हनुवा को यह प्रोग्राम पसंद था। उसने सांभवी से यह प्रोग्राम चलने देने के लिए कहा। सांभवी ने वही प्रोग्राम चलने दिया।

सच यह था कि दोनों की नजरें टीवी पर थीं। लेकिन मन में उनके कुछ और चल रहा था। कुछ ऐसा जो उन्हें भीतर ही भीतर विचलित कर रहा था। सांभवी अपने जीवन में उजाले की किरण किधर से आएगी उस दिशा को तलाशने में लगी थी। मगर हनुवा की हालत कुछ और थी, वह सांभवी से यह पूछना चाहती कि उसने कब कैसे जान लिया कि वह वास्तव में कैसी है? क्या है? जब जान गई तो क्यों चुप रही? क्या वजह है कि वह बात को बिल्कुल पी गई, कभी डिस्क्लोज नहीं किया।

मुझसे सबसे ज़्यादा यही बात करती है। लेकिन बातचीत में कहने को भी कोई ऐसा इंडीकेशन कभी नहीं दिया कि डाउट होता। और आखिर मुझसे कब ऐसी लापरवाही हो गई कि यह मेरे जीवन का सबसे सीक्रेट रहस्य जान गई। वह बड़ी देर तक सांभवी से पूछने की हिम्मत जुटाने के बाद बोली ‘सांभवी एक बात पूछूं।’ टीवी की तरफ नजर किए अपने में खोई सांभवी धीरे से बोली ‘हूं पूछो।’

लेकिन हनुवा संकोच में चुप रही तो सांभवी ने फिर कहा

‘पूछो, हनुवा इतना संकोच क्यों कर रही हो?’

‘नहीं मैं...मैं सोच रही हूं कि तुम अपसेट ना हो जाओ। मैं सच कहती हूं कल से मैं यह सोच कर भी डर जाती हूं कि कहीं तुम नाराज हो गई तो मैं यहां किसे अपना कहूंगी? मैं तो इस अंधेरी दुनिया में बिल्कुल अकेली हो जाऊंगी।’ हनुवा की इस बात ने सांभवी को कुछ पसोपेश में डाल दिया। उसने हनुवा को देखते हुए कहा ‘अरे हनुवा ऐसी क्या बात है? तुम इतनी डरी हुई क्यों हो?’ इतना कहती हुई वह उठकर हनुवा के पास पहुंची, उसके दोनों कंधों को प्यार से पकड़ कर पूछा ‘बताओ हनुवा क्या बात है? क्यों इतना परेशान हो?’ सांभवी हनुवा के ही पास बैठ गई।

‘सांभवी तुमने कहा था कि मेरे यहां आने के कुछ दिन बाद ही तुम मेरे बारे में जान गई थी। लेकिन कैसे? मैं तो खुद को खुद में इतना भीतर कैद किए रहती थी। फिर कैसे जान गई? तुम्हारे अलावा और किसको-किसको मेरे इस सच के बारे में पता है।

‘ओफ्फो.... हनुवा तुम अभी भी इसी बात में उलझी हो। आराम करो ना।’

‘प्लीज सांभवी, मुझे सच-सच बताओ ना। बता दोगी तभी मैं रिलैक्स हो पाऊंगी। आराम तो खैर मेरे जैसों को जीवन में कहां मिलता है।’ हनुवा के आग्रह से सांभवी समझ गई कि यह सच कह रही है। यह सारी बात जानने के बाद ही रिलैक्स हो पाएगी, इसकी मुश्किलें इतनी हैं कि यह इस एक और प्रेशर से और ज़्यादा परेशान होगी? वह बोली ‘तुम इतना परेशान हो रही हो तो बता रही हूं।

उस दिन मैं गुरुग्राम गई थी। एक इंटरव्यू देने। ऐड में कंपनी के बारे में जिस तरह दिया गया था उससे मैंने समझा कि बड़ी कंपनी है। अच्छा पैकेज देगी। वॉक इन इंटरव्यू था। मगर जब पहुंची तो मैंने अपने को बिल्कुल ठगा पाया। कंपनी की बर्बाद हालत देख कर लगा कि इससे बढ़िया तो जहां हूं वही सही है। मैं बिना इंटरव्यू दिए लौट आई। बाहर इतनी गर्मी इतनी तेज़ धूप थी कि मुझे लग रहा था कि जैसे मैं झुलस गई हूं। पसीने से सारे कपड़े भीग गए थे। लू ना लग जाए इससे भी डरी जा रही थी। क्यों कि उसके पिछले ही साल लू लगने से तबियत बहुत खराब हो गई थी।

मैं कंपनी को मन ही मन गाली देते, यहां पहुंची। दरवाजा खोला तो देखा कि पंखा पूरी स्पीड में चल रहा है और तुम गहरी नींद में सो रही हो। पसीने से भीगी होने के कारण मुझे पंखे की हवा बहुत अच्छी लग रही थी। मैं कुछ देर पंखे के एकदम नीचे खड़ी हो गई। तभी मेरी नजर दुबारा तुम पर गई। तुम बिल्कुल चित्त हाथ-पैर फैलाए बेसुध सो रही थी। पंखे की तेज़ हवा से तुम्हारे बाल इधर-उधर फैले हुए थे। तुम उस वक्त इतनी इनोसेंट लग रही थी कि क्या बताऊं। जो भी होता वह कुछ देर तो जरूर देखता रह जाता।

अचानक मेरी नजर तुम्हारे चेहरे से हट कर नीचे गई तो मैं एकदम शॉक्ड रह गई। तुम्हारे कुर्ते का निचला हिस्सा पंखे की हवा से मुंड़ कर ऊपर हो गया था। और तुमने शायद ब्रीफ भी नहीं पहना था, और वहां अचानक ऐसा कुछ देखा कि मैं हक्का-बक्का रह गई। एक बार तो मैं सशंकित हुई कि मैं कहीं किसी दूसरे घर में तो नहीं आ गई। कुछ क्षण तो यकीन नहीं हुआ। मैंने नजरें गड़ा दीं। मगर समझ नहीं पा रही थी। पता नहीं तुम उस समय कोई वल्गर सपना देख रही थी, या तुम्हें वॉशरूम जाने की बेहद सख्त जरूरत थी। तुम्हारा प्राइवेट पार्ट इस बुरी तरह उठा हुआ था कि मैं देख कर एकदम सकते में आ गई। यकीन करने के लिए मुझे कई बार देखना पड़ा। मैं... सच बताऊं हनुवा उस समय मैं गुस्से से एकदम पागल हो रही थी। मन कर रहा था कि वहीं पास में रखा पानी का जग उठाऊं और उसी से तुम्हारे चेहरे पर बार-बार मारूं।

जिस मुंह से तुमने हम सब को धोखा दिया, झूठ बोला। उसे ही तोड़ दूं। एक मर्द होकर हम लड़कियों के साथ गर्ल्स हॉस्टल में रह रही हो। हम सबके साथ सोते में या ना जाने कब क्या किया हो? मगर तुम्हारी स्ट्रॉंन्ग बॉडी के सामने डरी रही। अकेले होने का डर अलग था। हनुवा अगर बाकी तीनों भी साथ होतीं तो सच कह रही हूं कि मैं हाथ उठा देती। गुस्से में क्षण भर में ना जाने कितनी बातें दिमाग आती चली जा रही थीं। फिर मैं कभी तुम्हारे चेहरे, तुम्हारे ब्रेस्ट तो कभी उस पार्ट को देखती। अचानक ब्रेस्ट देखते-देखते यह समझ पाई कि तुम ना मेल हो, ना फीमेल, तुम तो....।’

सांभवी इसके आगे ना बोल पाई। उसकी आंखें भर आई थीं। और हनुवा की आँखें भरी नहीं..... उनसे आंसूओं की धार बह रही थी। सांभवी को बात अधूरा छोड़ता देख उसने उसे पूरा करते हुए कहा ‘मैं तो .... हिजड़ा ...हूं.......।’

हनुवा इसके आगे ना बोल सकी। वह अपने घूटनों के बीच चेहरा कर फूट-फूट कर रो पड़ी। सांभवी ने उसे चुप कराने की कोशिश की लेकिन हनुवा रोती ही जा रही थी। घुटनों से सिर ऊपर कर ही नहीं रही थी। रोते-रोते उसकी हिचकियां बंध र्गइं।

सांभवी बड़ी देर में उसे चुप करा सकी। उसे पानी पिलाया। फिर बोली ‘हनुवा तुम इतना सेंटी हो जाओगी मुझे मालूम होता तो मैं कभी कुछ ना कहती। जैसे इतने दिन कभी कुछ नहीं कहा। आगे भी ना कहती।’

‘सांभवी तुम्हीं बताओं मैं क्या करूं? बचपन से हर क्षण घुट-घुट कर जी रही हूं। हमेशा दुनिया से अपने को छिपाते-छिपाते घूम रही हूं। हर सांस में यही डर कि कोई जान ना जाए। लेकिन फिर भी सब बेकार। दुनिया की नजरों से बच नहीं पाती। तुम जान गई। ऐसे ही और ना जाने कितने लोग जानते होंगे। तुमने तो पता नहीं क्यों कुछ नहीं कहा। ऐसा क्यों किया? क्या मुझ पर दया आ गई थी? बताओ ना सांभवी तुम क्यों कुछ नहीं बोली? क्या बात थी?’

सांभवी नहीं चाहती थी कि इस टॉपिक पर और आगे बात की जाए। उसे लग रहा था कि इससे हनुवा और दुखी होगी। लेकिन उसके आग्रह में इतनी निरीहता, इतनी पीड़ा समाई हुई थी कि वह चाहकर भी बातों के रुख को बदलने की कोशिश ना कर सकी। उसे लगा कि इस समय हनुवा के हर प्रश्न का उत्तर देकर ही उसे शांत कर सकती है। इसे तभी शांति मिलेगी। नहीं तो यह और भी ज़्यादा टेंशन में रहेगी।

यह सोचते ही उसने कहा ‘हनुवा हुआ यह कि तुम्हारी सचाई जान कर मुझे जितनी तेज़ गुस्सा आया था वह उसी तरह देखते-देखते खत्म भी हो गया।

मेरी नजर जैसे ही तुम्हारे चेहरे पर जाती मेरा गुस्सा एकदम कम होता जाता। तुम्हारे चेहरे पर उस समय मुझे इतनी मासूमियत दिख रही थी कि मैं बता नहीं सकती। जैसे कोई छोटी सी क्यूट सी बच्ची हो।

जैसे किसी छोटे से बच्चे को देखकर, प्यार करने ,उसे गोद में लेने खिलाने का मन होता है ना मेरा मन तब कुछ वैसा ही होने लगा। गुस्सा एकदम गायब हो गया। मैं बैठ गई। थकान मेरी पता नहीं कहां चली गई। मैं सोचने लगी कि आखिर ये कैसा मजाक भगवान ने किया है। पूरा शरीर इतना खूबसूरत बनाया, चेहरे पर इतनी मासूमियत भोलापन, मगर साथ ही यह क्यों कर दिया कि आदमी हमेशा टेंशन में रहे। उसकी हर सांस तकलीफ में गुजरे।

आखिर इतनी पेनफुल लाइफ लेकर कोई कैसे जिएगा? मेरे मन में फिर तुम्हारे लिए यह फीलिंग आई कि तुम्हारे लिए जो भी हेल्प हो सके मैं वह जरूर करूं। तुमने अपनी एक्चुअल पोजीशन छिपाई तो इसके पीछे कोई रीजन होगा। तुमने दुनिया के सामने अपने को तमाशा बनने से रोकने के लिये ही खुद को छिपाया। इसलिये मैंने सोचा जैसे भी हो तुम्हें कोई तकलीफ ना हो।

इसीलिए मैंने उसी समय डिसाइड कर लिया कि कभी किसी से भी डिस्क्लोज नहीं करूंगी। तुमसे भी कभी डिस्कस नहीं करूंगी। जिससे तुम्हें कष्ट हो। बस इसीलिए नहीं बोली।’सांभवी की बात सुनकर हनुवा आवाक सी उसे एकटक देखती रही। भावुकता से उसकी आंखें फिर भर आईं। आंसू फिर बह चले। उसने करीब-करीब सिसकते हुए कहा

‘तुम मेरा इतना ध्यान रखती हो। मैंने कभी सोचा भी नहीं। इतना प्यार मुझे किसी फ्रेंड से मिलेगा वो भी इतने कम समय में, ये तो वाकई मेरे लिए आश्चर्यजनक खुशी है। जानती हो सांभवी मेरी तकलीफ इतनी ही नहीं है। मेरी सबसे बड़ी तकलीफ तो यह है कि मैं अपना दर्द किसी से शेयर भी नहीं कर पाती। मां तक ने मुझसे बात करना छोड़ दिया है। मैं जितनी देर घर में रहती हूं उतनी देर मुझे लगता है जैसे वो बहुत टेंशन में आ जाती हैं। जैसे उन्हें मेरे रहने से घुटन सी होती है। सभी कटे-कटे से रहते हैं। जानती हो मेरा कलेजा फट जाता है जब मेरे रहने पर वो बहनों को अपने पास सुलाती हैं। मुझे अलग-थलग कोने में जगह दी जाती है।

ऐसा लगता है जैसे मैं कोई बाहरी गैर मर्द हूं, जिससे उनकी लड़कियों की इज्जत खतरे में है। मैं अपने ही घर में एक अजनबी सी रहती हूं। मुझे घर के हर कोने में अपने लिए नफरत ही नजर आती। जब से नौकरी के लिए यहां आई तब से फ़ोन पर भी अपने लिए यह नफरत और ज़्यादा महसूस करती हूं। जो लोग नहीं जानते वो लोग ठीक से विहैव करते हैं। ऐसे लोग भी नफरत न करने लगे यही सोच कर डरती रहती हूं। अपने को बचाती रहती हूं। जैसे ही किसी के सामने पड़ती हूं। या बाहर निकलती हूं तो मैं भीतर-भीतर कांपती रहती हूं, कि कहीं कोई सच जान न ले।

लगता है जैसे सब कोई मुझे चेक करने निकले हैं। बचने की मेरी सारी कोशिश कई बार लगता है कि बेकार हो जाती है। जहां भी जिनके साथ रहती हूं वो किसी ना किसी दिन मुझे जान ही लेते है। एक नॉर्मल लड़की से कहीं ज़्यादा लंबा डील-डौल मुझे ऐसे भी एबनॉर्मल बना देता है। सारे लोगों के लिए मैं एक अजीब सी क्यूरीसिटी का प्वाइंट बन जाती हूं। यही मेरे लिए मुसीबत बन जाती है।

कुछ मौका मिलते ही मुझे पूरा देख लेना चाहते हैं। मुझे लगता है मैं कई जगह पकड़ ली़ जाती हूं। कहीं मुझे मालूम हो जाता है। कहीं नहीं और ना जाने कितनी जगह पता ही नहीं चल पाता।’ ‘हनुवा सभी मेल के लिए लड़कों सी तुम्हारी हाइट क्यूरीसिटी का रीजन तो है। इसी लिए लोग तुम्हारी प्राइवेसी भी जानना चाहते होंगे।’‘सांभवी मैं मेल की बात नहीं करती। वो तो ऐसा करते ही हैं। मैं फीमेल्स की बात कर रही हूं। बहुत सी फीमेल भी मर्दों सा बिहैव करतीं हैं। मेरे साथ ऐसी कई घटनाएं हुई हैं इस लिए कह रही हूं।’ हनुवा की बात सुनकर सांभवी चौंकती हुई बोली ‘क्या? क्या फीमेल्स ने तुम्हारे साथ ऐसा किया। यकीन नहीं होता हनुवा।’

‘मैं जानती हूं सांभवी, यकीन नहीं कर पाओगी। मैं तुम्हें अपने साथ हुई दो घटनाएं बताती हूं। जिनमें एक में मेल एक में फीमेल इन्वॉल्व है। पहले मेल वाली घटना बताती हूं ।

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