Hanuva ki Patni - 3 books and stories free download online pdf in Hindi

हनुवा की पत्नी - 3

हनुवा की पत्नी

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग 3

एक बार बुआ की लड़की की शादी में घर के सब लोग जा रहे थे। लेकिन पैरेंट्स मेरी कंडीशन के कारण ही मुझे लेकर नहीं जाना चाहते थे। वो एक पड़ोसी को जिन्हें हम सारे भाई-बहन दादी कहते थे उन्हें उन चार-पांच दिनों के लिए घर पर मेरे साथ छोड़ कर जाने की तैयारी कर चुके थे। मुझे इसका पता तक नहीं था। तब तक मैं इंटर पास कर चुकी थी। सारे-भाई बहनों के कपड़े बने। लेकिन मेरे लिए नहीं। लेकिन ये मेरे लिए बड़ी बात नहीं थी। मेरे साथ चाहे त्योहार हो, या कोई भी अवसर, कपड़े लत्ते मेरे लिए म़जबूरी में ही बनते थे। एक्स एल साइज ना होता तो शायद उतरने ही मिलतीं।

मैं अपनी उस फुफेरी बहन को बहुत चाहती थी। हमारी उसकी बहुत पटती थी। वह एक साल कुछ मजबूरी वश मेरे ही यहां रह कर पढ़ी थी। हम दोनों का आपस में बहुत लगाव था। जब एक दिन रह गया तब मां मुझे बताने लगीं कि सब वहां जा रहे हैं। और मैं घर पर रहूंगी। घर को अकेले नहीं छोड़ा जा सकता। इन चार-पांच दिनों में मुझे क्या-क्या करना है यह बताने लगीं तो मैंने कहा मैं भी चलूंगी। मैं नहीं रुकुंगी। उन्होंने बहुत समझाया। मैं नहीं मानी, जिद पर आ गई। एक तरह से पहली बार मैं मां से लड़ गई। और तब मैंने उस दिन मां से खूब गालियां, खूब जली-कटी बातें तो सुनी ही मार भी खाई। उन्होंने उस दिन मुझे तार वाली झाड़ू से खूब पीटा। इतनी तेज़ मारा था कि हर बार का निशान मेरे शरीर पर पड़ा था।

मैं भी जिद पर आ गई तो रोती रही। लेकिन यह भी कह दिया कि नहीं ले चलोगी तो मैं इसी घर में तुम लोगों के जाते ही आग लगा कर मर जाऊंगी। मैंने हर बार मार पर अपनी यही बात दोहराई। मेरी मां मारते-मारते थक गई। मगर मैं अपनी बात दोहराती रही। थकी हुई मां आखिर रोने लगी। उन्होंने तब जो तमाम अपशब्द मुझे कहे वह अब कुछ ज़्यादा याद नहीं। लेकिन वह आखिरी बात आज भी नहीं भूली। याद आते ही वही दृश्य एकदम सामने आ जाता है। उन्होंने चीखकर दोनों हाथों से अपना सिर पीटते हुए कहा था ‘पता नहीं कऊन पाप किए रहे जऊन ई कुलच्छनी पत्थर गटई मा भगवान डारि दिहिन’।

सांभवी मैं उनकी इस बात पर इतनी हर्ट हुई कि झाड़ूओं की चोट उसके आगे चोट थी ही नहीं। मैंने उस दिन खाना नहीं खाया। रोती रही रात भर। मुझे दुख इस बात का भी हुआ, और आज भी है कि मेरी बहनें वहीं खड़ी रहीं लेकिन मां की झाड़ूओं से मुझे बचाने के लिए कोई हिली भी नहीं। इतना ही नहीं वह सब खुद भी नहीं चाहती थीं कि मैं चलूं। वैसे भी वह दोनों हर जगह साथ जाती थीं मगर मुझे दूर ही रखती थीं। इन बातों से मैं इतना टूट गई कि मैंने खुद ही सुबह मना कर दिया कि मैं नहीं जाऊंगी। मैं घर पर ही रहूंगी। घर रखाऊंगी। मेरा ये कहना सबके मन की बात हो गई। सब यही सुनना चाह रहे थे।

एक दिन बाद सब चले गए। पड़ोसन दादी उन सबके आने तक रहने के लिए घर आ गईं। उनके साथ ही मुझे सबके लौट आने तक रहना था। जाने के समय तक मुझसे किसी ने एक बात तक नहीं की। केवल मां जाते समय गला बैठाकर (भारी आवाज़ बनाकर बोलना) बोलते हुए तमाम शिक्षा दे र्गइं थीं। कि क्या करना है क्या नहीं। सब के जाने के बाद शाम को मुझे एक और झटका लगा। दादी का एक सत्रह-अठारह साल का पोता भी आ गया। रात को उसे हमारे घर पर ही सोना था। दादी तक तो मुझे कोई ऐतराज नहीं था। लेकिन पोते के आने पर मुझे बड़ा शॉक लगा। वह आया तो दादी बोलीं ‘‘बिटिया बचवा के सोवै का इंतजाम कई दे। तोहार माई कहे रहिन। रात-बिरात केहू मनई के होउब जरूरी बा।’’

पहले तो मैंने सोचा कि मना कर दूं। इसे वापस भेज दूं। लेकिन दादी ने मां का नाम लिया तो मैं चुप रही। मेरी हिम्मत नहीं हुई कि कुछ कहूं। मैंने उसे बाहर पापा वाले कमरे में सोने के लिए बोल दिया। अंदर-अंदर मेरा खून ऐसे ही खौल रहा था। उस लड़के को देख कर दिमाग और खराब हो गया। अक्सर वह घर आता रहता था। उसके घर के सभी लोगों का आना-जाना था। वह मेरे साथ बहुत ज़्यादा चुहुलबाजी करता था। मैं उसे हर वक्त अपने बदन को झांकते ही पाती थी। जब भी मेरी नजर अचानक ही उसकी नजर से मिलती तो उसकी आंखों को अपने ब्रेस्ट पर गड़ी पाती। नजर मिलते ही सकपका कर इधर-उधर देखने लगता। जानबूझ कर अगल-बगल से गुजरता। कुर्तें के अंदर झांकने की हर कोशिश करता। उसे देखते ही मैं दुपट्टे को कसकर लपेट लेती।’

‘इतनी कम उम्र में ही इतनी बदतमीजी करता था। तुम्हें उसे एकदम मना कर देना चाहिए था कि सोने की जरूरत नहीं। हम काफी हैं।’ ‘कैसे कह देती। जब मां ने कहा था तो कहां से मना करती। उस समय तो उनकी झाड़ूओं की मार से वैसे भी पस्त थी। दो दिन बाद भी जगह-जगह दर्द कर रहा था। झाड़ू से ज़्यादा पीड़ा उनकी बातें दे रहीं थी। मैं फिर किस हिम्मत से उसे वापस भेज देती। लौटने पर मां को क्या जवाब देती जो मेरी नहीं घर की रखवाली के लिए उसे रख गई थीं।

उनकी नजर में मैं तो गले में पड़ा पत्थर थी। ऐसे पत्थर की सुरक्षा की बात कहां सोची जाती है। उनकी नजर में मैं ना लड़का थी ना लड़की। जो लड़कियां, लड़का थीं, जो इज्जत नाक थीं। वह उन्हें अपने साथ अपने प्राण की तरह चिपकाए हुए लेकर गई थीं। जो उनका सामान, मकान था उसकी रखवाली के लिए मुझे छोड़ गई थीं, मैं कुछ गड़बड़ ना करूं इसके लिए दादी को और दादी कहीं कमजोर ना पडे़ं इसके लिए उस लफंगे को छोड़ गई थीं।’

‘वाकई ये तो बड़ा शॉकिंग है। कोई मां अपने बच्चे के लिए ऐसा कर सकती है, इतना क्रुएल हो सकती है, आखिर तुम भी उन्हीं की औलाद थी। तुम्हारी मां वाकई बहुत ... क्या कहें?’

‘कहना क्या सांभवी, मैंने पहले ही कहा ना कि मैं उनकी संतान नहीं उनके गले में पड़ा पत्थर हूं।’

हनुवा की बात पर सांभवी ने बड़ी नफरत से ‘हुंअ’ किया फिर पूछा ‘अच्छा वह लफंगा जब तक रहा घर पर तब तक तुम्हारे साथ कोई हरकत तो नहीं की।’

‘कोशिश पूरी की। पहली रात को मैंने उसे जिस कमरे में रखा था। उस कमरे से अंदर आने पर एक आंगन है। आंगन पार कर के फिर तीन कमरे हैं। अंदर आने पर आंगन में ही बाईं तरफ बाथरूम, टॉयलेट हैं। एक स्टोर रूम है। मैंने एक ढिबरी मतलब कि मिट्टी तेल का एक दिया दादी और उस लफंगे के कमरे में रख दिया था। कि ये सब रात में उठेंगे तो ज़रूरत पड़ेगी। बाथरूम जाने के लिए लालटेन अपने कमरे में लेते आई।’‘क्यों घर में लाइट नहीं है क्या?’‘है मगर तब आती कहां थी। चौबीस घंटे में चार छः घंटे आ जाती तो बड़ी बात हो जाती। जब आती थी तो वोल्टेज इतना कम रहता था कि लालटेन और बल्ब की रोशनी में ज़्यादा अंतर नहीं रहता। उस समय तो हफ्ते भर से गायब थी।

चोर खंबे से बिजली का तार ही काट ले गए थे। ट्रांसफार्मर भी जला पड़ा था। उस समय बिजली विभाग वाले इस तरह की समस्याएं तभी सॉल्व करते थे जब पूरे एरिया के लोग मिलकर पैसा इक्ट्ठा कर के दे आते थे। नहीं तो मुहल्ले में लाइट महीनों नहीं आती। इसी के चलते उस समय पूरा मोहल्ला हफ्ते भर से अंधेरे में डूबा था। उस दिन भी।

दिसंबर का आखिरी हफ्ता चल रहा था। ठंड बहुत थी। मैं दरवाजा बंद किए लेटी थी। रजाई में दुबकी। आंगन में बने एक ताख में तब एक ढिबरी रात भर जला कर रखी जाती थी। मैंने वह भी रख दी थी। आंगन से ही ऊपर जाने का जीना है, मैंने उसके दरवाजे पर ताला डाल दिया था। इतना सब करने के बाद भी मुझे नींद नहीं आ रही थी। बार-बार मां की मार, उनकी विष बुझी तीर सी बातें रह-रह कर कानों में गूंज रही थीं। और फुफेरी बहन की बातें, उसकी शादी के होने वाले कार्यक्रमों की पिक्चर सी आंखों के सामने चल रही थी।

इससे मुझे बार-बार रुलाई छूट जाती। मगर खुलकर रो भी नहीं सकती थी। घर में दो-दो बाहरी बाहर वाले कमरे में सो रहे थे। टीवी-सीवी का तो कोई मतलब ही नहीं था। मैंने अपने कमरे की लालटेन बुझा दी थी। कमरे में घुप्प अंधेरा था। बाहर जलती ढिबरी की वजह से दरवाजे की झिरी पर एक मटमैली पीली लाइन सी बनी दिख रही थी। लेटे हुए आधा घंटा बीता होगा कि बाहर कमरे में सो रही दादी के खर्राटे की आवाज़ खुर्र-खुर्र आने लगी। बड़ी गुस्सा लग रही थी।’

‘ओह गॉड फिर कैसे कटी तुम्हारी रात।‘ सांभवी ने टीवी चैनल चेंज करते हुए पूछा।

‘कटी क्या? कभी उठ कर बैठ जाती। कभी लेटती। लेटती तो लगता दरवाजे पर वही लफंगा बाहर कमरे से आकर खड़ा हो गया है। मन करता कि उठ कर चेक करूं। ऐसे ही घंटा भर बीता होगा कि आंगन वाले दरवाजे की सांकल के हिलने की आवाज़ आई। मैं एक दम सिहर उठी। मेरा दिल इतनी तेज़ धड़कने लगा कि बस अब जान निकल जाएगी। फिर दरवाजे के खुलने की आवाज़ हुई। पूराने जमाने के भारी-भारी दरवाजे हैं। जब खुलते, बंद होते हैं तो आवाज़ भी जरूर आती है। दरवाजा खुलते ही मुझे लगा कि ये लफंगा अब आकर मुझे मारेगा, मेरी इज्ज़त तार-तार करेगा। और तब मेरी पोल खुल जाएगी। ये कमीना पूरे मोहल्ले, पूरी दुनिया में मेरी बदनामी कर देगा।

मैंने उसी कुछ क्षण में ये तय कर लिया कि अगर कुछ हुआ तो मैं आत्महत्या कर लूँगी। सेकेंड भर में मैंने ऊपर छत पर लगे पंखे के बारे में सोच लिया कि इसी पंखे में अम्मा की साड़ी का फंदा लगा कर लटक जाऊंगी। मेरे इतना सोचने तक लफंगे के आने की आहट मिली। मैं एकदम घबराकर बिजली की तेज़ी से उठ कर दरवाजे की झिरी से आंगन में झांकने लगी। उस कमीने को मैं आंगन में जलती ढिबरी की रोशनी में साफ देखा पा रही थी। बीच आंगन में खड़ा वह मेरे कमरे की ही तरफ देख रहा था। कमीना दाहिने हाथ से अपने प्राइवेट पार्ट को बराबर मसले जा रहा था। मैं पसीने-पसीने हो रही थी। मैं झिरी से एकटक उसे देखे जा रही थी। फिर कुछ देर रुक कर वह बाथरूम में चला गया।

वह एक मिनट मुझे कई घंटे से लगे। बाथरूम से उसके पेशाब करने की आवाज़ साफ सुनाई दे रही थी। मेरी नजर बाथरूम के दरवाजे पर ही टिकी थी। थोड़ी देर में दरवाजा खुला वह बाहर आया। बीच आंगन में आकर कुछ सेकेंड रुक कर फिर दबे पांव चलता हुआ एकदम मेरे कमरे के दरवाजे पर आकर खड़ा हो गया। मेरी स्थिति ऐसी हो गई जैसे बकरी की तब होती है जब उसे कसाई मारने के लिए कसके दबाकर अपनी छूरी उसकी गर्दन पर बस रेतने ही वाला होता है।

आंखें एकदम पथरा गईं थीं। सांस जैसे थम गई थी। वह दरवाजे के पास आकर झिरी से अंदर झांकने की कोशिश करने लगा। इधर मैं उधर वो एक दूसरे की तरफ देखने की कोशिश में लगे थे। मेरे कमरे में घुप्प अंधेरा था उसे कुछ नहीं दिखाई दे रहा था। मैं उसे देख रही थी। मैं थोड़ा झुकी हुई थी जिससे कि आंखे मिल ना सकें। अचानक ही उसने दरवाजे को बड़ी सावधानी से अंदर धकेलना शुरू किया।

इस दरवाजे में भी कुंडी की जगह सांकल ही थी। जिससे वह करीब डेढ़ दो इंच अंदर को आ गया।

दरवाजे के साथ ही मैंने अपने को भी अंदर खींच लिया। वह देखना चाह रहा था कि दरवाजा खुला है कि बंद। खुला होता तो वह निश्चित मुझ पर हमला करता। क्योंकि वह जब दरवाजा बंद पाकर दो तीन क़दम पीछे हटा तो उस समय भी दरवाजे को घूर रहा था। और अपने हाथ से बराबर अपने प्राइवेट पार्ट को मसले जा रहा था। फिर चला गया कमरे में। लेकिन उसने अपने कमरे की सांकल बंद नहीं की। क्योंकि सांकल की आवाज़ बिल्कुल नहीं आई। उसके जाने के बाद भी मैं दरवाजे की झिरी से उसके कमरे के दरवाजे को थर-थर कांपती देखती रही।’

‘ये तो किसी डरवानी फिल्म की सीन जैसी हालत थी। तुम उसी समय चिल्ला कर उसे अंदर से ही डांटती। इतना चीखती कि उसकी दादी भी उठ जाती।’

‘डर के मारे मेरी घिघ्घी बंधी हुई थी, मैं चीखती क्या?मैं उसके बड़े डील-डौल से भी डरती थी। और दादी जाग भी जाती तो उसका क्या कर लेती? पूरी बस्ती रजाइयों में दुबकी, घटाटोप अंधेरे में सो रही थी। मेरी कौन सुनता।’ ‘सही कह रही हो, आज कल तो सब ऐसे हो गए हैं कि सामने कोई तड़पता पड़ा रहता है तो उसकी हेल्प करने के बजाय मोबाईल से वीडियो बनाते रहते हैं। एफ.बी,.यू. ट्यूब पर पोस्ट करने के लिए। ऐसी पत्थर दिल दुनिया में किसी से उम्मीद करना ही बेवकूफी है। तो उस दिन तुम सोई भी या जागती रही रात भर।’

‘डर के मारे नींद ही कहां आ रही थी। उसके जाने के बाद मैं रजाई में फिर दुबक गई। डरती-कांपती किसी तरह घंटा भर बिताया। फिर मुझे भी पेशाब लग गई। अब मेरी हालत खराब। मैं दरवाजा खोल कर बाहर निकलना नहीं चाह रही थी। डर रही थी कि आंगन में निकलते ही वह मुझे पकड़ लेगा। रोके रही अपने को। तभी फिर बाथरूम के दरवाजे की आवाज़ सुनी तो मैं फिर झांकने लगी। वही लफंगा फिर बाथरूम से निकल रहा था। उसने कमरे का दरवाजा बंद ही नहीं किया था इसलिए खोलने की आवाज़ हुई ही नहीं। इस बार भी वह आंगन में खड़ा होकर मेरे कमरे की ओर देर तक देखने के बाद अंदर गया। अब मुझे पक्का यकीन हो गया कि यह मुझे पाने पर छोड़ेगा नहीं। मैंने तय कर लिया कि सुबह होने से पहले दरवाजा नहीं खोलूंगी।

‘तुम्हें तो पेशाब लगी थी। तो क्या रात भर.......।’

‘नहीं। रात भर कहां रुक सकती थी। कमरे में ही एक मोबिल ऑयल का चार-पांच लीटर का डिब्बा रखा था। जिसमें मिट्टी का तेल मंगाया जाता था। मैंने रात भर उसे ही यूज किया। उस दिन मुझे मेरे इस अभिशप्त पार्ट के कारण बहुत आसानी हुई। नहीं तो मेरी परेशानी और बढ़ जाती।’

‘ओह गॉड तुमने तो बड़े अजीब-अजीब फेज़ को फेस किया है। सुनकर ही हैरानी होती है। अगले दिन उस लफंगे को भगाया कि नहीं?’

‘नहीं भगा पाई। जब मैंने अगले दिन उसे डांटते हुए कहा कि रात में ऐसा क्यों कर रहे थे? तो उसने ऐसी बात कही कि मैं दंग रह गई। बड़े अपनत्व के साथ बोला ‘‘मुझे बड़ा डर लग रहा था। मैं तुम्हारी चिंता के कारण सो नहीं पा रहा था। इसीलिए मैं बार-बार उठकर बाहर देखने आता कि तुम ठीक हो की नहीं। सो रही हो कि नहीं। इसीलिए अंदर देखने की कोशिश कर रहा था।’’ मैं उसके इस जवाब से एकदम भौचक्की रह गई।

मुझे लगा कि शायद ये सही कह रहा है। मैंने बेवजह शक किया। एकदम कंफ्यूज होकर बिल्कुुल चुप रही। सुबह वह घर चला गया। दादी रुकी रही। वह करीब ग्यारह बजे फिर आया। तब मैं अपने और दादी के लिए खाना बना रही थी। आया तो मुझे देखता-दाखता एकदम किचेन में आ गया। मैं मुड़ी तो खीसे निकालता हुआ बोला ‘‘लो खाओ।’’ मैंने सोचा अभी इसने कुछ खाया नहीं होगा, इसे भूख लगी होगी इसीलिए कुछ ले आया है।

वह एक डिब्बे में वहां मिलने वाली एक मिठाई लौंगलता लेकर आया था। मैदा और खोया से बनी चाशनी में डूबी यह मिठाई मुझे बहुत पसंद है। उस स्थिति में भी मेरे मुंह में पानी आ गया। फिर भी मैं कुछ देर उसे देखने के बाद बोली। तुमसे किसने कहा था कि मैंने कुछ खाया नहीं। और ये सब लाने के लिए पैसा कहां से ले आया?

इस पर वह उस मिठाई की ही तरह अपनी आवाज़ में भी मिठास घोलता हुआ बोला ‘‘हनुवा गुस्सा काहे हो रही हो। जब तक चाची नहीं आ रही हैं तब तक तो मुझे तुम्हारी चिंता करनी ही है। नहीं तो आकर जब चाची जानेंगी तो हम पर गुस्सा होंगी।’’ मैंने गुस्से में कहा ‘‘मेरी इतनी चिंता करने की ज़रूरत नहीं। मैं अपने लिए जो करना होगा कर लूंगी। ये जो ले आए हो इसे लेकर यहां से जाओ।’’ लेकिन वह जाने के बजाए अपनी मीठी-मीठी बातों में उलझा कर एक मिठाई मेरे आगे बढ़ा दी। मैंने मन ना होते हुए भी एक पीस ले लिया। इसके साथ ही कह दिया ठीक है जाओ। तो उसने मिठाई वहीं रख दी और चला गया। मैं आवाज़ देती रह गई, लेकिन उसने अनसुनी कर दी। ‘‘थोड़ी देर में आऊंगा’’ कहता हुआ चला गया।

मनपसंद मिठाई थी। हाथ में जो पकड़ी हुई थी वह खा गई। मन नहीं माना तो एक और खा गई। फिर एक कटोरी में दो पीस दादी को भी दे आई। उसके लिए चार-पांच पीस रख दिया। सोचा आएगा तो दे दूंगी। लेकर आया है, नहीं दूंगी तो अच्छा नहीं लगेगा। उसके प्रति मन में रात की घटना के कारण जो गुस्सा था वह इस मिठाई ने जैसे कम कर दिया। करीब एक बजे जब धूप तेज़ हुई तो मैंने सोचा नहा लूं। कई दिन से बाल धोए नहीं आज धो लूं। नहीं तो कल बृृहस्पति हो जाएगा। दादी को बता कर मैं नहाने चली गई। मैंने बाथरूम में कपड़े उतारे ही थे कि मुझे उसकी आवाज़ सुनाई दी। दादी से बात कर रहा था।

मैं उसकी आवाज़ सुनकर अजीब सी झुरझुरी महसूस करने लगी। कुछ देर मैं स्थिर हो उसकी बात सुनती रही। वह घर में कौन क्या कर रहा था यही सब बता रहा था। यह सुनकर मैंने राहत की सांस ली। और कपड़े अलग कर दो-तीन जग पानी सिर पर डाला जिससे बाल बदन भीग जाएं तो शैंपू लगाऊं। तभी ऐसी आहट मिली जैसे वह किचेन में गया हो। मैंने दरवाजे की झिरी से देखा तो मेरा शक सही था वह किचेन से निकलकर बाथरूम की तरफ आ रहा था। मैं डर कर थरथर कांपने लगी। क्यों कि दिन का समय था। आंगन में अच्छी खासी तेज़ खिली हुई धूप की किरणें आधे आंगन को कवर किए हुए थीं।

ऊपर से धूप की किरणें बाथरूम की दिवार, पूरे दरवाजे पर पड़ रही थीं। अंदर इतनी रोशनी थी कि दरवाजे की झिरी पर आंख लगा कर साफ-साफ देखा जा सकता था। मैंने थरथर कांपते हुए सबसे पहले तौलिया उठा कर अपने सामने लगा लिया। मैं साफ देख रही थी कि वह अंदर देखने के लिए झिरी से आंख गड़ाए देख रहा है। मैंने गुस्से में एक जग पानी झिरी पर मारा और चीख-चीख कर गाली देने लगी। इस पर वह तुरंत भाग गया। उसके जाने के बाद भी मैं कुछ देर स्टेच्यू बनी बैठी रही। फिर नहाया। अमूमन मैं बाथरूम के दरवाजे की तरफ पीठ कर के नहाती थी। लेकिन उस दिन इस कमीने के डर से ही दरवाजे की तरफ मुंह किए थी। और मेरा शक सही निकला। बाहर निकल कर मैंने सबसे पहले उसे ही ढूढ़ा तो वह गायब मिला।

मैंने दादी से पूछा तो वह बोली ‘‘ऐ बच्ची बचवा ते कब्बे के चला गा बा।’’ मैंने कुछ देर चुप रह कर दादी को सारी बात बताई तो वह सुनने को ही तैयार नहीं हुईं। बार-बार यही कहे जाएं। ‘‘ऐ बच्ची तू भरमाए गई हऊ। बचवा ऐइसन करै नाय सकत। अबै ओकर उमरिए केतनी बा। ऐ बच्ची मान जा तू। तू एकदम भरमाय गैय हऊ औऊर कुछ नाहीं।’’ उन्होंने जिस तरह उसका पक्ष लिया उससे मैं हैरान-परेशान हो गई। मेरे मन में उनके लिए भी अपशब्द निकले।

मैंने मन ही मन कहा कमीना इस बुढ़िया के सामने भी कुछ हरकत कर डालेगा तो भी यह यकीन नहीं करेगी। उलटा मुझे ही फंसा देगी। मुझे ठंड लग रही थी। तो मैं छत पर जा कर धूप में बैठ गई। कई दिन बाद तेज़ धूप निकली थी। बड़ा अच्छा लग रहा था। रात भर उस कमीने के कारण मैं सो नहीं पाई थी तो आलस्य लगने लगा।’ हनुवा अपनी बातें जारी रखे हुए थी तभी सांभवी ने उसे एक गिलास जूस पकड़ाते हुए कहा। ‘इसे पीती रहो। वीकनेस नहीं लगेगी।’

उसने खुद भी आधा गिलास ले लिया था। हनुवा ने गिलास लेते हुए कहा ‘जिसकी तुम जैसी फ्रेंड हो उसे कुछ नहीं हो सकता। एक बार तो यमराज भी आकर लौट जाएंगे।’ हनुवा की इस बात पर सांभवी को ना जाने क्या हुआ कि अचानक ही उठ कर उसके चेहरे को दोनों हाथों में भर कर गाल चूम लिया और बड़े प्यार से बोली-

‘ओ, हनुवा-हनुवा तुझे कुछ नहीं हो सकता। अब तू अकेले नहीं है।’

उसके इस अचानक किए गए प्यार-मनुहार से हनुवा कुछ क्षण को अभिभूत सी उसे देख कर मुस्कुराई। फिर बोली। ‘हां सांभवी, मैं अब खुद को अकेला नहीं महसूस कर रही।’ तभी सांभवी उसके सामने ही बैठती हुई बोली ‘फिर वो लफंगा लौट कर आया कि नहीं।’

‘आया। और चप्पलों से मार खाकर गया। मुझे धूप अच्छी लगी। रात भर की जगी थी। जिस बड़े बोरे पर मैं बैठी बाल सुखा रही थी उसी पर लेट गई थी। लेटते ही मुझे उस बोरे पर ही नींद आ गई। करीब एक डेढ घंटा ही बीता होगा कि मुझे लगा कि जैसे मेरे ब्रेस्ट पर कुछ दबाव सा पड़ रहा है। होठ पर भी कुछ गरम-गरम सा छू रहा है। दिमाग में वह कुत्ता तो था ही मैं हड़बड़ा कर उठने को हुई तो अपने को उस कमीने की गिरफ्त में पाया।

वह मुझे पूरी तरह दबोचने की कोशिश में ‘‘सुनो-सुनो हनुवा’’ फुसफुसाती आवाज़ में कहे जा रहा था। मगर मेरा खून खौल उठा था। मैं पानी से बाहर आ पड़ी मछली सी तड़प कर उससे अलग हुई। और उसे लात, घूंसा बेतहाशा मारने लगी। वहीं पड़ी अपनी चप्पल उठाई उसी से पीटने लगी। वह बार बार सुनो-सुनो कहे जाए,हाथ जोड़े जाए। लेकिन मैं पागलों की तरह उसे गाली देते हुए मारने में लगी रही।

एक चप्पल उसकी नाक पर लग गई तो उससे खून बहने लगा। मगर मेरे खून सवार था। वह जितना इधर-उधर झुके-झुके भागता मैं दौड़ा-दौड़ा कर मारती। वह इससे बचने की कोशिश कर रहा था कि अगल-बगल की छतों पर से कोई देख ना ले। जाड़े का दिन था, सभी अपनी-अपनी छतों पर थे। हालांकि वर्किंग डे होने के कारण कम लोग थे। महिलाएं घर का काम निपटाने में लगी थीं। और बच्चे सब स्कूल गए हुए थे। आखिर वह अपनी चप्पल उठा कर भागा। कुछ कहना चाह रहा था। लेकिन मैं बिना कुछ सुने उसे दौड़ाते हुए पीछे से चिल्ला कर कहा दुबारा दिख गए तो तुम्हारी जान ले लूंगी।

उसके पीछे-पीछे दौड़ती हुई बाहर दरवाजे तक गई। मगर वह दिखाई नहीं दिया। भाग गया था। मैंने दरवाजा बंद किया। अंदर आने लगी तो देखा जगह-जगह खून की कई बूंदें पड़ी हुई थीं। सच बताऊं सांभवी उस समय खून की वह बूंदें देखकर मुझे कुछ राहत मिली कि मैंने अपने अपमान, अपने शरीर पर हाथ डालने वाले से कुछ तो बदला ले लिया। मैंने खून की बूंदें छत तक हर जगह देखी। मुझे गुस्सा इतना लगा हुआ था कि अपने पैरों से सारी बूंदों को रगड़ती गई। फिर लौट कर दादी के पास गई मन ही मन गाली देते हुए कि बुढिया देख अपने पोते की करतूत। बड़ा बचवा-बचवा करके दूध का धुला बता रही थी ना। देख ले उस सुअर का असली चेहरा। लेकिन देखा वह रजाई से मुंह ढंके खुर्र-खुर्र आवाज करते सो रही थीं।

तब तक मेरा गुस्सा कुछ कम पड़ चुका था। मैं फिर भीतर कमरे में गई, सबसे पहले अपनी सलवार और पैंटी चेक की, कि सही जगह हैं कि नहीं। सुअर ने मेरे कपड़े खोलकर मेरा भेद तो नहीं जान लिया।

कपड़ों को सही सलामत पाकर मैंने राहत महसूस की। शीशे में खुद को देखा तो दो तीन जगह खरोचें थीं। बांह और पेट पर भी थीं। कुर्ता साइड से फट गया था। ब्रेजरी के हुक टूट गए थे। इससे मैं बड़ी आहत हुई कि कमीने के गंदे हाथों ने मेरे ब्रेस्ट छुए। उसकी गंदी आंखों ने मेरे इन अंगों को गंदी सोच के साथ देखा। मैं रो पड़ी। मुझे मां-पापा सब पर खूब गुस्सा आया। कि मुझे पत्थर मान कर यहां अकेले छोड़ कर ना जाते तो मेरी यह दुर्गति क्यों होती।

उनको अपनी इज्जत अपनी शान की परवाह है, जो मेरे कारण खतरे में पड़ जाती है। मेरी जान भी चली जाए इसकी परवाह किए बगैर वो मुझे कहीं भी डाल सकती हैं। आज यह कमीना अगर मुझसे बहुत ज़्यादा ताकतवर होता तो मेरे साथ ना जाने क्या करता? भेद खोल कर ना जाने कैसे-कैसे ब्लैकमेल करता। मेरे मन में आया कि क्या फायदा ऐसी ज़िन्दगी से। इससे अच्छा तो मर जाऊं। फिर रात वाली बात दिमाग में आई कि मां कि कोई भी साड़ी और ऊपर लगा यह पंखा मुझे इस नरक भरी ज़िदगी से छुटकारा दिलाएंगे। मां-बाप के गले का पत्थर भी यही हटाएंगे।

यह सोच कर मैं मां की एक साड़ी उठा लाई। उसका फंदा बनाने से पहले उस कमीने के प्रति मन में फिर गुस्सा ऊभर आया। सोचा इसके कारण मैं मरने जा रही हूं। तो इसे भी इसके कुकर्मों की सजा मिलनी चाहिए। मैंने सुसाइड लेटर लिखा। उसको जिम्मेदार ठहराते हुए उसे फांसी दिए जाने की अपील की। मां-बाप से माफी मांगी। फंदा बनाकर पंखे में फंसाने की कोशिश की लेकिन ज्यादा ऊंची छत के कारण फंदा ना डाल पाई। फिर मन में आत्महत्या का खयाल कमजोर पड़ गया। और मैं बच गई।’

‘हूं... बचती कैसे ना हनुवा, तुम्हें मुझसे जो मिलना था।’ सांभवी ने एक बार फिर टीवी का चैनल बदलते हुए कहा तो हनुवा एक गहरी सांस लेकर बोली, ‘हां सांभवी तुमसे मिलना था। और तुमसे मिलने से पहले कई ऐसे कांटों की चुभन भी बर्दाश्त करनी थी जिनका दर्द इस जीवन में तो कभी नहीं जाएगा। वो जब-जब मैं सांस लेती हूं तब-तब मुझे चुभते हैं। ऐसीे टीस देते हैं कि दिल ही नहीं आत्मा तक रो पड़ती है।

हनुवा की यह बात सुन कर सांभवी को लगा कि परिवार के लोगों ने इसे और परेशान किया होगा। मां ने और कड़वी बातें कहीं होंगी। उसने सोचा इसकी तबियत ठीक नहीं है। इस तरह की और बातें कह कर यह अपनी तबियत खराब कर लेगी। बात बदलने की गरज से उसने कहा ‘हनुवा तुम्हें तकलीफ ना हो तो आओ थोड़ी देर दरवाजे पर खड़े होते हैं। बाहर हर तरफ लोगों के घर लाइट से सज गए हैं। देखते हैं उन्हें। तूम्हारा मन थोड़ा चेंज हो जाएगा ।’

हनुवा सांभवी की बात टाल ना सकी। बाहर दरवाजे पर गई। बाहर वाकई हर घर तरह-तरह की लाइट्स, झालरों से जगमगा रहा था। भारतीय त्योहार दीपावली चाइनीज झालरों की चमक से जगमग कर रहा था। रह-रह कर पटाखे भी दो दिन पहले से ही दग रह थे। लोगों की चहल-पहल देर रात होने के बाद भी दिखाई दे रही थी। सांभवी को बड़ा अच्छा लगा।

वह हनुवा को लेकर घर के बाहर दरवाजे के सामने ही चहल-क़दमी करने लगी। हनुवा को भी अच्छा लग रहा था। तभी दो-तीन बाइक पर बैठे कुछ लफंगे टाइप के लड़के दोनों के एकदम करीब से सीटी बजाते हुए तेज़ी से निकल गए। एक ने चिल्ला कर कुछ कहा भी था। जो बाइकों के शोर में वह दोनों समझ नहीं पाईं। उनमें से कम से कम एक बाइक अमरीकी कंपनी हार्ले डेविडसन की थी। जो भारत में युवाओं के बीच स्टेटस सिम्बल बनी हुई है। उनके बीच इसका जबरदस्त क्रेज है। यह भारत की बुलेट से भी तेज़ पड़-पड़ की आवाज करती है। कॉलोनी में रोज की अपेक्षा सड़कों पर लोगों का आना-जाना आधा से भी कम था।

सब त्योहार के कारण अपने होम डिस्ट्रिक्ट जा चुके थे। हनुवा लफंगों की इस हरकत से डर गई। कुछ देर पहले अपने साथ ऐसे ही लफंगे द्वारा की गई अपनी बातें उसके मन मस्तिष्क में पहले ही छाई हुई थीं। इसलिए वह कुछ ज्यादा ही डर गई। उसने तेज कदम से घर की तरफ चलते हुए कहा ‘सांभवी आओ अंदर चलें। बदतमीज अपनी बदतमीजी से बाज नहीं आएंगे। जहां जाओ वहीं मिल जाते हैं। वैसे भी आस-पड़ोस में ताले पड़े हैं। ऐसे में बाहर अब ठीक नहीं है।’ हनुवा के साथ सांभवी अंदर आ गई। डर वह भी गई थी। इसलिए हनुवा के कहते ही बोली थी ‘चलो।’

अंदर आकर हनुवा ने दरवाजा बंद कर उसे बड़ी सावधानी से चेक किया था। फिर अपने बेड पर बैठ गई। सांभवी ने बैठने के बजाय रिमोट उसे थमाते हुए कहा ‘ तुम टीवी देखो तब तक मैं खाना बनाती हूं।’

हनुवा ने कहा ‘अब मैं बिल्कुल ठीक हूं। मिल कर बनाते हैं। तुम कल से बहुत थक गई हो।’ सांभवी के लाख मना करने भी उसने ज्यादातर काम खुद ही किया। समय निकाल कर नहा भी लिया। इससे वह फ्रेश महसूस कर रही थी। लग भी रही थी। खाना खाते वक्त भी दोनों ने खूब बातें कीं। सब्जी पराठा खाने के बाद सांभवी ने चाय भी बनाई। उसकी आदत थी खाना खाने के बाद चाय पीने की।

चाय पीते हुए उसने फिर कहा ‘हनुवा तुम जितनी बातें बता रही हो उससे तो लगता है कि तुम्हारे पैरेंट्स शुरू से ही तुमसे छुटकारा चाहते हैं। ऐसे में तुम इतने दिन कैसे रही उनके साथ। और उससे ज़्यादा बड़ी बात कि इतनी पढ़ाई-लिखाई कैसे कर ली? क्यों कि जो लोग साथ रखना ना चाह रहे हों वो पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान दें ये वाकई आश्चर्य वाली बात है।’

सांभवी के इस प्रश्न ने हनुवा को फिर एकदम गंभीर बना दिया। लेकिन अब सांभवी के साथ उसके किसी भेद जैसी चीज भी नहीं थी। इसलिए किसी बात का कोई संकोच नहीं था। तो हनुवा ने एक दो घूंट चाय पीने के बाद कहा ‘सांभवी मेरी स्थिति और इस दुनिया ने मेरे साथ जो-जो अत्याचार किए बचपन से ही उसने मुझे उम्र से बहुत आगे-आगे बड़ा किया। समझ दी। तुम क्या कोई भी आश्चर्य करेगा कि जिस घर में लोग मुझे देख कर एक सेकेंड को खुश नहीं हो पाते थे। जिनके मन में यह हो कि यह मरे तो गले का पत्थर हटे, वो हमें कहां पढाएंगे, लिखाएंगे वो भी, बी-टेक कराएंगे।’

‘हाँ यही तो मैं तब से सोच रही हूं कि यह सब कैसे हुआ? तुम कैसे कर ले गई यह सब?’

‘कर क्या ले गई। एक टीचर जो मुझे पढ़ाती थीं, उनका बहुत बड़ा कंट्रीब्यूशन है। उन्हीं की वजह से पढ़ पाई। उन्होंने मुझे मेरी स्थिति बताई, मेरे जैसे लोगों के लिए समाज में जगह कहां है वह बताया। यह भी बताया कि मैं कैसे क्या करूं कि अपनी ज़िंदगी को नर्क बनने या नर्क में डूबने से बचा सकूं। हालांकि इस के लिए उन्होंने मुझसे जो कीमत वसूली वह मेरी ज़िंदगी के सबसे भयानक पीड़ादायक घावों में से एक है, जो मुझे इस समाज ने दिए।’

‘अरे .....ऐसा भी क्या किया उन्होंने? तुम तो बता रही हो टीचर थीं तुम्हारी। उन्हीं की वजह से तुम पढ़ पाई। टीचर हो कर ऐसा क्या किया उन्होंने?’

सांभवी की इस बात पर हनुवा बड़ी कसैली सी हंसी-हंसी। फिर दो घूंट चाय पीकर बोली ‘सांभवी मेरा जीवन शुरू से ही इतना तकलीफदेह, जटिल नहीं था। दस- ग्यारह की उम्र होते-होते मेरी तकलीफ शुरू हुई। और फिर बढ़ती गई। बचपन में ठीक थी। या ये कहें कि पैरेंट्स समझ ही नहीं सके कि ऐसी कोई प्रॉब्लम है। मेरे जन्म पर भी मां बाप ने खूब खुशियां मनाई थीं कि उनके लड़का हुआ। मगर एक समस्या वो लोग मेरे चार-पांच साल की होने के बाद से महसूस करने लगे थे। जो आगे बढ़ती गई। मेरी आवाज़ लड़कों सी ना होकर लड़कियों सी थी। मैं बाकी बच्चों के साथ खेलती तो सब मुझे चिढ़ाते। घर में सब बड़ा ऑड फील करते। मैं इतनी समझदार तो थी नहीं। बाकी मुझे चिढ़ा रहे हैं इतना ही समझती और इसी बात पर गुस्सा होती। जल्दी ही भाई-बहनों ने भी चिढ़ाना शुरू कर दिया।

छः- सात की होते-होते तक कोई दिन ऐसा ना जाता जिस दिन स्कूल और घर मिला कर मैं दो-चार बार टीचर, मां-बाप या किसी अन्य से मार डांट ना खाती। मैं अपनी उम्र के बच्चों की अपेक्षा तेज़ी से बढ़ रही थी। बड़े डीलडौल के कारण मैं सब को दौड़ा-दौड़ा कर मारती। फिर टीचर या मां-बाप से पिटती। मां-बाप ने कई डॉक्टरों को दिखाया। लेकिन सबने यही कहा किसी-किसी के साथ ऐसा होता है। धीरे-धीरे उम्र के साथ ठीक हो जाएगा। मां-बाप ने फिर भी कोशिश जारी रखी। अब वो लोग इस समस्या के कारण बहुत चिंतित रहने लगे। जहां से जो पता चलता वही करने लगते।

मुझे मिर्च खूब खिलाई जाती। कैथा के सीजन में कैथा। जामुन के सीजन में मां मुझे जामुन खाने को यह कह कर देतीं कि इसे जितनी देर हो सके उतनी देर मुंह में रखो फिर निगलो। इसके बाद मुझे खूब ठंडा पानी पिला देती। ऐसे ही ना जाने क्या-क्या मुझे खिलाया-पिलाया जाता रहा। इससे हालत यह हुई कि मेरा गला बुरी तरह खराब हो गया। अजीब सी सांय-सांय करती सी आवाज़ निकलती। मेरा बोलना-चालना मुश्किल हो गया। मगर मेरी और मेरे मां-बाप के लिए असली समस्या तो अभी आनी बाकी थी। वह मेरा ग्यारहवां साल शुरू होते-होते शुरू हो गई।’

‘ वो समस्या क्या थी?’

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