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ख़्वाबगाह - 12

ख़्वाबगाह

उपन्यासिका

सूरज प्रकाश

बारह

इसके बाद भी हम गाहे बगाहे अपनी ख़्वाबगाह में मिलते रहे थे, लेकिन मैं कभी रात भर के लिए वहां नहीं रुक पायी थी। बेशक विनय अक्सर वहाँ अकेले भी चला जाता और रात भर ठहर भी जाता।

  • बाद के बरसों में मैं अपने आप को विनय के प्रति और ज्यादा समर्पित करती रही। शादी के बाद भी हो न हो, मैंने विनय को मुकुल से अधिक समय दिया होगा। सहवास भी शायद मैंने विनय के साथ अधिक बार किया होगा।

  • ऐसा कितनी बार हुआ है कि विनय बिना बुलाए ही घर चला आया है। इन बारह बरसों में बीसियों बार। दो एक बार तो मैं उसके आने से गहरे संकट में फंस गयी हूं और बड़ी मुश्किल से हालात पर काबू पर सकी हूं। ये सही है कि कुछेक बार मौका देख कर मैंने उसे खुद घर बुलाया है और दो एक बार तो रात भर ठहरने के लिए भी बुलाया है लेकिन जब भी मैंने उसे अपने घर बुलाया है तो हर बार पूरी तसल्ली कर लेने के बाद ही कि उस समय किसी के आने का खतरा नहीं है।

  • एक बार वह इसी तरह बिन बुलाए और बिन बताये चला आया था। हम एक दिन पहले ही मिल चुके थे और एक भरपूर दिन एक साथ बिता चुके थे, उसे मैं दरवाजे पर देखकर हैरान रह गई थी लेकिन मेरे पास कोई उपाय नहीं था और कारण भी नहीं था कि मैं उसे दरवाजे से लौटा देती। संयोग से मैं घर पर अकेली ही थी। उसे आए हुए कुछ ही देर हुई थी। दरवाजा बंद करके मैं हमेशा की तरह उसकी गोद में सिर रख कर लेटी ही थी कि गेट पर लगी दरवाजे की घंटी बजी थी। मैंने पर्दा हटा कर देखा तो मुकुल गेट खोल रहा था। मेरी सांस अटकी रह गई थी। हे राम, मुकुल को भी अचानक और अभी आना था। जो कुछ भी करना था, कुछ ही सेकेंड के भीतर करना था और बंद दरवाजे के भीतर ही करना था।

    मैं किसी भी हालत में विनय को मुकुल के सामने नहीं ला सकती थी और न ही यह बता सकती थी कि यह कौन है और इस समय घर में क्या कर रहा है। मैंने विनय को फुसफुसा कर बताया था कि अचानक मुकुल आ गया है। तुम्हें अंदर के कमरे में जाना होगा। एक पल के लिए उसके चेहरे की रंगत उड़ी थी। मैंने उसे फटाफट भीतर के स्टोर रूम में भेज दिया था और आगाह कर दिया था कि जब तक मैं ना आऊं वह चुपचाप सांस रोककर वहीं बैठा रहे। उसे सुरक्षित स्टोर रूम में बिठाने के बाद मैंने मुकुल के लिए दरवाजा खोला था। ये मेरी परीक्षा की बहुत बड़ी घड़ी थी और इसमें हर हालत में मुझे पास होना था। मैंने अपने आपको संयत किया था और आवाज में जरा सी भी घबराहट लाये बिना मुस्कुराकर मुकुल से पूछा था – कुछ भूल गये थे क्या। मुकुल ने जवाब दिया था कि बैंक ने कंपनी के एग्रीमेंट के कुछ और डॉक्यूमेंट्स मंगाये हैं। पता नहीं कहां रखे हैं। एक पल के लिए मेरी सांस ही रुक गयी थी कि कहीं वह कागज खोजने के लिए स्टोर्स में न चला जाए। फाइलों की एक अल्मारी वहीं रखी है। लेकिन मेरी किस्मत अच्छी थी कि मुकुल बैडरूम में चला गया और वहीं की अल्मारी में काफी देर तक अपने काम के कागज खोजता रहा। उसे आधा घंटा लग गया था। इस बीच उसने कॉफी की फरमाइश भी कर दी थी जिसे हर हाल में पूरा किया जाना था। कागजात लेकर मुकुल चला गया था और मेरी जान में जान आई थी। इसके बाद भी मुझे विनय को ड्राइंग रूम में वापिस बुलाने के लिए खुद को तैयार करने के लिए कुछ वक्त लग गया था।

    विनय के चेहरे का रंग अभी भी उड़ा हुआ था। मैंने उसे और खुद को सहज करने के लिए खुद को विनय के सीने से भींच लिया था। मेरी सांस अभी भी बहुत तेज चल रही थी। आज अगर कुछ हो जाता तो मेरा ही सब कुछ लुट जाता। विनय तो सिर झुका कर निकल लेता। उसका कुछ ना बिगड़ता।

    तभी विनय हौले से बोला था – चलता हूं। हालांकि वह अब कुछ देर निश्चिंत होकर बैठ सकता था लेकिन उसका मूड उखड़ चुका था। मैंने भी ज्यादा जिद नहीं की थी। मैंने उसे जाने दिया था। एक तूफान आते आते टल गया था और उसके झटके से उबरने के लिए मुझे भी वक्त और एकांत चाहिए थे। वह उसी समय चला गया था।

  • इस घटना की भरपाई करने का मौका मुझे जल्दी ही मिल गया था। बेहद खूबसूरत और यादगार मौका। मुकुल बिजिनेस ट्रिप पर दो दिन के लिए बंबई जा रहा था। रात नौ बजे की फ्लाइट थी। वह दो पैग ले कर निकल गया था। मैंने मजाक में उससे कहा भी था कि मैं भी चलूं क्या, यहां अकेले बोर होती रहूंगी। मुझे पता था इस तरह भी कहीं कोई पति अपनी बीवी को साथ ले जा पाता है। ये सब फिल्मों में ही होता है जहां न वीजा की जरूरत होती है और न टिकट की। लोग पहने कपड़ों में विदेश भी चले जाते हैं।

    तब मैंने खुद अपनी तरफ से विनय को रात भर के लिए बुलाया था। उसे मैंने शाम को ही मुकुल की फ्लाइट के टाइम के बारे में बता दिया था। मैं बेहद अच्छे मूड में थी और इस रात को भरपूर एंजाय करना चाहती थी।

    विनय साढ़े दस बजे के करीब पहुंचा था। मैंने उसे बता दिया था कि गेट और दरवाजा दोनों खुले रहेंगे और आंगन की लाइट ऑफ रहेगी।

    विनय के आते ही मैं उसकी पीठ से चिपक गयी थी और काफी देर तक इसी हालत में रही थी।

    मैंने विनय की पसंद के ड्रिंक्स और डिनर का इंतजाम किया था। कमरे की लाइट इतनी डिम रखी थी कि बाहर से देखने वाले को यही लगे कि घर में कोई नहीं है। वह सोफे पर बैठा था और मैं उसकी गोद में लेट गयी थी। हम दोनों एक ही गिलास से पी रहे थे। विनय पिला रहा था और मैं पी रही थी।

    हम आधी रात तक पीते और बातें करते रहे थे। ये पहली बार था कि हम अपने घर में पूरी रात के लिए मिल रहे थे।

    हम दोनों सुबह बहुत देर से उठे थे। नौकरानी को मैंने पिछली शाम ही न आने के लिए कह दिया था कि मेरा ठिकाना नहीं है, कहां जाऊंगी और कब लौटूंगी।

    हम दोनों ने चौबीस घंटे बेहद पुरसुकून माहौल में बिताए थे। यहीं पर पिछली मुलाकात की सारी कड़वाहट दूर हो गयी थी। उस दिन लंच और डिनर विनय ने ही बनाये थे और मुझे कोई काम नहीं करने दिया था।

  • बन्नी सवा साल का हो चुका था। मैं अरसे से ख़्वाबगाह नहीं जा पायी थी। बन्नी जब पेट में था और मुझे कंसीव किये हुए पांच महीने होने को आये थे, तभी से मेरा वहां जाना बंद हो गया था। इस हिसाब से देखा जाए तो विनय और मैं लगभग दो बरस से नहीं मिल पाये थे। पहले प्रेगनेंसी की वजह से इतनी दूर जाना नहीं होता था और बाद में बन्नी को छोड़ कर जाना नहीं होता था। उसे मेरा पूरा टाइम चाहिये होता था। ऐसा नहीं था कि मैं तब विनय से मिलने के लिए छटपटाती नहीं थी, इतनी दूर आने जाने के लिए ही दो तीन घंटे लग जाते थे। मैं बन्नी को इतने लंबे अरसे के लिए किसी के भरोसे छोड़ कर नहीं जा सकती थी। दिन में हम पांच सात बार बात करके ही मन को तसल्ली दे लेते थे।

  • मेरा एक और संकट रहा। मुझे अपना कोई भी फैसला लेने से पहले मुकुल और विनय दोनों से पूछना पड़ता है। कई बार कोई भी बात मुकुल को बताने भर से काम चल जाता है। वह ज्यादा नहीं पूछता और मेरी हां में हां मिला देता है। संकट विनय के साथ होता है। वह मेरी किसी भी बात के लिए आसानी से हाँ नहीं करता। पहले तो बताना ही टालता है और फिर जब मैं सब कुछ तय करने को होती हूं, वह मना कर देता है। मेरे सामने संकट तब आता है कि जिस काम को करने के लिए मुझे मुकुल की सहमति मिल चुकी होती है उसी के लिए विनय ना कर देता है। अब मैं चाह कर भी वह काम नहीं कर पाती क्योंकि विनय को नाराज करने का मैं सोच भी नहीं पाती। वह मेरी इस कमजोरी को जानता है और गाहे बगाहे इसका फायदा उठाता और मजे लेता है।

    मुकुल के सामने मुझे अक्सर झूठा बनना पड़ता है कि मैं ये काम तय हो जाने के बाद भी क्यों नहीं कर रही हूं।

  • एक बार सुबह सुबह ही उसका फोन आ गया। उसे बन्नी की स्कूल बस का समय पता था। उसे यह भी पता था कि गली के मोड़ पर बन्नी को स्कूल बस में बिठा कर मैं वहीं से पास के पार्क में वॉक के लिए चली जाती हूं। बन्नी को बस में बिठाया ही था कि मोबाइल की घंटी बजी। देखा उसी का फोन था। इधर उधर की कॉमन बातें करने के बाद जब उसने कहा कि तुम ये अच्छा करती हो कि सुबह भी टी शर्ट और जीन्स पहनती हो तो मैं चौंकी थी। उसे कैसे पता चला कि इस समय मैं टी शर्ट और व्हाइट जींस पहने हुए हूं। अचानक मैंने पीछे मुड़ कर देखा था, वह मुझसे दस कदम पीछे चला आ रहा था। मैं हैरान भी हुई थी और खुश भी। ये क्या पागलपन है कि आप चालीस किमी की ड्राइव करके सुबह सुबह मुझसे मिलने के लिए चले आ रहे हैं।

    मुकुल घर पर थे। मैं कैसे भी करके उसे चाय पिलाने के लिए घर नहीं ले जा सकती थी। फोन पर ही उसे बताया कि आगे मार्केट के पास चाय की एक टपरी है। वहीं मिलो। और इस तरह मैंने उसे सुबह सुबह टपरी की चाय पिलायी थी। वहां पर मेरे साथ ज्यादा देर तक रुकने के लिए उसने एक के बाद एक, चार गिलास चाय पी थी। पैसे बेशक उसी ने दिये थे। मैं घर से पैसे ले कर तो नहीं निकली थी। क्या पता था, वह सुबह सुबह ही चला आएगा।

  • विनय को पता था कि अगले दिन मुझे बन्नी के स्कूल पेरेंट्स टीचर्स मीटिंग के लिए जाना है। मैंने उसे बताया था कि मुकुल यहां नहीं हैं सो मुझे अकेले ही जाना पड़़ेगा। ये सुनते ही जनाब अड़ गये कि मैं सुबह सुबह ही आ जाऊंगा और मुकुल की जगह इस मीटिंग में मैं जाऊंगा। मैं भड़की थी - पागल हो गये हो क्या। सारे पेरेंटस और टीचर्स मुकुल को जानते हैं। कई पेरेंट्स तो हमारे फैमिली फ्रेंडस की तरह हैं। और सबसे बड़ी बात, बन्नी साथ में होगा। मुझे जवाब देना भारी पड़ जायेगा। लेकिन विनय देर तक इस बात पर अड़ा रहा कि स्कूल तो मैं आऊंगा ही। बाकी तुम जानो। मुझे ही पता है कि उस जिद्दी आदमी को बन्नी के स्कूल में न आने के लिए मैं कैसे मना पायी थी। समझौता इस बात पर हुआ था कि वह मीटिंग के बाद मुझे कुछ देर के लिए कॉफी शॉप में मिलेगा।

  • पिछले तीन चार दिन से मैं खांसी और जुकाम से परेशान थी। मुझे पता है कि जुकाम अपना समय पूरा करके ही जाता है लेकिन खांसी थी कि कम हो ही नहीं रही थी। विनय को ये बात पता थी कि मैं कभी भी किसी छोटी मोटी बीमारी के लिए दवा नहीं लेती। जब भी उसका फोन आता, मैं ढंग से बात भी न कर पाती फिर भी मैं दवा नहीं ले रही थी। विनय कहते कहते हार गया था कि दवा ली था। मेरा एक ही जवाब होता कि अपने आप ठीक हो जाएगा।

    मुझे इस हालत में चार दिन तो हो ही गये होंगे। मैं लेटी हुई थी कि गेट पर घंटी बजी। मैंने काम वाली बाई को देखने के लिए कहा। वह वापिस आयी तो उसके हाथ में खांसी की दवा और एक कार्ड थे। बोली – गेट पर तो कोई नहीं था पर कोई ये दवा की शीशी और कार्ड छोड़ गया है। मैंने उसके हाथ से कार्ड ले कर देखा – विनय की राइटिंग में गेट वेल सून का कार्ड था। मुझे विनय पर एक साथ गुस्सा भी आया और प्यार भी आया कि देखो चालीस किमी दूर से अपने सारे काम छोड़ कर मुझे ये दवा और गेट वेल सून का कार्ड देने आया है। बावरा कहीं का।

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