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लाइसेंस

लाइसेंस

अब्बू कोचवान बड़ा छैल छबीला था। उस का ताँगा घोड़ा भी शहर में नंबर वन था। कभी मामूली सवारी नहीं बिठाता था। उस के लगे बंधे गाहक थे जिन से उस को रोज़ाना दस पंद्रह रुपय वसूल हो जाते थे जो अब्बू के लिए काफ़ी थे। दूसरे कोचवानों की तरह नशा पानी की उसे आदत नहीं थी। लेकिन साफ़ सुथरे कपड़े पहनने और हर वक़्त बांका बने रहने का उसे बेहद शौक़ था।

जब उस का ताँगा किसी सड़क पर से घुंघरू बजाता गुज़रता तो लोगों की आँखें ख़ुद-ब-ख़ुद उस की तरफ़ जातीं..... “वो बांका अब्बू जा रहा है.... देखो तो किस ठाट से बैठा है। ज़रा पगड़ी देखो कैसी तिरछी बंधी है।”

अब्बू लोगों की निगाहों से ये बातें सुनता तो उस की गर्दन में एक बड़ा बांका ख़म पैदा हो जाता और उस के घोड़े की चाल और ज़्यादा पुर-कशिश हो जाती। अब्बू के हाथों ने घोड़े की बागें कुछ इस अंदाज़ से पकड़ी होती थीं जैसे उन को उसे पकड़ने की ज़रूरत नहीं। ऐसा लगता था कि घोड़ा इशारों के बग़ैर चला जा रहा है। उस को अपने मालिक के हुक्म की ज़रूरत नहीं। बाअज़ वक़्त तो ऐसा महसूस होता कि अब्बू और उस का घोड़ा चुनी दोनों एक हैं, बल्कि सारा टांगा एक हस्ती है और वो हस्ती अब्बू के सिवा और कौन हो सकती थी।

वो सवारियां जिन को अब्बू क़बूल नहीं करता था दिल ही दिल में उस को गालियां देती थीं। बाअज़ बद-दुआ भी देती थीं “ख़ुदा करे इस का घमंड टूटे....... उस का टांगा घोड़ा किसी दरिया में जा गिरे।”

अब्बू के होंटों पर जो हल्की हल्की मोंछों की छाओं में रहते थे ख़ुद एतिमाद सी मुस्कुराहट नाचती रहती थी। उस को देख कर कई कोचवान जल भुन जाते थे। अब्बू की देखा देखी चंद कोचवानों ने इधर उधर से क़र्ज़ लेकर तांगे बनवाए। उन को पीतल के साज़ ओ सामान से सजाया मगर फिर भी अब्बू की सी शान पैदा ना होसकी। उन को वो गाहक नसीब ना हो सके जो अब्बू के और उस के टांगे घोड़े के शैदा थे।

एक दिन दोपहर को अब्बू दरख़्त की छाओं में टांगे पर बैठा ऊँघ रहा था कि एक आवाज़ उस के कानों में भन भनाई। अब्बू ने आँखें खोल कर देखा। एक औरत टांगे के बिंब के पास खड़ी थी। अब्बू ने उसे बमुश्किल एक नज़र देखा मगर उस की तीखी जवानी एक दम उस के दिल में खब गई। वो औरत नहीं जवान लड़की थी। सोला सतरह बरस की। दुबली पतली लेकिन मज़बूत। रंग साँवला मगर चमकीला। कानों में चांदी की छोटी छोटी बालियां। सीधी मांग स्तवां नाक। उस की फुनंग पर एक छोटा सा चमकीला तिल.............. लंबा करता और नीला लाचा। सर पर चदरिया।

लड़की ने कुंवारी आवाज़ में अब्बू से पूछा। “वीरा, टेशन का क्या लोगे?”

अब्बू के होंटों की मुस्कुराहट शरारत इख़्तियार कर गई। “कुछ नहीं।”

लड़की के चेहरे की सँवलाहट सुर्ख़ी माइल होगई। “क्या लोगे टेशन का।”

अब्बू ने उस को अपनी नज़रों में समोते हुए कहा। “तुझ से क्या लेना है भाग भरीए....... चल आ बैठ टांगे में।”

लड़की ने घबराते हुए हाथों से अपने मज़बूत सीने को ढाँका हालाँकि वो ढका हुआ था। “कैसी बातें करते हो तुम।”

अब्बू मुस्कुराया। “चल आ, अब बैठ भी जा...... ले लेंगे जो तू दे देगी।”

लड़की ने कुछ देर सोचा, फिर पाएदान पर पांव रख कर टांगे में बैठ गई “जल्दी ले चल टेशन।”

अब्बू ने पीछे मुड़ कर देखा। “बड़ी जल्दी है तुझे सोहनिए।”

हाय हाय, तू तो........ लड़की कुछ और कहते कहते रुक गई।

टांगा चल पड़ा......... और चलता रहा.......... कई सड़कें घोड़े के सुमों के नीचे से निकल गईं। लड़की सहमी बैठी थी। अब्बू के होंटों पर शरारत भरी मुस्कुराहट नाच रही थी। जब बहुत देर होगई तो लड़की ने डरी हुई आवाज़ में पूछा। “टेशन नहीं आया अभी तक?”

अब्बू ने मानी ख़ेज़ अंदाज़ में जवाब दिया। “आजाएगा........ तेरा मेरा टेशन एक ही है।”

“क्या मतलब?”

अब्बू ने पलट कर लड़की की तरफ़ देखा और कहा। “अलहड़े.........क्या तू इतना भी नहीं समझती। तेरा मेरा टेशन एक ही है। उस वक़्त एक हो गया था जब अब्बू ने तेरी तरफ़ देखा था......... तेरी जान की क़सम तेरा ग़ुलाम झूट नहीं बोलता।”

लड़की ने सर पर पल्लू ठीक किया। उस की आँखें साफ़ बता रही थीं कि वो अब्बू का मतलब समझ चुकी है। उस के चेहरे से इस बात का भी पता चलता था कि उस ने अब्बू की बात का बुरा नहीं माना। लेकिन वो इस कश्मकश में थी कि दोनों का टेशन एक हो या ना हो। अब्बू बांका सजीला तो है लेकिन क्या वफ़ादार भी है। क्या वो अपना टेशन छोड़ दे। जहां उस की गाड़ी पता नहीं कब की जा चुकी थी।

अब्बू की आवाज़ ने उस को चौंका दिया। “क्या सोच रही है भाग भरीए।”

घोड़ा मस्त ख़िरामी से दुमकी चल रहा था। हवा ख़ुनुक थी। सड़क के दो रौया उगे हुए दरख़्त भाग रहे थे। उन की टहनियां झूम रही थीं। घुंघरुओं की यक आहंग झनझनाहट के सिवा और कोई आवाज़ नहीं थी। अब्बू गर्दन मोड़े लड़की के साँवले हुस्न को दिल ही दिल में चूम रहा था..... कुछ देर के बाद उस ने घोड़े की बागें जंगले की सलाख के साथ बांध दीं और लपक कर पिछली सीट पर लड़की के साथ बैठ गया। वो ख़ामोश रही। अब्बू ने उस के दोनों हाथ पकड़ लिए “दे दे अपनी बागें मेरे हाथ में।”

लड़की ने सिर्फ़ इतना कहा। “छोड़ भी दे” लेकिन वो फ़ौरन ही अब्बू के बाज़ूओं में थी। इस के बाद उस ने मुज़ाहिमत न की। उस का दिल अलबत्ता ज़ोर ज़ोर से फड़फड़ा रहा था जैसे ख़ुद को छुड़ा कर उड़ जाना चाहता है।

अब्बू हौले हौले प्यार भरे लहजे में उसे कहने लगा। “ये टांगा घोड़ा मुझे अपनी जान से ज़्यादा अज़ीज़ था, लेकिन क़सम ग्यारहवीं वाले पीर की ये बेच दूंगा और तेरे लिए सोने के कड़े बनवाऊंगा........ अब फटे पुराने कपड़े पहनूंगा, लेकिन तुझे शहज़ादी बना कर रखूंगा। क़सम वहदहू ला शरीक की, ज़िंदगी में ये मेरा पहला प्यार है......... तुम मेरी न बनीं तो मैं तेरे सामने गला काट लूंगा अपना” फिर उस ने लड़की को अपने से अलाहिदा कर दिया “जाने क्या होगया है मुझे....... चलो तुम्हें टेशन छोड़ आऊं।”

लड़की ने हौले से कहा। “नहीं....... अब तुम मुझे हाथ लगा चुके हो।”

अब्बू की गर्दन झुक गई। “मुझे माफ़ कर दो। मुझ से ग़लती हुई।”

“निभा लोगे इस ग़लती को?”

लड़की के लहजे में चैलेंज था, जैसे किसी ने अब्बू से कहा हो। “ले जाओगे अपना टांगा इस टांगे से आगे निकाल के।” उस का झुका हुआ सर उठा। आँखें चमक उठीं...... भाग भरीए.....” ये कह कर उस ने अपने मज़बूत सीने पर हाथ रखा। “अब्बू अपनी जान दे देगा।”

लड़की ने अपना हाथ बढ़ाया। “तो ये है मेरा हाथ।”

अब्बू ने उस का हाथ मज़बूती से पकड़ लिया। “क़सम अपनी जवानी की। अब्बू तेरा ग़ुलाम है।”

दूसरे रोज़ अब्बू और उस लड़की का निकाह होगया। वो ज़िला गुजरात की मोचन थी नाम उस का इनायत यानी नीयती था। अपने रिश्तेदारों के साथ आई थी। वो स्टेशन पर उस का इंतिज़ार कर रहे थे कि अब्बू और उस की मुडभेड़ होगई जो फ़ौरन ही मुहब्बत की सारी मंज़िलें तै करगई। दोनों बहुत ख़ुश थे। अब्बू ने टांगा घोड़ा बेच कर तो नीयती के लिए सोने के कड़े नहीं बनवाए थे लेकिन अपने जमा किए पैसों से उस को सोने की बालियां ख़रीद दी थीं। कई रेशमी कपड़े भी बनवा दिए थे।

लस लस करते हुए रेशमी लाचे में जब नीयती, अब्बू के सामने आती तो उस का दिल नाचने लगता। “क़सम पंच तन पाक की, दुनिया में तुझ जैसा सुंदर और कोई नहीं।” और ये कह वो उस को अपने सीने के साथ लगा लेता। “तू मेरे दिल की रानी है।”

दोनों जवानी की मस्तियों में ग़र्क़ थे। गाते थे, हंसते थे, सैरें करते थे, एक दूसरे की बलाऐं लेते थे। एक महीना इसी तरह गुज़र गया कि दफ़अतन एक रोज़ पुलिस ने अब्बू को गिरफ़्तार करलिया। नीयती भी पकड़ी गई। अब्बू पर अग़वा का मुक़द्दमा चला। नीयती साबित क़दम रही लेकिन फिर भी अब्बू को दो बरस की सज़ा होगई। जब अदालत ने हुक्म सुनाया तो नीयती अब्बू के साथ लिपट गई। रोते हुए उस ने सिर्फ़ इतना कहा। “मैं अपने माँ बाप के पास कभी नहीं जाऊंगी....... घर बैठ कर तेरा इंतिज़ार करूंगी।”

अब्बू ने उस की पीठ पर थपकी दी “जीती रह......... टांगा घोड़ा मैंने देने के सपुर्द क्या हुआ है....... उस से किराया वसूल करती रहना।”

नीयती के माँ बाप ने बहुत ज़ोर लगाया मगर वो उन के साथ न गई। थक हार कर उन्हों ने उस को अपने हाल पर छोड़ दिया। नीयती अकेली रहने लगी। देना उसे शाम को पाँच रुपय दे जाता था जो उस के ख़र्च के लिए काफ़ी थे। इस के इलावा मुक़द्दमे के दौरान में रोज़ाना पाँच रुपय के हिसाब से जो कुछ जमा हुआ था वो भी उस के पास था।

हफ़्ते में एक बार नीयती और अब्बू की मुलाक़ात जेल में होती थी जो कि उन दोनों के लिए बहुत ही मुख़्तसर थी। नीयती के पास जितनी जमा पूंजी थी वो अब्बू को आसाइशें पहुंचाने में सिर्फ़ होगई। एक मुलाक़ात में अब्बू ने नीयती के बचे कानों की तरफ़ देखा और पूछा “बालियां कहाँ गई नीयती?”

नीयती मुस्कुरा दी और संतरी की तरफ़ देख कर अब्बू से कहा “गुम होगईं कहीं।”

अब्बू ने क़दरे ग़ुस्से हो कर कहा। “तुम मेरा इतना ख़याल रख्खा न करो....... जैसा भी हूँ ठीक हूँ।”

नीयती ने कुछ न कहा। वक़्त पूरा हो चुका था। मुस्कुराती हुई वहां से चल दी। मगर घर जा कर बहुत रोई। घंटों आँसू बहाए। क्योंकि अब्बू की सेहत बहुत गिर रही थी। इस मुलाक़ात में तो वो उसे पहचान नहीं सकी थी। गिरांडील अब्बू अब घुल घुल कर आधा होगया था। नीयती सोचती थी कि उस को इस का ग़म खा रहा है। उस की जुदाई ने अब्बू की ये हालत कर दी है। लेकिन उस को ये मालूम नहीं था कि वो दिक़ का मरीज़ है और ये मर्ज़ उसे वर्से में मिला है। अब्बू का बाप अब्बू से कहीं ज़्यादा गिरांडील था। लेकिन दिक़ ने उसे चंद दिनों ही में क़ब्र के अंदर पहुंचा दिया। अब्बू का बड़ा भाई कड़ियल जवान था मगर ऐन जवानी में इस मर्ज़ ने उसे दबोच लिया था। ख़ुद अब्बू इस हक़ीक़त से ग़ाफ़िल था चुनांचे जेल के हस्पताल में जब वो आख़िरी सांस ले रहा था, उस ने अफ़सोस भरे लहजे में नीयती से कहा। “मुझे मालूम होता कि मैं इतनी जल्दी मर जाऊंगा तो क़सम वहदहू ला-शरीक की तुझे कभी अपनी बीवी न बनाता......... मैंने तेरे साथ बहुत ज़ुल्म किया...... मुझे माफ़ करदे........ और देख मेरी एक निशानी है, मेरा टांगा घोड़ा......... इस का ख़याल रखना....... और चुनी बेटे के सर पर हाथ फेर कर कहना। अब्बू ने तुझे प्यार भेजा है।”

अब्बू मर गया....... नीयती का सब कुछ मर गया। मगर वो हौसले वाली औरत थी। इस सदमे को उस ने बर्दाश्त कर ही लिया। घर में तन-ए-तनहा पड़ी रहती थी। शाम को देना आता था और उसे दम दिलासा देता था और कहता था। “कुछ फ़िक्र न करो भाभी। अल्लाह मियां के आगे किसी की पेश नहीं चलती....... अब्बू मेरा भाई था.......... मुझ से जो हो सकता है ख़ुदा के हुक्म से करूंगा।”

शुरू शुरू में तो नीयती न समझी पर जब इस के इद्दत के दिन पूरे हुए तो देने ने साफ़ लफ़्ज़ों में कहा कि वो उस से शादी करले। ये सुन कर नीयती के जी में आई कि वो उस को धक्का दे कर बाहर निकाल दे मगर उस ने सिर्फ़ इतना कहा। “भाई मुझे शादी नहीं करनी।”

उस दिन से देने के रवैय्ये में फ़र्क़ आगया। पहले शाम को बिला नागा पाँच रुपय अदा करता था। अब कभी चार देने लगा। कभी तीन। बहाना ये कि बहुत मंदा है। फिर दो दो तीन तीन दिन ग़ायब रहने लगा। बहाना ये कि बीमार था या टांगे का कोई कल पुर्ज़ा ख़राब होगया था। इस लिए जो ना सका। जब पानी सर से निकल गया तो नीयती ने देने से कहा। “भाई देने अब तुम तकलीफ़ न करो। टांगा घोड़ा मेरे हवाले कर दो।”

बड़ी लेत-ओ-लाल के बाद बिल-आख़िर देने ने बादल-ए-नाख़्वास्ता टांगा घोड़ा नीयती की तहवील में दे दिया। उस ने माझे के सपुर्द कर दिया जो अब्बू का दोस्त था। उस ने भी कुछ दिनों के बाद शादी की दरख़ास्त की। नीयती ने इनकार किया तो उस की आँखें बदल गईं। हमदर्दी वग़ैरा सब हवा होगई। नीयती ने उस से टांगा घोड़ा वापिस लिया और एक अनजाने कोचवान के हवाले कर दिया। उस ने तो हद ही करदी। एक शाम पैसे देने आया तो शराब में धुत था। डेयुढ़ी में क़दम रखते ही नीयती पर हाथ डालने की कोशिश की। नीयती ने उस को ख़ूब सुनाईं। और काम से हटा दिया।

आठ दस रोज़ टांगा घोड़ा बेकार तवीले में पड़ा रहा। घास दाने का ख़र्च अलाहिदा। तवीले का किराया अलेहिदा। नीयती अजीब उलझन में गिरफ़्तार थी। कोई शादी की दरख़ास्त करता था, कोई उस की इस्मत पर हाथ डालने की कोशिश करता था। कोई पैसे मार लेता था। बाहर निकलती तो लोग बुरी निगाहों से घूरते थे। एक रात उस का हमसाया दीवार फांद के आगया और दराज़ दस्ती करने लगा। नीयती सोच सोच कर पागल होगई कि क्या करे।

एक दिन बैठे बैठे उसे ख़याल आया। “क्यों न टांगा मैं आप ही जोतूँ। आप ही चलाऊं........... ” अब्बू के साथ जब वो सैर को जाया करती थी तो टांगा ख़ुद ही चलाया करती थी। शहर के रास्तों से भी वाक़िफ़ थी। लेकिन फिर उस ने सोचा “लोग क्या कहेंगे?”........... इस के जवाब में उस के दिमाग़ ने कई दलीलें दीं। “क्या हर्ज है............. क्या औरतें मेहनत मज़दूरी नहीं करतीं............... ये कोइले वालियां............ ये दफ़्तरों में जाने वाली औरतें.......... घर में बैठ कर काम करने वालियां तो हज़ारों होंगी.............. पेट किसी हीले से पालना ही है।”

नीयती ने कुछ दिन सोच बिचार किया। आख़िर में फ़ैसला कर लिया कि वो टांगा ख़ुद चलाएगी। उस को ख़ुद पर पूरा एतिमाद था, चुनांचे अल्लाह का नाम ले कर वह तवेले पहुंच गई...... टांगा जोतने लगी तो सारे कोचवान हक्का बका रह गए। बाअज़ मज़ाक़ समझ कर ख़ूब हंसे।

जो बुज़ुर्ग थे उन्हों ने नीयती को समझाया कि “देखो ऐसा न करो। ये मुनासिब नहीं” मगर नीयती न मानी। टांगा ठीक ठाक किया। पीतल का साज़ ओ सामान अच्छी तरह चमकाया। घोड़े को ख़ूब प्यार किया और अब्बू से दिल ही दिल में प्यार की बातें करती तवेले से बाहर निकल गई। कोचवान हैरतज़दा थे, क्योंकि नीयती के हाथ रवां थे जैसे वो टांगा चलाने के फ़न पर हावी है।

शहर में एक तहलका बरपा होगया कि एक ख़ूबसूरत औरत टांगा चला रही है। हर जगह इसी बात का चर्चा था। लोग सुनते थे तो उस वक़्त का इतंज़ार करते थे जब वो उन की सड़क पर से गुज़रेगा।

शुरू शुरू में तो मर्द सवारियां झिजकती थीं मगर ये झिजक थोड़ी देर में दूर होगई और ख़ूब आमदन होने लगी। एक मिनट के लिए भी नीयती का टांगा बेकार न रहता था। इधर सवार उत्तरी उधर बैठी। आपस में कभी कभी सवारीयों की लड़ाई भी हो जाती थी। इस बात पर नीयती को पहले किस ने बुलाया था।

जब काम ज़्यादा होगया तो नीयती ने टांगा जोतने के औक़ात मुक़र्रर करदिए सुब्ह सात बजे से बारह बजे, दोपहर दो से छः बजे तक............. ये सिलसिला बड़ा आरामदेह साबित हुआ। चुनी भी ख़ुश था मगर नीयती महसूस कररही थी कि अक्सर लोग सिर्फ़ उस की क़ुरबत हासिल करने के लिए उस के टांगे में बैठते। बे-मतलब बे-मक़्सद उसे इधर उधर फ़िराते थे। आपस में गंदे गंदे मज़ाक़ भी करते थे। सिर्फ़ उस को सुनाने के लिए बातें करते थे। उस को ऐसा लगा था कि वो तो ख़ुद को नहीं बेचती। लेकिन लोग चुपके चुपके उसे ख़रीद रहे हैं। इस के इलावा उस को इस बात का भी एहसास था कि शहर के सारे कोचवान उस को बुरा समझते हैं। इन तमाम एहसासात के बावजूद मुज़्तरिब नहीं थी। अपनी ख़ुद एतिमादी के बाइस वो पुर-सुकून थी।

एक दिन कमेटी वालों ने नीयती को बुलाया और उस का लाईसेंस ज़ब्त कर लिया। वजह ये बताई कि औरत टांगा नहीं चला सकती। नीयती ने पूछा। “जनाब, औरत टांगा क्यों नहीं चला सकती।”

जवाब मिला। “बस, नहीं चला सकती। तुम्हारा लाईसेंस ज़ब्त है।”

नीयती ने कहा। “हुज़ूर, आप घोड़ा टांगा भी ज़ब्त करलें, पर मुझे ये तो बताएं कि औरत क्यों टांगा नहीं जोत सकती, औरतें चर्ख़ा चला कर अपना पेट पाल सकती हैं। औरतें टोकरी ढो कर रोज़ी कमा सकती हैं। औरतें लेनों पर कोइले चुन चुन कर अपनी रोटी पैदा कर सकती हैं.......... मैं टांगा क्यों नहीं चला सकती। मुझे और कुछ आता ही नहीं....... टांगा घोड़ा मेरे ख़ाविंद का है.......... मैं उसे क्यों नहीं चला सकती। मैं अपना गुज़ारा कैसे करूं?....... हुज़ूर आप रहम करें। मेहनत मज़दूरी से क्यों रोकते हैं मुझे?....... मैं क्या करूं, बताइए न मुझे”

अफ़्सर ने जवाब दिया। “जाओ बाज़ार में जा कर बैठो.......... वहां ज़्यादा कमाई है।”

ये सुन कर नीयती के अंदर जो असल नीयती थी जल कर राख होगई...... हौले से “अच्छा जी” कह कर वो चली गई। औने पौने दामों टांगा घोड़ा बेचा और सीधी अब्बू की क़ब्र पर गई। एक लहज़े के लिए ख़ामोश खड़ी रही। उस की आँखें बिलकुल ख़ुश्क थीं, जैसे बारिश के बाद चिलचिलाती धूप ने ज़मीन की सारी नमी चूस ली थी। इस के भिंचे हुए होंट वा हुए और वो क़ब्र से मुख़ातब हुई। “अब्बू........ तेरी नीयती आज कमेटी के दफ़्तर में मुरगई।”

ये कह कर वो चली गई। दूसरे दिन अर्ज़ी दी...... उस को अपना जिस्म बेचने का लाईसेंस मिल गया|