Mannu ki vah ek raat - 12 books and stories free download online pdf in Hindi

मन्नू की वह एक रात - 12

मन्नू की वह एक रात

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग - 12

मैं वास्तव में उसके कहने से पहले ही चुप हो जाने का निर्णय कर चुकी थी। क्यों कि मेरे दिमाग में यह बात थी कि इन्हें अभी ऑफ़िस जाना है, फिर शाम को दो हफ़्तों के लिए बंबई। इसलिए यह वक़्त ऐसी बातों के लिए उचित नहीं है। मैंने यह सब करके गलत किया। यह बात दिमाग में आते ही मैं एकदम चुप हो गई। यह इसके बाद भी कुछ देर बड़बड़ाते रहे। फिर चले गए।

और मैं ....... मैं अपनी किस्मत को कोसती हुई बाकी के कामों में लग गई। इनकी जाने की तैयारियों में कोई खामी न रह जाए इसलिए एक बार फिर सब कुछ चेक कर डाला। शेव की किट में कुछ कमी दिखी तो चीनू को भेज कर नया सामान मंगवा कर रख दिया और इंतजार करने लगी कि कब आएंगे। इस बीच मुझे इस बात पर बड़ा पछतावा हो रहा था कि आज ऐसे मौके़ पर ऐसी बातें क्यों की।’

‘दीदी न जाने तुम किस मिट्टी की बनी हो। इतना कुछ झेलती रही मगर हम लोगों को कभी कानों-कान ख़बर तक न होने दी। आखिर तुम ऐसा क्यों करती रही ? सबको तुमने गैर समझा था क्या ?’

‘बिब्बो बने तो सभी एक ही मिट्टी के हैं। हां हालात सबको अलग-अलग कर देते हैं। उनका नेचर बदल देते हैं। वो कहते हैं न जब चोट लगती है तो दर्द सहने की ताकत भी आ जाती है। जहां तक बात अपने और गैर का है तो मैं पहले की तरह फिर कह रही हूं कि मैं किसी को तकलीफ नहीं देना चाहती थी। इसलिए नहीं बताती थी। अब तुम खुद तय कर लो कि मैं सब को क्या समझती थी, गैर या फिर कुछ ज़्यादा ही अपना।’

‘पता नहीं ..... मैं इतनी गहराई में सोच-समझ नहीं पाती। मगर ये मीनाक्षी कौन थी। जीजा से उसका क्या रिश्ता था।’

‘अब क्या बताऊं। इनकी तमाम सहेलियों में से एक यह भी थी। वह उन दिनों जल्दी ही आई थी कहीं बाहर से ट्रांसफर होकर। कपड़ों की तरह सहेलियां भी इनकी बदलती रहती थीं। उन दिनों मीनाक्षी का इन पर भूत सवार था। उस समय की बातों पर यकीन करें तो इन दोनों के संबंध शरीर की सीमा तक थे। इन्होंने उसको आगे बढाने के लिए कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी थी। वो एक डायवोर्सी थी। उसके आदमी ने उसे शादी के कुछ महीनों बाद ही छोड़ दिया था। लखनऊ आने के बाद उसे किराए का मकान दिलाने से लेकर उसके लिए सब कुछ करते रहे। उस दिन भी सुबह तक मैं यही जानती रही कि मीनाक्षी बंबई जा तो रही है लेकिन अलग जाएगी, इनके साथ नहीं। लेकिन शाम को ऐन वक़्त पर यह आए तो कार में उसको इनके साथ देख कर मेरा खून उबल पड़ा। मगर किसी तरह नियंत्रण किए रही। लेकिन जब वह अंदर आकर बैठी और मैंने चाय-नाश्ता रखा तो मुझसे रहा नहीं गया मैंने बीच में पूछ लिया,

‘आप भी बंबई साथ जा रही हैं क्या ?’ वह बेशर्मी से हंस कर बोली

'‘हां भाभी जी मैं भी जा रही हूं। पहले तो जाने का मन नहीं था लेकिन फिर सोचा चलो इसी बहाने बंबई भी घूम लूंगी।'’

उसके मुंह से बंबई घूमने की बात सुन कर तन-मन एक बार फिर जल उठा, मगर किसी तरह अपने पर नियंत्रण रख कर बोली,

‘लेकिन वहां इतना टाइम मिल जाएगा कि घूमना-फिरना भी हो जाएगा।’

‘हां क्यों नहीं ...... । ऑफ़िस का जो भी काम होगा शाम तक ख़त्म हो जाएगा। उसके बाद तो टाइम ही टाइम है।'’

वह जब यह बात कह रही थी तो मैंने एक नजर इनकी तरफ़ डाली तो देखा उनकी जलती हुई आंखें मुझे घूर रही हैं। मैं समझ गई कि बात खुल जाने के कारण यह उबल रहे हैं। और अगर मैं ज़्यादा बोली तो यह फट सकते हैं। इतना ही नहीं मैं अपनी भी मनःस्थिति पर गौर कर रही थी कि अगर मैं ऐसे ही मीनाक्षी से बात करती रही तो शायद मैं भी आपा खो बैठूं इसलिए चुप हो गई। अचानक वह बोली,

'‘भाभी जी आपको भी चलना चाहिए था। बार-बार ऐसा मौका़ नहीं मिलता।'’

उसकी बात सुन कर मैं एकदम जल-भुन गई। मन में उसके लिए अनायास ही कई गालियां निकल गईं लेकिन ऊपर से मैं चुप रही। स्थिति का अंदाजा इनको भी था। फिर ट्रेन का टाइम भी हो रहा था सो इन्होंने आदेश जारी किया। बैग, सूटकेस निकालो। मैंने आज्ञाकारी गुलाम की तरह अंदर कमरे से सामान निकाल कर ड्रॉइंगरूम में रखा। तब-तक चीनू भी आ गया नीचे। चीनू और कार के ड्राइवर ने मिल कर सामान गाड़ी में रख दिया। इस बीच देखा उस चुड़ैल का सामान पहले से रखा हुआ है। समझते देर नहीं लगी कि उस चुड़ैल के घर से हो कर आ रहे हैं।

यह सारी बातें मेरे तन-मन की आग को और भड़का रहे थे। वह चुड़ैल भी नमस्ते करके जा बैठी गाड़ी में। फिर यह उठने को हुए तो चीनू ने पैर छूए, वह ठिठक गए। तभी मैं भी पैर छूने को झुकी तो इन्होंने गुस्से में पैर झटक दिया जो सीधे मेरी आंख के पास लगा। चुड़ैल से मेरा बोलना इनको इस हद तक नागवार गुजरेगा इसका अंदाजा मैं नहीं लगा पाई थी। शहर से कहीं बाहर जाने और आने पर पैर छूना मेरी आदत थी। शायद संस्कार का ही असर था। आंख के पास जूते का अगला हिस्सा लगने के कारण दर्द से मैं एकदम बिलबिला उठी थी, क्योंकि चोट कुछ ज़्यादा लगी थी। और यह मुझ पर बिना एक नजर डाले जाकर कार में ऐसे बैठ गए जैसे कुछ न हुआ हो।

मगर मैं इसके बावजूद दरवाजे तक गई, कि वह चुड़ैल कुछ ऐसा-वैसा न सोच ले। मगर भूल कर भी इन्होंने एक नजर देखना ठीक न समझा। उस क्षण मैंने अपने को इतना अपमानित महसूस किया कि मन नफरत से भर गया। गाड़ी के चलते ही मैं भी पैर पटकती हुई आकर बैठ गई सोफे पर। कार के चलते वक़्त उस चुड़ैल ने मुझे देख कर हाथ हिलाया था लेकिन मैं नफरत के चलते उसे जवाब न दे सकी। मेरी आंखों में आंसू भर आए थे। मगर मैं उस समय दो वजहों से रोना नहीं चाहती थी। एक तो दिमाग में यह था कि अभी-अभी घर से गए हैं रोना अपशगुन होगा। दूसरा चीनू के सामने मैं आंसू नहीं गिराना चाहती थी। यह अलग बात थी कि उसने इनको पैर से मारते देख लिया था। छिपाने का कोई औचित्य ही नहीं था क्योंकि चोट अपना गहरा स्याह निशान छोड़ चुकी थी।

मैं सोफ़े पर बैठी थी कि तभी चीनू फ्रि़ज से बर्फ़ निकाल लाया। और एक टुकड़ा स्याह जगह पर लगा दिया। साथ ही चीनू को लेकर एक और बात भी दिमाग के एक कोने में कहीं कुलबुला उठी। वह जिस तरह बर्फ लेकर आया और लगाई जितने अधिकार से और उससे मेरे शरीर में जो एक अनबूझी सी सिहरन दौड़ गई उससे मैं कुछ क्षणों को तो एकदम सोच में पड़ गई। समझ नहीं पा रही थी क्या रिश्ता है। अजीब सी उथल-पुथल मच रही थी मन में। बर्फ़ जब तक वह लगाता रहा मैं किंकर्त्तव्यविमूढ़ सी लगवाती रही। वह बिना कुछ बोले बर्फ लगा कर चला गया ऊपर। मैं सोफ़े पर ही लेट गई। सोचती रही अपनी ज़िंदगी अपनी किस्मत के बारे में, कि समय से शादी हो जाती, बच्चे हो जाते तो आज वह भी दस-पंद्रह बरस के होते। और जब बच्चे होते तो शायद मेरी हालत यह न होती जो आज है। लेटे-लेटे मुझे न जाने कब नींद आ गई। सो गई मैं गहरी नींद में।

अचानक कान में चाची-चाची की आवाज़़ गूंजी। आंख खुल गई मेरी। देखा सामने चीनू खड़ा था। मेरे जागते ही वह बोला,

'‘उठिए चाची जी नौ बज गए हैं।'’

उसकी बात सुन कर मेरी नजर घड़ी की ओर मुड़ गई। उसमें नौ बजा देख कर मैं हैरत में पड़ गई, शाम के समय मैं कभी सोई नहीं थी। वह भी इतनी गहरी नींद और इतनी देर तक। मैं सोच ही रही थी कि तभी चीनू ने चाय सामने रखते हुए कहा,

'‘चाची चाय पी लीजिए। फिर मैं कोई दवा लेकर आता हूं। आपकी आंख काफी सूज गई है।'’

उसकी बात सुनकर मुझे दर्द और सूजन दोनों का अहसास हुआ। चीनू की आवाज़़ मुझ पर उस समय जैसा प्रभाव छोड़ रही थी उसे व्यक्त करने के लिए मेरे पास न तब शब्द थे और न ही ठीक से आज हैं। मगर इसके बावजूद मैं हतप्रभ थी कि चीनू चाय कैसे बना कर ले आया। जब कि सच यह था कि वह घर पर एक गिलास पानी भी उठ कर नहीं लेता था। तमाम तकलीफों के बावजूद मैं अपनी मनःस्थिति पर हैरान थी।

चीनू ने भी सामने बैठ कर चाय पी और यह कहते हुए बाहर निकल गया कि मैं दवा लेकर आता हूं नहीं तो दुकानें बंद हो जाएंगी। मैं बुत बनी देखती -सुनती रही सब होते हुए। गेट के खुलने की आवाज़़ पर मैं उठी और मुंह धोकर शीशे में चेहरा देखा तो मन नफरत से भर उठा। आंख के पास का हिस्सा न सिर्फ़ सूजा था बल्कि आंख लाल भी थी। और फिर एक-एक दृश्य नजरों के सामने आते जा रहे थे। मन में नफरत बढ़ती जा रही थी। वापस सोफे पर आकर बैठी और चाय उठा कर दो तीन बार में पी गई वह करीब-करीब ठंडी हो चुकी थी। करीब आधे-घंटे बाद चीनू एक ट्यूब लेकर लौटा। मैं तब-तक बैठी ही थी। उसने ट्यूब से क्रीम निकाल कर चोट पर लगा दी। और कहा,

'‘चाची ध्यान रखना आंख के अंदर न लगने पाए।'’

इतना कह कर वह हाथ धोने गया बाथरूम में तो मुझे ध्यान आया कि खाना भी बनाना है। वह न होता तो मैं निश्चित ही कुछ न बनाती, सो जाती ऐसे ही। वह लौटा तो मैंने पूछा,

‘चीनू खाना क्या खाओगे?’

‘'जी जो मन हो बना लीजिए।'’

इसके बाद मैंने उससे कुछ नहीं पूछा और बेमन से पराठा-सब्जी बनाकर उसको खाना दिया तो उसने कहा,

‘'चाची जी आप भी खाइए न'’

‘मैं बाद में खाऊंगी, तुम खा लो।’

'‘ग्यारह बजने वाले हैं, कब खाएंगी।'’

मैं कुछ देर चुप रही तो वह फिर बोला,

‘'आप खाएंगी तभी मैं खाऊंगा। मैं जानता हूं बाद में आप नहीं खाएंगी।'’

कह कर वह बैठा रहा। खाने को हाथ नहीं लगाया तो मैंने भी अपना खाना निकाल लिया और खाने लगी। इस समय उसकी एक और बात मुझ पर हथौडे़ सी पड़ रही थी, कि अब वह मुझे चाची जी न कह कर बेधड़क सिर्फ़ चाची कहे जा रहा था। दूसरा मैं यह भी अहसास कर रही थी कि चीनू की बातों का मैं न जाने क्यों पहले की तरह कोई मनमाफ़िक जवाब नहीं दे पा रही थी। खैर भूख लगी थी सो खाने से मना भी न कर पाई। इस बीच चीनू खाना खाकर चला गया ऊपर। मैं भी नीचे ही लेट गई । लेकिन जाने से पहले वह यह कहना नहीं भूला कि,

‘'चाची दवा एक बार फिर लगा लेना।'’

मैं लेटे-लेटे कुछ ही देर में ऊबने लगी। घुटन सी होने लगी। तो उठ कर बैठ गई। अब किताबें फिर याद आईं लेकिन सब ऊपर कमरे में रखी थीं। सो मैं ऊपर कमरे में चली गई। मगर वहां पहुंचने पर किताबों को भी छूने का मन नहीं हुआ तो फिर लेट गई बेड पर, इनकी एक-एक बात याद आ रही थी और वह चुड़ैल भी, और अपना तिरस्कार, अपमान, बरसों से झेलती आ रही उपेक्षा, एक-एक दिन की घटनाएं, इनकी गालियां, इनकी मार, और मुझे चिढ़ा-चिढ़ा कर अपमानित करने के लिए पराई औरतों से संबंध रखना, बेहिचक मेरे सामने ही उनसे बतियाना।

कई बार इनकी हरकतें देख कर ऐसा लगता जैसे यह चाहते हैं कि मैं छोड़ कर चली जाऊं। मगर जब इस बात की हक़ीक़त जानने के लिए मैं मायके जाने की बात करती तो एकदम भड़क उठते। कहीं जाने देने के लिए तैयार भी न होते। ऐसे में मेरे मन में एक बात आती कि इतनी आज्ञाकारी, तनमन हर तरह से सेवा करने वाली दूसरी औरत कहां मिलेगी। या ऐसी आया कहां मिलेगी। कौन होगी जो इतना अपमान सहने के बाद भी जी जान से सेवा करेगी। वह भी बिना एक शब्द बोले।’

‘तुम विरोध क्यों नहीं करती थी, हमें तो नहीं लगता कि कोई भी औरत इतना सब कुछ सहेगी। चुप रहेगी। मैं होती तुम्हारी जगह तो छोड़ कर चल देती, भले ही कोई साथ-देता या न देता। भले ही कहीं जाकर डूब मरती। मगर इस क़दर तो कम से कम मैं न रह पाती।’

‘बिब्बो मुझे खुद अब अपने पर आश्चर्य होता है कि कैसे इतनी सहनशीलता मुझ में आ गई थी। ऐसा कौन सा आकर्षण या शक्ति थी इनमें कि अब भी मैं अलग होने की बात सोच नहीं पाती। सिवाय उन कुछ पलों को छोड़ कर जब आवेश में आकर क्षणिक तौर पर ऐसा सोचा हो। जैसे उसी दिन जब सोचते-सोचते दिमाग की नसें फटने लगीं तो बड़ी दृढ़ता के साथ मन में निर्णय लिया कि अब की लौट कर आने दो बंबई से। साफ बोल दूंगी या तो अपनी आदतें बदलो, मुझे पत्नी की तरह रखो नहीं तो बेहतर है कि मुझे अलग कर दो। अब मैं इस तरह तुम्हारे साथ रह नहीं पाऊंगी। और ये मत सोचना कि मैं तुमसे गुजारा भत्ता मांगूंगी, पैसा मांगूंगी। अपना पैसा अपने पास रखो, इतनी पढ़ी-लिखी हूं कि कुछ करके अपना गुजर-बसर कर लूंगी। कौन है ही आगे पीछे।

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