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खुशियों की आहट - 12

खुशियों की आहट

हरीश कुमार 'अमित'

(12)

समय इसी तरह बीतता रहा. मोहित के पापा की ज़िन्दगी इसी तरह दफ्तर, ट्यूशनों और कोचिंग कॉलेज के आसपास घूमती रही. मम्मी इसी तरह दफ्तर की नौकरी के साथ कविताओं और कवि सम्मेलनों की दुनिया में मगन रही. गाड़ी का ड्राइवर रख लिया गया. उसकी तनख़्वाह का इन्तज़ाम करने के लिए पापा एक और ट्यूशन पढ़ाने लगे और रात को साढ़े नौ बजे के बदले साढ़े दस बजे घर लौटने लगे.

मोहित की पढ़ाई भी वैसे ही चलती रही. उसको ढंग से पढ़ाने का समय न पापा के पास था न मम्मी के पास. वह गाइडों की मदद ले-लेकर अपना काम चलाता रहा. मम्मी-पापा के पास तो मोहित की होमवर्क और क्लास टैस्ट की कॉपियों को ठीक तरह से देखने का वक्त भी नहीं था. वे लोग आते-जाते सरसरी तौर पर मोहित को अच्छी तरह पढ़ाई करने और क्लास टैस्ट की तैयारी करने के लिए कहते रहते.

क्लास टैस्टों में आए मोहित के अंकों के बारे में पूछने का भी मम्मी-पापा को आमतौर पर ध्यान नहीं रहता था. जब-जब उसके अच्छे नम्बर न आए होते, उसे बुरी तरह डाँट दिया जाता था या फिर मम्मी-पापा एक-दूसरे को इसके लिए दोषी ठहराने लगते. फिर थोड़ी देर बाद वे दोनों सब कुछ भूल जाते और अपनी-अपनी ज़िन्दगी में व्यस्त हो जाते.

मोहित के स्कूल में हर महीने होने वाली अभिभावक-अध्यापक सभाओं (पेरेन्ट्स-टीचर मीटिंग्स/पी.टी.एम.) के लिए जाने का वक्त भी मम्मी-पापा के पास नहीं होता था. ट्यूशनों और कोचिंग कॉलेज की वजह से पापा तो इन सभाओं में कभी जा ही नहीं पाते थे. मम्मी कभी दो-तीन महीने बाद ऐसी सभा में चली तो जातीं, पर वहाँ अलग-अलग विषयों के अध्यापकों से मोहित की पढ़ाई के बारे में विस्तार से बात करने का वक्त उनके पास होता ही कहाँ था. वे तो बस पाँच-सात मिनट में ऊपरी-ऊपरी बातें करके स्कूल से बाहर आ जातीं. उन्हें दफ्तर, कवि सम्मेलन या किसी समारोह में जो जाना होता था.

जिस फ्लैट में वे रहते थे, वह अच्छा-ख़ासा था. इसमें ड्राइंगरूम के अलावा दो कमरे थे जिनमें से एक मम्मी-पापा के पास था और एक मोहित के पास. एक स्टोरनुमा छोटा कमरा भी था जिसमें शांतिबाई रहती थी. लेकिन मोहित के मम्मी-पापा इससे भी बड़ा और मँहगा फ्लैट या कोठी खरीदना चाहते थे. इसके लिए वे बैंक वग़ैरह से उधार लेने की भी सोच रहे थे.

इसी तरह दो-दो गाड़ियाँ होने के बावजूद मोहित के मम्मी-पापा का यह सपना था कि उनके पास इनसे भी बड़ी गाड़ियाँ हों. गाड़ी चलाने के लिए रखा गया एक ड्राइवर अब उन्हें कम लगने लगा था. वे चाहते थे कि दोनों गाड़ियों का अलग-अलग ड्राइवर हो, ताकि दूसरों के सामने उनकी शान बन सके.

मोहित के पापा का इतनी ट्यूशनें करने और कोचिंग कॉलेज की नौकरी करने के पीछे भी तो यही कारण था कि वे लोग और अधिक पैसे वाले और साधन-सम्पन्न बनना चाहते थे. मम्मी के लिए भी नौकरी करना कोई इतना ज़रूरी नहीं था, क्योंकि पापा की तनख़्वाह अच्छी-ख़ासी थी. मगर उन पर तो लोगों क सामने अपनी गर्दन ऊँची करने और अपने आप को दूसरों से बेहतर साबित करने का भूत सवार था.

दिन इसी तरह गुज़र रहे थे. होते-होते दिसम्बर आ गया. इस महीने की दस तारीख़ से मोहित की अर्द्धवार्षिक परीक्षाएँ थीं. परीक्षाएँ शुरू होने के कई दिन पहले से ही मोहित ने मम्मी-पापा से कहा था कि वे बारी-बारी से दफ्तर से कुछ दिन की छुट्टियाँ ले लें ताकि उसकी परीक्षाओं की तैयारी अच्छी तरह से हो सके. पर मम्मी-पापा, दोनों, ने ही दफ्तर के ज़रूरी काम की बात कहकर छुट्टियाँ लेने की बात नहीं मानी थी.

मोहित की अर्द्धवार्षिक परीक्षाएँ जैसे-तैसे हो गईं. अब कुछ दिनों के लिए क्रिसमस की छुट्टियाँ थीं. स्कूल दो जनवरी से दोबारा खुलना था. मोहित सोच रहा था कि इन छुट्टियों में वह घर में अकेला बैठा बोर होता रहेगा, मगर ऐसा हुआ नहीं.

मोहित की छुट्टियाँ शुक्रवार तेईस दिसम्बर से शुरू हुई थीं. उसी शाम पापा घर आए तो उन्होंने बताया कि वे लोग अगले दिन सुबह नौ बजे की फ्लाइट से श्रीनगर घूमने जा रहे हैं. मम्मी को तो यह बात पहले से ही पता थी. मम्मी-पापा मोहित को 'सरप्राइज़' देना चाहते थे, इसलिए श्रीनगर जाने के कार्यक्रम के बारे में उसे अब तक बताया नहीं गया था.

श्रीनगर जाने के कार्यक्रम का पता चलते ही मोहित के मन में सबसे पहली बात यही आई कि मम्मी-पापा दफ्तर से अब कैसे छुट्टियाँ ले पा रहे हैं. अभी कुछ दिन पहले जब उसकी परीक्षाएँ थीं, तब तो उन दोनों ने दफ्तर से छुट्टियाँ लेने की उसकी बात नहीं मानी थी.

ख़ैर, जो भी हो, श्रीनगर तो जाना ही था. पूरे एक सप्ताह का कार्यक्रम था. मोहित तो पहली बार श्रीनगर आया था. मम्मी इससे पहले एक बार और पापा दो बार वहाँ आ चुके थे. श्रीनगर में वे ख़ूब घूमे और बहुत मज़ा किया उन्होंने.

एक शाम श्रीनगर के बाज़ार में घूमते हुए मोहित मम्मी-पापा से पूछने लगा, ''हम लोग शांतिबाई को भी नहीं ला सकते थे श्रीनगर घुमाने के लिए? वह भी तो हम लोगों के साथ ही रहती है.''

मोहित की बात सुनते ही मम्मी-पापा मुस्कुराए और उसकी बात को हँसी में उड़ा दिया. पर इसके बावजूद यह बात मोहित के मन में बार-बार आती रही कि शांतिबाई को भी साथ क्यों नहीं लाया गया.

एक सप्ताह बाद वे विमान द्वारा श्रीनगर से वापिस दिल्ली आ गए.

***

एक जनवरी को नया साल शुरू हो गया था. सब तरफ नए साल की खुशियाँ मनाई जा रही थीं. मोहित भी बहुत ख़ुश था. अगले दिन उसका स्कूल जो खुलने वाला था. अपने सहपाठियों से कई दिनों बाद वह मिल पाएगा. श्रीनगर घूमने के बारे में कई बातें उसके मन में उमड़-घुमड़ रही थीं जिन्हें वह अपने सहपाठियों को बताना चाहता था. अपने कुछ ख़ास सहपाठियों के लिए उसने श्रीनगर से एक-एक उपहार भी ख़रीदा था.

अगले दिन स्कूल खुलने पर मोहित जितना ख़ुश-ख़ुश स्कूल गया था, दोपहर के बाद वापिस लौटा तो उतना ही उदास था. स्कूल में आज उसे दिसम्बर में हुई अर्द्धवार्षिक परीक्षाओं का परिणाम मिल गया था. उसके नम्बर कुछ ख़ास नहीं आए थे. यहाँ तक कि मैथ्स और हिन्दी में तो वह पास ही नहीं हो पाया था. अपना रिजल्ट कार्ड देख-देखकर उसे रोना आ रहा था.

उसका जी चाह रहा था कि मम्मी-पापा को उसके इस परिणाम के बारे में पता ही न चले. मगर ऐसा हो नहीं सकता था, क्योंकि आने वाले शनिवार को पी.टी.एम. रख दी गई थी, जिसमें हर बच्चे के माता या पिता का आना ज़रूरी था. चूँकि कई बच्चों के माता-पिता ऐसी मीटिंगों में आते नहीं थे, इसलिए स्कूलवालों ने टाइप किया हुआ यह नोटिस भी हर बच्चे को दिया था कि जिन बच्चों के माता-पिता इस मीटिंग में नहीं आएँगे, उन बच्चों को उससे अगले सोमवार से क्लासरूम में बैठने नहीं दिया जाएगा. ऐसे सब बच्चे दिन भर लाइब्रेरी में बैठा करेंगे.

मोहित को अपने सहपाठियों से यह भी पता चला कि जो-जो बच्चे इन परीक्षाओं में फेल हो गए हैं, उनके माता-पिता को स्कूल वाले फोन द्वारा भी बच्चे के परीक्षा-परिणाम के बारे में बता रहे हैं और अगले शनिवार को होने वाली पी.टी.एम. में आने के लिए कह रहे हैं. मोहित तो यह सब सुनते ही सन्न रह गया.

इसी कारण स्कूल बस से उतरकर घर पहुँचना भी उसे बहुत मुश्किल लग रहा था. उसे डर था कि घर पहुँचते ही मम्मी और पापा उसे बुरी तरह डाँटेंगे. आज उन दोनों के दफ्तर में छुट्टी थी.

इन्हीं विचारों में खोए-खोए वह डरे-डरे कदम उठाता घर की ओर जा रहा था. घर के सामने पहुँचकर उसने दरवाज़े की घंटी बजाई. वैसे तो कॉलबेल बजने के थोड़ी देर बाद दरवाज़ा खुलता था, क्योंकि शांतिबाई किसी-न-किसी काम में लगी होती थी. पर आज तो घंटी बजाते ही एकदम से दरवाज़ा खुल गया. हैरानी की बात यह थी कि दरवाज़ा शांतिबाई ने नहीं बल्कि मम्मी ने खोला था.

मम्मी का गम्भीर चेहरा देखकर ही मोहित को यह खटका हो गया था कि स्कूलवालों ने फोन पर उन्हें सब कुछ बता दिया हुआ है. वह दरवाज़े से अन्दर आया तो उसने देखा कि गुस्से से भरा चेहरा लिए पापा भी तनकर सोफे पर बैठे हुए हैं.

मोहित दो कदम आगे बढ़ा ही था कि पापा गुस्सेभरी आवाज़ में बोले, ''दिखाओ रिजल्ट कार्ड!''

मोहित ने अपना स्कूल-बैग सोफ़े पर रखा और अपना रिज़ल्ट कार्ड निकालने लगा. पापा ने झपटकर वह कार्ड उसके हाथ से ले लिया. उसे अच्छी तरह पढ़ा और गुस्से से मम्मी की ओर कार्ड बढ़ाते हुए बोले, ''लो, देख लो, अपने लायक बच्चे का रिज़ल्ट!''

मम्मी ने आगे बढ़कर पापा के हाथ से कार्ड ले लिया और उसे पढ़ने लगीं. फिर मोहित की ओर देखकर कहने लगीं, ''हिन्दी और मैथ्स में तो फेल ही हो गए तुम?''

''और बाकी सब्जेक्ट्स में भी जो गुल खिलाए हैं, वे सामने ही हैं. साइंस में चवालीस, इंगलिश में पचास, एस.एस. (सामाजिक विज्ञान) में अड़तालीस! नम्बर हैं ये कोई? शर्म आ रही है मुझे तो ये नम्बर देखकर!'' पापा गुस्से से दहाड़े.

''अच्छी तरह से पढ़ाई नहीं करते क्या तुम?'' मम्मी की आवाज़ में बस गुस्सा-ही-गुस्सा भरा था.

''किस चीज़ की कमी रखी है हमने? सब कुछ लाकर दिया है. तीन-तीन गाइडें होती हैं किसी बच्चे के पास? सब कुछ तो है तुम्हारे पास! मोबाइल फोन है, कम्प्यूटर है, टी.वी. है, म्यूज़िक सिस्टम है, अलग कमरा है. और क्या चाहिए तुम्हें? सिर्फ़ पढ़ने का ही तो काम है तुम्हारे पास! उसे भी ठीक तरह से नहीं कर सकते क्या?'' पापा गुस्से से भरी आवाज़ में यह सब कहते हुए सोफे से उठकर खड़े हो गए.

''इसका मतलब है तुम पढ़ाई में ध्यान ही नहीं लगाते. सारा दिन टी.वी. देखते रहते होगे या कम्प्यूटर गेम्स खेलते रहते होगे. और क्या?'' मम्मी का गुस्सा अब भी वैसा ही था.

''ये नाम रोशन कर रहा है तू हमारा!'' पापा गुस्से से उफनते हुए हाथ उठाकर आगे बढ़ आए, जैसे मोहित को तमाचा मार देना हो.

यह देखकर मम्मी एकदम से आगे बढ़ी और मोहित को अपने से सटाकर पापा से बोलीं, ''मारो नहीं मेरे बेटू को, ढंग से समझाते हैं इसको.

''ढंग से समझने वाला है नहीं यह. सारा दिन खटता रहता हूँ, सिर्फ़ इसीलिए न कि घर के लिए ज़्यादा-से-ज़्यादा सुख-सुविधाएँ जुटा सकूँ. पर उसका नतीजा यह निकल रहा है. शर्म आ रही है मुझे अपने आप पर! दूसरों के बच्चों को पढ़ा-पढ़ाकर लायक बना रहा हूँ और इधर मेरा अपना बच्चा ऐसा नालायक बन गया है.'' पापा का गुस्सा दुःख में बदलता जा रहा था.

''बेटू, क्या-क्या सपने देखे हैं हम लोगों ने तुम्हारे लिए कि बड़े होकर तुम ये बनोगे, वो बनोगे. और तुम....'' कहते-कहते मम्मी की आँखों में आँसू झिलमिलाने लगे.

तभी रसोई के दरवाज़े से शांतिबाई की आवाज़ आई, ''मेम साहब, हम कहें कुछ?''

मम्मी जवाब में कुछ नहीं बोलीं, बस उसकी तरफ़ आँख उठाकर देखने लगीं.

''मेम साहब, आप लोग यह मत समझना कि मोहित मेहनत नहीं करता है. यह तो बहुत पढ़ता है.'' शांतिबाई बोली.

''मम्मी, मैं तो कई बार क्रिकेट खेलने भी नहीं जाता इसी पढ़ाई के कारण.'' शांतिबाई की बात सुनकर मोहित को कुछ हिम्मत बँधी थी.

''यह तो बेचारा पढ़ाई के बीच आराम भी बड़ा सोच-विचार के करता है. मैं सारा दिन घर में रहती हूँ न. मैं जानती हूँ सब कुछ.'' शांतिबाई फिर कहने लगी.

''मैंने तो इसे कई बार गाने सुनते और दिन में भी सोते हुए देखा है.'' मम्मी बोल उठीं.

''नहीं मम्मी, वो तो पढ़ाई करते-करते थक जाता हूँ न, तब सुनता हूँ गाने. कई बार आराम करते-करते नींद आ जाती है मम्मी.'' मोहित समझाने-के से स्वर में बोला.

''गुस्ताख़ी माफ़ मेम साहब और साहब जी, आप लोग भी तो सारा-सारा दिन अपने-अपने कामों में लगे रहते हो. आप लोग तो कभी मोहित के पास बैठकर उससे उसकी पढ़ाई की बात करते नहीं हो. बखत (वक्त) ही नहीं होता आपके पास.'' शांतिबाई ने हिम्मत करके कह ही दिया.

''आप लोगों से होमवर्क के बारे में मुझे न जाने क्या-क्या पूछना होता है, पर टाइम ही नहीं होता न आपके पास और न पापा के पास.'' मम्मी की ओर देखते हुए मोहित सहमी-सी आवाज़ में कह रहा था.

''सही कह रहा है मोहित. मैंने कई बार सुना है यह फोन पर अपने दोस्तों से स्कूल के काम के बारे में न जाने क्या-क्या पूछता रहता है.'' शांतिबाई ने कहा.

''हमसे नहीं पूछ सकता क्या तू ये सब? हम क्या अनपढ़ हैं?'' पापा का गुस्सा अभी तक ठण्डा नहीं हुआ था.

''घर में होते ही कब हैं आप! जब होते हैं तब टाइम कहाँ होता है आप लोगों के पास!'' मोहित की आवाज़ अब भी सहमी हुई थी.

मोहित की बात सुनकर पापा कुछ नहीं बोले. बस सोफे पर बैठ गए.

''साहब जी, बुरा ना मानो तो एक बात कहूँ. आप लोग थोड़ा बखत दो मोहित को. उसको सिरफ़ (सिर्फ़) किताबों की नहीं, आपकी भी जरूरत है.'' शांतिबाई ने डरते-डरते पापा की ओर देखकर हाथ जोड़ते हुए कहा, जैसे माफ़ी माँग रही हो. फिर उसने अपने जोड़े हुए हाथ मम्मी की ओर कर दिए.

''तुम गलत नहीं कह रही हो शांतिबाई. मुझे बहुत कुछ समझ आ रहा है.'' मम्मी शांतिबाई के जुड़े हुए हाथों को अपने हाथों में थामते हुए बोलीं.

फिर मम्मी पापा की ओर घूमीं और कहने लगीं, ''सुनिए, मोहित के ऐसे रिज़ल्ट के लिए शायद हम ही दोषी हैं. हमें ही कुछ करना होगा.''

''ट्यूशनें कुछ कम कर देता हूँ, पर इसके बाद गाड़ी का ड्राइवर हटाना पड़ेगा और दूसरे कुछ खर्चे कम करने पड़ेंगे.'' पापा को भी जैसे बात समझ आ गई थी.

''ड्राइवर को तो हटा देंगे. कोई बात नहीं. गाड़ी तो हमें चलानी आती ही है. ड्राइवर तो इसलिए रखा था कि शान बनती है इससे. बाकी खर्चे कम करने की ज़रूरत पड़ेगी नहीं.'' मम्मी कह रही थीं.

''क्यों? वो कैसे?'' पापा ने प्रश्नवाचक नज़रों से मम्मी की ओर देखते हुए पूछा.

''वो ऐसे कि दफ्तर में मेरा प्रमोशन (तरक्की) हो रहा है अगले हफ्ते से. करीब पॉंच हज़ार बढ़ जाएगी तनख़्वाह.'' कहते हुए ख़ुशी झलक रही थी मम्मी की आवाज़ से.

''अरे वाह! यह तो बड़ी अच्छी बात है. वैसे एक सरप्राइज़ मेरे पास भी है. मैंने अगले महीने बताना था, पर अभी बता देता हूँ.'' पापा की आवाज़ भी खुशियों से भरी थी.

''हाँ, बताइए न. क्या है वो सरप्राइज़?'' मम्मी ने उत्सुकता से पूछा.

मोहित भी उत्सुक चेहरे से पापा की ओर देखने लगा.

''भई, प्रमोशन सिर्फ़ तुम्हारा ही नहीं, मेरा भी हो रहा है अगले महीने से.'' पापा ने हँसते हुए कहा.

''अरे वाह! मुबारक़ हो. फिर तो भई, ड्राइवर हटाने की भी ज़रूरत नहीं रहेगी.'' मम्मी ने ख़ुशी से चहकते हुए कहा.

''पर मोहित की पढ़ाई पर ध्यान देने के लिए कुछ ट्यूशनें तो छोड़नी ही पड़ेंगी. कोचिंग कॉलेज जाना भी छोड़ दूँगा मैं. और तुमको भी करना होगा कुछ.'' पापा मम्मी की ओर देखते हुए बोले.

''मुझे? मैं तो ट्यूशनें पढ़ाती ही नहीं.'' मम्मी ने हैरानी से पूछा.

''कुछ पढ़ाती नहीं हो, पर पढ़ती तो हो.'' पापा मुस्कुराते हुए बोले.

''क्या पढ़ती हूँ? मुझे समझ नहीं आ रहा कुछ?'' मम्मी पूछने लगीं.

''कविताएँ नहीं पढ़ती तुम?'' पापा कहने लगे.

''पर कविताएँ लिखना तो मेरा सबसे बड़ा शौक है. उसे कैसे छोड़ सकती हूँ मैं.'' मम्मी की आवाज़ में गम्भीरता आ गई थी.

''भई, कविताएँ लिखने से तुम्हें कौन मना कर रहा है, पर कवि सम्मेलनों और पुस्तकों के विमोचन समारोहों में जो तुम इतना टाइम लगा देती हो, उसमें तो कुछ कमी कर सकती हो न.''

पापा की बात सुनकर मम्मी कुछ पल सोचती रहीं, फिर कहने लगीं, ''हाँ, यह तो हो सकता है.''

''तो बस ठीक है. यही बचा हुआ टाइम हम मोहित को देंगे और उसकी पढ़ाई पर भी पूरा-पूरा ध्यान देंगे.'' पापा ने मुस्कुराते हुए कहा.

''बिल्कुल सही बात है.'' मम्मी ने जवाब दिया.

मोहित को अपने आने वाले जीवन में खुशियों की आहट साफ़-साफ़ सुनाई देने लगी थी.

समाप्त