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पीताम्बरी - 1

पीताम्बरी

मीना पाठक

(1)

घर में उत्सव जैसा माहौल था | सभी के चेहरों पर उत्साह झलक रहा था | बड़की चाची. रामपुर वाली चाची, पचरूखिया वाली चाची, सभी दोगहा में जा कर द्वार पर बैठे युवक को झाँक-झाँक देख कर निहाल हो रहीं थीं |

“अरे ! पीतो के त भाग जाग गईल, एतना नीक लईका कहाँ मीलित |” सभी की जुबान पर यही वाक्य था |

बड़की अम्मा के पाँव ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे, पड़ते भी कैसे आखिर उनकी बेटी के लिए इतना सुन्दर और होनहार वर जो ढूँढा गया था !

नीम के वृक्ष के नीचे खटिया पर दरी और उस पर दुसूती का हाथ से कढ़ा हुआ चादर बिछा था, उसी पर एक गोरा चिट्टा लंबा सा युवक बैठा था | उसके आस-पास घर के सभी पुरुष सदस्य बैठ कर उसके घर-द्वार, नैकरी-चाकरी के बारे में जानकारी ले रहे थे | वैसे तो लड़के को बाबूजी ने सब देख-सुन कर ही आने का न्योता दिया था पर बाकी के लोग भी उसके बारे में सब कुछ जान लेना चाहते थे, वह भी उसी के मुंह से | ब्याह के मामले में लड़कियों से ज्यादा लड़कों को सवाल-जवाब से गुजरना पड़ता है | “शिक्षा कहाँ तक है..कहाँ नौकरी करते हो..किस पोस्ट पर हो..तनख्वाह कितनी है.. शहर में अपना घर है भी कि नहीं..गाँव में कितनी खेती-बाड़ी है..कितने भाई-बहन..कितने चाचा-पीती..कितनी बहनों की शादी हो गई है और कितनी ब्याहने को बाकी हैं..द्वार सूना तो नहीं है..गाय-गोरू कितने हैं ?” आदि-अदि प्रश्नों से गुजरना पड़ता है तब जा कर लड़के को लड़की वाले पूरा हिसाब-किताब जोड़-घटाव लगा कर कि लड़के के हिस्से में क्या-क्या आ रहा है, पास करते हैं |
घर के सभी लोगों ने लड़का पास कर दिया था | बड़का बाबूजी एक बार धोखा खा चुके थे छोटी बुआ के मामले में, अब वह शादी-ब्याह के मामले में फूँक-फूँक कर कदम रखना चाहते थे |

*

रामनारायण ओझा का बड़ा सा मध्यमवर्गीय परिवार था, वैसे तो उनके एक चाचा जीवित थे; पर वह घर के सबसे बड़े बेटे थे तो उन्हीं का नाम चलता था, उनकी पत्नी को सभी बच्चे बड़की अम्मा कहते थे और उनको बड़का बाबूजी |

इतने बड़े परिवार में ढेरों बच्चे थे, पीताम्बरी इस पीढ़ी की सबसे बड़ी बेटी थी इन्द्रावती उससे छोटी और रूपा उसकी हमउम्र थी | पीताम्बरी और इन्द्रावती दोनों चचेरी बहने थीं रूपा उनकी फुफेरी बहन थी, तीनो में खूब बनती थी | पीतो के विवाह का सुन कर वो दोनों भी बहुत खुश थीं |

*

कुछ वर्ष पहले ही रामनारायण ओझा ने अपनी छोटी बहन इरावती का ब्याह खूब देख सुन कर किया था; पर जाने कहाँ चूक हुई कि धोखा खा गए | लड़का शराबी-जुआड़ी निकल गया, घर में
किसी चीज की कमी ना थी; पर उनकी बहन सुखी नहीं थी, रोज-रोज की कलह, तन्ज़ और मार पिटाई से तंग आ कर वह मात्र दो वर्ष के भीतर ही अपनी बहन को लिवा लाये थे; तब से वह अपनी बेटी रूपा को ले कर यहीं रह रही थी, ना तो उसे कोई लिवाने आया और न ही वह गई, अब यही उसका घर था | इस लिए अब वह बाकी की बेटियों के लिए सतर्क हो गए थे, इसी लिए उन्होंने इस बार बहुत ठोक-बजा कर रिश्ता देखा था |

*

खाने का समय हो गया था | पीतो तो लाज के मारे छुप गई थी; पर इंदू और रूपा दोनों चिरैया की भाँति फुदक रही थीं |

ओसारे में चौका दे कर पीढ़ा रख दिया था रूपा ने, इंदू बीजे (खाने पर बुलाने) कराने द्वार पर चली गई | घर की सभी औरतें पीतो के होने वाले दुल्हे को पास से देखने को आतुर थीं | थोड़ी देर में इंदू के साथ उस युवक ने घर में प्रवेश किया | इंदू उन्हें दिशा निर्देश देती हुई घर के भीतर आँगन में हाथ धुला कर ओसारे में जहाँ चौका दिया गया था; वहाँ ला कर पीढ़ा पर बैठने को कहती है | वह चुप-चाप पालथी मार कर बैठ गए, तब तक बड़की अम्मा बेना ले कर आ गयीं और हवा करते हुए उनको अपलक निहारने लगीं, उनकी आँखों में ज़माने भर की खुशियाँ छलक रही थीं | इतना सुन्दर और होनहार दामाद देख कर उनका मन बाग-बाग हो रहा था |

बेटी के सुखद वैवाहिक जीवन की खुशी की चमक उनकी आँखों में साफ़-साफ़ देखी जा सकती थी |
इंदू रसोई से खाना परोसवा कर ले आई, रूपा लोटे में पानी और गिलास ले आई |

उन्होंने पहले भोजन को प्रणाम किया फिर जल से आचमन किया तब भोजन प्रारम्भ किया | बड़की अम्मा उनके इस संस्कार पर गद्गद हो गयीं |

“ए बाबू !..का नाम का ह-अ आपन” बेना डोलाते हुए बड़की अम्मा मुस्कुरा कर बोलीं, उनके स्वर से अमृत बरस रहा था |

“आशुतोष..!. आशुतोष पाण्डेय” दो उंगुलियों से रोटी तोड़ते हुए बोले वह |

“अऊर के-के बा घर-वा में ?” फिर से साक्षात्कार शुरू हो गया था | अम्मा पूछती जातीं और वह बड़ी विनम्रता से उत्तर देते जाते |

बड़की अम्मा का हाथ नहीं रुक रहा था, बेना डोलाती जा रहीं थीं, कहीं होने वाले दामाद के माथे पर पसीने की बूँदे ना छलक पड़ें |

भोजन के खत्म होते ही रूपा झट से एक फूल का बड़ा कटोरा ले आई और उनका हाथ धुलाने लगी तब तक इंदू एक नया गमछा ले आई, हाथ मुँह पोंछने के लिए |

भोजन के उपरान्त बड़की अम्मा उन्हें अपने कमरे में ले गयीं |

कमरे में एक तरफ़ बड़ा सा लकड़ी का पलंग था, उस पर भी सुन्दर सा हाथ से काढ़ा गया दुसूती का चादर बिछा था, चादर पर कढाई द्वारा मोर की आकृति बनाई गई थी और रंग बिरंगे रेशमी धागों से मोरपंखों को सजाया गया था | पलंग के पास ही एक लकड़ी की ही कुर्सी रखी थी, दीवार पर एक तरफ़ आईना टंगा था, उसके पास ही छोटी सी आलमारी में कंघा, तेल, पाउडर, क्रीम और कुछ दवाइयों की सीसियाँ रखी थीं | आशुतोष को ला कर पलंग पर बैठा दिया बड़की अम्मा ने, साथ में रूपा और इंदू भी थीं |

“जा दिदिया के बुला ले आवा, अब येह ज़माना में के लजाता, जा कहि दा कि गुड़, देसी घी कटोरी में ले के आवें” बड़की अम्मा इंदू से बोलीं |

इंदू पीतो को बुलाने चली गई और बड़की अम्मा घी देने के बहाने से कमरे से बाहर आ गयीं |
थोड़ी देर में इंदू के साथ पीतो ने कमरे में कदम रखा, उसका दिल बहुत तेजी से धड़क रहा था, आँखे नीची किये हुए ही उसने हाथ में पकड़ी हुई प्लेट आशुतोष के बगल में पलंग पर ही रख दिया और बिना कुछ बोले ही दोनों हाथ जोड़ कर उन्हें अभिवादन किया, कुछ पल के लिए उन दोनों की आँखें चार हुयीं फिर पीतो ने अपनी नजर ज़मीन पर गड़ा दी | इंदू ने उसे कुर्सी पर बैठाया और खुद पलंग पर बैठ गयी, रूपा पहले से ही आशुतोष के एक तरफ़ पलंग पर बिराजमान थी |

आशुतोष ने पीतो को ऊपर से नीचे तक एक नजर देखा, गोरा रंग, मध्यम कद, लंबे काले केश और सुन्दर नाक-नक्श की स्वामिनी थी पीताम्बरी | उसके गाल शर्म से गुलाबी हो गए थे, कुछ असहज भी लग रही थी, बार-बार अपने दुपट्टे का कोना अपनी तर्जनी पर लपेट, खोल रही थी | आशुतोष ने पीतो से नजर हटा कर इंदू और रूपा से बातचीत शुरू कर दी, उनके बारे में पूछने लगे; पर बीच-बीच में पीतो पर नजर डाल लेते | इंदू और रूपा दसवीं में पढ़ रहीं थी, पीतो जहाँ गम्भीर थी वहीं इंदू वाक्पटु थी, रूपा चंचल व हंसमुख थी | अचानक ही बड़की अम्मा की आवाज आई; वह इंदू को बुला रही थीं | इंदू के पीछे रूपा भी चली गयीं, अब कमरे में आशुतोष और पीतो अकेले थे | पीतो अपने पैर के अंगूठे से जमीन की मिट्टी कुरेदने में लगी थी; दिल धाड़-धाड़ कर रहा था जैसे उछल कर बाहर आ जाएगा |

“नाम क्या है आप का ?” आशुतोष ने पूछा

“पीतो....नहीं-नहीं पीताम्बरी...घर में सब मुझे दुलार से पीतो बुलाते हैं |” पीतो जमीन कुरेदते हुए धीरे से बोली|

“पढ़ाई पूरी हो गई आप की ?”

“जी..बारहवीं तक हो गई |” पीतो बोली |

“आगे और पढ़ने का विचार है ?” आशुतोष ने फिर से पूछा |

“अगर आप और आप के परिवार को कोई ऐतराज ना हो तो.... !” पीतो ने उसी तरह सिर नीचे किये हुए धीरे से जवाब दिया |

“मैं मना कर दूँ तो आप नहीं पढ़ेंगी ?” आशुतोष मुस्कुरा कर बोले | पीतो ने ‘ना’ में सिर हिला दिया |

“आप को जितना दिल करे पढ़ियेगा; पर अब आप एक बार अपना चेहरा ऊपर तो उठाइये, मुझे बस एक बात कहनी है आपसे |” आशुतोष मुस्कुरा कर बोले |

“जी, कहिये ना |” पीतो शरमाते हुए बोली |

“अगर ये विवाह होता है तो मैं आपसे एक वचन चाहता हूँ |”

“जी…आप कहिये तो |”

“मुझ पर एक बहन की जिम्मेदारी है जिसे मुझे निभाना है, जब तक उसका विवाह नहीं हो जाता तब तक मैं आप को कलकत्ता नहीं ले जा सकूँगा, तब तक आप को मेरा हर परिस्थिति में साथ देना होगा उसके बाद आप जैसा चाहेंगीं वैसा ही होगा ये मेरा वचन है |” कहते हुए आशुतोष ने अपना हाथ आगे बढ़ा दिया |

“आप जैसा कहेंगे वैसा ही होगा |” पीतो ने सिर झुकाए-झुकाए जवाब दिया |

पीतो संयुक्त परिवार की लड़की थी, उसे मालूम था कि संयुक्त परिवार को संयुक्त बनाए रखने के लिए क्या-क्या करना होता है, अपने मन और अपनी आत्मा पर किस कदर काबू करना पड़ता है, पहले सब की भावनाओं का ख्याल रखना होता है, सबके पीछे अपनी बारी आती है | अत: उसे यह वचन देते हुए तनिक भर भी समय नहीं लगा |

“नहीं..ऐसे नहीं ..पहले आप मेरी तरफ़ देखें..फिर मेरे हाथ में अपना हाथ दे कर वादा करें..तब मैं मानूँगा और हाँ..स्वेच्छा से..किसी दबाव में आ कर नहीं |”

पीतो ने लजाते हुए उसकी तरफ़ देखा, बहुत ही सुन्दर, रंग गोरा और कद लंबा, स्मार्ट थे आशुतोष, एक लड़की जैसे जीवनसाथी के सपने देखती है बिल्कुल वैसे ही, पीतो ने लजा कर अपनी आँखें फिर नीची कर ली |

“जब तक आप अपना हाथ मेरे हाथ में नहीं दे देतीं, मैं ना ही समझूँगा |” आशुतोष ने मुस्कुरा कर कहा |

पीतो ने धीरे से अपना हाथ उनके हाथ में दे दिया, आशुतोष ने उसका हाथ अपने हाथ में ले कर दबा दिया, पीतो के शरीर में करंट सा दौड़ गया, आँखे फिर चार हुयीं, मन की बात मन तक पहुँची जैसे शांत झील में किसीने एक पत्थर उछाल दिया हो पीतो के मन की हालत ऐसी हो गई थी | शायद प्रेम निवेदन कुछ और आगे बढ़ता या दो हृदय मिल कर एक दूसरे की धड़कनें सुनते या साँसों की गिनती गिनते इससे पहले ही इंदू और रूपा कमरे में आ चुकी थीं, पीतो ने जल्दी से अपना हाथ खींच लिया, उनके पीछे बड़की अम्मा भी आ गयीं |

पीतो अपनी धड़कनों को सहेजने में लग गयी | आशुतोष उठ कर खड़े हो गए और बड़की अम्मा को प्रणाम कर के जाने की अनुमति मांगने लगे, बड़की अम्मा ने ढेर सारा आशीष दिया और उनके साथ दोगहा तक उन्हें छोड़ने आ गयीं |

*

एकांत में मिले निकटता के वे अमूल्य क्षण पीतो ने सहेज लिए थे, आशुतोष का स्पर्श उसे रह-रह कर रोमांचित कर देता था, वह आँखे बंद करती और आशुतोष का स्पर्श महसूसती और उसकी आँखों की भाषा समझ लजा कर मुस्कुरा पड़ती, उसमें बसी अपने प्रियतम की छवि निहार लेती | अचानक पंक्षियों का कलरव सुन उसकी आँख खुल गई | पूर्व दिशा में आसमान सिंदूरी रंग का हो रहा था, आकाश पर कहीं-कहीं नीले भूरे बादल लटक रहे थे ऐसा लग रहा था जैसे नीचे आ कर उसके कानों में कुछ कहना चाहते थे, सन्देश...प्रेम का...जिसे आशुतोश ने भेजा था उसके लिए | ईशान में बाल रवि उदय हो कर मुस्कुरा रहे थे क्यों कि अब धीरे-धीरे उन्हें अपने यौवन के पथ पर अग्रसर होना था और फिर अपनी प्रिय संध्या के आँचल तले विश्राम करना था | पीतो ने सूर्यदेव को प्रणाम किया और सीढ़ियों की ओर चल दी | गर्मियों के दिन में रात की सुखद नींद का आसरा पक्के वाले घर की छत्त ही थी |

*

आशुतोष के जाने के बाद घर के लोग अति उत्साहित थे इस सम्बन्ध को ले कर | घर के भीतर और बाहर इसी को ले कर चर्चा चरम पर थी, अब उधर से सन्देश आने की प्रतीक्षा थी |

आशुतोष को गए हुए धीरे-धीरे पन्द्रह-बीस दिन बीत गए थे, उधर से कोई खबर नहीं आई, रामनारायण ओझा का मन विचलित हो रहा था | इतना अच्छा रिश्ता हाथ से ना निकल जाए, ये ख्याल उनके मन को बेचैन कर रहा था | भीतर बड़की अम्मा भी परेशान थीं कि अभी तक कोई खबर नहीं आई, क्या लड़की उन्हें पसन्द नहीं आई या उनके मान-सम्मान में कहीं कोई चूक हो गई ? आखिर क्या कारण था जो कुछ भी खबर नहीं थी अभी तक ? अब तक तो कुछ ना कुछ खबर आ ही जानी चाहिए थी | बड़की अम्मा का मन घबरा रहा था |

*

धीरे-धीरे महीना बीत गया, कोई खोज-खबर नहीं मिली आशुतोष की | इधर बड़की अम्मा बेकल हुई जा रहीं थीं, वह रोज ही बड़का बाबूजी से पूछतीं -

“काउनो खबर आईल ?”

बड़का बाबूजी ‘ना’ में सिर हिला देते |

आज बड़का बाबूजी के घर आते ही बड़की अम्मा ने कहा-“रउरे चलि जाईं, देखीं जा के कि का बाति ह्-अ, कहीं अईसन त ना ह्-अ कि ऊ लोग के लईकी ना मन भावल होखे |”

बड़का बाबूजी भी परेशान थे सो उनहोंने जाने का तय किया | पीतो का मन भी उदास था, रूपा व इंदू भी चिंतित थीं या यूँ कहा जाय कि पूरा घर ही चिंतित था |

*

स्व० परशुराम पाण्डेय सरकारी नौकरी में थे एक दिन ड्यूटी के दौरान ही उन्हें हार्टअटैक पड़ा और वह इस दुनिया से चल बसे | घर में दो बेटियों का विवाह हो चुका था एक बेटी और सबसे छोटा बेटा जो मात्र बीस वर्ष का था, छोड़ कर स्वर्ग सिधार गए थे, उन्हीं के स्थान पर आशुतोष नौकरी में लग गए थे | माँ कलावती और बहन सुषमा गाँव में रहती थी, कारण ये था कि परशुराम जी के स्वर्गवास के बाद भाई पटिदारों की टेढ़ी नजर उनके हिस्से के घर, बाग-बगीचे और खेतों पर थी इस लिए वह लोग गाँव में ही रहती थीं और दोनों बड़े दामाद देख भाल करते थे | दोनों बड़ी बहनों का आना-जाना लगा रहता था | घर का हर निर्णय बेटी-दामाद से पूछ कर ही लिया जाता था | घरेलू कार्यों में भी बेटियों का हस्तक्षेप रहता था | आशुतोष सबसे छोटे थे, वह अपनी बड़ी बहनों और बहनोइयों का बहुत मान करते थे | एक बहन की जिम्मेदारी थी उनके कन्धों पर | वैसे तो पहले बहन की ही शादी होनी थी; पर उसकी कुंडली में मंगल दोष था इस लिए उसके विवाह में बहुत परेशानी आ रही थी | माँ अब कुछ बीमार सी रहती थीं इस लिए सभी की इच्छा थी कि आशुतोष का ब्याह हो जाय तो घर में बहू आ जाए और कलावती को घर की जिम्मेदारियों से छुटकारा मिले |

छुट्टियाँ खत्म हो गई थीं सो आशुतोष वापस कलकत्ता चले गए, उन्होंने हाँ कर दिया था रिश्ते के लिए; पर पूरा निर्णय बहन-बहनोई पर था इसी लिए अभी तक कोई जवाब नहीं गया था रामनारायण जी के घर |

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उस समय ईंट की दीवारें और खपरैल के स्थान पर छत्त होना ही पक्का घर कहलाता था कोई आवश्यक नहीं था कि दीवारों या फर्श पर प्लास्टर हो | रामनारायण ओझा का घर भी आधा पक्का और आधा कच्चा था यानी कि मिट्टी की मोटी दीवारें और खपरैल की छत, कमरों के आगे चारों तरफ़ ओसारा और ओसारे के बाद आँगन | आँगन के एक तिहाई हिस्से में कभी ईंट बिछा कर प्लास्टर किया गया होगा; पर अब ये स्थिति थी कि जगह-जगह से प्लास्टर टूट गया था, वही पन्डोहा था, वहाँ हैंड पम्प गड़ा था | एक कोने में थोड़ा सा प्लास्टर शेष बच गया था, उसी स्थान पर सभी महिलाएँ खुले में ही स्नान करतीं, बर्तन और कपड़े धोतीं | उपले की राख से फूल, पीतल के बर्तन माँजने के कारण वहाँ कचड़ा जम जाता था जिसे हर दूसरे-तीसरे दिन घर की कोई ना कोई महिला स्नान से पहले काछ दिया करती थी और परनाली में पड़ा बाँस हिला दिया करती थी ताकि पंडोहा साफ़ सुथरा रहे |

आज बड़की अम्मा की बारी थी | पंडोहा चाहे कोई भी काछे, बाल्टी वाला मलबा फेंकना इरावती का काम था क्यों कि घर की बहुएँ दिन के उजाले में घर से बाहर नहीं निकलती थीं और लड़कियाँ घिन करती थीं इस लिए ये काम इरावती ही करती | बड़की अम्मा पंडोहा काछती जा रहीं थीं, घर के पक्की वाली छत पर कौआ काँव-काँव कर रहा था, कौवे की आवाज सुन कर बड़की अम्मा का हाथ रुक गया, वह कौवे की तरफ देख कर धीरे से बुदबुदातीं हैं, ‘अगर पीतो के ससुरा से कउनो अच्छी खबर आवत होखे त उड़ जा ए कागा’ और कौआ वहाँ से उड़ कर खपरैल पर जा बैठा, ये शुभ शगुन था, बड़की अम्मा के मन में ख़ुशी के बुलबुले फूटने लगे | आज बड़का बाबूजी जाने वाले थे बेलापुर |

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