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साढ़े तीन आने

साढ़े तीन आने

“मैंने क़तल क्यूँ किया। एक इंसान के ख़ून में अपने हाथ क्यूँ रंगे, ये एक लंबी दास्तान है । जब तक मैं उस के तमाम अवाक़िब ओ अवातिफ़ से आप को आगाह नहीं करूंगा, आप को कुछ पता नहीं चलेगा...... मगर उस वक़्त आप लोगों की गुफ़्तगु का मौज़ू जुर्म और सज़ा है। इंसान और जेल है...... चूँकि मैं जेल में रह चुका हूँ, इस लिए मेरी राय नादुरुस्त नहीं हो सकती। मुझे मंटो साहब से पूरा इत्तिफ़ाक़ है कि जेल, मुजरिम की इस्लाह नहीं कर सकती। मगर ये हक़ीक़त इतनी बार दुहराई जा चुकी है कि उस पर ज़ोर देने से आदमी को यूं महसूस होता है जैसे वो किसी महफ़िल में हज़ार बार सुनाया हुआ लतीफ़ा बयान कर रहा है....... और ये लतीफ़ा नहीं कि इस हक़ीक़त को जानते पहचानते हुए भी हज़ारहा जेल ख़ाने मौजूद हैं।

हथकड़ियां हैं और वो नंग-ए-इंसानियत बेड़िया…… में क़ानून का ये ज़ोर पहन चुका हूँ”।

ये कह कर रिज़वी ने मेरी तरफ़ देखा और मुस्कुराया। उस के मोटे मोटे हब्शियों के से होंट अजीब अंदाज़ में फड़के। उस की छोटी छोटी मख़मूर आँखें, जो क़ातिल की आँखें लगी थीं चमकें। हम सब चौंक पड़े थे। जब उस ने यकायक हमारी गुफ़्तगु में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था। वो हमारे क़रीब कुर्सी पर बैठा क्रीम मिली हुई काफ़ी पी रहा था। जब उस ने ख़ुद को मुतआरफ़ कराया तो हमें वो तमाम वाक़ियात याद आ गए जो उस की क़त्ल की वारदात से वाबस्ता थे। वाअदा माफ़ गवाह बन कर उस ने बड़ी सफ़ाई से अपनी और अपने दोस्तों की गर्दन फांसी के फंदे से बचा ली थी।

वो उसी दिन रिहा होकर आया था। बड़े शाइस्ता अंदाज़ में वो मुझ से मुख़ातब हुआ। “माफ़ कीजीएगा मंटो साहब…… आप लोगों की गुफ़्तगु से मुझे दिलचस्पी है। मैं अदीब तो नहीं, लेकिन आप की गुफ़्तगु का जो मौज़ू है उस पर अपनी टूटी फूटी ज़बान में कुछ ना कुछ ज़रूर कह सकता हूँ। फिर उस ने कहा। “ मेरा नाम सिद्दीक़ रिज़वी है……. लिंडा बाज़ार में जो क़त्ल हुआ था, मैं उस से मुतअल्लिक़ था”।

मैंने उस क़त्ल के मुतअल्लिक़ सिर्फ़ सरसरी तौर पर पढ़ा था। लेकिन जब रिज़वी ने अपना तआरुफ़ कराया तो मेरे ज़ेहन में ख़बरों की तमाम सुर्खियां उभर आईं।

हमारी गुफ़्तुगू का मौज़ू ये था कि आया जेल मुजरिम की इस्लाह कर सकती है। मैं ख़ुद महसूस कर रहा था। हम एक बासी रोटी खा रहे हैं। रिज़वी ने जब ये कहा। ये हक़ीक़त इतनी बार दुहराई जा चुकी है कि उस पर ज़ोर देने से आदमी को यूं महसूस होता है। जैसे वो किसी महफ़िल में हज़ार बार सुनाया हुआ लतीफ़ा बयान कर रहा है। तो मुझे बड़ी तसकीन हुई। मैंने ये समझा जैसे रिज़वी ने मेरे ख़यालात की तर्जुमानी कर दी है।

क्रीम मिली हुई काफ़ी की प्याली ख़त्म करके रिज़वी ने अपनी छोटी छोटी मख़मूर आँखों से मुझे देखा और बड़ी संजीदगी से कहा। “मंटो साहब आदमी जुर्म क्यूं करता है...... जुर्म क्या है, सज़ा क्या है....... मैंने उस के मुतअल्लिक़ बहुत ग़ौर किया है। मैं समझता हूँ कि हर जुर्म के पीछे एक हिस्ट्री होती है...... ज़िंदगी के वाक़ियात का एक बहुत बड़ा टुकड़ा होता है, बहुत अच्छा हुआ, टेढ़ा मेढ़ा....... मैं नफ़्सियात का माहिर नहीं...... लेकिन इतना ज़रूर जानता हूँ कि इंसान से ख़ुद जुर्म सरज़द नहीं होता। हालात से होता है”!

नसीर ने कहा। “आप ने बिल्कुल दरुस्त कहा है”।

रिज़वी ने एक और काफ़ी का आर्डर दिया और नसीर से कहा। “मुझे मालूम नहीं जनाब, लेकिन मैंने जो कुछ अर्ज़ किया है अपने मुशाहिदात की बिना पर अर्ज़ किया है वर्ना ये मौज़ू बहुत पुराना है। मेरा ख़याल है कि विक्टर हीयूगो...... फ़्रांस का एक मशहूर नावलिस्ट था....... शायद किसी और मुल्क का हो....... आप तो ख़ैर जानते ही होंगे, जुर्म और सज़ा पर उस ने काफ़ी लिखा है....... मुझे उस की एक तसनीफ़ के चंद फ़िक़रे याद हैं”। ये कह कर वह मुझ से मुख़ातब हुआ। “मंटो साहब, ग़ालिबन आप ही का तर्जुमा था…….क्या था?...... वो सीढ़ी उतार दो जो इंसान को जराइम और मसाइब की तरफ़ ले जाती है....... लेकिन मैं सोचता कि वो सीढ़ी कौन सी है। उस के कितने ज़ीने हैं”।

कुछ भी हो, ये सीढ़ी ज़रूर है, उस के ज़ीने भी हैं, लेकिन जहां तक मैं समझता हूँ , बेशुमार हैं, उन को गिन्ना, इन का शुमार करना ह सब से बड़ी बात है “मंटो साहब, हुकूमतें राय शुमारी करती हैं, हुकूमतें आदाद ओ शुमार करती हैं, हुकूमतें हर किस्म की शुमारी करती हैं...... इस सीढ़ी के ज़ीनों की शुमारी क्यूं नहीं करतीं....... क्या ये उन का फ़र्ज़ नहीं....... मैंने क़त्ल किया........ लेकिन इस सीढ़ी के कितने ज़ीने तै करके किया....... हुकूमत ने मुझे वाअदा माफ़ गवाह बना लिया, इस लिए कि क़त्ल का सुबूत उस के पास नहीं था, लेकिन सवाल ये है कि मैं अपने गुनाह की माफ़ी किस से मांगूं....... वो हालात जिन्हों ने मुझे क़त्ल करने पर मजबूर किया था। अब मेरे नज़दीक नहीं हैं, उन में और मुझ में एक बरस का फ़ासिला है। मैं इस फ़ासले से माफ़ी मांगूं या उन हालात से जो बहुत दूर खड़े मेरा मुँह चिड़ा रहे हैं”।

हम सब रिज़वी की बातें बड़े ग़ौर से सुन रहे थे। वो बज़ाहिर तालीम-ए-याफ़ता मालूम नहीं होता था, लेकिन उस की गुफ़्तुगु से साबित हुआ कि वो पढ़ा लिखा है और बात करने का सलीक़ा जानता है। मैंने उस से कुछ कहा होता, लेकिन मैं चाहता था कि वो बातें करता जाये और मैं सुनता जाऊं। इसी लिए मैं उस की गुफ़्तुगु में हाइल ना हुआ।

उस के लिए नई काफ़ी आगई थी। उसे बना कर उस ने चंद घूँट पीए और कहना शुरू किया। “ख़ुदा मालूम मैं क्या बकवास करता रहा हूँ, लेकिन मेरे ज़ेहन में हर वक़्त एक आदमी का ख़याल रहा है....... उस आदमी का, इस भंगी का जो हमारे साथ जेल में था। उस को साढे़ तीन आने चोरी करने पर एक बरस की सज़ा हुई थी”।

नसीर ने हैरत से पूछा। “सिर्फ़ साढे़ तीन आने चोरी करने पर”?

रिज़वी ने यख़ आलूद जवाब दिया। “जी हाँ…… सिर्फ़ साढे़ तीन आने की चोरी पर……. और जो उस को नसीब ना हुए, क्यूं कि वो पकड़ा गया...... ये रक़म खज़ाने में महफ़ूज़ है और फग्गू भंगी ग़ैर महफ़ूज़ है। क्यूं कि हो सकता है वो फिर पकड़ा जाये। क्यूं कि हो सकता है उस का पेट फिर उसे मजबूर करे, क्यूं कि हो सकता है कि उस से गू मूत साफ़ कराने वाले उस की तनख़्वाह न दे सकें, क्यूं कि हो सकता है उस को तनख़्वाह देने वालों को अपनी तनख़्वाह न मिले...... ये हो सकता है का सिलसिला मंटो साहब अजीब ओ गरीब है। सच पूछिए तो दुनिया में सब कुछ हो सकता है.......रिज़वी से क़त्ल भी हो सकता है”।

ये कह कर वह थोड़े अर्से के लिए ख़ामोश हो गया। नसीर ने उस से कहा।

“आप फग्गू भंगी की बात कर रहे थे”।?

रिज़वी ने अपनी छिदरी मोंछों पर से काफ़ी रूमाल के साथ पोंछी। “जी हाँ……. फग्ग भंगी चोर होने के बावजूद, यानी वो क़ानून की नज़रों में चोर था। लेकिन हमारी नज़रों में पूरा ईमानदार....... ख़ुदा की क़सम मैंने आज तक उस जैसा ईमानदार आदमी नहीं देखा, साढे़ तीन आने उस ने ज़रूर चुराए थे, उस ने साफ़ साफ़ अदालत में कह दिया था कि ये चोरी मैंने ज़रूर की है, मैं अपने हक़ में कोई गवाही पेश नहीं करना चाहता....... मैं दो दिन का भूका था, मजबूरन मुझे करीम दर्ज़ी की जेब में हाथ डालना पड़ा। उस से मुझे पाँच रुपये लेने थे... दो महीनों की तनख़्वाह..... हुज़ूर उस का भी कुछ क़ुसूर नहीं था। इस लिए कि उस के कई ग्राहकों ने उस की सिलाई के पैसे मारे हुए थे...... हुज़ूर, मैं पहले भी चोरियां कर चुका हूँ। एक दफ़ा मैंने दस रुपये एक मेम साहब के बटवे से निकाल लिए थे। मुझे एक महीने की सज़ा हुई थी। फिर मैंने डिप्टी साहब के घर से चांदी का एक खिलौना चुराया था इस लिए कि मेरे बच्चे को निमोनिया था और डाक्टर बहुत फ़ीस मांगता था....... हुज़ूर मैं आप से झूट नहीं कहता। मैं चोर नहीं हूँ...... कुछ हालात ही ऐसे थे कि मुझे चोरियां करनी पड़ीं....... और हालात ही ऐसे थे कि मैं पकड़ा गया.... मुझ से बड़े बड़े चोर मौजूद हैं लेकिन वो अभी तक पकड़े नहीं गए....... हुज़ूर, अब मेरा बच्चा भी नहीं है, बीवी भी नहीं है.... लेकिन हुज़ूर अफ़सोस है कि मेरा पेट है, ये मर जाये तो सारा झंझट ही ख़त्म हो जाये, हुज़ूर मुझे माफ़ कर दो... लेकिन हुज़ूर ने उस को माफ़ न किया और आदी चोर समझ कर उस को एक बरस क़ैद बा-मशक़क़्त की सज़ा दे दी”।

रिज़वी बड़े बेतकल्लुफ़ अंदाज़ में बोल रहा था। उस में कोई तसन्नो, कोई बनावट नहीं थी। ऐसा लगता था कि अलफ़ाज़ ख़ुद-ब-ख़ुद उस की ज़बान पर आते और बहते चलते जा रहे हैं। मैं बिल्कुल ख़ामोश था। सिगरेट पे सिगरेट पी रहा था और उस की बातें सुन रहा था। नसीर फिर उस से मुख़ातब हुआ। “आप फग्गू की ईमानदारी की बात कर रहे थे”?

“जी हाँ”। रिज़वी ने जेब से बैट्री निकाल कर सुलगाई। “मैं नहीं जानता क़ानून की निगाहों में ईमानदारी क्या चीज़ है, लेकिन मैं इतना जानता हूँ कि मैंने बड़ी ईमानदारी से क़त्ल किया था...... और मेरा ख़याल है कि फग्गू भंगी ने भी बड़ी ईमानदारी से साढे़ तीन आने चुराए थे....... मेरी समझ में नहीं आता कि लोग ईमानदार को सिर्फ़ अच्छी बातों से क्यूं मंसूब करते हैं, और सच पोछीए तो मैं अब ये सोचने लगा हूँ कि अच्छाई और बुराई है क्या। एक चीज़ आप के लिए अच्छी हो सकती है, मेरे लिए बुरी। एक सोसाइटी में एक चीज़ अच्छी समझी जाती है, दूसरी में बुरी....... हमारे मुस्लमानों में बग़लों के बाल बढ़ाना गुनाह समझा जाता है, लेकिन सुख उस से बे-नियाज़ हैं। अगर ये बाल बढ़ाना वाक़ई गुनाह है तो ख़ुदा उन को सज़ा क्यूं नहीं देता अगर कोई ख़ुदा है तो मेरी उस से दरख़ास्त है कि ख़ुदा के लिए तुम ये इंसानों के क़वानीन तोड़ दो, उन की बनाई हुई जेलें ढह दो....... और आसमानों पर अपनी जेलें ख़ुद बनाओ। ख़ुद अपनी अदालत में उन को सज़ा दो, क्यूं कि और कुछ नहीं तो कम अज़ कम ख़ुदा तो हो”।

रिज़वी की इस तक़रीर ने मुझे बहुत मुतअस्सिर किया। उस की ख़ामकारी ही असल में तअस्सुर का बाइस भी। वो बातें करता था तो यूं लगता है जैसे वो हम से नहीं बल्कि अपने आप से दिल ही दिल में गुफ़्तुगू कर रहा है।

उस की बीड़ी बुझ गई थी, ग़ालिबन उस में तंबाकू की गांठ अटकी हुई थी। इस लिए कि उस ने पाँच छः मर्तबा उस को सुलगाने की कोशिश की। जब न सुलगी तो फेंक दी और मुझ से मुख़ातब हो कर कहा। “मंटो साहब, फग्गू मुझे अपनी तमाम ज़िंदगी याद रहेगा....... आप को बताऊंगा तो आप ज़रूर कहेंगे कि जज़्बातियत है, लेकिन ख़ुदा की क़सम जज़्बातियत को इस में कोई दख़्ल नहीं...... वो मेरा दोस्त नहीं था...... नहीं वो मेरा दोस्त था क्यूं कि उस ने हर बार ख़ुद को ऐसा ही साबित किया”।

रिज़वी ने जेब में से दूसरी बीड़ी निकाली मगर वो टूटी हुई थी। मैंने उसे सिगरेट पेश किया तो उस ने क़ुबूल कर लिया। “शुक्रिया...... मंटो साहब, माफ़ कीजीएगा, मैंने इतनी बकवास की है हालाँकि मुझे नहीं करनी चाहिए थी इस लिए कि माशाअल्लाह आप……”

मैंने उस की बात काटी। “रिज़वी साहब, मैं इस वक़्त मंटो नहीं हूँ सिर्फ़ सआदत हसन हूँ। आप अपनी गुफ़्तुगू जारी रखिए। मैं बड़ी दिलचस्पी से सुन रहा हूँ”।

रिज़वी मुस्कुराया। उस की छोटी छोटी मख़मूर आँखों में चमक पैदा हुई। आप की बड़ी नवाज़िश है। फिर वो नसीर से मुख़ातब हुआ “मैं क्या कह रहा था”।

मैंने उस से कहा। “आप फग्गू की ईमानदारी के मुतअल्लिक़ कुछ कहना चाहते थे”।

“जी हाँ” ये कह कर उस ने मेरा पेश किया हुआ सिगरेट सुलगाया। “मंटो साहब, क़ानून की नज़रों में वो आदी चोर था। बीड़ियों के लिए एक दफ़ा उस ने आठ आने चुराए थे। बड़ी मुश्किलों से, दीवार फांद कर जब उस ने भागने की कोशिश की थी तो उस के टख़ने की हड्डी टूट गई थी। क़रीब क़रीब एक बरस तक वो उस का इलाज कराता रहा था, मगर जब मेरा हम इल्ज़ाम दोस्त जरजी बीस बीड़ियां उसकी मअर्फ़त भेजता तो वो सब की सब पुलिस की नज़रें बचा कर मेरे हवाले कर देता। वाअदा माफ़ गवाहों पर बहुत कड़ी निगरानी होती है, लेकिन जरजी ने फग्गो को अपना दोस्त और हमराज़ बना लिया था। वो भंगी था, लेकिन उस की फ़ित्रत बहुत ख़ुशबूदार था। शुरू शुरू में जब वो जरजी की बीड़ियां लेकर मेरे पास आया तो मैंने सोचा, उस हरामज़ादे चोर ने ज़रूर इन में से कुछ ग़ायब करली होंगी, मगर बाद में मुझे मालूम हुआ कि वो क़तई तौर पर ईमानदार था...... बीड़ी के लिए उस ने आठ आने चुराते हुए अपने टख़ने की हड्डी तुड़वा ली थी मगर यहां जेल में उस को तंबाकू कहीं से भी नहीं मिल सकता था, वो जरजी की दी हुई बीड़ियां तमाम ओ कमाल मेरे हवाले कर देता था, जैसे वो अमानत हों...... फिर वो कुछ देर हिचकिचाने के बाद मुझ से कहता, बाबू जी, एक बीड़ी तो दीजीए और मैं उस को सिर्फ़ एक बीड़ी देता...... इंसान भी कितना कमीना है”!

रिज़वी ने कुछ इस अंदाज़ से अपना सर झटका जैसे वो अपने आप से मुतनफ़्फ़िर है। “जैसा कि मैं अर्ज़ कर चुका हूँ मुझ पर बहुत कड़ी पाबंदीयां आइद थीं। वाअदा माफ़ गवाहों के साथ ऐसा ही होता है। जरजी अलबत्ता मेरे मुक़ाबले में बहुत आज़ाद था। उस को रिश्वत दे दिला कर बहुत आसानीयां मुहय्या थीं। कपड़े मिल जाते थे। साबुन मिल जाता था। बेड़ियां मिल जाती थीं। जेल के अंदर रिश्वत देने के लिए रुपये भी मिल जाते थे.......फग्गू भंगी की सज़ा ख़त्म होने में सिर्फ़ चंद दिन बाक़ी रह गए थे, जब उस ने आख़िरी बार जरजी की दी हुई बेड़ियां मुझे ला कर दीं। मैंने उस का शुक्रिया अदा किया। वो जेल से निकलने पर ख़ुश नहीं था। मैंने जब उस को मुबारकबाद दी तो उस ने कहा। बाबू जी, मैं फिर यहां आ जाओंगा....... भूके इंसान को चोरी करनी ही पड़ती है..... बिल्कुल ऐसे ही जैसे एक भूके इंसान को खाना खाना ही पड़ता है...... बाबू जी आप बड़े अच्छे हैं, मुझे इतनी बीड़ियां देते रहे....... ख़ुदा करे आप के सारे दोस्त बरी हो जाएं। जरजी बाबू आप को बहुत चाहते हैं।

नसीर ने ये सुन कर ग़ालिबन अपने आप से कहा। “और उस को सिर्फ़ साढे़ तीन आने चुराने के जुर्म में सज़ा मिली थी।

रिज़वी ने गर्म काफ़ी का एक घूँट पी कर ठंडे अंदाज़ में कहा। “जी हाँ सिर्फ़ साढे़ तीन आने चुराने के जुर्म में....... और वो भी खज़ाने में जमा हैं...... ख़ुदा मालूम उन से किस पेट की आग बुझेगी”! रिज़वी ने काफ़ी का एक और घूँट पिया और मुझ से मुख़ातब हो कर कहा। “हाँ मंटो साहब, उस की रिहाई में सिर्फ़ एक दिन रह गया था। मुझे दस रूपयों की अशद ज़रूरत थी... मैं तफ़सील में नहीं जाना चाहता। मुझे ये रुपये एक सिलसिले में संतरी को रिश्वत के तौर पर देने थे। मैंने बड़ी मुश्किलों से काग़ज़ पैंसिल मुहय्या करके जरजी को एक ख़त लिखा था और फग्गू के ज़रीया से उस तक भेजवाया था कि वो मुझे किसी न किसी तरह दस रुपये भेज दे। फग्गू अनपढ़ था। शाम को वो मुझ से मिला। जरजी का रुक़्क़ा उस ने मुझे दिया। उस में दस रुपये का सुर्ख़ पाकिस्तानी नोट क़ैद था। मैंने रुक़्क़ा पढ़ा। ये लिखा था। रिज़वी प्यारे दस रुपये भेज तो रहा हूँ, मगर एक आदी चोर के हाथ, ख़ुदा करे तुम्हें मिल जाएं। क्यूं कि ये कल ही जेल से रिहा हो कर जा रहा है। मैंने ये तहरीर पढ़ी तो फग्गू भंगी की तरफ़ देख कर मुस्कुराया। उस को साढे़ तीन आने चुराने के जुर्म में एक बरस की सज़ा हुई थी। मैं सोचने लगा अगर उस ने दस रुपये चुराए होते तो साढे़ तीन आने फ़ी बरस के हिसाब से उस को क्या सज़ा मिलती”?

ये कह कर रिज़वी ने काफ़ी का आख़िरी घूँट पिया और रुख़स्त मांगे बगै़र काफ़ी हाऊस से बाहर चला गया।

26 जुलाई 1950 ई

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