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लबरी

लबरी

गीताश्री

“लबरा लबरी चले बाजार...लबरा गिरा बीच बाजार, लबरी बोली खबरदार...”

माला कुमारी ने जिस घड़ी गांव जाने के बारे में सोचा था तभी से कान में एक ही धुन बज रही थी..। स्मृतियों की रील बेहद मोहक होती है। जब चलती है तो वर्तमान हाशिए पर चला जाता है और समूचा व्यक्तित्व अदृश्य अंधेरे में लिपट जाता है। रौशनी के जाले में साफ साफ देख सुन सकते हैं। माला के साथ भी यही हो रहा है। माला उसी मोहक रील की जादुई गिरफ्त में है। सामने जो बंदा बैठा है, कुछ देर के लिए वह लोप हो गया।

“सुनिए...चाय सेरा(ठंडी) गई। पीजिए ना..हमारे यहां की चाय बड़ी फेमस है।“

“आं..हां..” माला अदृश्य अंधेरे से झटके से बाहर निकली। सामने बैठा व्यक्ति चाय सुड़क रहा था, प्लेट में डाल कर । माला को जल्दी जाना है, पब्लिक मीटिंग का टाइम हो गया है। मैदान में अच्छी खासी भीड़ जमा हो गई है। कुछ देखने के लिए तो कुछ सुनने के लिए।

“ मुझे जाना होगा...” माला खादी सिल्क की साड़ी संभालती हुई हौले से उठी।

बेंच पर बैठा उम्रदराज आदमी कप प्लेट रखते हुए उठा।

“ त जाइए ना..हम कौन सा अगोर कर बैठे हैं आपको..जब अगोरने का उमर था तब तो अगोरे ही नहीं, अब का...। आपके साथ चाय पीना चाहते तो सो पी लिए..बाकी बात तो आपको मालूमे हो गया है..क्या छिपा है आपसे..जिन्नगी ऐसे ही चली है हमारी..” बोलते हुए लाल गमछे से मुंह ढंक लिया। माला ने गौर से देखा--प्रौढ, निस्तेज चेहरा, निढाल शरीर,सिर पर गंजापन।

“ मैं छैला बाबू हूं यहां का...पहचाना..मैं चुन्नू, चुन्नुआ..”

माला ने हतप्रभ होकर ऊपर से नीचे तक देखा, मोटा कुरता..पायजामा..पहने खड़ा शख्स अपने दौर का जो प्ले ब्वाय बनता फिरता था। सारी अकड़ गायब थी, बस एक ही चीज यथावत थी..तबसे अब तक..मुंह में कपूरी तंबाकू।

“ जाते जाते एगो बात पूछे मैडम जी आपसे...? ”

“ क्या...? ”

“ आपको याद है तेतरी से हमको पत्र भेजा था आपने..हम आज तक नहीं समझ पाए कि आपने वैसा पत्र क्यों लिखा था। हम क्या गुनाह किए थे।“

“ ऐसा क्या लिखा था उस पत्र में ?”

“ देखावें का हम आपको..रखा है संदूक में संभाल के..”

“ जरुरत नहीं, बताओ तो सही..”

“ छोड़िए...हमको तो सराप है सीता जी का..पुराना घाव काहे खोदे..”

माला को संशय हुआ। ये कैसी बात कर रहा है..कैसी चिठ्ठी, कौन सी..हमने तेतरी से एक ही पत्र भेजा था और उसमें तो बहुत कुछ अच्छा अच्छा सा ही लिखा था। लगभग नेह-भरा। उसमें कई कच्ची उम्र की वासंती कविताएं थीं..माला जानने के लिए व्यग्र हो उठी। यहां तो उल्टा मामला दिख रहा है। चुन्नू के प्रति घोर गुस्से और घृणा से भरी थी माला। उसे कई सवाल गोले की तरह दागने थे और उसे घायल करते जाना था। क्या समझ लिया था उसने। क्या मैं इतनी सस्ती थी ? तेतरी के बराबर समझा था..गांव भर की लड़कियों में मुझे भी शामिल कर लिया था...इतनी हिम्मत..कबसे रास्ता देख रही थी कि चुन्नू लाल मिलें और उनके मुंह पर जोरदार थप्पड़ धरें। लेकिन सरपंच जी ने मौका ही नहीं दिया। चुन्नू को लगभग धकियाते हुए उसे साथ ले चले। गमछा में मुंह छिपाए चुन्नू वहीं खड़ा था।

शायद अब भी मन में कई अरमान पल रहे थे। वह उत्साहित थe. जान सुन कर कि माला कुमारी गांव यानी कस्बे में आ रही हैं। दिल्ली में बहुत बड़ी तोप हो गई हैं। 15 साल बाद उनके गांव आगमन पर स्वागत की भव्य तैयारियां हैं। जगह जगह उनके पोस्टर चिपकाए जा रहे हैं। पार्टी कार्यालय में, कस्बे की सीमा पर स्वागत झंडे लगाए गए हैं। पार्टी कार्यकर्ता घोर उत्साह में हैं। मैडम, अपनी बिटिया, बाबू साहेब की पोती, नवलकिशोर बाबू की बेटी...बिहार की बेटी..जिले की बेटी..गंगापार की बेटी...कस्बे में पधार रही हैं। सारे छुटभैय्ये नेताओं के कपड़े लौंड्री से धुल कर आ गए हैं। पान के पत्ते में लाली कुछ ज्यादा ही आ गई है। चापाकल के पास बहते नाले में शैंपू की झाग कुछ ज्यादा ही बहती दिखी। तरह तरह की बातें हवा में है। सरगोशियों का आलम है। मैडम की पसंद नापसंद पर बहसें और उनके किस्से। बचपन के दिन याद करने की कोशिश हो रही हैं…

स्मृतियों का रेला और टिकोला

दस साल के लबरा-लबरी भागे जा रहे हैं, गाछी की तरफ। लबरी को टिकोला खाना है। लबरा उसके लिए निमक और ब्लेड का आधा टुकड़ा जेबी में खोंसे हुए भागा जा रहा है, लू की परवाह किए बिना। गरमी की छुट्टी में आई है लबरी गांव। मुचकुन बाबू की छोटकी पोती है। असली नाम तो माला कुमारी है लेकिन कनिया चाची ने चिढ़ के मारे उसका नाम लबरी रख दिया है। कनिया चाची दिन भर माथा ठोंकती कि देखो, कैसे सर-सोलकन के छौरा के साथ दिन भर छिछियाती फिरती है..देख..सहर के छौरी, गांव में आकर फिरंट बन जाती है..इसकी मां का तो कंटरोले नहीं है इसके ऊपर, फीरी छोड़ रखा है..।

बुन्नी सहनी का छोटका बेटा उसका संघतियां है, टमटम जैसे ही लालगंज से गांव की सीमा में प्रवेश करता, लबरा यानी चुन्नू सहनी टमटम के पीछे पीछे...दौड़ते तो और भी बच्चे थे लेकिन चुन्नू की टांगे कुछ ज्यादा ही बिजली हो जाती थीं।

…….

ढबढब मास्टर

बाबा भर दोपहरिया कत्ता (चारा काटने वाला औजार) लिए गाछी में माला को खोजते रहे। किसी तरह ये खबर चुन्नू को लगी और उसने माला तक पहुंचा दी। बाबा गाछी गाछी तो लबरी डाल डाल। ढूंढ ही नहीं पाए। हांफते हुए पहुंचे लबरी की मां के पास..

“तुम लड़की को लेकर सहर जाओ..वहीं ठीक रहेगी। यहां सर सोलकन के बच्चो के साथ बरबाद हो जाएगी। संस्कार बिगड़ रहा है।“

कनिया चाची कुपित हुईं- “हम तो पहले से ही कहते हैं, हमारी कोई सुनता नहीं..चुन्नुआ को ठुकाई लगेगी तो ठीक हो जाएगा।“

मां ने सिर पकड़ लिया। अभी छुट्टी पूरी पड़ी है, हाजीपुर क्या करने जाए। माला के बाबूजी बस आने ही वाले हैं। सब ठीक हो जाएगा। माला को यह सारे प्रसंग सुनाई दे रहे हैं क्योंकि वह छड़की पार करके अंगना में घुस चुकी है। बाबा के डर से खटिया के नीचे घुसने में ही भलाई समझी। क्या पता बाबा कत्ता चला दें..बुढ्डे का क्या ठिकाना..। जाते जाते सुनाई पड़ा, बाबा कह रहे थे, “ कल से दिन भर एक मास्टर आएगा, पढाने, लड़की को रोक कर रखना। छुटटी भर मास्टर यही रहेगा। दालान में इंतजाम कर दिया है। खाने पीने का ध्यान रखना।“

ओह..फिर पढाई..इतनी मुश्किल से तो छुट्टी मिली थी, गांव आई थी कि खूब मस्ती करेगी। नदी में तैरेगी। पोखरे से घोंघा चुनेगी और गाछी में टिकोला खाएगी। चुन्नू का ध्यान आया। वह बेचारा कितना खयाल रखता है उसका। रोज उसकी सारी फरमाइश पूरी करता है। अब कैसे मिला करेगी..क्या होगा चुन्नू का..वो कितना इंतजार करता है। माला के पास कोई रास्ता नहीं था। उसने किताबें सहेजीं और दालान पर जाने की तैयारी में जुट गई। नए मास्साब आने वाले हैं। गांव के मास्साब शहर के मास्साब से कितने भिन्न होंगें..उसे अपने गुरु जी लोग याद आने लगे।

चुन्नू अपराधी की तरह खड़ा था और मास्साब उसे फटकार रहे थे- “जा..भाग जा..तेरे टोले में और कोई नहीं है का..क्यों इस बच्ची को बिगाड़ रहा है..चल फूट..”

माला किताबों में डूबी थी। असहाय सी सब देख सुन रही थी। बाबा का भय सबको है। उसे इंतजार था कि बाबूजी आएंगे तो शायद खेलने की आजादी मिले।

बेढब से मास्टर जी कभी अपनी धोती संभालते तो कभी चौकन्ना होकर चारो तरफ देखते कि कहीं चुन्नू का भूत तो नहीं टपक रहा है। ये सिलसिला कुछ दिन चला। चुन्नू, गाछी और टिकोला सपना हो गया। एक दोपहरी मास्टर जी पढा रहे थे कि अचानक जोर जोर से कुछ गिरने की आवाजें आने लगीं। जमीन पर जैसे कुछ टपक रहा हो। मास्टर जी ने चौकन्ने होकर पहले चारो तरफ देखा, कहीं कुछ नहीं। आवाज रह रह कर आ रही थी। माला भी चौंकी। मास्टर जी चौकी से उठे और दालान की सीढियां उतरे..कि चीख मार कर वहीं ढेर हो गए। उनका चेहरा, कपड़ा सब मिट्टी से भरा हुआ था और वे चीख रहे थे..”कौन है रे अभागल..किसने किया रे..भूसा भर दूंगा मिल जा एक बार..” माला दौडती हुई उनके पास गई फिर देखा। चुन्नू मिट्टी के बड़े बड़े ढेले इकठ्टा करके खड़ा था और एक एक कर उन्हें जमीन पर फोड़ रहा था। मास्टर जी जैसे सामने पहुंचे, उनपर एक ढेला फोड़ दिया।

ताली बजाता हुआ बोला..”का मास्टर जी..का हो रहा था..आपको का सुनाई दे रहा था..”

मास्टर जी बिसुरते हुए उठ बैठे..”अरे माए गे..मर गेली..हमको लगा, कहीं कुछ ढबढब कर रहा है..क्या पता था तुम कमीना-कुत्ता..”

“ढबढब...वाह..ढब ढब मास्टर जी..आज से आप ढब ढब मास्टर जी...भाग माला..”

चुन्नू ने अपनी खिसकती पैंट ऊपर चढाई और माला के साथ रफूचक्कर..।

.......

गांव, छठ और लड़कीजात

बाबूजी के सामने बाबा दहाड़ रहे थे- “लड़की जात..नाक कटवा देगी एक दिन, देखना..ले जाओ यहां से। इ सब सहर में ही अच्छा लगता है। ईहां नहीं चलेगा।

गांव समाज में रहना है हमको। बात ही नही सुनती है। मास्टर को भगा दिया। उसका नाम ढब ढब मास्टर रख दिया। पूरे गांव में बात फैल गई। स्कूल में भी मास्साब को लोग ढबढब मास्टर नाम से बुलाते हैं। वो गाली बकता है हमलोगो को। बहकल लड़की को कंटरोले नहीं कर पाए हम लोग..”

बाबा बोल रहे थे और बाबूजी गंभीरता से सुन रहे थे। पता नहीं उनके मन में क्या चल रहा था। मां और कनिया चाची तब नहीं समझ पाए थे। दो दिन रहकर पापा माला और मम्मी को लेकर शहर लौट आए। ना माला को डांट पड़ी ना कुछ पूछा। वे सहज थे। माला को गांव से जाना अखर गया। पता नहीं अब कब आ पाएगी ? बाबा आने भी देंगे या नहीं ? कनिया चाची तो पक्का कान भरेंगी मेरे खिलाफ..। बाबूजी से कहेगी तो अगली बार जरुर गांव भेजेंगे। मां की तो सुनते नहीं बाबूजी..उसकी जरुर सुन लेंगे। सोच कर थोड़ी राहत मिली और चुन्नू से मन ही मन फिर आने का वादा किया। अबकी छठ में आएगी तो कितना मजा आएगा..चुन्नू कनिया चाची के लिए घाट लूटने में मदद कर सकता है। पहले पहुंच कर केला का थम गाड़ देगा फिर कौन छिनेगा जगह। भोरवा अरग के बाद उसी केले के थम पर पोखरे में तैरेगी..वाह..कितना मजा आता है..चुन्नू दो तीन केले के थम को मिला कर बांध देता है, अच्छी नाव बन जाती है। तैरते रहे फिर उसपर अधलेटे..आधी देह नाव पर, पैर पानी में छप छप...। रोमांच हो रहा था। माला का सपना गांव, छठ और चुन्नू के साथ मस्ती के सपने देख रहा था। इस इंतजार में वह उम्र की दहलीज पार कर रही थी।

उम्मीदों का बोझ

दीवाली आई तो दिन गिनने चालू। छठा दिन ही होगा छठ। सब गांव जाएंगे तो नहा-खा के पहले ही जाना होगा ना। यानी तीन दिन पहले। लेकिन घर में कोई सुगबुगाहट नहीं। छठ के सामान खरीदे जाने लगे। सूप, टोकरी, केला का घौद, नारियल का गुच्छा।

“हम गांव नहीं जा रहे हैं का...?”

माला के सवाल पर मां मुस्कुराई- “अबकि बाबूजी को छुट्टी नहीं मिली है। छठ यही करेंगे।“

“यहां...कहां नदी है, पोखरा भी नहीं..”

“का हुआ, नहीं है तो..दुआरे पर गढ्डा खोद के पानी डाल कर खड़ा हो जाएंगे। पानी में खड़ा होना है न। नदी हो या गढ्डा। शहर में सबलोग ऐसे ही करते हैं..हमीं लोग तो खाली गांव जाते रहते हैं। बाबूजी तैयार हुए तो कोनहारा घाट चल चलेंगे।“

मां सहज थीं। शायद खुश भी कि गांव की बंदिशो से यहां मुक्ति मिली है उन्हें। माला की यादों में अपना पोखरा, केला का थम..घाट लूटना और छपछप...

चुन्नू की कविता—

“हम्म हम्म् हम्म...केला के थम,

मार दिया छुरा, निकल गया दम...।“

कविता करने में उस्ताद था। खासकर जातिवादी कविताएं पता नहीं कहां से ढूंढ कर लाता था। कायस्थो और भूमिहार-ब्राहम्णों पर कई आपत्तिजनक कविताएं वह सुनाता था। फिल्मी गानो की पैरोडी में भी अपनी जातिवादी कविताई घुसा देता था। कविता का स्वाद भी छिन गया। चुन्नू लाल कितना खयाल रखता है उसका। अबकी नहीं जाएगी तो चुन्नू को कितना बुरा लगेगा..वो तो इंतजार करेगा..उसको पता कैसे चलेगा कि अबकि हम नहीं आ रहे हैं। ओह...कैसे बताऊं...दिमाग में कोई आयडिया आया ही नहीं..। चिठ्टी लिखे..लेकिन वह पढता भी तो नहीं। पढेगा भी कहां, मास्साब से दुश्मनी जो मोल ले ली है। गांव में एक ही तो स्कूल है। माला को चुन्नू के लिए बहुत अफसोस हुआ। बेचारा..गरीब बच्चा।

पता नहीं कितनी दीवाली...कितने छठ बीते...बाबूजी का तबादला सासाराम हो गया। गांव और हाजीपुर बहुत पीछे छूट गए। माला को बनस्थली, जयपुर के होस्टल में दाखिला मिल गया। जीवन की दिशा बदल गई। पोखरा, गांव की छठ, केले की थम और ढबढब मास्टर...सब जेहन में कहीं दब गए।

अब नए सपने थे, भविष्य की तैयारी थी और ढेर सारी उम्मीदों का बोझ था।

गांव, गांव ना रहा...

इंटरमीडिएट के बाद पहली बार बाबूजी ने कहा था कि गांव चलेंगे इस बार। छुट्टी होते ही। बाबूजी ने ही बताया कि अब गांव गांव नहीं रहा, कस्बा जैसा हो गया है। जमीने वहां की महंगी हो गई हैं, पास में ही थर्मल पावर प्रोजेक्ट की नींव पड़ गई है। सड़के बन गई हैं, दूकानें खुल गई हैं। गाड़ी घोड़ा चलने लगा है। पहले की तरह टमटम से नहीं जाना पड़ेगा। चौक तक बस जाती है। वहां से घर सामने ही तो है। बाबूजी ने कहा कि हम अपनी गाड़ी से चलेंगे। इतना उछाह सालों बाद हुआ। वाह..सब मिलेंगे। क्या पोखरा अब भी वैसे ही होगा ? क्या अब तक ताड़ के पेड़ पर भूतो का डेरा होगा ? पोखरे के पास छोटे छोटे ताड़ के पेड़ों की कतारें थीं। चुन्नू बताया करता था कि अकेली वहां ना जाना, भूत रहते हैं वहां। कई बार बिना तेज हवा के ताड़ के पत्तों को हिलते देखकर माला की घिग्घी बंध जाती थी। चुन्नू तब ऐसे जताता कि ये भूत-वूत क्या होते हैं, मैं सबको देख लूंगा। माला का हाथ कसकर पकड़ता और भूतहा पेड़ो के चक्कर लगा लेता। उसे चुन्नू के साथ हवा में डोलना बहुत अच्छा लगता। ओह...

इन दिनों चुन्नू क्या करता होगा। तरह तरह के खयाल और कल्पनाएं, आखिर बचपन का दोस्त जो है। क्या पहले की तरह कविताएं करता होगा..अब तो बड़ा हो गया होगा। पहचान पाएगा मुझे, या मैं उसे पहचान पाऊंगी या नहीं..। मैं उसे याद भी होऊंगी या नहीं...ये सब सोचते हुए माला को गुदगुदी हो रही थी। पहले की तरह तो उछलकूद नहीं कर पाएगी लेकिन मिलेगी जरुर उससे। कुछ ना कुछ जरुर अलग करता होगा।

बाबूजी की बात से तन्द्रा टूटी..

“ देखो, कैसा रोड बन गया है..खरंजा ही है अभी तक..”

“ हम्म्म...” माला की नजर दूर पोखरे के पास थी, जहां छप-छप की ध्वनि गूंज रही थी।

माला का घर नजर आने लगा था। ठाकुरबाड़ी से दाएं मुड़ते ही सीधा रास्ता घर की तरफ। गांव की आबादी उसके घर से ही खत्म हो जाती है। उसके बाद खेत है, गाछी है और नदी है। माला ने सोचा, अब भी शायद वैसा ही हो। ठाकुरबाड़ी से जैसे ही कार घर की तरफ मुड़ी, रास्ते में बाबूजी ने चौंकते हुए किसी को इशारा किया और कार रोक दी। खिड़की खोल कर देखा तो पहली नजर में हंसी निकल पड़ी। बाबूजी भी असहज ढंग से मुस्कुराए।

पतला शरीर..चटक रंगो का पहनावा, साटन जैसे कपड़े की काली कमीज और सूर्ख काली पैंट..चमकते डायल की बड़ी सी घड़ी हाथ में...राजदूत मोटर साइकिल..चेहरे पर क्रीम और पाउडर-बगल में इत्र, और मुंह में कपूरी तंबाकू, जूते भी चमकदार..। कौन है ये नमूना। माला ने सोचा..।

“ का रे चुन्नुआ...पहचान में नहीं आ रहा है। तू तो लाट साहेब हो गया रे..चमक रहा है। कोई लौटरी वौटरी निकली है का..? बाबू कहां है तेरा..? ”

“ प्रणाम सर...मोटर गाड़ी का वर्कशौप खोल लिए हैं। आपकी दया से खूब चल निकला है। मिल्क डेयरी भी है सर। दो तीन स्टाफ भी काम करता है। बाबू घर पर “ रैस्ट ”( विशेष जोर देकर) कर रहे हैं। भेजते है हम उनको...।“ चेहरे पर चवन्नियां मुस्कान चिपकी थी।

ओह..तो ये है चुन्नू..अरे बाप रे..कितना बदल गया है ये तो। मिट्टी, कीचड़ में लिपटा रहने वाला चून्नुआ..अच्छा हुआ, बाबूजी ने बता दिया कि ये चुन्नू है नहीं तो अकेले कहीं मिलता तो पहचान ही ना पाते..। बाबूजी गांव आते जाते रहते हैं, इसके बाप को जमीन बंटईया पर दे रखी है। मगर ये इतना बदल गया है, इसकी कभी चर्चा तक न की। बड़े ठाठ दिख रहे हैं इसके।

माला ने उसे देखा और हंसी रोकी और उसको हाथ हिलाया। चुन्नू ने हाथ से बाय बाय किया और फरर्र् से राजदूत लेकर रवाना। उसकी लंबी जुल्फें और धूल उड़ती रही। घर आ गया था। माला को लगा कुछ मजेदार होने वाला है। पुरानी छवियां उसी धूल में उड़ गई थीं। माला को याद आया झूमर, चंदा फुआ अक्सर गाया करती थीं..”लावे गेलई हरदी, उरत आवे गरदी, झूलत आवे हो..पातर पिया के जुल्फिया, झूलत आवे हो...”

धत..ये नमूना उसका दोस्त कैसे हो सकता है। चुन्नू इतना कैसे बदल सकता है। उसने हुलिया और चाल चलन दोनो कैसे बदल लिया..। चुन्नू तो इतना सीधा हुआ करता था। बचपन में उसको फटी गंजी और झूलती हुई हाफ पैंट के सिवा कुछ भी पहनते नहीं देखा था। एकदम सेवक भाव से माला के पीछे लगा रहता था। आज तो टाटा टाटा करके निकल गया। वाह..हीरोपनी दिखा रहा है...हूंह...आना, मिलना जरा..ऐसी झाड़ लगाऊंगी कि सब हीरोपनी झर जाएगा..लगता है पैसा वैसा खूब कमाने लगा है..पैसा कमाने से शऊर थोड़े ना आता है। जोकर बन गया है...माला को फिर हंसी आई। मां मंद मंद मुस्कुराती रही।

लबरधोधो और खून से भींगे खत...

घर की छत पर खड़ी खड़ी माला ने पीछे के खेत देखे..गाछी देखा..पेड़ कुछ कम हुए हैं। खेत भी सूखे लगे। कितना बदल गया है नक्शा। सोच में लबरा समाया हुआ था। कब मिलेगा, उसकी विचित्र हालत देखकर हंसी मुंह को आ रही थी। सिनेमा का असर है या पता नहीं कस्बा बन जाने के बाद की हवा लगी है उसे। उससे बात करना बहुत दिलचस्प होगा। वह ताक में थी। दो ही दिन हुए थे घर आए। सोच ही रही थी कि लबरे को खबर करवाए..

“ का बबुनी, का देख रही हो...?

कनिया चाची पीछे से छत पर गई थीं। चाची अपना आंगन पहले से कुछ छोटा नहीं लग रहा है।

“ नहीं..काहे...? ओ..पहले चूल्हा चौका दूसरे आंगन में था ना..अब सबके इसी अंगने में आ गया है..। ”

“ओह...तभी..नहीं तो पहले आंगन में बड़ा सा मड़वा गड़ने पर भी कितना खुला खुला लगता था।”

“ चिंता मत करो, तुम्हरा मड़वा गड़ने लायक काफी जगह है...” कनिया चाची मुस्कुरा रही थीं।

वैसे तुम लोगन सहर में सादी करोगे तो फिर ईहां काहे का मड़वा...उनकी आवाज में उदासी की हल्की सी झलक थी।

“ चाची...आपको याद है ना वो लबरा, जो मेरे साथ खेलता था...आप बहुत गुस्सा करती थीं...आप जानती हैं क्या करता है वो..”

“ वो...चुन्नुआ-लबरा..एक नंबर का पागल है..अभी तुम हो ना..अपने आप जान जाओगी..हम कुछ नहीं बताएंगे..गांव का एक एक आदमी जान गया है उसकी करतूत..”

कनिया चाची का तेवर अचानक बदल गया।

“ क्या करता है...मिला तो था रास्ते में..जोकर लग रहा था..”

“ जोकर नहीं...और भी बहुत कुछ है वो..अपने आप जानो..हमसे ना सुनो, बस किसी दिन पिटने वाला है या थाने में नजर आएगा। ”

रहस्य का एक सिरा छोड़ कर कनिया चाची सीढियां उतरने लगी।

माला की दिलचस्पी बढती चली गई। क्या मामला है..कोई तो बात है। चलो, उसके वर्कशाप का एक राउंड लगा लेती हूं। किसके साथ जाए। सोचते सोचते दो दिन तो बीत ही गए। लबरा पलट कर आया नहीं। उसे तो मालूम है कि मैं गांव आई हुईं हूं..फिर मिलने आया क्यों नहीं। हुंह..ना आए..बड़ा आया..बड़ा आदमी हो गया है। क्या ठाठ बना लिए हैं..घमंडी है कमीना..जा..हम कौन से गंवारो से दोस्ती को मरे जा रहे हैं। माला ने जेहन से झटका और सामान्य हो गई। उसके बारे में पूछना, बात करना भी बंद कर दिया। हमें कौन सा यहां रहना हैं..मेहमान की तरह आए हैं फिर पता नहीं कब आना हो। वो हमारे टाइप भी तो नही हैं कि उससे बात की जा सके।

माला ने जाने से पहले सोचा कि अगर चुन्नुआ मिला तो टा टा भी नहीं करेगी। सूखे पोखरे के पास घूमते हुए पुराने दिनों के निशान तलाशती रही माला। वहां समय के निशान थे। समय के निशान बड़े बड़े इनसानी निशानो को मिटा देते हैं। शाम की धुंधली छाया चेहरे पर पड़ी तो माला को लगा घर लौटना चाहिए। घर के सामने रास्ते पर हल्की धूल उड़ती दिखी। शायद शाम के धुंधलके का रंग ऐसा ही होता होगा..कुछ घर्रघऱर् की आवाजें थीं..जो धीरे धीरे तेज होती गईं। राजदूत मोटर साइकिल पर सवार लबरा सामने था। उसने हाथ बढाया, लिफाफा लबरी के हाथ में दिया, मुस्कुराया, आंखों में पहले से भरा हुआ ढेर सारा अनुराग उड़ेलता हुआ बिना कुछ कहे वैसे ही चला गया। जाते हुए धूल कम उड़ रही थी, मोटर साइकिल की रफ्तार कम जो थी। माला को संभलने का मौका नहीं मिला। सब कुछ अप्रत्याशित था।

“ लिखता हूं खत खून से..पानी ना समझना, मरता हूं तेरी याद में जिंदा मत समझना...”

पत्र में स्याही की रंगत बता रही थी ये सामान्य लाल स्याही नहीं है। माला कंपकपा गई।

“ओ माई गौड..।“ लंबा पत्र..एक पेज का। मोटे मोटे अक्षरो में लिखा हुआ।

“ सागर से सुराही टकराती, बादल को पसीना आ जाता...तुम जुल्फें अगर बिखरा देती, सावन का महीना आ जाता...”

“माला...ओ माला बबूनी...मां बुला रही हैं...जल्दी चलो..” रामपूजन की बेटी माला की उंगली पकड़ कर घसीट ले चली। पन्ने फड़फड़ाते रहे। दिमाग फक्क से उड़ गया था। कैसे रिएक्ट करे..क्या करे..पन्ने को मुठ्ठी में दबा लिया। घर पहुंचने से पहले कुरती के अंदर ब्रा में छुपा लेगी। कोई देखे ना..कल तो जाना ही है। बाथरुम में जाकर पढ लेगी। या रात को सोते समय..उसे रुकना तो चाहिए था..कुछ बात तो करता। ये कोई तरीका है, पत्र पकड़ाने का। वह सिहर उठी। कोई देख लेता तो। खुलेआम सड़क पर चिठ्ठी थमाने की हिम्मत तो देखो। वह भी खून से लिखे खत..ये खून ही तो है..लाल..फटे फटे से अक्षर। मोटे, मोटे..कंडे के कलम से लिखे गए हों जैसे। बचपन में ढबढब मास्टर स्याही में कंडे के कलम डुबो डुबो कर लिखना लिखवाते थे, रोज एक पेज। माला ने किताबों में पत्रो का आदान प्रदान को क्लास रुम में कई बार किया। यूं किसी ने हाथ में नहीं थमाया, जैसे झंडा पकड़ाया हो या कोई फिरकी जिसे लेकर हवा में दौड़ लगाया जाए। और वह सचमुच दौड़ने लगी। रामपूजन की जवान बेटी तेतरी ने पीछे पीछे दौड़ लगाई।

“तेरा नाम तेतरी क्यों पड़ा..किसने रखा...?” माला रुक गई।

“बाबू ने..”

“ अच्छा..क्यों...क्या मतलब होता है तेतरी का ? ” माला के दिमाग में कोई और योजना पल रही थी।

“तेतर बेटा भीख मंगावे, तेतर बेटी राज करावे...मैं तीन भाई के बाद पैदा हुई हूं ना सो बाबू ने मेरा नाम तेतरी ही रख दिया। वइसे आपकी कनिया चाची तो हमें लबरधोधो कहती हैं।” तेतरी खिलखिला रही थी।

क्या राज कर रहा रामपूजन..जिंदगी कट रही है खेतीबाड़ी करते। क्या करना है है हमें . सब सोच कर।

“क्यों...लबरी तो वे मुझे कहती रही हैं..” माला को कनिया चाची के अस्फुट स्वर सुनाई दे रहे थे।

“बबुनी..लबरी से भी ज्यादा जो बक बक करता हो...वो लबरधोधो..जैसे बेहया को थेथर कहते हैं और ज्यादा बेहया को थुथुर...वो चुन्नुआ है ना..एक नंबर का थुथुर है..”

तेतरी का ज्ञान अदभुत था। ग्रामीण नामों के कितने सुंदर सुंदर अर्थ बता रही है।

सच का सामना और फरेब...

ये सब लोग चुन्नुआ को गाली क्यों देते हैं। वह जानना चाहती थी, समझना चाहती थी। सीधे चुन्नू से ही पूछना चाहती थी। तेतरी भी उसके बारे में कुछ बताने के मूड में नहीं थी। जिसे देखो, गालियां दे रहे हैं। चुन्नू के देखकर लगा नहीं कि उसे किसी की गाली वाली की परवाह है। क्या मजे से हीरो बनकर घूमता है। उससे पूछने का कोई रास्ता नहीं निकला। अगले दिन शहर कूच करने की तैयारी थी। उसने तेतरी को बुलाया, एक लिफाफा बंद पत्र पकड़ाया कि जाकर चुन्नू को दे आए। सोचा कि शहर जाकर डाक से पत्र भेजेगी। पत्र में पूछेगी कि क्यों लोग तुम गाली देते हैं। तेतरी ने जब पत्र हाथ में लिया तो उसका चेहरा थोड़ा तना हुआ था। बिना कुछ बोले पत्र लेकर चली गई। माला को अजीब सा लगा। ये क्या हुआ इस खिलखिलाती हुई लड़की को।

तेतरी मोड़ तक माला को दिखती रही, डगमग डगमग जाती हुई। फिर ओझल।

माला शहर चली गई। उसने कई पत्र लिखे चुन्नू को, कोई जवाब नहीं आया। साल दर साल बीतते चले गए और शहर दर शहर बदलते हुए सत्ता के गलियारे में माला की धमक गूंज उठी। अब वह श्रीमती माला कुमार, अध्यक्ष, महिला मोर्चा, राष्ट्रीय पार्टी। पार्टी अध्यक्ष की खास चहेती। माला कुमार को राज्य ईकाई में फेरबदल करने बिहार जाना है। ब्लाक, जिला स्तर पर पार्टी को मजबूत करने के लिए नए पदाधिकारियों का चयन और नई सदस्यता का काम लेकर माला कुमार पधार रही हैं।

अगर यहां न आती तो उसे सच का पता कभी नहीं चलता। सच जो सीधा उससे जुड़ा था। माला सासाराम में बहुत परेशान रही, गांव से लौटने के बाद। उसे चुन्नू का खून से लिखा खत चैन से जीने नहीं दे रहा था। बार बार सोचती कि खून से लिखे खत का जवाब स्याही से कैसे दे। कई बार ब्लेड लेकर ऊंगली काटने की कोशिश की, पर सफल नहीं हो पाई। ब्लेड ऊंगली में लगाते ही चुभता और वह चीख पड़ती। फिर सोचती लाल स्याही से लिख दे। फिर लगता कि वह पकड़ लेगा तो क्या होगा। वह बेचारा अपने खून से खत लिखता है और मैं...। बहुत सोच विचार कर माला ने स्याही से ही लिखना ठीक समझा। फिर तो धराधर कई खत लिखे। मजा आने लगा था, ऐसे खत लिखने में। ढूंढ कर शायरी लाती। रेडियो पर सुनती, गाने के बोल को तोड़ कर शायरीनुमा बना लेती। शाम है, गम है, तन्हाई है..टाइप या कोई सूरत दिल को बहलाता नहीं..पांच दस खतों के बाद तो शायरी खुद ब खुद आने लगी थी। डायरी के पन्ने भर गए। हर मूड की शायरी। खत शायरी के फारमेट में लिखे जा रहे थे। जवाब नदारद थे। और एक दिन एक मोटा पुलिंदा आया जिसने माला कुमारी की शायरी की सारी फसल सूखा दी। डायरी के पन्ने सिरहाने में कैद हो गए।

भेजने वाले ने अपना नाम नहीं लिखा था। लिफाफे के अंदर लगभग 10 पत्र थे। चुन्नू की हैंडराइटिंग थी, खून से भींगे खत, उन खतो में माला का नाम नहीं, 10 अलग अलग लड़कियों के नाम के संबोधन थे। तेतरी के नाम, सत्या के नाम, गिन्नी, रुबी, मंजू...और भी..पढा नहीं गया। आंखें धुंधलाने लगी थीं।

इन खतो के साथ एक कलम से लिखी गई एक पेज की चिठ्ठी माला के नाम थी। पढते ही माला को लगा मूर्च्छा आ जाएगी। आंखें साफ की और जो पढा वह निहायत ही अकल्पनीय और असहनीय था। चुन्नू का पूरा कच्चा चिठ्ठा था सामने।

“ लड़कियों को लेकर पागलपन की हद तक का आकर्षण--कुछ भी कर गुजरने को तैयार..हर लड़की पसंद..हर लड़की को पाने की चाहत..कभी कभी लगता कि इसे तो बस मादा ही चाहिए..फिर वो लड़की हो या भैंस..बकरी..। डेयरी में भैंसे थीं। रोज सुबह दूध निकालने के बाद एक सीरींज भर कर भैंसो का खून निकाल कर उसे कटोरी में डाल छत पर बैठ कर प्रेम पत्र लिखता है...

“ लिखता हूं खत खून से... जैसे शेरो के साथ, एक बार में कम से कम 8-10 लव लेटर, सभी का मजमून एक सा..।“

चिठ्टी तैयार तो छैला बाबू भी..नहा धोकर, खूशबू से तर होकर, मोटर साइकिल पर सवार निकल पड़े हवाखोरी..अपनी कथित प्रेमिकाओं को प्रेमपत्र बांटने..जो चिठ्ठी पाती वह आसूंओं से रोती और भावुक हो जाती..खून से लिखे खत को देखकर और छैला बाबू मगन...। बात फैलती चली गई। एक दिन छापामारी में सीरींज और खून से भरी कटोरी बरामद हुई और जमकर पिटाई, समाचार समाप्त होता है...।

और अंत में....

सरपंच जी बताते जा रहे हैं..” आप जानती हैं इसको..कैसे..? अरे इसका खिस्सा तो पूरे इलाके में फेमस है। सब जानते है। अब तो मुंह छिपाए फिरता है। नामर्द होके भी जिला-ज्वार की लड़कियों को तंग करके रख दिया था। शादी ही ना करना चाहता था। किसी तरह इसके घरवालों ने इसको पकड़-धकड़ के शादी करवाई। अगले दिन पत्नी भाग गई। तबसे ऐसे ही छिछियाता फिरता है..एक बार कह रहा था कि वो आपको बचपन से जानता है..साथ खेल...” सरपंच जी की आवाज दूर से आती लगी।

माला पलट कर वापस चुन्नू के पास जा पहुंची थी। आज मामला साफ ही कर लेते हैं।

क्या लिखा था, उस खत में, जो तेतरी ने तुम्हें दिया था।

उसने पाजामा की जेब में हाथ डाला और मुड़ा तुड़ा कागज उसे पकड़ा कर सरपट वहां से निकल गया।

माला ने पढे धुंधले से वाक्य...” लिखते हो क्यों खत खून से, क्या स्याही नहीं मिलती, मरते हो क्यों मेरी याद में क्या दूसरी नहीं मिलती...”

“जा जा रे मेरी चिठ्ठी लुढकते लुढकते...उस जोकर को कहना मेरी नमस्ते नमस्ते...”

माला से इससे आगे पढा नहीं गया, ये लिखावट भी उसकी नहीं थी। फिर किसकी..किसने ये खेल खेला उसके साथ ? तेतरी की वह छवि कौंध गई जब वह पत्र लेकर चली थी डगमग डगमग.

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