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डुबकी

डुबकी

गीताश्री

वह लौट रही है अपने घर, मन में तरह तरह की शंकाएं, आशंकाएं लिए। क्या होगा जब वह घर लौटेगी। हरीश कितना खुश होगा। गुड्डी, चिंटू तो खुशी के मारे पागल न हो जाएं। कितना आहलादकारी क्षण होगा जब वह अपने जीवन के तीन सितारों से मिलेगी। उसके लौटते ही जीवन की सारी खुशियां लौट आएंगी। कई बार लौटना कितना कठिन होता है। यह रोज की तरह लौटना नहीं था। डुबकी के बाद लौटते हुए गीली देह भारी होती ही है। फिर भी लौटना तो है न। उम्मीद और संशय से भरी भरी जब लौटेगी तब ? गुड्डी दौड़ेगी उसकी तरफ...चिंटू उसके पेट में मुंह रगड़ेगा और हरीश...? कस लेगा सबके सामने। खुली आंखों से सपनों की रील चल रही है...। चारों गुथ्मगुत्था हैं..खुशी की चीखें घर में फैल रही है। गुड्डी नाच रही है...। बड़ी हो गई होगी अब तो..शायद जवान भी। पांच साल कम नही होते लड़की के लिए। चिंटू की आवाज भी अब बदल गई होगी। भर्रा गई होगी आवाज, जवान लड़के की तरह हो रही होगी । हरीश जरुर और पतला हो गया होगा गम के मारे और दारु पीने लगा होगा प्रेस क्लब में। उसकी आंखों में वह इंतजार देख रही है। उसकी खूबसूरती की कद्रदान आंखे । घर की दीवारें बदरंग हो गई होंगी या हरीश ने पेंट कराया होगा ? परदे भी फट गए होंगे। सब उसी में हाथ पोंछ पोंछ कर गंदा जो करते होंगे। सबसे मिलेगी, दीवारों से भी, एक एक चीज से जिसे कभी अपने हाथों जोड़ा था और जिनसे बिछड़ने का सपना तक नहीं देखा था। क्या चीजें भी उसे पहचान लेंगी या वे अजनबी हो गई होंगी ?

उसने अपनी हथेलियों से अपना चेहरा टटोला। वह भी बदल गई है...और पतली और मरियल। अपना चेहरा ही देखने का मन नहीं होता। झाईयां भर गई हैं सफेद त्वचा पर। पांच साल का वनवास था या कैद। अय्याशी भरे दिन थे या कोमा में जीवित रहने के दिन। कैसे कटे...लौटने की बेला में खुद उसे हैरानी हो रही है। लौटने का फैसला करना भी आसान कहां था। बार बार तीनों की करुण आंखें उसे बेचैन करतीं और वह नींद से चिंहुक कर उठ बैठती। पसीने पसीने बिस्तर पर करवटें बदलतीं और अपने साथी को देख उसे मारने के सपने देखा करती।

उसकी मति मारी गई थी कि डुबकी के बाद बाहर निकली तो कोई खड़ा था उसके इंतजार में। वह उसके पीछे पीछे चल पड़ी। कोई जादू था या भय का घेरा जो उसे कसे हुए उसके पीछे पीछे लिए जा रहा था। कोई डोर थी, जो खींचे लिए जा रही थी। गीले कपड़ों में वह घाट से घिसटती हुई बड़ी कार में धम्म से जाकर गिरी। किसी की सुडौल बाहों ने उसे सीट पर बैठ कर थाम लिया था। कोई उसे बहुत दूर लिए चला जा रहा था। सबसे दूर...अनजाने सफर पर, अनजाने लोगों के बीच। इस पल के लिए कोई उसे सालों से पटा रहा था। दबा रहा था, डरा रहा था और वह दब रही थी, वह पट रही थी। वह प्यार का रुप धरे भय था जो उससे जिंदगी की कीमत मांग रहा था। और एक दिन उसकी जिंदगी अंतहीन सुरंग में प्रवेश कर गई थी। जहां वह नितांत अकेली थी। भोग विलास के तमाम साधनों के बीच वह भी एक सामान बन गई थी जिसकी कोई अपनी जिंदगी नहीं, इच्छा नहीं। पसंद नापसंद नहीं। वह बुत थी जो इशारे पर धड़कती थी। उसकी इच्छाओं के बंद ढक्कन कोई हर शाम खोलता और बंद करता था।

अनजान बस्ती में कौन जानता था उसके दिल का हाल। जिन्हें पीछे छोड़ आई थी, उनका हाल भी कहां जान पाई इतने सालों में। कैसे कटे होंगे पांच साल उनके जीवन में। कितनी बेकरारी होगी, कितना इंतजार। अब खत्म अंधेरा।

मैं लौट रही हूं, डुबकी से ऊबर आई हूं... तरह तरह के खयाल रीना के मन को मथ रहे हैं। हरीश पूछेगा सब कुछ तो सब बता देगी। उसने कर्ज चुका दिया है। अपने जीवन के कीमती पांच साल एक कर्ज उतारने में चले गए। हरीश शायद समझेगा उसकी मजबूरी। बच्चे...बच्चों को क्या..मना लेगी। उससे दूर कहां जाएंगे। उन्हें भी तो इंतजार होगा अपनी मां के लौटने का. बच्चे जानते थे कि उनकी मां जिंदा है कहीं न कहीं। गंगा में छानने के बाद भी उसकी लाश जो नहीं मिली थी। बच्चों को भरोसा होगा कि उनकी मां ज्यादा दिन उनसे दूर नहीं रह सकती। लौटेगी एक न एक दिन। लौटने की खुशी से ज्यादा उसका मन डरा हुआ है। कोई यकीन न करे तो...कैसे यकीन दिला पाएगी कि उसने जो किया मजबूरी में किया, एक डुबकी में उसकी जिंदगी का रुप बदल गया था।

.....

सितंबर की शाम ऐसे भी मुलायम होती है। यह स्याह चेहरे वाली गीली शाम थी। उसे महसूस हुआ कि शाम की स्याही धीरे धीरे फैल रही है, न सिर्फ बरामदे और कमरे के अंदर बदरंग सोफे पर बल्कि उसके शरीर और आत्मा पर भी...। वहां तो वर्षों से अंधेरे की कई परतों वाली काई जमी है, ये स्याही भला क्या जमेगी वहां..! उसने सूखे होठों पर जीभ फिराई, कंठ को प्यास-सी लगी थी। लेकिन मन ना हुआ कि उठ कर पानी पी आए ।

आज की शाम कुछ होना था..वह आ रही है..वह लौट रही है, वह आना चाहती है..!

थोड़ी देर में सब को यहां इकठ्ठे होना था। फैसला दिए जाने से पहले उसने सबके चेहरे देखे। गुड्डी के चेहरे पर सन्नाटा, चिंटू के चेहरे पर सख्ती और उसके अपने चेहरे पर....? बेसिन के पास लगे आईने में चलता हुआ एक चेहरा दिखा। वहां तो स्थाई रुप से धूप गायब है। चेहरा नहीं, धूपविहीन जंगल की वह दलदली ज़मीन थी जहां गीले-गीले भाव भी धंसने के डर से नहीं उभरते थे। गाल धंसा हुआ और त्वचा सूखी ज़मीन जैसी। दोनों हथेलियों से उसने गालों के गडढ़े को ढंक लिया...नहीं नहीं..उसे ये गढ्ढे नहीं दिखने चाहिए। वह उसे दुखी क्यों दिखे। क्यों लगे कि सितमगर ने इतने सालो में उस पर क्या जुल्म ढाएं हैं। उसके चेहरे पर विजयी मुस्कान नहीं देखना चाहता। उसे महसूस होना चाहिए कि उसके बिना यहां सब ठीक था। मन ही मन दोहराया...कुछ नहीं बोलूंगा..अपनी इच्छा जाहिर नहीं करुंगा, न शोक प्रकट करुंगा न शिकायतें..फिर...क्या करुंगा, जब वह सामने आएगी..। गुड्डी और चिंटू की मनोदशा से बेखबर हरीश त्यागी मन के भीतर जूझ रहा था। इतना आसान नहीं था। पांच साल बाद उसका सामना करना। उससे, जिससे कभी टूट कर प्यार किया था, जो उसके लिए दुनिया की सबसे सुंदर स्त्री थी। सचमुच वह सुंदर थी। हरीश खुद बहुत सामान्य था। हरीश ने अपने आसपास और रिश्तेदारी में इतनी सुंदर स्त्री नहीं देखी थी। वह अपने भाग्य पर बहुत इतराता था।

सुंदर बीवी, सुंदर बच्चे और अपना घर, जहां शाम होते ही भाग कर पनाह लेने की जल्दी होती उसे। अपनी छोटी-सी दुनिया में खोया हरीश उस मनहूस दिन को याद करता है, जब उसने बेमन से अपनी पत्नी को उसकी सहेलियों के साथ हरिद्वार गंगा नहाने जाने की इजाजत दे दी थी। उसने बिना कलह किए, यात्रा का सारा इंतजाम भी कर दिया। सीधी टैक्सी करा दी हरिद्वार तक की। वहां हरकी पौड़ी पर धर्मशाला तक बुक करवा दिया। हरीश पूरी तसल्ली कर लेना चाहता था। और...एक दिन बीता, दूसरा दिन आया। सारी औरतें रोज गंगा नहा रही थीं। दूसरे दिन भी गंगा तट पर सारी औरतें भीड़ का हिस्सा बनी हुई थीं। धर्मशाला से घाट के लिए चलने से पहले रीना ने चहकते हुए फोन किया और सबसे बात की। बहुत उत्फुल्ल दिखाई दे रही थी। हरीश को लगा, अच्छा हुआ, रीना ने अकेले जाने का अपना शौक पूरा कर लिया। अब कभी शिकायत नहीं करेगी, खुश रहेगी और उसके प्रति कृतज्ञ भी महसूस करेगी। हरीश शाम का पेज डिजाइन करने बैठा था। कंप्यूटर की स्क्रीन पर खबरों को सेट करने के हिसाब लगा ही रहा था कि दफ्तर के फोन की घंटी घनघना उठी। उसने सोचा कोई और उठा लेगा, पर आसपास के सारे लोग डूबे थे, अपनी खबरों में। उसने माउस छोड़ा और फोन उठा लिया।

दफ्तर में पसरा शाम का सन्नाटा जैसे झन्नाक से टूट गया।

उधर से जो कहा गया होगा, उसे सुनने के बाद वह सुन्न हो चुका था। पास में बैठे डेस्क इंचार्ज ने उसकी हालत देखी और हठात पूछ बैठा। हरीश कुछ बोल सकने की हालत में नहीं था। डेस्क इंचार्ज संजय ने फोन उठा लिया और उधर से जो खबर मिली, सुन कर वह भी सकते में आ गया।

संजय ने हरीश को संभाला और साथ लेकर दफ्तर से निकल गया। हरीश चुप था, कदम लड़खड़ा रहे थे। वह जल्दी से अपने घर, अपने बच्चों के बीच पहुंच जाना चाहता था। दफ्तर में बात फैल गई थी। सबको यही लग रहा था कि अब हरीश का क्या होगा, कैसे जीएगा, बच्चो का क्या होगा? अभी तो वे बहुत छोटे हैं । कैसे अकेले देखेगा, उन्हें। बच्चे अभी उम्र के नाजुक मोड़ पर हैं, उन्हें पिता से ज्यादा मां की जरुरत होती है। हरीश के लिए जैसे दुख का पहाड़ टूट पड़ा।

रीना के साथ गए रिश्तेदारों ने हरिद्वार से ही खबर दी कि रीना गंगा में डूब गई और उसका कहीं पता नहीं चल रहा है। मोहल्ले की दो औरतें, वापस बिना रीना के लौट रही थीं। अपने साथ दुखों और तकलीफ की गठरी लिए। एक परिवार के उजड़ने का समाचार लिए। हरीश को कुछ होश नहीं था, वह बच्चों को सीने से लगाए सिसक रहा था। उसे यकीन नहीं आ रहा था। उसके बच्चे भी मानने को तैयार नहीं थे कि उनकी मां गंगा में डूब कर मर सकती है।

पापा...मम्मी… हरिद्वार चलिए...वे डूब नहीं सकती...पापा..चलो, हम उन्हें खोजे...वे पानी में ही होंगी, कहीं किनारे पर तैर कर चली गई होंगी..

बेटी बिलख रही थी।

बेटा, सुधा आंटी ने बताया, मम्मी के कपड़े सीढियों पर रखे थे, वे नहाने उतरी, बहुत भीड़ थी, वे भगदड़ में ज्यादा गहरे पानी में चली गई और...

बेटी को दिलासा देते हुए हरीश को यकीन नहीं हो रहा था, रीना कभी गहरे पानी में जाने का रिस्क नहीं ले सकती। वह तो ऐसे भी गहरे पानी से डरती है। हरकी पैड़ी घाट पर लोहे की मोटी मोटी जंजीरे लगी हुई हैं। सारे लोग उसे पकड़ कर नहाते हैं। बीच धारा में वही जाता है, जिसे तैरना आता हो। वैसे बड़े बड़े तैराक भी किनारे पर ही डूबकी लगाते हैं। रीना आखिर बीच धारे गई क्यों। वे औरतें दिल्ली पहुंच जाएं तो सारे सवाल उनसे करूं। उसे इंतजार था, उनके लौटने का।

नहीं पापा...हम उन्हें ढूंढने जाएंगे...वो मिल जाएंगी...भीड़ में होंगी कहीं न कहीं...वे सबको ढूंढ रही होंगी..पापा..हो सकता है, कहीं बहते बहते दूर निकल गई हों..पापा..हम उन्हें आखिर तक...

बेटा फफक फफक कर रो रहा था। पूरा घर मौत की गंध और पड़ोसियों से भरा पड़ा था। सब चुप थे, किसी को कुछ सूझ नहीं रहा था। सबके चेहरे से ऐसा लग रहा था कि उन्हें इस खबर पर यकीन नहीं आ रहा हो। पर घटना मुहल्ले के दो औरतों के सामने घटी थी, यकीन तो करना पड़ेगा।

संजय के साथ खड़ा हितेश सारा विलाप सुन रहा था। आखिरी लाइन सुनते ही उसकी आंखें चमक उठीं। संजय के कान में कुछ फुसफुसाया। संजय को हितेश की पहुंच का अंदाजा था। उत्तर प्रदेश के नेताओं तक सीधी पहुंच थी उसकी।

संजय ने हरीश के कान में कुछ कहा और फिर कुछ पल के लिए वहां माहौल बदल गया। हरीश ने आंसू पोंछे, हितेश ने फोन करके किसी नेता की गाड़ी मंगवा ली। तीनों लद के हरिद्वार रवाना हो गए। हरिद्वार जाते समय संजय और हितेश अपने साथ किसी जिंदादिल इनसान को नहीं, बुझी हुई कामनाओं को ले जा रहे थे, जिसमें फिर से जिंदा होने की उम्मीदें भुकभुका रही थी।

.......

हरकी पैड़ी में उस दिन बहुत भीड़ थी। तीनों औरतों ने यहीं तय किया था, गंगा स्नान का। सुधा ने जरुर एक बार कहा-

रीना, तेरे पति अखबार में हैं, उनसे पैरवी कराके वीआईपी घाट का इंतजाम क्यों नहीं करा लेती। भीड़ भी कम होगी, आराम से छपछप करके देर तक नहाएंगे। पानी तो एक ही है न...

सुधा का साथ शांति ने भी दिया था। पर रीना का मन यहीं नहाने का था। घाट की सीढियों पर सबने पहनने वाले कपड़े रखे और ठंढे पानी में उतर गईं। पहाड़ों पर हुई बरसात ने गंगा जल को गंदला कर दिया था पर हरकी पैड़ी के किनारे पानी साफ था लेकिन बहाव खूब तेज। लोग बीच धारे में जाने से बच रहे थे। प्रशासन ने एक सीमा के बाद जंजीर से रोक लगा दी थी। उसके पार जाने की इजाजत किसी को नहीं थी। रीना पानी में उतरी और बच्चों की तरह पानी में देर तक उछलती कूदती रही। उसके मन से तीर्थ स्थल का अहसास जाता रहा। वे तीनो स्त्रियां नहीं, तीन बच्चे थे जो पानी के साथ चुहल कर रहे थे। वहां कोई शांत रह भी कैसे सकता था...। गंगा का ठंडा और निर्मल पानी जैसे बांध लेता है वहां और देर तक कोई बाहर निकलता नहीं। सुधा और शांति नहाते नहाते एक दूसरे पर पानी फेंकते हुए कभी कभी छिटक कर दूर भी चली जाती थीं और रीना कभी सीढियों पर बैठती तो कभी डूबकी लगाती...तीनो कभी कभी एक दूसरे से बेखबर भी हो जाती। आज दूसरा दिन था, ये दूसरा स्नान था। इसके बाद दिल्ली के लिए निकलना था। रीना जी भर के गंगा के ठंडेपन को अपने भीतर भर लेना चाहती थी...भर रही थी। सुधा चिल्लाई-गंगा में डुबकी का महत्व है, कमसे कम पांच या तीन..जो ज्यादा लगाएगा, उतना पुण्य..

अच्छा..!!”

ये लो...शांति चीखी...उसके साथ ही उसकी डुबकियां शुरु...

मैं दस डुबकी से कम नहीं लगाऊंगी..पानी ठंडा है, पर कर लूंगी...देखते रहो...रीना हल्का हल्का सिहर रही थी। सुधा और शांति अपनी डुबकियां गिन रही थी, रीना चुप थी। अपने आसपास कुछ अजनबी लोगो से घिरी थी जो नहाते नहाते अचानक उससे टकरा जाते थे। सुधा और शांति ने अपनी गिनती की डुबकियां पूरी करने के बाद चारो तरफ देखा, रीना से पूछना चाहती थीं कि उसने कितनी डुबकी लगाई। गंगा में पानी बहे जा रहा था...कल कल कल.., लोग उछल रहे थे, बदन घिस घिस कर ऊब-डूब हो रहे थे, किलोल कर रहे थे, रीना ने डुबकी लगाई और बाहर नहीं निकली।

दोनों ने चारों तरफ देखा। पानी के अंदर देखने की कोशिश की, अंदर सतह दिख रही थीं, जंजीर दिख रही थी, लोग दिख रहे थे अठखेलियां करते हुए, गंगा के भजन गूंज रहे थे, पंडा टीका लगाते घूम रहे थे, सबकुछ था, रीना नहीं थी वहां। गंगा में पानी बहे चला जा रहा था...।

रीना रीना...की पुकार से पूरा हरकी पैड़ी गूंज रहा था। भजन बंद हो कर लाउडस्पीकर पर उदघोषणा शुरु हो चुकी थी। सुधा बदहवास सी रीना के कपड़े लेकर छटपटाती हुई इधर उधर घूम रही थी। रीना का कहीं पता नहीं था। कुछ तैराक लोग पानी के अंदर जाकर तलाशने का असफल प्रयास कर रहे थे। शांति लगातार विलाप कर रही थी...हाय हाय...हरीश को क्या मुंह दिखाएंगे..किस मुहुरत में घर से निकले..क्या हो गया...कहां गई...डूब गई रीना...जब तैरना नहीं आता था तो क्या जरुरत थी, गहरे में जाने की..डुबकी लगाने की क्या होड़ थी...पता नहीं अब तक उसका क्या हाल हुआ होगा...हे गंगा मईयां...अपनी भक्ति का क्या फल दिया आपने..?”

शांति की हालत वन में व्याकुल भटकते सीताविहीन राम सी हो गई थी...हे खग, हे विहग..तुम देखि सीता मृगनयनी....। शांति को अपने घर वाले का डर बुरी तरह सता रहा था। वह लौट कर जाएगी तब उसके साथ सब कैसा व्यवहार करेंगे...सोच सोच जी हलकान हुआ जा रहा है।

सुधा विलाप नहीं कर रही थी, वह कभी पुलिस वालों को कहती तो कभी किनारे खड़े सुरक्षा गार्डो को...जो दूर दूर तक खोज कर वापस आ गए थे। सबने हाथ खड़े कर लिए थे। सुधा ने अपनी कोशिशे नाकाम होते देख कर हरीश के औफिस फोन लगा दिया। इस बात को ज्यादा देर छुपाना संभव नहीं था। जितनी जल्दी बता दें तो ठीक। वह समझ गई थी कि बड़ी मुसीबत में सब फंस गए हैं, अब बचना मुश्किल।

वह डरी हुई थी कि पहली बार घर से अकेले जाने की इजाजत अब हमेशा के लिए कंलकित हो गई। वे जीवन भर अकेली यात्रा का नाम नहीं ले सकतीं।

ओह...रीना...तूने ये क्या किया ?”

सुधा की आंखों से आंसू ढलक आए। लगा कलेजा वहीं कट कर गिर गया। रीना क्या गई, अपने साथ उनकी जिंदगियों का भी बहुत कुछ ले गई।

……….

गंगा की ऐसी छनाई पहले शायद ही कभी हुई हो। हरीश हरकी पैड़ी की सीढियों पर बैठा प्रलय के मनु की तरह बैठा, जल प्रवाह देख रहा था। सीढियां गंगाजल से गीली हुई थीं या हरीश के आंसुओ से, पता नहीं। तेज तो दोनों में था। हरीश ने सिर उठा कर गंगा मंदिर की तरफ देखा-यही वह जगह है जहां शिव नीलकंठ हुए थे। वह भी इस जगह पर आकर अमृत की जगह जहर का फैलाव देख रहा था। रीना बचने के लिए धाराओ में हाथ पैर मार रही है, उसकी सांसे टूट रही हैं, वह चीखना चाहती है, चीख नहीं पाती, अमृत ने उसका मुंह रेत से भर दिया है...वह दूर बहती हुई जा रही है...कोई रोको उसे...बचाओ उसे...मैं शिव नहीं होना चाहता...मैं अपनी सती को भस्मकुंड में स्वाहा होते नहीं देख सकता..ओ...

वह छटपटा रहा था, विलाप कर रहा था, हितेश ने उसे बांहों में भर लिया। उसे वहां से दूर ले जाना चाहता था।

हितेश ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए स्थानीय प्रशासन को हिला कर रख दिया था। सारे तैराक, पुलिस गंगा को छानने में जुटी थी। हरकी पैड़ी से लेकर रानी पुर झाड़, कांगरी गांव और रुड़की गंग नहर तक तैराको ने गंगा को खंगाल लिया। उनके हाथ बहुत कुछ लगा, बस रीना की लाश नहीं मिली। हरीश समेत पूरा महकमा हैरान परेशान था कि आखिर रीना की लाश कहां गई। डूबी होती तो इन्हीं तीनों इलाके में जाकर लाश अटकती। ज्यादातर लाशें बहती हुईं इन्हीं इलाके में आ जाती हैं। जिन्हें अपने नाते रिश्तेदारो के डूबने की खबर मिलती है वे यहीं आकर ढूंढते हैं अपनो को। गंगा का बहाव इतना इतना तेज है कि बीच में कहीं अटकने की कोई गुंजाइश नहीं बचती। हरीश हताश निराश गंगनहर के किनारे खड़ा था। गहरी नहर के किनारे अकेला बैठा पानी को सूखी आंखों से घूरे जा रहा था। पानी की सतह पर रीना का चेहरा उभरता और मिट जाता। हरीश छटपटा कर हाथ बढाना चाहता, पर बढा नहीं पाता। दो लोग उसे जकड़े हुए हैं कि कहीं पानी में छलांग न लगा ले। वह एक बार रीना को अंतिम बार ही सही, देख लेना चाहता था ताकि उसे यकीन आ सके कि वह मर चुकी है। सारी खोजो के बाद वह समझ नहीं पा रहा कि क्या करे। रीना को मरा हुआ समझे या गायब। अब पुलिस वाले केस अलग तरह से दर्ज करना चाह रहे थे। हरीश कुछ बोल पाने में अक्षम महसूस कर रहा था। हितेश ने मामले को हाथ में ले लिया था। अब रीना की फोटो अखबार में छपेगी और ढूंढने पाने वालो के लिए मोटा इनाम घोषित किया जाएगा।

बच्चो के आंसू थम चुके थे कि उन्हें यकीन हो गया था, उनकी मां मरी नहीं, जिंदा है, जहां कहीं है। उन्हें रोना इस बात पर आ रहा था कि उनकी मां किस हालत में होगी...हरीश सोच रहा था कि रीना कहां गायब हो गई। क्यों ? कैसे ? अब उसे अलग तरह के सवाल परेशान कर रहे थे। तरह तरह की आशंकाएं मन को घेरती और वह बिलबिला उठता। अपने आप से लड़ता हुआ उसका यकीन इस बात पर पक्का हो जाता कि रीना का अपहरण हुआ है। नहाते हुए कोई कैसे उठा कर ले जा सकता है। सुधा और शांति ने तो रीना के कपड़े भी देखें थे जो घाट पर पड़े थे वैसे ही। हरीश और रीना को कोई दुश्मन भी नहीं था। हां, रीना सुंदर इतनी थी कि कोई उसे उठा ले जा सकता था पर गंगा नहाते हुए...सोचते सोचते हरीश की छोटी छोटी आंखें और सिकुड़ गईं। चेहरे का सारा नूर चला गया था। जैसे सारा स्वाभिमान धराशायी हो गया हो।

सुधा और शांति का रोदन भी थम चुका था। सबके सब नए सिरे से इस मसले पर विचारमग्न थे और रीना को तलाशने के नए नए तरीके खोजे जा रहे थे। किसी तरीके का कोई हल नहीं निकला। दिन महीने साल निकलते गए....

रीना का पता नहीं चला। न वह मरे हुओ में शामिल थी न जिंदा में। हरीश के भीतर बारुद भरता चला जा रहा था। वह बदल रहा था। पांच साल के लंबे इंतजार ने उसे और उसके परिवार को बदल दिया था। बच्चे चाहते थे, पहाड़गंज का यह पुराना घर छोड़ कर पूर्वी दिल्ली के किसी अपार्टमेंट में शिफ्ट हो जाएं, जहां उनकी मां के बारे में न कोई पूछने आए न सहानूभूति जताने। जहां वे अपनी अदृश्य दुनिया बना लें, एक नई दुनिया, जहां अपने सूनेपन को नए सिरे से भरा जा सके। हरीश तैयार नहीं होता। गुड्डी अब गुंजन बन चुकी थी और चिंटु अब चिराग त्यागी। तब ग्यारह साल का चिंटू अब 16 साल का सुंदर युवा में बदल चुका है। गुंजन त्यागी किशोरावस्था की दहलीज पर पैर रख चुकी है। हरीश को अपने पुश्तैनी घर से खासा लगाव था जिस पर तीन मंजिल खड़ा किया उसके बचपन के दोस्त ने। छोटे से दड़बे से फ्लैट में बदलने का सारा श्रेय विकास रंजन जैसे बिल्डर दोस्त को जाता है। नहीं तो अपनी मामूली-सी सैलरी से इतना बड़ा घर कैसे खड़ा कर पाता। एक फ्लोर विकास ने रखा और बाकी दो फ्लोर उसके हवाले। सेकेंड फ्लोर किराए चढ़ा दिया जिससे घर की आर्थिक हालत सुधर गई थी।

लेकिन वह है कहां...विकास भी कई दिनों तक नजर नहीं आया। जिस दिन से रीना गायब हुई थी, उसके बाद से विकास का हफ्तों पता नहीं चला। काफी दिन बाद अचानक प्रकट हुआ और अफसोस जता कर , अपनी मजबूरी का रोना रोकर , दिल्ली छोड़ कर चला गया। विकास का बदला हुआ व्यवहार उसे बहुत अटपटा लगा। तब तो और अटपटा लगा जब उसने ऊपरी मंजिल की चाबी हरीश को पकड़ा दिया। रीना गई, अब एक दोस्त भी गया जीवन से, शहर से। बच गया एक खाली खाली मकान जो घर बनते बनते रह गया।

इसी घर ने उसे सब कुछ दिया और छीना...यहीं बड़ा हुआ..। इसे छोड़ कर कहां जाएं। सुधा ने कई बार समझाया – भाई साब, आप मकान बदल लो...शायद रीना को भूलने में आसानी हो..यहां उसकी यादें परेशान करती होंगी...अब वो क्या आएगी...मुझे तो लगता है, वह डूबी होगी और कहीं ऐसी जगह बह कर चली गई होगी, जहां हम नहीं पहुंच सके।

हरीश बिलबिला जाता-

सवाल ही नहीं होता...हमने कितना ढूंढा...सारी संभावित जगहें देखीं...नहीं...वह डूबी नहीं..वह मरी नहीं...वो जिंदा है सुधा जी...पर कहां...किस हाल में...क्या कर रही होगी...क्या किसी तरह आ नहीं सकती थी...फोन तो कर सकती थी...चिठ्ठी तो लिख सकती थी...रीना तो अपने बच्चों के बिना एक दिन रह नहीं पाती थी। फिर कैसे...कभी कभी लगता है, शायद सचमुच जिंदा नहीं...पर दिल नहीं मानता।

बोलते बोलते चुप हो जाता। कंठ से गीले गीले शब्द निकलते-

कई बार लगता है, वो यहीं हैं कहीं आस पास...जैसे सब कुछ देख रही हो...किसी बात पर नाराज है और सजा दे रही हो

भाई साब, कोई भी नाराजगी, पांच साल लंबी नहीं चलती न...मुझे तो दाल में काला...

सुधा का पति पंकज बीच में ही बोल पड़ता। उसके अक्खड़ बोल किसी को नहीं भाते पर हरीश जैसे वहां था ही नहीं। वह अपने भीतर उतर जाता था, बोलते बोलते...उसकी आंखें जितनी बाहर देखतीं, उतनी ही अंदर...ड्राइंग रुम का दरवाजा सीधा सड़क पर खुलता है..कई बार अधखुला छोड़ कर वह देर तक सुन्न बैठा रहता..सामने सड़क पर तेजी से गुजरती हुई गाड़ियां, लोग, फेरीवाले...शोर से भरी हवा। हरीश के भीतर उतना ही सन्नाटा...पांच साल बाद भी जीना नहीं सीखा। शांति ने कई बार समझाया-भाई साब, आप देख लो अपने लिए...बच्चे छोटे हैं, कैसे पलेंगे...बेटी बड़ी हो रही है। उसे मां की जरुरत है। आपकी अभी उम्र ही क्या है...कहिए तो हम कोशिश....

प्लीज...शांति भाभी...मुझसे अब न होगा ये सब...जैसे चल रहा है, चलेगा...मैं अपने बच्चों को सौतेली मां नहीं दूंगा...जब सगी मां साथ नहीं दे सकी तो दूसरी क्या देगी...आप लोग अब ये सब बात करना छोड़ दें...मैं अब ठीक हो रहा हूं...संभल गया हूं...जिंदा तो रहना है न...अब इस पर बात करना बेकार है...।

हरीश का चेहरा तन जाता। गर्दन की सारी नसें स्याह हो जातीं। बेतरतीब-सा चेहरा लिए शाम को उठता और सीधा क्लब चला जाता, जहां शाम की कोई नयी साथी उसका रोज इंतजार करती।

प्रेस क्लब के मछली बाजार में रोज शाम अपने लिए सुकुन तलाशता और साथी ढूंढता। यहां चार पैग पीने के बाद कोई सवाल पूछने लायक नहीं रह जाता कि पत्नी के बिना कैसा जीवन चल रहा है। पत्नी के गायब होने की खबर क्लब से स्थायी पियक्कड़ो से दबा ली गई थी। एक कोने में रोज हरीश अपनी उम्रदराज महिला मित्र के साथ बैठता, खाता पीता और पहले नीना को घर की गली में छोड़ता फिर खुद घर वापस आता। दोनों बच्चे या तो सो चुके होते या बत्ती जली होती। अपने अपने कमरो में दो बड़े होते बच्चे अपनी दुनिया बना रहे होते या जूझ रहे होते अपनी समस्याओ से, हरीश पता नहीं कर पाता था। उन्हें छोड़ दिया था, उन्मुक्त और खुद भी फ्री बर्ड रहना चाहता था। ये जिंदगी उसे रास आने लगी थी। बड़ी होत बेटी और बेटा, घर अचानक तीन बड़े सदस्यो का पनाहगाह हो गया था। हरीश को दिन भर शाम का इंतजार रहता, जब वह क्लब में जाए और नीना से मिले, जो इन दिनों सिर्फ उसी का इंतजार करती। उसे लगने लगा था कि जिंदगी अब पटरी पर आ गई है...सब ठीक चल रहा है..बच्चे एडजस्ट हो गए हैं...नौकरी भी सही चल रही है, कुछ ही दिनों के बात है, बच्चे सेटल हो जाएंगे फिर सारी जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाएगा। अपने अकेलेपन की चिंता भी कहीं पीछे छूट गई थी। उसे लगने लगा था कि हादसे सिर्फ उसी का पता ढूंढते नहीं आए थे, नीना का भी पता उन्हें याद था। क्लब में वह जलते बुझते चेहरे देखता और भीतर से मजबूत होता जाता। सब किसी न किसी कहानी का हिस्सा हैं। सबके साथ जिंदगी खेल खेल रही है। सोचते सोचते वह दो पैग ज्यादा चढा लेता और बहकने के बजाय शांत हो जाता। उसे लगता, हरकी पैड़ी में गंगा भी शांत हो गई होगी। जो पीड़ा का निमित्त बनता है, उसे भी कम बेचैनी नहीं होती होगी।

.........

अब जबकि वह लौटना चाहती है, लौट रही है, जूझ रही है अपने भीतर की जिरहो से। वह जानती थी कि उसने जो किया, जिस हालात में किया, वह गलत था। वह चाहती तो हरीश के बिल्डर दोस्त के झांसे और धमकी में नहीं आती। वह हरीश को सब बता देती तो ये दिन शायद न देखने पड़ते। किसलिए डर गई वह इतना ? हरीश की तंगहाली से या कर्ज वाले अपने मकान से जिसकी छत कभी भी छिन सकती थी। जिस घर की दीवारें, छत तक किसी के पास गिरवी रखी थी। हरीश को बहुत भरोसा था अपने दोस्त पर। उसका दोस्त और हरीश हमप्याला हमनिवाला थे। हरीश को पता ही नहीं चला कि कब दोस्त की गंदी निगाह रीना पर पड़ चुकी थी। हरीश मगन था और रीना सुलग रही थी। समय कुसमय घर में आ धमकना और फिर तरह तरह की धमकियां देना। घर छीन लेने की धमकी। वो घर जो बिल्डर दोस्त की मेहरबानी थी। जिसके कर्ज में आकंठ डूबा था हरीश। हरीश दोस्त की कुटिल चाल को नहीं समझ पाया जिसने उसकी गृहस्थी में आग लगा दी थी। घर अपनी जड़ों से ही सुलग रहा था जिससे सिर्फ रीना तप रही थी।

तपन तो अब भी है। बिल्डर दोस्त से मुक्ति के बाद वह दरवाजे पर खड़ी है, एक स्वीकृति उसकी जिंदगी बदल सकती है।

यहां नजारा कुछ और था। वह चौंक गई।

सब बैठे हैं, इंतजार में हैं...सितंबर की उस उष्ण शाम को और पकना था शायद। हरीश ने पूरी पंचायत बुला ली थी। चिंटु, गुड्डी, सुधा, शांति सपरिवार वहां एकत्र थे। वह नीना को भी बुलाना चाहता था। कुछ सोच कर ठिठक गया। दरवाजा खुला था। सडक तक नजर आ रही थी। सब मौन बैठे थे। सिर्फ कुछ धड़कने गिनी जा सकती थीं। सबके चेहरे के भाव अलग अलग थे। सुधा और शांति जहां कातर नजर आ रही थीं, उनके पति कठोर मुद्रा में बैठे थे। गुड्डी का चेहरा कातर हो गया था, और चिंटु का चेहरा सख्त था। गुड्डी से भीतर सवालों के तूफान उठ रहे थे, चिंटू सवालो से सुलग रहा था। दोनों बाहर से चुप थे और भीतर से बोल रहे थे जिसे कोई सुन नहीं पा रहा था। हरीश भी नहीं। अपने भीतर से जूझते हुए तीन लोग खुद को लैस कर रहे थे।

और वह आई, दरवाजे के अंदर ऐसे दाखिल हुई, जैसे दरवाजा खोलते ही सुबह की धूप। पीले रंग की बदरंग सूट में जैसे कोई धूप से छिटका हुआ कतरा होता है, वैसी दिख रही थी, पतली, क्षीणकाया-सी पतली धूप-रेखा। चेहरे पर फैले बाल जैसे धूप को घेरती हुई टहनियां हों, पतली काली, मरियल-सी।

हरीश ने भरपूर देखा और नजरें झुका लीं। यह वह स्त्री नहीं है जो उसके साथ रहती थी। जिसके रुप पर वह न्योछावर रहता था। जिसकी बोली पर निहाल हो जाया करता था। यह तो कोई और है, उसके ले-आउट में। कौन है, भगोड़ी रीना, बेवफा रीना, साध्वी रीना...। सब अपनी जगह स्तब्ध खड़े थे।

आप क्यो आईं हैं। आपकी जरुरत हमारी जिंदगी से खत्म हो चुकी है। जब जरुरत थी तब आप गायब थीं। अब आपकी जरुरत नहीं...आप वापस चली जाएं...

गुड्डी ने मुंह फेर लिया। आवाज गले में अटक गई थी.। आंखों के आगे बीते पांच साल की दुश्वारियां कौंध रही थीं, आंखों में।

हरीश ने बांहे फैला कर बहुत दिनों बाद गुड्डी को अपने से सटा लिया। बिन मां की बच्ची बस भरभरा कर गिरने ही वाली है.

पापा, आप उन्हें बोल दो वे यहां से चली जाएं...हम अकेले ही आपके साथ खुश हैं...हमें उनकी जरुरत नहीं...

हम आप पर भरोसा नहीं कर सकते...

चिंटू...हरीश की मिमियाती हुई आवाज बीच में ही दम तोड़ गई।

रीना दौड़ी चिंटू की तरफ, रोती बिलखती...चिंटू छिटक कर दूर चला गया।

गुड्डी जोर जोर से बिलख रही थी। कमरे में सारे लोग अब तक स्तब्ध। पहले सुधा उठी, फिर पीछे पीछे सारे बाहरी लोग निकल गए।

मुझे एक बार सुन तो लो...

बहुत देर हो गई रीना..हरीश सख्त था।

रीना को काठ मार गया। वह तो बहुत कुछ कहने सुनने आई थी। जिस भरोसे यहां तक आई थी वह इतनी जल्दी ढ़ह जाएगा, वह सोच नहीं सकी थी। क्या सोचा था और यहां क्या मिला। सोचा था कि हरीश पहले अकेले मिलेगा, गिले शिकवे दूर करेगा, जो करना हो करेगा, फिर वह बच्चों का सामना करती। लेकिन यहां तो पूरी अदालत लगी हुई है। वह कटघरे में खड़ी है और उसके पक्ष से जिरह करने वाला कोई वकील तक नहीं। वह इस अदालत में पक्ष रख भी नहीं पा रही है।

अनगिन सवालों से घिरा हरीश मानो पूछना चाह रहा हो पर उसके होठ खुल ही नहीं रहे. वह कांप रहा था...शब्द अटक गए थे।

रीना ने गुड्डी की तरफ कांपते हुए हाथ बढाया. उसने हाथ झटक दिया।

मुझे माफ कर दे गुड्डी....इतनी कठोर मत बन...मेरी बात तो सुन...मुझे भी तो समझ...मेरी तो कोई नहीं सुन रहा...आह...रीना निढाल होकर जमीन पर बैठ गई।

गुड्डी भीतर ही भीतर चीख रही थी, विलाप कर रही थी...हरीश स्तब्ध, अपनी दहकती हुई बेटी को देख रहा था। जो अपने भीतर ही मां से लड़ रही थी। पछाड़े खा रही थी पर चीख नहीं रही थी।

हरीश ने फर्श पर बैठी रीना को उठाया, हल्का-सा सटते ही पुराना रोमांच लौटा पर बदन से वह खुशबू गायब थी। यह स्त्री जो वापस लौटी है वह कोई और है और जिसके साथ रह कर वह पहले जैसा जीवन नहीं जी सकता।

रीना...!!”

बेहद ठंडी और निर्णायक आवाज ।

अलविदा...!!”

सुनोगे नहीं...क्या हुआ था मेरे साथ ?”

अब नहीं सुनना...तुम लौट जाओ..हमें हमारे हाल पर छोड़ दो...बच्चों ने अपना फैसला सुना दिया है। इनका फैसला, मेरा फैसला...बाय रीना...आय एम हेल्पलेस... हमारी जिंदगियां बदल चुकी है जहां अब तुम्हारे लिए कोई जगह नहीं...

हरीश...!”

गुड्डी और चिंटू रोते रोते अपने अपने कमरो में घुस गए थे।

रीना जोर से चीखी, पहली बार...वह रोना भूल गई। चेहरा दिपदिप जल उठा था। दरवाजे की तरफ लौटने लगी। उसकी चुन्नी जमीन पर लसरा रही थी। हमेशा की तरह चुन्नी से लापरवाह रीना की आदतें नहीं बदलीं। हरीश टोकना चाहता था पर शब्दों ने साथ नहीं दिया। वह जा रही थी. धीमे कदमों से। जिस डुबकी से वह बाहर निकली थी उसी गर्त में उसे फिर से धकेला जा रहा है। दरवाजे के पास जाकर वह पलटी...

सुनो हरीश...एक बार तुमने पूछा भी नहीं कि क्या हुआ मेरे साथ। एक बार सवाल पूछो तो सही. बिना पूछे पहले ही फैसला कर चुके। यही तुम्हारा प्यार था। चलो, जब तुम पूछना ही नहीं चाहते तो मैं बताना भी नहीं चाहती। किस्सा यही खत्म करते हैं...चैन से रहो इस घर कर्जमुक्त घर में, जहां मेरा घर दफ्न हुआ है...

आहटें लौट गईं। परदा हिल रहा था। जिंदगी ने दुबारा डुबकी लगा ली थी।

हरीश को कुछ सुनाई नहीं दे रहा था...कान सुन्न हो चुके थे और आंखें धुंधली...पानी की छोटी बूंदो में एक चेहरा झिलमिला रहा था। दरवाजा खुला था और अंधेरा बेधड़क कमरे में पसर गया था।

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