Chudel ka Intkaat - 7 - Last part books and stories free download online pdf in Hindi

चुड़ैल का इंतकाम - भाग - 7 (अंतिम भाग)


अचानके चुड़ैल जोर जोर से हंसने लग जाती है। हंसते हंसते फिर रोने लग जाती है। थोड़ी देर में जब वह शांत हुई तो बोलती है-


"मेरा नाम मेहजबीन शेख है। मैं यहां से 150 किलोमीटर दूर स्थित किशनपुर में रहती थी। 21 वर्ष पहले मेरे जन्म होने के कुछ दिनों बाद ही मेरे वालिद मुझे और मेरी अम्मी को छोड़ कर पड़ोस की एक महिला नुसरत बानो के साथ भाग कर दुबई चले गए।
मेरी अम्मी ने मेरा लालन पालन बड़ी ही ज़िम्मेदारी से किया।

वो सिलाई, कढ़ाई के काम मे निपुण थी। मैं अपनी अम्मी की इकलौती संतान थी। वो मुझे देखकर जी रहीं थी। मैंने अपनी ज़िंदगी के 17 बसन्त देख लिए थे।


मेरी अम्मी के साथ लाख बुरा हुआ हो लेकिन उन्होंने किसी से अपनी मुंह से शिकायत नही किया। मेरी अम्मी ने किसी का बुरा नहीं चाहा था लेकिन उन्हें क्या पता था कि मैं ही उनकी ज़िन्दगी में ऐसा मोड़ आएगा जहाँ से वो मुझे भी हमेशा हमेशा के लिए छोड़ जाना पड़ेगा।


आज से ठीक 4 साल पहले दिसंबर के महीना था और सर्द रात में ठंडी ठंडी हवा चल रही थी। मेरी अम्मी की पिछले 7 दिनों से डेंगू से पीड़ित थीं ऊपर से 2 दिन से लगातार अनावश्यक रूप से बारिश ने बेहाल किया हुआ था।


आधी रात को जब मेरी नजर मेरी माँ पर पड़ी तो देखा वो ठंड से कांप रहीं थी। जब मैं उनके निकट गई तो उनका जिस्म बुखार से किसी जलती भट्टी की तरह तप रहा था। उनका इलाज सरकारी अस्पताल के एक डॉक्टर से चल रहा था, जो पास के गांव में ही रहते थे। मैंने देखा कि उनकी दवाई खत्म हो चली थीं।


मैंने उन्हें आश्वशन देते हुए कहा-"मां आपको तो बहुत तेज बुखार है। मैं पास के गांव के डॉक्टर से आपके लिए दवा ले कर आती हूँ।"


मेरी बात सुनने के बाद मेरी माँ कराहते हुए आवाज में बोली-"लेकिन बेटी इतनी रात हो गई है और बारिश भी बहुत तेज है। सुबह तक रुक जा क्या पता मैं ठीक हो जाऊं या बारिश रुक जाएगी।"


"नहीं माँ सुबह तक कहीं देर हो गई तो। मेरे सिवा आपका है ही कौन? बारिश तो पिछले 2 दिनों से हो रही है। नहीं...नहीं...अब मैं और इंतजार नहीं कर सकती।"


यह कहकर मैं वहां से उतनी तेज बारिश में निकल पड़ी। उस वक़्त मेरी अम्मी ने बहुत मना किया लेकिन मैंने उनकी एक न सुनी।पास का गांव जहां डॉक्टर रहता था मेरे गाँव से लगभग 2 किलोमेटर दूर था। मेरे पास वहां जाने का कोई खास साधन नहीं था इसलिए मैं कुछ पैसे ले कर अकेले ही पैदल चल पड़ी थी।


बारिश इतनी तेज थी कि मानो जैसे किसी प्रलय को निमंत्रण दे रही हो। मैं अपने दुपट्टे से मुंह और सिर को ढ़ककर चल रही थी। आज पहली बार यह रास्ता इतना सुनसान लग रहा था मानो जैसे इधर भूतों का बसेरा हो। राह में जो इक्का दुक्के कुत्ते भी नजर आते थे, वो इस मूसलाधार बारिश की वजह से कहीं न कहीं दुबके बैठे थे।


बारिश की वजह से मैं सिर से ले कर पांव तक अब भीग चुकी थी।अचानक मेरा पाँव किसी गड्ढे में पड़ा और मैं अपने शरीर पर संतुलन नहीं रख पाई और उस गड्ढे में गिर पड़ी। खुदा का शुक्र था कि गड्ढा ज़्यादा गहरा नहीं था मैं दुबारा से उठ कर खड़ी हो जाती हूँ। लेकिन मेरे इस तरह अचानक गिरने की वजह से मेरी मुट्ठियाँ खुल गई थी और जो पैसे में घर से ले कर आई थी वह वहीं कहीं गिर गया था।


मैंने बहुत कोशिश किये लेकिन मैं दुबारा उन पैसों को ढूंढ नहीं पाई। मैं काफी देर तक रोती रही। एक बार मेरे मन मे आया की मैं घर वापिस लौट जाऊं लेकिन माँ की दयनीय स्थिति देखकर खुद को दृढ़ किया और वापिस खड़ी हुई।


मैने दुपट्टे से अपने बदन और अपने मुखमण्डल को साफ किया। मेरा डॉक्टर के पास पहुंचना बहुत ज़रूरी था। मैं तेज कदमों से अपनी मंजिल की तरफ बढ़ी जा रही थी। तकरीबन पौन घण्टे में मैं डॉक्टर के घर के दरवाजे पर थी। मेरे बार बार दरवाजा ठकठकाने की वजह से दरवाजा खुला और मुझे डॉक्टर देखते चौंक गए और बोले-

"अरे मेहजबीन बेटी तुम यहाँ इतनी रात क्या कर रही हो? तुम्हारी यह हालत किसने की?"


"डॉक्टर साहब वो अम्मी....!"

मेरे इतना कहते ही डॉक्टर साहब बोले-"रुको पहले तुम अंदर आ जाओ फिर बताओ।"


उनकी यह सहानुभूति देख कर मुझे अच्छा लगा कि वो डॉक्टर होने के साथ साथ एक अच्छे इंसान भी हैं। उन्होंने मेरी सारी परेशानी गंभीरता से सुनी और वो बोले-"देखो बेटी इस वक़्त मैं तुम्हे कुछ दवाईयां दे रहा हूँ इसे तुम जाते ही उन्हें दे देना। मेरा यकीन मानो ये दवाईयां सुबह तक अपना असर दिखा देंगी और तुम्हारी अम्मी यकीनन पहले से बेहतर हो जाएंगी।"


यह बोलने के साथ वह डॉक्टर देखते हैं कि मेरा ध्यान कहीं और था यो उन्होंने मेरे कंधे को पकड़कर हिलाते हुए कहा -"क्या हुआ मेहजबीन तुम कहाँ खोई हुई हो?

कुछ परेशानी है तो बोलो!"


डॉक्टर की बात सुनते ही मैंने संकुचित भाव से कहा-

"जी...जी...बात यह थी कि मैं दवा के लिए पैसे ले कर आई थी, लेकिन वो मेरी लापरवाही की वह से रास्ते मे कहीं....!"


इतना सुनते ही डॉक्टर बिदक गए और लगभग ग़ुस्से में बोले-"खबरदार! जो तुमने पैसों की बात की। मैं गरीब और असहाय लोगों से पैसे लेना पाप समझता हूं। तुम यह दवा ले कर फ़टाफ़ट जाओ ताकि समय से उनको दवा दे सको।"


"मैं बस अभी जाती हूं और उन्हें जाते के साथ दवाइयाँ दे देती हूं।"
"ठहरो मेरी आखिरी बात सुनती हुई जाओ। बाहर मैसम बहुत खराब है। यह लो छतरी ले कर जाओ और मेरी एक बात का ध्यान रखना।"
"कौन सी बात डॉक्टर साहब?"
"तुम्हारे पास एक बकरी है ना?"
"हाँ जी है तो लेकिन उसका क्या?"


"उन्हें सुबह शाम 100 मिलीमीटर बकरी का दूध जरूर दो। क्योंकि तुम्हारी माँ को डेंगू है जिसमे मरीज की प्लेटलेट्स कम जो जाती हैं। इस रोग में बकरी का दूध रामबाण साबित होगी। यह सबसे कारगर दवाई है। अब तुम जाओ और कल शाम को बताना उनकी स्थिति में कितना सुधार हुआ।"


उनकी बात सुनकर मैं अपने गांव की तरफ रुख कर देती हूं। रास्ते की सर्द हवा मानों मेरी शरीर को चीरते हुए आगे बढ़ रही थी।लेकिन मैं इस ठंड की परवाह किये बिना निर्भीक चले जा रही थी।
मेरे पैरों की आहट भी मुझे डरा रही थी।

ऐसा लग रहा था मानो मैं अकेले नहीं मेरे पीछे कोई और भी है। थोड़ी देर में मुझे महसूस हुआ कि मानो जैसे कोई मेरे पीछे पीछे चला आ रहा हो। मेरी हिम्मत नहीं बो रही थी कि पीछे पलट कर देखूं। इतनी देर रात किसी के पीछे होने के एहसास और इस बारिश वाली ठंड के मौसम की वजह से मेरी सांसे भी ज़मने को हो गईं थी।


मैं थोड़ी दूर चली ही थी कि वह आहत मुझे अपने बिल्कुल करीब महसूस होने लगी। मैंने हिम्मत कर के पीछे देखा तो मुझे कोई भी नजर नहीं आया। मैं बार बार मुड़कर पीछे देख रही थी लेकिन मुझे किसी की मौजूदगी का एहसास नहीं हुआ।


तभी अचानक मेरे आंखों पर रोशनी चमकी और मैंने अपने दोनों आंखों को ढक लिया। जब आंखों को खोल कर देखा तो मैं चौंक कर रह गई। मेरे सामने एक बड़ी सी कर रुकी थी। कार के रुकते ही उसमे में कुछ बन्दे फ़टाफ़ट निकलने और मुझे जबर्दस्ती अमानवीय व्यहार करने लगे। मैंने जब उस बात का विरोध किया तो मुझे उठाकर अपनी कार में बैठकर वहां से रफ़्फ़ु चक्कर हो गए।


वो मुझे उस रात वहां से उठाकर वहां से 150 किलोमीटर दूर मिर्जापुर के किसी भरहेता गाँव मे ले आए। उन वहशी दरिंदो ने मुझे वहीं किसी खंडहर में कैद कर के रख दिया था। वो मेरे साथ कुछ दिन और रात तक मेरी इज्जत को तार तार करते रहे। मैंने लाख मिन्नतें की मेरी माँ बीमारी से जूझ रही है लेकिन उन कमीनो ने मेरी एक न सुनी। मैं 17 वर्ष की एक कमसिन लड़की उन चारों अधेड़ इंसानो के गुनाहों का भार नहीं झेल पाई और असहनीय पीड़ा को न झेल पाने को वजह से अल्लाह को प्यारी हो गई।


उन दरिंदो ने आनन फानन में मेरी लाश को वरुणा नदी से कुछ दूर जाने पर एक पीपल का पेड़ है और ठीक उसके पीछे कुवां हैं वहां डाल दिया। जैसे ही वह मेरी लाश को उस कुवें में डाल कर पीछे मुड़ रहे थे कि वहां किसी शख्स को खड़े देखकर चौंक गए।


वह शख्स और कोई नहीं जयन्त के पापा मयन्त किशोर बलूच थे। उन्होंने मेरी लाश को ठिकाने लगते हुए देख लिया था। वह उन तीनों का विरोध करने लगे और बोले-"देखो तुम सबने यह ठीक ठीक नहीं किया है और मैं तुम्हे यहां से जाने नहीं दूंगा। मैं अभी पुलिस को जाकर सब सच सच बता दूंगा।"


उसकी बात सुनकर वह चारो उनपर बहुत जोर से हंसे औऱ उसे समझाने के लिए आगे बढ़े। जैसे ही वो चारो आगे बढ़े उनमें से एक को देखकर जयन्त के पापा चौंक जाते है और बोलते हैं-"अरे ठाकुर वीरेन्द्र प्रताप आप? ओह्ह तो आप हो इस घटना के पीछे।"
यह सुनते ठाकुर जोर जोर से हंसता है और बोलता है-"जा मयन्त जा बोल दे पुलिस को। लगता है शायद तू भूल गया की वह मेरे पुलिस को मैं जेब ले कर घूमता हूँ। मगर तू यह कैसे भूल गया कि तू मेरे फेंके हुए टुकड़ो पर पल रहा है। पिछले 7 सालों से तेरे पर मूल से ज्यादा तो सूद चढ़ चुका है।"


यह सुनने के बाद मयन्त ठाकुर के पैर पकड़कर मिमियाते हुए स्वर में कहता है-"लेकिन हुजूर किसी की जान लेना रुओ अपराध है ना?"


"तो अब तू मुझे सिखाएगा की क्या सही है और क्या गलत? तुझे 7 दिन की मोहलत देता हूँ, यदि तेरे अंदर ज़रा सा भी ज़मीर ज़िंदा है तो मेरे सारे उधर चुकता कर मैं अपने गुनाह कुबूल कर लूंगा और खुद पुलिस के हवाले कर दूंगा लेकिन यदि तू ऐसा न कर सका तो इसी कुवें से कूदकर तुझे जान देनी होगी। बोल कुबूल है।"


"हां ठाकुर मुझे कुबूल है। मैं 7 दिनों के अंदर अपनी सारी ज़मीन बेचकर तेरा उधार चुकता करूँगा।"


यह सुनते ही ठाकुर उसे अपने पांव से ठोकर मरता है और वहां से चला जाता है। उधर ठाकुर अपनी हवेली आते ही मयन्त का हुक्का पानी बन्द करवा देता है। मयन्त की खेती से इतना अनाज की पैदावार नहीं हो पाती थी कि वह अपने परिवार का भरण पोषण कर सके इसलिए उसकी पत्नी ठाकुर के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने जाया करती थी।


मयन्त की घरवाली अव्वल दर्जे की पढ़ाकू थी इसलिए उसने शादी करने से पहले प्रथम श्रेणी में बी.ए. कर लिया था। लेकिन गरीब इंसान पढ़ाई कर के ही सीमित रह जाता है और उसे एक उम्र तक विवाह करवाना ज़िम्मेदारी से ज्यादा बोझ नजर आने लगती है और समाज के बनाए गए उस ढांचे में खुद से सामंजस्य बैठा लतीं है।


7 दिनों बाद भी वह ठाकुर का बाल बांका न कर पाया तो वह एक रात उस कुवे की तरफ चल पड़ा। वह काजी देर लाचार और बेसहाय वहीं मौन खड़ा रहा और खुद से बोला-"धिक्कार है मुझ जैसे गरीब का जो किसी को न्याय भी न दिल सका। मैं जीते जी भी उस वहशी ठाकुर का कुछ नहीं बिगाड़ पाया। इस धरती पर हम जैसे गरीब दुखयरों की भगवान भी सुनने वाला नहीं है। मैं अब ऐसी जिल्लत की ज़िंदगी और नहीं जी सकता।"


यह कहते ही मयन्त किशोर बलूच अपने साथ लाए मिट्टी के तेल को अपने जिस्म पर छिड़कते कर आग लगा ली और उस कुवें में कूद कर अपनी जान दे दी। आज भी उनका और मेरे जिस्म के कंकाल वहां अपनी बेगुनाही साबित कर रहे हैं और मुक्ति के लिए फरियाद कर रहे हैं।


उनकी आत्मा आज भी वहां भटक रही है और गांव के काफी लोगो ने वहां कुवे के आस पास आग जैसे गोले को जलते हुए देखा है लेकिन पास जाते ही उन्हें कुछ भी एहसास नहीं होता।वह कुवां जिस जगह है वह बहुत ही अजीब जगह पर है। वहां से मिर्जापुर, बनारस, जौनपुर इन तीनो जिले की सीमा प्रारम्भ हो जाती है। यहां अक्सर एक से एक अमानवीय कृत्य को देखते आये हैं लेकिन कोई भी किसी के खिलाफ शिकायत नही करता। सबको अपने जान की पड़ी है।


परन्तु मैं उनकी तरह शांत या सब किस्मत का खेल मान कर चुप रहने वाली में से नहीं। मैंने ठाकुर और उसके तीनो साथी को भी मौत के घाट उतार कर उसी कुवें में डाल दिया है। मैं आगे भी चुप रहने वाली में से नहीं उस वीराने में जो जो भी रात को भटकेगा मैं उसे ज़िंदा नहीं छोडूंगी। मार डालूंगी मैं सबको।"


यह कहकर वह लल्लन ओझा पर प्रहार करती है और उसके हाथ से झाड़ू छूट कर दूर गिर जाती है। वह चुड़ैल अचानक जयन्त की माँ के शरीर से बाहर निकल जाती है और लल्लन ओझा के छाती पर बैठ जाती है और अपने नाखूनों को लल्लन ओझा के कंधे में घूँसेड डालती है।


लल्लन ओझा दर्द से बिलबिला उठते हैं। मगर वह चुड़ैल उज़के कंधे से खून के कुछ बूंदे निकाल कर लल्लन ओझा के चेहरे पर लगा देती है। अचानक से उसके जीभ लंबे हो गए और वह लल्लन ओझा के चेहरे पर लगे रक्त की बूंदों को चाटने लगती है जैसे इस खून की बूंदों से उसकी तृष्णा मिट रही हो।
"वाह...वाह...बस यही खून तो मुझे चाहिए। यह खून ही यो मुझे उर्जावान बनाता है और मुझे जवान रखता है। भला मैं इसे क्यों न चखूँ।"


यह कहते के साथ वह अपने चारों नुकीले दांत लल्लन ओझा के कंधे में घूँसेड देती है जहां उसने अपनी अपने लंबे लम्बे नाखून घूँसेड थे।


इस बार पूरी जोर लगाकर लल्लन ओझा बोलते हैं-"अरे मूर्ख! कब तक तमाशा देखेगा। अब जल्दी से अपनी ऊपर की जेब से वो पर्ची निकाल और उस मन्त्र का उच्चारण कर। यह चंडालन रब तक नहीं उठेगी जब तक इसकी प्यास नहीं बुझेगी। मैं तब तक इसकी प्यास बुझाता हूँ लेकिन मेरे शरीर मे सारे रक्त चूसने से पहले अपने कार्य को अंजाम दे देना।"


यह सुनते ही जयन्त अपनी माँ के तरफ देखता है वह निढाल सी ज़मीन पर पड़ी हुई थी। उसने एक लंबी सांस ली और फुर्ती से अपनी जेब से वह पर्ची निकलता है और उस कलश के ढक्कन को खोलकर उस मंत्र को जोर जोर से बोलने लगता है


“ॐ नमो आदेश गुरु का लाज रखो अपने चेले का,

मंत्र साँचा कंठ काँचा जो न समझे वह रह जाए बच्चा।


धौला गिरी वारो चंडै सिंह की सवारी,

जाके लँगुर है करत है अगारी।

प्याला पिए रक्त को चंडिका भवानी,

सब उपनिषद वेदबानी में बखानी ।


भूत नाचे बेताल लज्जा रखे,

अपने भक्त का पीड़ चखे।

लिए हाथ भक्त बालिका दुष्टन प्रहारी,

सारे दुःख देत एक पल में पछारी।


पकड़ के दे ऐसा पछाड़,

काँप जाए मांस और हाड़।

मत अबार तेरे हाथ में कपाल,

मार के सीने के पार कर दे भाल।


भक्षण करले जल्दी आइके,

मुक्ति मिलत तब कहीं जाइके।

जाय नाहीं भूत पकड़ मारे जाँय,

तुम्हरे नाम लूँ तो करे फाएँ फाएँ।


राम की दुहाई गुरु गोरख का फंदा,

नहीं भागेगा तो करेगा तोये ये अंधा।

उड़ो उड़ो चुड़ैल वाहा।

फुरो फुरो मंत्र स्वाहा ।।


ह्वैं हूं प्रेत प्रेतेश्वर आगच्छ आगच्छ, प्रत्यक्ष दर्शय दर्शय फट |

ओम् हां हीं हूं हौं ह: सकल भूत-प्रेत,चुड़ैल-डायन दमनाय स्वाहा |”



जैसे ही यह मंत्र खत्म होता है वह चुड़ैल एक काले धुंए में परिवर्तित हो जाती है और किसी हवा की तरह उड़ती हुई उस कलश में समा जाती है। जयन्त तुरंत इस कलश को ढक्कन लगा देता है।


अगले ही पल लल्लन ओझा भी कराहते हुए उठ खड़े होते हैं। उनके उठते ही जयन्त की मां भी खड़ी हो जाती है। तीनों उसी वक़्त कार में बैठकर वरुण नदी के पास पीपल के पेड़ के पीछे वाले कुवें के पास जाते हैं। कुछ स्थानीय लोगों की मदद से वहां उस कुवें से लाशों को निकलवाते हैं।

लेकिन वहां लाश की जगह कुछ कंकाल मिकते हैं जिनकी सीनाख्त कर ली जाती है। वहां उस कुवें से 5 नर अजर एक मादा के कंकाल को उनके धर्म के अनुसार अंत्योष्टि कर के इस लोक से मुक्ति दिला दी जाती हैं।


उस कलश को उसी कुवें में डाल कर मिट्टी से पूरी तरह कुवें को ढककर हमेशा के लिए बंद कर दिया जाता है। जयन्त और उसकी माँ लल्लन ओझा का आभार व्यक्त करती है और वापिस अपने कार में पहुंच जाते हैं।


"ओह्ह मां रात के तीन बज गए हैं लेकिन चलो शुक्र है कि उस चुड़ैल से पीछा तो छूटा।"
"हाँ बेटे चाहे लोग आज भी विश्वास कर न करे लेकिन मैं यकीन के साथ कहती हूँ कि जब इस दुनियां में भगवान को मानते हो तो शैतान के वजूद को झुठलाना नहीं चाहिए। जिस तरह हम पॉजिटिव शक्तियों को चाहते हैं उसी तरह हमे नकरात्मक शक्तियों के लिए भी हर पल तैयार रहना चाहिए।"


कुईंsss... कुईंsss....


जयन्त की मां ने अभी इतना कह ही था कि अचानक जयंत ने झटके के साथ अपनी कार रोक दी। अचानक इस तह ब्रेक मारने से जयन्त की माँ को सिर पर जोरदार चोट लगी एयर वह गुस्से में बोली-"अरे अब क्या हुआ जो इस तरह से कार रोक दी।"


जयन्त के मुंह से जब कोई जवाब नहीं आया तो इसने अपने बेटे की तरफ देखा जो सड़क के तरफ अपनी उंगलियों से इशारा कर रहा था। जयन्त की माँ ने देखा तो उसके होश फाख्ता हो गए।
कोई औरत काली साड़ी में एक हाथ मे लालटेन को थामे सड़क को पार कर रही थी। उस औरत ने पलक झपकते ही सड़क को पार कर लिया। दोनों तले उंगलियां दबोच कर उस औरत को देख रहे थे। वह औरत अब धीरे धीरे उनकी तरफ बढ़ रही थी।


जयन्त ने इस बार हिम्मत की और गाड़ी को राकेट की तरह भगाने लग गया। अब वह साया सड़क के बीचोबीच थी लेकिन उसने कार रोकने की जगह उसको उस से उड़ा देना ही बेहतर समझा औऱ एक्सीलेटर पर पांव दबा दिए। अगले पल वह साया उस कार के आर पार निकल गई जैसे वह कोई धुआँ हो और निकलते निकलते कह कह गई-"अरे बाबू तनिक पीछे तो देख लो एक बार।"


उसकी माँ पीछे पलटने को होती है तभी जयन्त बोल पड़ता है-"नहीं...मां अब डरने की जरूत नहीं है। अब उस चुड़ैल का खेल खत्म हो चुका है। जिसे तुमने देखा वह मात्र छलावा है और कुछ नहीं।"


यह सुनते ही दोनों एक साथ हंस पड़ते है। काफी समय के बाद दोनो एक साथ हंसते हुए अच्छे लग रहे थे।
कुछ अनिष्ट न होने पर दोनों हल्की सी मुस्कान और खुशी के साथ अपने घर की ओर चले जाते हैं ।।।

"समाप्त"



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धन्यवाद ?

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