Aughad ka daan - 4 books and stories free download online pdf in Hindi

औघड़ का दान - 4

औघड़ का दान

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग-4

अगले दिन उम्मीद के मुताबिक सीमा को ऑफ़िस में सोफी नहीं मिली। उसने उसे फ़ोन कर उसका हालचाल लिया तो सोफी ने बताया ‘सूजन अभी है। दर्द पहले से कुछ ही कम हुआ है। ऑफ़िस दो-चार दिन बाद ही आ पाएगी।’ उसने यह भी बताया कि ‘पहले तो पति इस बात पर चिल्लाया कि उसको क्यों नहीं बताया। सारे ऑफ़िस में उसकी मार-पीट की बात बताकर उसकी निंदा कराई होगी। लेकिन तब शांत हुआ जब उसे यह बताया कि नहीं ऐसा कुछ नहीं बताया। तुम्हारे अलावा लोगों को सिर्फ़ इतना ही मालूम है कि स्कूटी के भिड़ जाने से फ्रैक्चर हुआ।’

सोफी इसके बाद पति की निष्ठुरता के बारे में बता कर रोने लगी कि ‘एक लड़का न होने के कारण वह किस तरह उसे प्रताड़ित कर रहा है। इतनी चोट के बावजूद उसने खाना बनाने में कोई मदद नहीं की। दर्द से तड़पते हुए उसने एक ही हाथ से रात ग्यारह बजे तक सारा काम निपटाया। दवा खाने के बाद जब उसे कुछ राहत मिली और वह सो गई तो कोई आधे घंटे बाद ही वह अपनी हवस शांत करने पर उतारू हो गया। लाख मिन्नतें कीं, चोट का, दर्द का हवाला दिया लेकिन कोई फ़र्क नहीं पड़ा। क्रूरतापूर्वक अपनी हवस शांत कर खर्राटे भरने लगा। और वह दर्द से घंटों पड़ी कराहती रही।’

सोफी की यातना उसकी रुलाई सुन कर सीमा भी भावुक हो उठी। वह गुस्से में बोली,

‘सोफी वो तुम्हारा आदमी है। मुझे कुछ कहने का अधिकार तो नहीं है लेकिन यह कहे बिना अपने को रोक नहीं पा रही हूं कि तुम्हारा आदमी ऐसा भावनाहीन प्राणी है कि वह आदमी कहलाने लायक नहीं है। आखिर तू फंस कैसे गई इसके चक्कर में।’

‘अब क्या बताऊं, मुकद्दर में जो लिखा था वो हुआ। अब तो ऐसे ही घुट-घुट कर मरना है।’

‘नहीं सोफी ज़िंदगी घुट-घुट कर मरने के लिए नहीं होती। फिर तू किसी पर डिपेंड नहीं है। किसी की दया पर नहीं जी रही है। तुम पहले ठीक हो जाओ। जब ऑफ़िस आओगी तब बात करेंगे।’

‘ठीक है सीमा। तुम्हारी जैसी सहेली किस्मत से ही मिलती है। कम से कम इस मामले में तो मैं भाग्यशाली हूं। अच्छा ऑफ़िस में ध्यान रखना। कुछ राहत मिल जाए तो ज्वाइन करती हूं। मुझे लगता है चार-छः दिन तो लग ही जाएंगे।’

इतनी बातों के बाद सीमा ने फ़ोन काट दिया। इस बीच उसने कई बार सोचा कि बाबा के बारे में बात करे लेकिन न जाने क्यों संकोच कर गई। नहीं बोल पाई बाबा के बारे में। बड़ी देर तक वह सोचती रही सोफी की तकलीफों के बारे में कि आदमी ऐसा जाहिल और क्रूर मिला है, उसकी ज़िंदगी कैसे कटेगी। ऐसे तो उसे जीवन में सुख का कोई एक कतरा भी शायद ही मिल पाएगा।

उसे इस नर्क से निकालने के लिए तो कोशिश करनी ही चाहिए। अभी इतनी बड़ी ज़िंदगी पड़ी है। तीन-तीन बच्चियों का भी जीवन जुड़ा है उससे। यह तलाक लेकर किसी अच्छे इंसान से दूसरा निकाह क्यों नहीं कर लेती। इनके यहां तलाक हम हिंदुओं के यहां की तरह दुष्कर तो है नहीं। मगर यह सलाह मैं उसे कैसे दे सकती हूं। वह बुरा मान गई तो।

उस के दिमाग में सोफी की मदद करने की उधेड़बुन पूरे जोरों पर थी कि तभी उसके सीनियर ने चपरासी से उसे बुला भेजा। वह खिन्न होते हुए चपरासी से बोली ‘ठीक है कह दो आ रही हूं।’ फिर मन ही मन बुद-बुदाई कमीने के पास कोई काम-धाम है नहीं। बैठा कर फालतू बातें करेगा, घूर घूर कर ऊपर से नीचे देखेगा। नज़र मिल जाए तो खीसें निपोर देगा, कुत्ता कहीं का लार टपकाता घूमता रहता है। कमीने की बीवी पता नहीं क्या करती रहती है। वह कोसती गरियाती जब उसके पास पहुंची तो उसके अनुमान के मुताबिक ही वह खीसें निपोरता हुआ बोला,

‘आइए-आइए सीमा जी आज कल आप लिफ्ट नहीं दे रहीं हैं।’

‘नहीं सर ऐसी बात नहीं है’, कहते हुए सीमा सामने चेयर पर बैठ गई और काफी देर तक अंदर ही अंदर कुढ़ती उसकी अनर्गल बातें सुनती रही।

सोफी करीब एक हफ्ते बाद हालत सुधरने पर ऑफ़िस पहुंची तो सीमा के बारे में सुन कर दंग रह गई। उसकी हिम्मत की वह कायल हो गई। हाथ में प्लास्टर लगने के बाद जब वह अगले दिन नहीं आई थी तब सीमा ने उस समय ऑफ़िस में हंगामा खड़ा कर दिया था, जब उसका सीनियर उससे कुछ ज़्यादा ही अश्लील बातें करने लगा था। सीमा ने न सिर्फ़ जी भर के हंगामा करा, पूरा ऑफ़िस इकट्ठा कर लिया, बल्कि उसकी लिखित कंप्लेंट की, फिर यूनियन और अन्य लोगों के साथ तब तक दबाव बनाया जब तक कि विभागीय जांच के आदेश न हो गए। उसने यूनियन के उन लोगों की एक न सुनी जो बातचीत कर मामले को रफा-दफा करा देना चाहते थे। यह सब जानने के बाद सोफी ने तुरंत सीमा को फ़ोन किया। क्योंकि अभी तक वह आई नहीं थी। सीमा ने फ़ोन उठाते ही कहा,

‘अभी पैरेंट्स मीटिंग में हूं एक घंटे बाद आती हूं।’

सोफी बेसब्री से उसका इंतजार करती रही। क्योंकि वह उसके मुंह से ही सब सुनना चाहती थी। सीमा बताए वक़्त से जब करीब दो घंटे लेट पहुंची ऑफ़िस तो सोफी छूटते ही बोली,

‘तूने तो कमाल कर दिया यार। उस सबसे बड़े घाघ को ठीक कर दिया। सारी औरतों का जीना हराम कर रखा था। पिछले महीने तो मुझसे दो बार कहीं घूमने चलने के लिए कह चुका था। मैंने मारे डर के किसी से कुछ नहीं कहा कि कहीं कोई बखेड़ा न खड़ा हो जाए।’

‘यही तो गलती की। हम लोगों की इन्हीं गलतियों के चलते इन शोहदों की हिम्मत बढ़ती है। हमें तुरंत करारा जवाब देेने की आदत डालनी ही पड़ेगी, तभी गुजारा है। अच्छा अभी कुछ काम कर लेते हैं फिर लंच में बातें करते हैं, तुम्हें अभी बहुत कुछ बताना है।’

‘हां ठीक है नहीं तो सब कहेंगे मिलते ही दोनों चालू हो गईं।’

लंच टाइम में सोफी-सीमा फिर मिलीं। सोफी का हालचाल लेने एवं सीनियर के साथ हुए बखेड़े के बारे में बताने के बाद सीमा सीधे उस मुद्दे पर आ गई जिसे वह सोफी से हफ्ते भर से कहना चाह रही थी। फ़ोन पर बात जुबां पर आते-आते कई बार रह गई थी। उसने सोफी से बाबा के बारे में विस्तार से बताया कि कैसे उसकी बच्ची के जन्म के समय बाबा ने मदद की। और आखिर में जोड़ा,

‘देखो सोफी मैं यह कहने की हिम्मत जुटाने में हफ्ते भर असमंजस में रही कि तुम एक बार उस औघड़ बाबा से मिल लो। तुम्हारी हालत देखकर मैं बहुत आहत थी। तभी बातचीत में पति ने यह सब बताया। संकोच वह भी कर रहे थे कि तुम मुसलमान हो, हिंदू औघड़ बाबा की बात पर नाराज़ न हो जाओ।’

‘नहीं ऐसा क्यों सोचती हो। तुम लोग मेरे लिए इतना सोच रहे हो और मैं नाराज होऊं ऐसा तो संभव ही नहीं है। मैं तो जीवन भर तुम्हारी अहसानमंद रहूंगी। मगर एक आशंका है।’

‘क्या ?’

‘मैंने सुना है कि औघड़ बहुत ही भयानक तरह की पूजा-पाठ करते हैं। शायद कपड़े वगैरह भी नहीं पहनते।’

‘बिना कपड़ों के तो नागा साधू रहते हैं। हां औघड़ बाबाओं की पूजा में मांस, मदिरा नशा-पानी सब चलता है। बड़े क्रोधी भी होते हैं। ज़्यादातर यह श्मशान घाट पर पूजा करते हैं। ये समझ लो कि जैसे तुम्हारे यहां टोना, झाड़-फूंक आदि करने वाले बाबा आदि होते हैं उनसे ही मिलते जुलते।’

‘मगर सबसे बड़ी समस्या तो यह है कि इनको यह बताऊं कैसे कि फलां औघड़ बाबा के पास चलो तो मुराद पूरी होगी। बेटा ही होगा। और यदि यह नहीं गए तो जाऊंगी कैसे ?’

‘क्यों क्या तुम्हारे पति को इन बातों पर यकीन नहीं है ?’

‘थोड़ा बहुत नहीं बहुत ज़्यादा है। न जाने कितने पीर-फकीरों से मिलते रहते हैं। तमाम भभूत, ताबीज़, गंडे आदि लाते रहते हैं। न जाने कितना पैसा इन्हीं सब पर फूँक देते हैं। अगर मुझे सच मालूम है तो यह कई हिंदू साधु-संन्यासियों के भी चक्कर लगा चुके हैं।’

‘तब तो कोई दिक़्कत ही नहीं होनी चाहिए।’

‘है, बहुत बड़ी दिक़्कत है। वह खुद तो पीर-फकीर, मौलवी हर के पास जाते रहते हैं। मगर मुझे इनमें से कहीं भी ले जाना उन्हें मंजूर नहीं। शुरू में एक दो जगह बड़े दबे मन से ले गए। मगर पिछले साल एक मौलवी के यहां जब गए और उसने जो भी बताया और झाड़-फूंक कर कुछ चीजें मुझ पर फेंकी और फिर इन्हें कुछ सामान देकर किसी चौराहे पर फेंक कर आने को कहा, वहां तक तो सब ठीक था। लेकिन जब यह करीब दस पंद्रह मिनट बाद लौटे तो उस मौलवी में न जाने ऐसा क्या देख लिया कि तुरंत मुझे वहां से लेकर चल दिए। रास्ते भर उसका नाम लिए बिना ढोंगी, बेईमान और न जाने क्या-क्या गाली देते रहे।

घर पर मेरे साथ भी बदतमीजी की। इतनी बात मेरी समझ में आई कि ‘कमीनी वहां से हट नहीं सकती थी।’ मैं आज तक नहीं समझ पाई कि आखिर उस दिन उस मौलवी को इन्होंने ऐसा क्या करते देख लिया था कि अचानक ही इतना आग-बबूला हो गए। फिर इस घटना के बाद मुझे कभी ऐसी किसी जगह लेकर नहीं गए। और मेरी हिम्मत भी नहीं पड़ती कि मैं कुछ कहूं। अब तुम्हीं बताओ कि वह मुझे लेकर एक औघड़ बाबा के यहां जाएंगे ?’

‘मुझे भी कोई उम्मीद नहीं दिखती। अब तुम अपनी सहूलियत के हिसाब से देख लो, सोचो कोई रास्ता निकाल सकती हो तो निकालो। नहीं तो फिर वक़्त का इंतजार करो। हो सकता है तुम्हारे पति यह सब करते-करते थक हार कर बैठ जाएं और लड़के के बारे में सोचना बंद कर लड़कियों पर ही मन लगा लें।’

‘नहीं सीमा मुझे ऐसा मुमकिन नहीं लगता।’

‘क्यों ?'

‘अब क्या बताऊं... कहना तो नहीं चाहिए मियां-बीवी के बीच की बात है, लेकिन जब तुम हमारे लिए इस हद तक परेशान हो तो खुल कर बताती हूं तुम्हें। बेटा हो इस बात के लिए यह इस हद तक जिद पकड़ चुके हैं कि आए दिन एक और निकाह कर लेने या फिर तलाक दे देने की धमकी देते ही रहते हैं। उनकी इस धमकी से सिहर उठती हूं कि अगर तलाक दे दिया तो इन तीनों लड़कियों को लेकर जाऊंगी कहां। यदि दूसरा निकाह कर लिया तो ज़िंदगी और नरक। बेटे के लिए इनकी दिवानगी का अंदाजा इसी एक बात से लगा सकती हो कि दुआ तावीज ही नहीं तरह-तरह की अंड-बंड दवाएं भी खाते हैं और जबरदस्ती मुझे भी खिलाते रहते हैं।

पिछले कई महीनों से एक झोला छाप हकीम के चक्कर में पड़े हुए हैं। उसने न जाने ऐसी कौन सी दवा दी है कि दूध में लेने के बाद जैसे अपना आपा ही खो बैठते हैं। उसके बताए तरीके से ऐसे अंड-बंड रौंदते हैं मुझे कि मेरा कचूमर ही निकल जाता है। एक ही रात में कई बार रौंदते हैं। नफरत इतनी कि खत्म होते ही धकेल देते हैं। मेरी हालत का अंदाजा इसी बात से लगा सकती हो कि मेरा हाथ टूटा है लेकिन इस हाल में भी नहीं छोड़ते। मेरी कितनी मदद करते हैं उसका अंदाजा इस बात से लगाओ कि इस हालत में जब इन्होंने पहले दिन अपनी पहलवानी दिखा ली उसके बाद मैंने सलवार का नाड़ा बांधने की कोशिश की तो बांध नहीं पाई। यह लौटे बाथरूम से तो दर्द से सिसकते हुए मैंने नाड़ा बांधने के लिए कहा तो बदले में गाली मिली।

मैं लाख कोशिश के बाद नहीं बांध पाई तो सोचा बड़ी वाली लड़की को उठाऊं। लेकिन फिर सोचा यह ठीक नहीं है। अंततः मैंने बैग से बड़ी वाली सेफ्टी पिन निकाली और फिर मुंह में दबा कर उसे किसी तरह खोला और एक हाथ से ही सलवार में लगाया। किसी तरह काम चला। दिन में बच्ची की सहायता से ही नाड़ा बांधना खोलना हो पा रहा है। मारे डर के जीने भर का ही पानी पीती हूं कि बाथरूम जाना ही न पड़े। अब तुम्हीं बताओ मैं क्या करूं कैसे करूं।’


***