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औघड़ का दान - 10 - अंतिम भाग

औघड़ का दान

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग-10

जब एक सुबह उसे उबकाई आने लगी। और बाद में चेक कराने पर उसकी प्रिग्नेंसी कंफर्म हो गई। उसने मन ही मन धन्यवाद दिया बाबा को, सीमा को। उसे पूरा यकीन था कि यह छः बार बाबा के पास जाने का परिणाम है। जुल्फी को जब उसने बताया कि वह प्रिग्नेंट हो गई है तो उम्मीद के अनूकूल यही जवाब मिला ‘इस बार बेटा ही होना चाहिए।’

सोफी की नींद, चैन, आराम उसकी इस बात ने अगले चार महिने तक हराम कर दिया। घबराहट, चिंता ने उसका बी.पी. बढ़ा दिया। पहले की तरह उसने यह सारी बातें फिर शेयर कीं सीमा से तो उसने कहा ‘एक ही रास्ता बचा है कि बच्चे का लिंग पहले ही पता कर लिया जाए कि वह लड़का है या लड़की। जैसा होगा उसके हिसाब से आगे किया जाएगा।’

‘लेकिन सीमा जिस भी नर्सिंग होम में यह सब होता है वहां तो बाहर ही बोर्ड लगा रहता है कि भ्रूण का लिंग परीक्षण दंडनीय अपराध है।’

‘सोफी वास्तव में यह सब एक तरह से यह बताते हैं कि यह यहां आसानी से हो जाएगा। बस इसके लिए दो गुनी फीस देनी होगी।’

बात सोफी के समझ में आ गई। और फिर वह एक नामचीन नर्सिंग होम में इसके लिए चेकअप के बहाने पहुंची। सही बात सामने रखने पर पहले तो उसने ना नुकुर की लेकिन मनचाही रकम मिलते ही चेक कर बता दिया कि बेटा है। बेहद स्वस्थ है। लेकिन चेकअप की कोई लिखित रिपोर्ट नहीं दी। सोफी को इसकी परवाह ही कहां थी। वह तो मन चाही मुराद मिल जाने से सातवें आसमान पर थी। उसका मन बल्लियों उछले जा रहा था। सीमा को, बाबा को उसने लाख-लाख धन्यवाद दिया। घर पहुंच कर उसने बहुत असमंजस के बाद उस वक़्त जुल्फी को भी सच बता दिया जब वह रात में उसकी बगल में ही बैठा था और पुत्र की आस लिए अब तक अच्छे खासे उभर आए उसके पेट को हौले-हौले स्पर्श कर रहा था और कई बार चूमने के बाद कहा कि,

‘हकीम साहब की दवा काम कर गई तो अबकी बार बेटा ही होगा।’

तब उसने कहा ‘अगर नाराज़ न हो तो एक बात कहूं।’

‘बोलो’

‘हम दोनों की मुराद पूरी हो गई है। इस बार मैं आपका वारिस आपका बेटा ही पैदा करूंगी।’

सोफी से इतना सुनते ही जुल्फी एक दम सीधा बैठ गया और पूछा,

‘मगर तुम इतना यकीन से कैसे कह सकती हो?’

जुल्फी के इस प्रश्न पर सोफी ने उसे चेकअप वाली पूरी बात बता दी। सिर्फ़ यह छिपाते हुए कि सीमा सूत्रधार थी और आखिर तक साथ थी। उसकी बात पर जुल्फी सिर्फ़ इतना ही बोला,

‘इससे कुछ नुकसान तो नहीं होगा।’

‘नहीं डॉक्टर ने कहा है कि ‘‘स्कूटी वगैरह चलाना बंद कर दें।’’ वह बता रही थीं कि इस बात की संभावना ज़्यादा है कि बच्चा ओवर वेट, ओवर साइज हो। इसलिए बड़े सिजेरियन की ज़रूरत पड़ेगी। मतलब की उस वक़्त काफी पैसा लग सकता है।’

सोफी की बात सुन कर जुल्फी कुछ गंभीर हो गया। फिर बोला,

‘एक ऑटो रिक्शा लगवा देता हूं। ऑफ़िस उसी से जाओ-आओ। फिर जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी मैटरनिटी लीव ले लो। एक नौकरानी भी लगवा देता हूं, काम-धाम कम करो।’

यह बातें जुल्फी की सोच उसकी प्रकृति, आदत से एकदम विपरीत थीं। जिसे सुन कर सोफी को जितनी खुशी हुई उससे कहीं ज़्यादा आश्चर्य। अब तक लेट चुके जुल्फी को उसने अपनी बाँहों में ले लिया। बहुत दिनों बाद वह बेहद सुकून भरा क्षण जी रही थी। जब कि बाबा का चेहरा उसकी आंखों के सामने बराबर नाच रहा था। साथ यह बात भी नत्थी थी कि कहीं बेटा बाबा की सूरत-सीरत पा गया तो क्या होगा? जुल्फी को क्या बताएगी? इसी कसमकस-उलझन में डूबते-उतराते गर्भावस्था के बाकी के पांच माह भी बीत गए और तय समय पर डॉक्टर की आशंकाओं के अनुरूप सिजेरियन से सोफी ने खूबसूरत चेहरे-मोहरे वाले बेटे को जन्म दिया। उसका चेहरा मां से इतना मेल खा रहा था कि देखते ही बेसाख्ता ही मुंह से निकल जाता ‘अरे! यह तो मां पर गया है।’

कई घंटे बाद होश में आने पर सोफी बेटे को छाती से लगा कर खुशी से रो पड़ी थी। उसी छाती से जिसमें किन-किन रास्तों से गुजर कर उसने बेटा पाया यह राज उसने हमेशा के लिए दफन कर लिया था। यह जानते हुए कि यह एक टीस भरी पीड़ा अंतिम क्षण तक देता रहेगा। उसे यह देख कर बड़ा सुकून मिला था कि बेटे का चेहरा बाबा पर नहीं पूरी तरह उस पर गया था। लेकिन शरीर की बाकी बनावट पर बाबा का अक्स साफ झलक रहा था। रंग तो पूरी तरह उन्हीं का था। उसने सोचा मगर जो भी हो बेटा न होने के कारण उस पर तलाक की जो तलवार लटका करती थी वह तो हट गई। उसने आस-पास देखा सिवाय नर्स और उसके सिर पर स्नेहभरा हाथ रखे सीमा के अलावा कोई न था। नर्स ने बच्चा उससे लेकर बेड के बगल में पड़े पालने में लिटा दिया और चली गई। तब सोफी ने सीमा का हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा,

‘मैं तुम्हारा एहसान कभी न चुका पाऊंगी।’

‘ओफ्फ... सोफी अब खुश रहो। इसमें एहसान वाली कोई बात नहीं है। दुनिया में सभी एक दूसरे के लिए करते हैं।’

‘पता नहीं... पर मेरा साथ कभी न छोड़ना।’

‘मैं छोड़ने के लिए किसी को अपना नहीं बनाती सोफी।’

इसी बीच पूरे नर्सिंग होम में मिठाई बांट कर जुल्फी भी आ गया तो सीमा ने कहा ‘सोफी मैं थोड़ी देर में आती हूं।’ वह जुल्फी से पहले ही मिल चुकी थी। उसके जाते ही सोफी ने एक टक बच्चे को निहार रहे जुल्फी से कहा,

‘अब तो खुश हैं।’

‘हां ... बहुत।’

‘सब कह रहे हैं कि बिल्कुल मुझ पर गया है।’

‘सही ही कह रहे हैं सब, तुम्हारी स्कैन कॉपी लग रहा है। सिवाय रंग के।’

जुल्फी के चेहरे को पढ़ने के इरादे से उसे गौर से देखते हुए सोफी ने आगे कहा,

‘शायद तुम्हारे हकीम साहब की दवा काम कर गई। सांवलापन उनकी दवाओं के कारण ही तो नहीं हो गया।’

‘शायद नहीं, बेटा निश्चित ही हकीम साहब की दवाओं के चलते ही हुआ। और रंग... रंग का क्या करेंगे। बेटा बेटा है। मैं हकीम साहब के पास जाऊंगा उनसे और दवाओं के लिए कहूंगा जिससे तुम मुझे अगले साल एक और बेटा दे सको।’

‘क्या ?’

‘अरे! ...... इसमें इतना चौंकने वाली क्या बात है, एक बेटा यानी कानी आंख। कम से कम दो तो चाहिए ही चाहिए।’

तभी नर्स ने आ कर जुल्फी को एक पर्चा थमाते हुए कुछ दवाएं तुरंत लाने को कहा। जुल्फी को कमरे से बाहर जाता देखती रही सोफी। वह एकदम परेशान हो उठी। उसके दिमाग में एक दम से यह कौंधा कि बच्चा पैदा करने की मशीन के अलावा भी कभी कुछ समझोगे। जो तकलीफ झेलती हूं उसका अंश भी पलभर को न झेल पाओगे। कितनी आसानी से कह दिया और बेटा चाहिए। मन का सब हो गया पर प्यार के दो लफ़्ज न बोल पाए। मौत के मुंह से निकल कर आई हूं पर एक बार न पूछा कैसी हो। बस आंखों, दिलो दिमाग पर अपना ही स्वार्थ छाया हुआ है और बेटा चाहिए। बस बहुत हो गया। देते हो तलाक तो दे दो। तुम न सही बेटे को ही सहारा बना लूंगी पर अब बच्चा पैदा करने की मशीन बिल्कुल नहीं बनूंगी। भाड़ में गईं तुम्हारी दवाएं। अब भूल कर बाबा के पास भी जाने वाली नहीं।

तुम्हारे पास आने से पहले ऐसा इंतजाम करके आऊंगी कि चाहे तुम जितनी दवाएं खा लोगे, जितना भी जोर लगा लोगे मैं प्रिग्नेंट ही नहीं होऊंगी। सोफी की आंखों में आंसू भर आए और और एकदम से अम्मी की याद आ गई।

उनसे वह आखिरी बार मिलना एवं फिर हमेशा के लिए बिछुड़ना और साथ ही उनकी दी वह बद्दुआ कि तुझे अल्लाह-त-आला जीवन में कभी सुकून नहीं बख्सेगा। उसने मन ही मन कहा अम्मी तू तो कहती थी कि ‘मां-बाप के दिल से बच्चों के लिए बद्दुआ निकलती ही नहीं। वह तो गुस्से में ऊपरी तौर पर निकल जाती है।’ पर अम्मी, लगता है कि मेरे लिए तेरी बद्दुआ दिल से निकली थी, तभी तो तब से आज तक एक पल को सुकून नहीं मिला। हालात ऐसे बन गए हैं कि अंतिम क्षण तक सुकून का एक पल मिलेगा यह सोचना भी मूर्खता है। मगर अम्मी इसमें गलती तो मेरी ही है। न तेरे दिल को मैंने इतना दुखाया होता, न ही तेरे दिल से मेरे लिए बद्दुआ निकलती। तड़प तो तू भी रही होगी अम्मी आखिर हो तो मां ही ना। औलाद से बिछुड़ कर कहां चैन होगा तुझे भी। औलाद वाली बनकर ही समझ पाई हूं तेरे उन आंसुओं की कीमत, जो उस दिन झर रहे थे तेरी आंखों से। यह सोचते-सोचते सोफी के भी आंसू बह चले थे। शायद दवाओं का असर कम हो गया था इसलिए दर्द भी बढ़ रहा था। उसने अपनी जगह से ही बच्चे पर नज़र डाली और देखती रही उसे। उसके मन में उद्विग्नता की लहरें ऊंची और ऊंची होती जा रही थीं। उन लहरों पर बाबा का अक्स भी बड़ा और स्पष्ट होता जा रहा था।

समाप्त