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औघड़ का दान - 7

औघड़ का दान

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग-7

बाबा ने कुछ क्षण उंगलियों को उसी तरह रखने के बाद पुनः जय महाकाल का स्वर ऊंचा किया और उन तीनों उंगलियों को अपने मस्तक के मध्य स्पर्श करा दिया। इस बीच सोफी ने कई बार उन्हें आंखें खोल-खोल देखा और फिर बंद कर लिया। वह अपने शरीर में कई जगह तनाव महसूस कर रही थी। उसके मन में अब तुरत-फुरत ही यह प्रश्न भी उठ खड़ा हुआ कि आखिर बाबा जी कर क्या रहे हैं, कौन सी प्रक्रिया है जिसे पूरी कर रहे हैं। यह सोच ही रही थी कि उसने बाबा का हाथ सलवार के नेफे पर महसूस किया। बाबा ने सलवार के अंदर खोंसे उसके नाड़े के सिरों को बड़ी शालीनता से बाहर निकाल लिया था। सलवार का वही नाड़ा जिसने उसे करीब दो महीने खून के आंसू रुला दिए थे। बाबा ने नाड़ा का एक सिरा खींच कर सलवार खोल दी। मगर काम में शालीनता अभी कायम थी।

जुल्फी भी तो बरसों से यही करता आ रहा है। मगर कितना फ़र्क है। उसके करने में। नाड़ा खोलने में ही शरीर का कचूमर निकाल देता है। मगर बाबा की प्रक्रिया वह पूरी-पूरी अब भी नहीं समझ पा रही थी। बाबा अभी भी कुछ बुदबुदा रहे थे और नाड़ा खोलने के बाद भी नाड़ा पकड़े एकदम स्थिर बैठे थे। सोफी ने फिर आंखें खोलकर देखा कुछ समझती कि इसके पहले ही बाबा ने शालीनता कायम रखते हुए दोनों हाथों से उसकी सलवार उतार कर बिस्तर के एक कोने में डाल दी।

वह बेहद शांत भाव से यह सब कर रहे थे। जल्दबाजी का कहीं नामों-निशान नहीं था। जबकि सोफी गड्मड् हो रही थी। बाबा ने सलवार की ही तरह उसके बाकी कपड़े भी उतार कर कोने में रख दिए। वहां सोफी के कपड़ों का एक छोटा सा ढेर लग गया था। सोफी की आंखें अब बराबर बंद थीं। उसकी सारी क्रियाएं प्रतिक्रियाएं साफ-साफ कह रही थीं कि बाबा के समक्ष निर्वस्त्र होने में उसे रंच मात्र को भी ऐतराज नहीं था। बल्कि उसके चेहरे पर विश्वास था कि पुत्र होगा, और उसे रोज-रोज की प्रताड़ना से मुक्ति भी मिलेगी। इस प्रताड़ना से मुक्ति के लिए यह सब ठीक ही है।

अब तक बाबा उसकी कमर से सटकर बैठ गए थे। बाबा की मंशा उसकी कुछ समझ में आ ही नहीं रही थी। कई मिनट तक स्पर्श के बाद बाबा ने संतानोंत्पति की प्रक्रिया पूर्ण की और इस भाव से उसकी बगल में बैठ गए जैसे वहां उनके अलावा और कोई है ही नहीं। सोफी अब तुरंत उठ कर कपड़े पहन लेना चाहती लेकिन बाबा की मुद्रा देख कर स्थिर पड़ी रही। उठी तब जब बाबा ने उसके पेट पर अपनी हथेली रखते हुए कई बार जय महाकाल, जय महाकाल का स्वर उच्चारित किया और उठकर चले गए झोपड़ी से बाहर एकदम नंग-धड़ंग से।

उनके जाते ही सोफी भी बिजली की फुर्ती से उठ बैठी और एक झटके में अपने कपड़े उठा लिए। पिछले काफी समय से उसे यह डर बराबर सता रहा था कि वह निर्वस्त्र यह सब एक खुली जर्जर सी झोपड़ी में कर रही है ,कहीं कोई आ ना जाए। तेजी से कपड़े पहन कर वह बाहर आई तो देखा बाबा आग की ढेर के पास शांत भाव से बैठे थे। वह उनके करीब जाकर खड़ी हो गई। तो बाबा ने तुरंत चुटकी भर भभूत उसके हाथ में देते हुए कहा,

‘ले महाकाल तेरी मनोकामना पूरी करेंगे। इसे घर में जहां तेरा सामान रहता है वहीं रख देना। अगले हफ्ते आज ही के दिन फिर आना।’

सोफ़़ी ने बाबा से भभूत ली और बैग में से पर्स निकाल कर उसमें रखी एक छोटी सी रसीद में मोड़ कर रख लिया। चलने से पहले उसने बाबा से हिचकते हुए पूछ लिया कि ‘बाबा जी अभी और कितनी बार आना है।’ उसके इस प्रश्न पर बाबा ने एक उड़ती सी दृष्टि उसके चेहरे पर डाली और बोले,‘पेट में संतान आ जाने तक।’उनका उत्तर सुन सोफी ने उन्हें प्रणाम किया और वापस चल दी।

वापसी में उसे स्कूटी चलाने में उतनी असुविधा नहीं महसूस हो रही थी जितनी की आते समय उसने महसूस की थी। हां दिमाग में ज़रूर हलचल, उथल-पुथल पहले से ज़्यादा थी। यह उतनी न होती यदि बाबा ने वापसी में यह न कहा होता कि ‘पेट में संतान आ जाने तक आना है।’ मन में उद्विग्नता इस वाक्य ने न सिर्फ पैदा की बल्कि उसे बढ़ा भी रही थी। वह सोच रही थी कि न जाने कितने जतन कर, हज़ार बार सोचने के बाद, हिम्मत कर हार जाने और अंततः जीत कर किसी तरह एक बार आ पाई। और बाबा की बात तो न जाने और कितनी बार आने को कह रही है।

चलो मान लें कि मुकद्दर मेरा साथ देगा और मैं हड़बड़-तड़बड़ में प्रिग्नेंट हो जाऊंगी। लेकिन तब भी अगली माहवारी तक तो इंतजार करना ही पड़ेगा। उसके पहले तो प्रिग्नेंसी हुई या नहीं यह चेक करने का तो कोई तरीका नज़र आता नहीं। लगता नहीं कि डेढ़ महीने से पहले कुछ मालूम हो पाएगा। इसका सीधा सा मतलब है कि कम से कम चार-पांच बार और आना पड़ेगा। और जुल्फी! इतनी बार यहां आ कर उनसे नजर बचा पाना तो नामुमकिन ही है। आज भी देखो क्या होता है।

सोफ़ी के मन में इतनी उथल-पुथल उस समय बिल्कुल न थी जब बाबा ने अंदर बुलाया था और कि तब भी नहीं जब बाबा बेटा हो इस हेतु अपनी प्रक्रिया पूरी कर रहे थे। बल्कि तब वह सब गुजर रहे होने के बावजूद कहीं यह संतोष था कि चलो बेटा पाने का रास्ता साफ हो गया। अब ज़िंदगी की दुश्वारियां, गर्दन पर लटकती हर क्षण तलाक की तलवार हट जाएगी। वह भी मात्र कुछ घंटे सबसे छिप-छिपाकर बाहर रहने और एक बाबा के सान्निध्य में आने भर से।

सब कितना आसान सा लग रहा था। लेकिन बाबा ने यह कह कर तो पूरी धारा ही बदल दी कि और कई बार आना पड़ेगा। सच है जिसने भी यह कहा है कि ज़िदंगी में कुछ भी पाना आसान नहीं है। छोटा सा भी सुख बड़े ऊबड़-खाबड़ रास्ते से गुजर कर ही मिल पाता है। एक औलाद का पैदा होना कितना बड़ा सुख है। लेकिन उसके पहले पेट में नौ महीने तक रखना, फिर प्रसव की असहनीय पीड़ा को झेलना, दुनिया भर की दवा-दारू और न जाने कितने कष्ट फिर कहीं संतान मिलती है।

मेरी अगली संतान जो बेटा हुई तो निश्चित ही बेइंतिहा खुशी होगी। जुल्फी की खुशी की तो कोई सीमा ही न होगी। लेकिन उसके पहले यह सब जो मैं कर रही हूं कितना कष्टदायी है। बल्कि यह तो उससे भी कहीं बहुत आगे है। न जाने कितना आगे है। इस असहनीय पीड़ा से यदि बेटा मिल गया तो घर में सब निश्चित खुश होंगे, खुशी तो मुझे भी होगी लेकिन साथ ही बदन में चुभीं अनगिनत फांसें असहनीय पीड़ा अंतिम सांस तक देती रहेंगी। बच्चा सामने होगा तो उसके साथ ही हर क्षण बाबा का चेहरा भी होगा। जो हर वक़्त मुझे डराएगा। सबके सामने चेहरे पर हंसी खुशी होगी लेकिन अंदर-अंदर घुटन भी होगी। यह कहीं ऐसा भी हो सकता है जैसे कि गर्दन पर लटकी एक तलवार हटाने के लिए मैंने खुद अपने ही हाथों उससे भी बड़ी दूसरी तलवार लटका ली हो। जिसे इस जीवन में तो हटाया ही नहीं जा सकता।

सोफी मन में चल रहे इस भीषण तूफान को लिए घर जल्दी पहुंचने की कोशिश में अफनाती हुई कुछ ही देर में पहुंच गई मेन रोड पर। उसे बड़ा सुकून मिला था इस बात से कि बाबा के यहां से निकलते और यहाँ आ जाने तक उसे किसी ने नहीं देखा। कोई उसे नहीं मिला। मगर मेन रोड पर उसे एक सिरे से दूसरे सिरे तक गाड़ियां ही गाड़ियां दिखाई दे रही थीं। जो जहां थीं वहीं खड़ी थीं। जबरदस्त जाम लगा हुआ था। इस रोड पर इतना बड़ा जाम! उसे माजरा कुछ समझ में न आया।

रोड से करीब पचीस-तीस क़दम पहले ही वह ठिठक गई, माजरे को समझने की कोशिश में। गाड़ियों का शोर और हर चेहरे पर जल्दी चल देने की बेचैनी उसे साफ दिख रही थी। मगर माजरा कुछ समझ में नहीं आ रहा था। किससे पूछे यह भी समझ में नहीं आ रहा था। इस बीच उसकी नज़र कुछ ही दूर एक पेड़ के नीचे बैठीं सास-बहू पर पड़ गई जो बाबा के यहां जाते वक़्त मिली थीं। वह तुरंत उनके पास पहुंची और स्कूटी खड़ी कर सास से पूछ लिया क्या हुआ है। सास ने बड़े गुस्से से कहा ‘अरे! हुआ क्या है? वही नेतागिरी है और क्या? इन सब के पास और कोई रास्ता नहीं है अपनी बात मनवाने के लिए जब देखो तब रास्ता जाम कर दिया। लोग मरें जिएं, चाहे जितना ज़रूरी काम उनका रह जाए, नुकसान हो जाए इससे उन्हें कोई मतलब नहीं, बस अपनी नेतागिरी से मतलब है। इस नाशपीटी नेतागिरी ने जीना मुहाल कर रखा है।’ सास का गुस्सा उसका बड़बड़ाना बहू को अच्छा नहीं लगा। उसने धीरे से कहा ‘अम्मा चुप हो जाओ कहीं इन सब ने सुन लिया तो आफ़त हो जाएगी।’

‘अरे सुन लेने दो, क्या आफ़त हो जाएगी। घंटों हो गए। बैठे-बैठे पैर कमर में दर्द होने लगा है। गला सूख रहा है। और तुम कह रही हो चुप रहो।’ सास की झिड़की सुन बहू चुप हो गई। सास के तेवर बता रहे थे कि वह तेज़ मिज़ाज़ की है और अपने घर की तानाशाह भी। और उसके सामने बहू की स्थिति शेर के सामने मेमने जैसी है। सोफी को यह जान कर बड़ी उलझन हुई कि जाम हटे बिना पैदल भी निकलने का कोई रास्ता नहीं। क्योंकि हालात ऐसे बन चुके हैं कि किसी भी वक़्त पुलिस लाठी चार्ज कर सकती है। और तब भगदड़ में बचना आसान नहीं होगा।

अंदर ही अंदर झल्लाई सोफी ने उन दोनों के साथ वक़्त गुजारने की सोची और बहू को बात करने के इरादे से लेकर नजदीक ही एक दूसरे पेड़ के नीचे बैठ गई। उसके मन में बहू से यह जानने की इच्छा प्रबल हो उठी थी कि बाबा ने उसे समस्या समाधान के लिए क्या उपाए बताए। पूजा के लिए क्या उसे भी निर्वस्त्र कर दिया था और कि उसकी सास को अलग कर दिया था या उसके सामने ही। बहू ने बहुत कुरेदने के बाद भी जब इस विषय पर साफ-साफ कुछ कहना शुरू नहीं किया तब सोफी ने यह सोच कर कि यह मुझे जानती नहीं और हम दोनों एक ही नाव पर सवार हैं तो यह किसी को कुछ बताएगी नहीं, उसे बाबा के सामने निर्वस्त्र होने की बात बता दी। सहवास वाली बात को पूरी तरह छिपाते हुए।

इसके बाद बहू भी कुछ खुली और बताया कि बाबा ने बड़ी कठिन पूजा की बात बताते हुए सास को साफ बता दिया कि पूजा करने वाले को निर्वस्त्र होना पड़ेगा। मैं इसके लिए बिल्कुल तैयार नहीं थी, सास से वापस चलने को कह दिया। लेकिन सास लड़के को हाथ से निकलते बर्दाश्त नहीं कर पा रही हैं इसलिए कुछ असमंजस के बाद तैयार हो गईं। वह इसलिए भी ज़्यादा परेशान हैं कि लड़का दूसरे धर्म की औरत के चक्कर में पड़ा है। वह भी मन न होते हुए पहले तो अपने जीवन के अंधेरे को दूर करने की गरज से फिर सास के दबाव एवं बाबा के विराट स्वरूप के सामने अंततः तैयार हो गई, समर्पित हो गई।

सास तो इतना प्रभावित हैं कि बाबा को अपने सामने साक्षात् उतर आए भगवान मान कर अटूट विश्वास कर बैठी हैं कि बस चुटकी बजाते ही अब सब सही हो जाएगा। उसे इस बात की जरा भी परवाह नहीं थी कि बहू बाबा के सामने निर्वस्त्र होगी। वह झोपड़ी के बाहर हाथ जोड़े बैठी रही और उसने बाबा के कहने पर आंखों में आंसू लिए सारे कपड़े उतार दिए और बाबा ने तरह-तरह की पूजा संबंधी प्रक्रियाएं पूरी कीं, इसके लिए उन्होंने शरीर के विभिन्न हिस्सों को छुआ भी। भभूत भी लगाई और वही दी भी। और आते वक़्त पूरा विश्वास भी कि सब पूरी तरह ठीक हो जाएगा। बस दो तीन बार और आना पड़ेगा।

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