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एक जिंदगी - दो चाहतें - 32

एक जिंदगी - दो चाहतें

विनीता राहुरीकर

अध्याय-32

फिल्म खत्म होने के बाद दोनों फूड कोर्ट में आ गये। साढ़े तीन बज गये थे। भूख जम कर लगी थी। परम ने तनु की पसंद का खाना ऑर्डर किया और तनु की सामने वाली कुर्सी पर बैठ गया। थोड़ी ही देर बाद खाना आ गया। दोनों ने खाना खत्म किया और मॉल से बाहर आ गये। साढ़े चार बज रहे थे। बाहर अच्छी तेज धूप थी। परम इस्कॉन मंदिर जाने वाले रास्ते पर आ गया। पहले भी कई बार वो तनु के साथ यहाँ आ चुका था। उसे तनु के साथ यहाँ आना बहुत अच्छा लगता था। राधा-कृष्ण जी की प्यारी सुंदर उर्जा से भरी हुई तेजोमय मुस्कुराहट से दमकती मूर्तियाँ देखकर दोनों का मन आनंद से भर जाता था।

राधा कृष्ण जी को प्रणाम करके दोनों ने बालगोपाल का पालना हिलाया और फिर गर्भगृह के सामने बने सभागृह में बैठ गये।

एक पूरा दिन बाहर आउटिंग करके और एक दूसरे के साथ एक बहुत प्यारा दिन बिता कर और एक लॉन्ग ड्राईव पर जाकर दोनों रात में नौ बजे घर पहुँचे।

अभी दोनों ने कपड़े बदलकर नाईट सूट पहना ही था कि चाची का फोन आया। वो कह रही थी कि देवी माँ की मूर्ति की स्थापना करने का शुभ मुहुर्त इसी शुक्रवार का निकला है। इसके बाद अगले तीन महीनों तक फिर कोई मुहूर्त नहीं है।

परम ने हाँ कह दिया।

वैसे भी दोनों सोच ही रहे थे कि शनिवार रविवार सबको अपने घर बुलाएंगे तो एक दिन जल्दी सही। दोनों काम एक साथ हो जायेंगे।

***

सोमवार को तनु को ऑफिस छोड़कर परम चाची के पास चला गया। उस दिन उसने पूजा के दिन की तैयारियों के बारे में सब तय कर लिया। सावित्री ने पंडित जी को फोन लगाकर दिन और समय निश्चित कर लिया। पूजा में लगने वाली सामग्री की लिस्ट लेने के लिए पंडित जी ने शाम को अपने घर पर बुलाया। परम शाम को आने का बोलकर तनु के ऑफिस चला आया।

शाम को पाँच बजे तनु को लेकर वह चाची के यहाँ गया। सावित्री ताला लगाकर नीचे गेट के पास ही आकर खड़ी थी। साथ में वे लोग नवरंगपुरा में पंडित जी के घर गये। थोड़ी देर ढूंढऩे पर ही पंडित जी का घर मिल गया। धोती-कुर्ता और मुँह में बांग्ला पान और हाथ में सरौता और सुरती। परम को कलकत्ता की याद आ गयी। अहमदाबाद में बंगाली पंडित जी का मिलना सौभाग्य की बात है।

पंडित जी ने पाँच मिनट औपचारिक बातें करने के बाद पूजा सामग्री की लिस्ट परम को थमा दी। लिस्ट क्या थी ऐसा लग रहा था कि पूरी दुकान की चीजों का नाम लिख दिया है। परम के माथे पर पसीना झिलमिला आया। इतना सब सामान इक_ा करने में तो पूरा हफ्ता निकल जायेगा। तभी पंडित जी ने उसकी समस्या का समाधान कर दिया। उन्होंने परम को वो दुकान बता दी जहाँ ये सारा सामान एक साथ मिल जायेगा।

''आप आज घर जाते हुए दुकानवाले को यह लिस्ट दे देना वो सारा सामान एक साथ जमा करके सब दे देगा। कल जब भी आपको सुविधा हो जाकर ले आना।" पंडित जी ने मुँह में पान भरे हुए ठेठ बंगाली लहजे में कहा।

तभी पंडिताईन जी चाय नाश्ता ले आयी। परम ने सोचा वो अपरिचित हैं तो क्या हुआ चाची तो उनकी पुरानी परिचित हैं। अब अनौपचारिक घरेलू बातचीत का दौर प्रारंभ हो गया। पंडित जी नौकरी के चक्कर में घूमते - फिरते अहमदाबाद पहुँच गये थे। उनके पिता भी अहमदाबाद में पंडिताई करते थे। बचपन से ही पिताजी के साथ पूजा हवन, अनुष्ठानों में जाते रहने के कारण इस विद्या में भी पारंगत हो गये थे। वही विद्या आज अहमदाबाद और आसपास के शहरों में रहने वाले बंगाली परिवारों के यहाँ धार्मिक उत्सवों व दुर्गा पूजा, प्राण प्रतिष्ठा, नामकरण, जन्म से लेकर मरण तक के सभी आयोजनों को पूर्ण करने में सहायक हो रही थी। बंगाली जन भी धन्य और पंडितजी की कमाई भी धन्य। पंडित जी को अच्छी खासी अतिरिक्त आय हो जाती और बंगाली गृहस्थों के धार्मिक काज सिद्ध हो जाते।

चाय नाश्ते के पश्चात् सावित्री ने पंडित और पंडिताईन जी से आज्ञा मांगी और विदा लेकर बाहर आ गये। चाची के घर के रास्ते मेंं ही वो दुकान थी जहाँ पूजा की सामग्री मिलती थी। सावित्री को दुकान पता थी इसलिये ढूंढने में ज्यादा परेशानी नहीं हुई। परम ने लिस्ट दुकानदार को पकड़ा दी और दूसरे दिन शाम को आने का बोल दिया।

दूसरे दिन ऑफिस से वापस आते हुए परम और तनु पूजा की सारी सामग्री ले आए। सामान से भरे दो बड़े-बड़े बक्से देखकर परम हैरान रह गया।

''बाप रे देवी की प्राण प्रतिष्ठा का भी बड़ा तामझाम रहता है। चाहे दुर्गा देवी की मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा करवानी हो चाहे पत्नी देवी की घर में। बिना ढेर सारे तामझाम के देवी महारानी कहीं प्रतिष्ठित ही नहीं होती हैं।"

परम ने बक्से कार की डिग्गी में रख दिये। तभी दुकानदार ने छोटे-छोटे सामानों से भरी एक और थैली उसके हाथ में पकड़ा दी।

''अभी ये भी बचा ही था क्या?" परम ने थैली लेकर बक्सों के ऊपर रख दी और डिग्गी बंद करके ड्राइविंग सीट पर आकर बैठ गया।

घर आकर उसने घर की चाबी तनु को देकर दरवाजा खोलने को कहा और खुद एक बक्सा उठा लिया। पूजा का सारा सामान उसने डायनिंग टेबल पर एक ओर रख दिया। तनु हाथ-मुँह धोकर और कपड़े बदल कर आयी और रात के खाने की तैयारी करने लगी।

रात का खाना खाकर दोनों बक्से खोलकर पंडितजी ने दी हुई लिस्ट से सारे सामान का मिलान करने लगे। कुछ भी सामान अगर कम हो तो ऐन पूजा के समय पर भागदौड़ न हो जाये। परम बक्से से सामान निकालता और तनु लिस्ट में टिक करती जाती। साढ़े दस बजे तक सारे सामान का मिलान हो गया। दुकानदार ने बड़ी सावधानी से एक-एक चीज रखी थी। परम ने बक्सों के ढक्कन टेप से चिपकाकर उन्हें पूजा घर में रख दिया। अब केवल वही सामान बचा था जो एक दिन पहले ही आना था जैसे फल, दूध, दही, मिठाई, हार-फूल, पान और आम के पत्ते आदि।

दूसरे दिन सुबह उठते ही परम ने सबसे पहले तनु की बुआ, मौसी और मामाजी को निमंत्रण देने के लिए फोन लगाया और कहा कि गुरुवार की रात ही आ जाएं क्योंकि शुक्रवार की पूजा सुबह आठ बजे से ही शुरू हो रही है। सबको जरूरी काम थे और दिन भी छुट्टी का नहीं था लेकिन परम के आग्रह को सबने सहर्ष स्वीकार किया। फिर परम ने तनु के माता-पिता को सारी सूचना दी। दोनों ने उसे आश्वासन दिया। रात में तो नहीं मगर पूजा के समय पर सुबह पहुँचने का वादा किया।

अगले दिन तनु को ऑफिस छोड़कर परम बाकी तैयारियों में लगा रहा। घर में इतने लोगों के लिए किराने, सब्जी-भाजी सबकी व्यवस्था करनी पड़ेगी। दोपहर को सुपर मार्केट जाकर परम ढेर सारा सामान ले आया। गुरुवार के दिन तनु ऑफिस नहीं गयी घर पर ही दोनों तैयारियाँ करते रहे। सब लोग पहली बार घर पर आ रहे थे तो तनु और परम सबके लिए उपहार भी लेकर आए।

पूजा की बची हुई सामग्री भी परम सुबह ही ले आया। पाँच बजे मामा-मामी पहुँचने वाले थे। सात बजे बुआ और फूफाजी और मौसी-मौसाजी रात के साढ़े आठ बजे तक आने वाले थे। तनु की माँ ने एक रसोईया और दो नौकर दोपहर को ही तनु के घर भेज दिए। परम को बहुत संकोच हुआ पर वे मानी ही नहीं। बोली कि तुम दोनों ही काम में लगे रहोगे तो आने वाले मेहमानों के साथ कौन बैठेगा, बातें करेगा।

परम निरूत्तर हो गया।

चार बजे तक परम और तनु ने अपनी ओर से सारी तैयारी पूरी कर ली।

एक-एक कर सारे मेहमान आ गये। घर में बातों और हँसी की फुलझडिय़ाँ छूटने लगीं। नौकर पानी, चाय, नाश्ता समय पर हर आने वाले के लिए सर्व कर रहे थे।

रसोईया रात के खाने की तैयारी में लगा था। चाचा-चाची आये तो परम ने सबसे उनका परिचय करवाया। सब लोग पूर्वाग्रहों को त्याग कर बड़े अपनेपन से आपस में मिले और दो ही मिनट के बाद परम को ऐसा लगा ही नहीं कि वे लोग अलग-अलग परिवारों से हैं। सब लोग आपस में इतना घुलमिल गये। रात में जैसे ही मामा-मामी और आकाश आए वैसे ही ठहाके दुगुने जोश में लगने लगे। आकाश न जाने कितने तरह की खिलौने वाली बंदूके अपने साथ लाया था। परम ने भी उसके लिए बंदूक और आर्मी की खिलौने वाली जीप खरीद कर रखी थी। आकाश दोनों उपहार देखकर खुश हो गया।

रात का खाना खाकर सब लोग देर तक बातें करते रहे। उस रात सोते समय परम के मन में एक सुखद शांती थी कि तनु और उसके परिवार की एक डोर आज जुड़ गयी।

दूसरे दिन सुबह साढ़े पाँच बजे उठकर नहा धोकर तनु नीचे आयी तो देखा परम के चाचा-चाची दोनों पूजा घर में बैठे थालों में पूजा का सामान निकालकर तैयारी कर रहे हैं। तनु ने दोनों को प्रणाम किया और दोनों से पूछ-पूछ कर एक पटे पर नवग्रह पूजा की सामग्री सजाने लगी। थोड़ी ही देर में परम भी आ गया। रसोईये ने गरमागरम चाय बनाकर दी सबको। सावित्री अनुष्ठान को याद कर-करके एक के बाद एक वस्तुएं ठीक करती जा रही थी। कब पंचामृत लगेगा, किस थाली में बुक्का, गुलाल, सिंदूर लगेगा कब आम के पत्तों वाला कलश पूजा जायेगा और कब देवी माँ का शृंगार चढ़ेगा। साढ़े छ: बजे सावित्री ने तनु को लाल सुर्ख रंग की बंगाली साड़ी पहनाई। परम उसके रूप को देखता ही रह गया। सबका ध्यान बचाकर परम उसके कान में धीरे से बोला-

''आय-हाय मेरी लाल मिर्ची।"

''पूजा वाले दिन तो शांती रखो।" तनु ने आँख दिखाई।

''कैसे शांती रखूं जी ऐसी चटपटी मसालेदार लाल मिर्च को देखकर, मुँह में पानी आ रहा है।" परम ने अपनी एक आँख दबाकर कहा।

तभी ऊपर से सब लोग नहाकर और तैयार होकर नीचे पूजाघर में ंआ गये। परम ने पूजाघर के सामने बड़ी सी दरी बिछा दी सबके बैठने के लिये। बचा हुआ काम बुआ-मौसी ने पूरा कर दिया। तभी भरत भाई और शारदा भी आ गये। परम ने अपने अंदर तनाव का एक अव्यक्त सा बोझ महसूस किया। लेकिन तभी परम के चाचा तपाक से उठकर भरत भाई की अगुवानी करने के लिये गये। परम के चाचा होने के नाते आज तो इस आयोजन के मेजबान भी थे तो समधीजी का स्वागत करने की जिम्मेदारी भी उन्हीं की थी।

भरत भाई ने लपककर उनके हाथ पकड़ लिये और हँसते हुए उनके साथ पूजाघर के सामने वाली दरी पर बैठ गये। सावित्री और शारदा आपस में गले मिली और बैठकर बातें करने लगीं। परम और तनु ने एक दूसरे की ओर देखा और मुस्कुराए। दोनों के चेहरे पर खुशी भरे तसल्ली के भाव थे।

रसोईये ने एक बार सबको साथ में चाय दी और नाश्ते की तैयारी करने लगा। मामी रसोई में उसकी मदद करने लगी। पूजा खत्म होने तक सबको उपवास करना था। उपवास तो तनु-परम और चाचा-चाची को करना था लेकिन मामी ने कहा कि सभी के लिये पहले उपवास का ही नाश्ता रखा जाये। पूजा के बाद सब खाना खा लेंगे।

समय पर पंडितजी आ गये और ठीक सात बजे पूजा प्रारंभ हो गयी। मंत्रोच्चार होने लगे। घर में उत्सव जैसा माहौल हो गया। परम की आँखों में खुशी के आँसू झिलमिलाने लगे।

उसका घर।

उसका परिवार।

घर में देवी माँ की प्राण प्रतिष्ठा का पवित्र अनुष्ठान और उसके साथ उसके जीवन की सबसे बड़ी खुशी।

और उसके साथ उसके जीवन की सबसे बड़ी खुशी।

उसका प्यार।

उसकी तनु।

दस बजे अनुष्ठान का पहला चरण पूजा हुआ तब पंडित जी ने तनु और परम को आधे घण्टे का ब्रेक दिया। पालथी मारे तीन घण्टे लगातार आसन पर बैठे-बैठे परम के पैर और कमर अकड़ गये थे। उसने उठकर अपनी कमर सीधी की और हाथ पैर ताने। नौकरों ने उसके लिए नाश्ता लगा दिया।

आधे घण्टे बाद दोनों फिर पूजा में बैठ गये। पंडित जी एक-एक विधी पूरे मनोयोग से पूरी करवा रहे थे। ढाई बजे पूरा अनुष्ठान सम्पन्न हुआ और देवी माँ पूरे आदर और सम्मान के साथ मंदिर में प्रतिष्ठित हो गयीं।

खाना तैयार था। मामा जी ने आज सबकी थालियाँ नीचे ही परंपरागत तरीके से लगवाई। घण्टों नीचे बैठने के बाद अब परम की हिम्मत जवाब दे गयी थी लेकिन सबके साथ उसे भी नीचे दरी पर बैठकर खाना-खाना पड़ा। मामीजी और चाची के मार्गदर्शन में रसोईये ने हरसंभव परंपरागत निरामिष बंगाली खाना बनाया था। संदेश और रसगुल्ले तो चाचा बाजार से ही ले आए थे।

दो दिन तक घर में उत्सव जैसा माहौल रहा। रात भर अंताक्षरी चलती। दिन भर गप्पे। बीच-बीच में आकाश की बंदूकें हर कहीं निशाना साधती रहती।

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