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और सूरज डूब गया

और सूरज डूब गया

राष्ट्रीय राजमार्ग पर सड़को को रौंदते ट्रकों की आवाज़ंे हाइवे के सुनसान वातावरण को जैसे सोते से झकझोर कर बार-बार उठा देती और सड़क भारी भरकम ट्रकोें के टायरों से बार-बार रौंदे जाने में जैसे घायल अधमरी होकर चुपचाप पड़ी हेैं जैसे कह रही हो - रौंद लो, और रौंदो....... मैं यूं ही पड़ी रहूंगी, चुपचाप बिना उफ् किये...।

उसी राजमार्ग पर इन्दर का ढाबा पड़ता है जिस पर तमाम ट्रक ड्राईवर आकर अपने लम्बे सफर की थकान उतारते हेै। नहाते-धौते हैं, खाते हैं-पीते हैं और लम्बी तानकर सोते हैं।

आज अभी सूरज ट्रक ड्राईवर अपना ट्रक लेकर सूरत के लम्बे सफर से लौटा है। आसमान पर उमड-घुमडकर बादलों के बीच ठण्डी हवा के झौंकों ने उसे दीवाना बना दिया है वह उसी दीवानगी में एक खाट पर लेटा आसमान मे तेज़ी से उमड़ते-घुमड़ते बादलों को निहारने लगा कि इन्दर ने उससे ऊंची आवाज़ लगाकर पूछा -

“और सूरज भाई, आज तो बडे़ दिनो में दर्षन दिये कहीं लम्बा चक्कर था क्या” ?

सूरज ने एक लम्बी अंगडाई लेकर जवाब दिया -

“यार ट्रक ड्राईवर को क्या लम्बा और क्या छोटा .....। सूरत गया था”।

“खाना लगाऊं या.......”। इन्दर ने सूरज का मूड जानने के लिहाज़ से बड़ी उत्सुकता से पूछा।

सूरज एक लम्बी आह भरकर खाट से उठ बैठा और ट्रक धोते हुए खलासी को आवाज़ लगाई -

“ओए पुतर ! ट्रक से बोतल ले आ”।

खलासी बोतल लेकर तुरंत हाज़िर हो गया।

सूरज ने बोतल को हाथ में लेकर प्यार से चूमते हुए अपने पास रखते हुए इन्दर से कहा-

“खाना भी खायेंगे, मगर लम्बे सफर के बाद ये मौसम.... ये बहारें.... हाय ! आज तो मर जाने को जी चाहता है”।

“किस पर ? उसी सन्तरा बाई पर या कोई दूसरी....?” इन्दर ने चुटकी ली।

“वाह कितना समझदार है तू....। इस बार तो एक महीना हो गया यार सन्तरा बाई के दर्षन हुए।”

“मगर सूरत में भी तो ऐष किये होंगे। सुना है वहां की औरतें तो बस कयामत....।”

“बस कर इन्दर बस कर....... अब और ना याद दिला। ला फटाफट गिलास ले आ। थोड़ी थकान मिटा लूं और सन्तरा बाई के लिये मूड भी बना लूं।”

“लो सूरज भाई ये गिलास.... ये पानी..... और ये प्याज़।”

सूरज बोतल को दाँतो से दबाकर उसका ढक्कन खोलने लगा कि तभी एक ट्रक घर्रघर्राता हुआ ढाबे से कुछ दूर रूक गया। ट्रक से उतरकर एक लम्बा-चौड़ा, कुर्ता-लुंगी पहने ड्राईवर ढाबे की ओर बढा जिसे देख सूरज ऊंची आवाज़ में पुकार उठा।

“ओए करतारे....। यार क्या नसीब वाला हूं मैं। ढक्कन खोला ही था तेरा नाम लेकर और तू....।”

उस ट्रक का ड्राईवर ने भी सूरज को देख आवाज लगाई -

“ओए सूरज तू...! ओए इतने दिनों बाद...?”

“ओ लग जा मेरे यार मेरे सीने से...। बडे़ दिनों बाद मिले हैं। आ बैठ।” सूरज ने करतार को गले लगाते हुए खाट पर बैठा लिया।

दोनोें खाट पर बैठ एक दूसरे को देख खुष हो गये। करतार दूर आसमान को देखकर उठा -

“क्या करें यार, असी ड्यूटी एैसी है। घर...भार....यार सभी से दूर.....। अपनी ज़िंदगी तो गड्डी विच ही गुज़र जानी है”

फिर कुछ रूककर करतार ने सूरज से पूछा -

“तू भी तो सूरत गिया सी ? ओए सीधा घर जाने की बजाय तू इत्थे बैठा है ? ओ तेनू याद नी आंदी है घर की ?”

“अरे यार, घर पर भी क्या रखा है...। वही बीमार बीवी, चार-चार बिलखती लड़कियां और बूढ़ी मां....। सच् बताऊं मेरा तो मन ही नहीं करता घर जाने को।”

“ओ ये की कै रया है सूरज ? त्वाडा घर विच मन नी लगदा ? यार घर तो स्वर्ग होंदा है स्वर्ग....।”

करतार और सूरज की मित्रता से इलाके के सारे ड्राईवर वाकिफ हैं दोनांे एक ही गांव के एक साथ पढे-लिखे, लंगोटिया यार....। दोनो का ही बचपन से ही पढ़ाई में मन नही लगा सो मां-बाप ने दोनों को ही ड्राईवरी सिखवा दी...। मां-बाप गांव में और ये दोनो अपने गांव से कोसों दूर....।

सूरज दूर आकाष में चमकती बिज़ली को गौर से देखता है.......। आसमान पर काले बादलों के डेरे के साथ ही अंधेरा उतर आया है। उस अंधेरे को चीरती हुई बार-बार दूर क्षितिज में बिज़ली चमककर जैसे धरती में समा जाती है। एसी ही बिज़ली वो अपने सीने में भी कौंधते हुए महसूस करता है। बाहर फैलते अंधेरे से भी घोर अंधेरा उसके मन में भर जाता है जब वह अपनी बीमार पत्नी, बूढ़ी मां और चार लडकियों का ख़्याल करता है।

सूरज ने गिलास में शराब उंडेलते हुए डूबी आवाज में करतार से कहा

“मगर तू तो जानता है मेरा घर स्वर्ग नही, नरक है। चार-चार बेटियों का बोझ, बीवी की बीमारी.... और बूढ़ी मांँ की ज़िम्मेदारी निभाते-निभाते मैं खुद भी नरक का कीड़ा बन चुका हूं।”

“मगर ये नरक बनाने वाला भी तो तू ही है। किसने कहा था चार-चार बच्चे पैदा करने को...? क्या तू सड़कों पर बढ़ती भीड़ नीं देखदा ? क्या बेरोज़गारी ने तेनू ट्रक ड्राईवर बनने पर मज़बूर नी कित्ता ? इतना सब कुछ देखने के बाद भी तू घरवाली को एक बेटे के लिए परेषान करता रहा और टी.बी. का मरीज़ बना दिया उसे....? अब स्वर्ग को सड़क के किनारे बसी गंदी, मज़बूर बस्तियों में ढूंढता है .....? फिर तुझमें और दूसरे ट्रक ड्राईवरों में फर्क ही क्या है....?”

सूरज एक ही घूंट में गिलास खत्म कर देता है -

“हां.... हां कोई फर्क नहीं है। मुझे घर से ज़्यादा प्यार और सुकून उधर ही मिलता है। मेरी सन्तरा बाई मुझसे कभी बच्चों की फीस नहीं मांगती। कभी अपनी बीमारी का बहाना करके मुझे ना नहीं कहती....।”

“ओए छड दे, छड दे ये सब....। ये सन्तरा बाई नू छड दे। यूं रस्ते चलते मुंह मारना कोई अच्छी गल नी होंदी है। मैनू तुसी किन्नी बार समझाया सी कि घर वाली जैसा सुख कोई नी देंदा। और सुन ले मेरी गल, कोई ऐसी-वैसी बीमारी लाग गी तो लेने के देने पड़ जाउगा। ओ तूने टी.वी. विच नी वेख्या ? एड्स का नाम नी सुन्या..? आदमी जीते-जी मर जान्दा है। ओ रब ना करे तुझे कोई ऐसी-वैसी बीमारी....।”

करतार ने उसे समझाते हुये कहा जिसे सुनकर सूरज अचानक ही भड़क उठा -

“बस कर करतार...। मेरा मूड ख़राब मत कर। ले एक पैग ले।” गिलास उसकी और बढ़ाते हुये सूरज ने कहा।

“प्यारे इस करतार ने दारू नू हथ लाणा ही छड दित्ता है। मैं तो कैंदा हंू तू भी छड दे, ए ही नरक दा रस्ता है....।” कहते हुए करतार अपनी लुंगी समेट अकडकर मूंछो पर हाथ फेरने लगा।

“लगता है तूने ये कहावत नहीं सुनी “बंदर क्या जाने अदरख का स्वाद। मत पी....।” कहकर सूरज ने इन्दर को जोर से आवाज लगाई-

“ओ इन्दर....! साधु महाराज के लिए एक लस्सी ले आ।”

इन्दर ने भी उसी स्वर में स्वर मिलाकर चिल्लाया - “अभी लाया। लो जी प्राजी लस्सी.....।”

“लिआओ, लिआओ बादषाहो....। वाह ! की लस्सी है।” घूंट भरकर एक ही सांस मे सारी लस्सी पी गया सरतार।

“ए लो प्राजी, त्वाडी लस्सी पी लिथी। हुण मैं घर चलूं तेरी भाबी इन्तज़ार कर दी हुंदी...।”

करतार ट्रक स्टार्ट कर चला जाता है और छोड जाता है धूल का गुबार जो सूरज की सांसो के साथ ही एक कसैले स्वाद के साथ उसके सीने मंे अन्दर तक उतर जाता है।

“साला, करतार का बच्चा.....” वह बडबडाता है। दूर अभी भी बिज़ली कड़क रही है बेआवाज...।”

सूरज ने करीब-करीब अपनी बोतल पीने के बाद इन्दर को खाने के लिए आवाज़ लगाई। इन्दर तुरन्त खाना लेकर दौड पडा और उससे पूछा -

“क्या बात है ? मूड खराब सा लग रहा है ?”

“साला, करतार का बच्चा....। लुगाई का गुलाम.....। घर की बातें करके सारा मूड खराब कर गया।”

“तो क्या हुआ सन्तरा बाई सारा मूड ठीक कर देगी। आज तो मौसम भी तुम्हारा साथ दे रहा है। देखो कैसी बारिष हो रही है अब खाना खाकर निकल लो। वरना ये बारिष तुम्हारे और सन्तरा बाई के बीच वैरन ना बन जाये...।” कहते हुए आँख मारी, और आधी बची हुई बोतल धीरे से उठाकर सूरज से पूछा -

“भाई, ये मैं ले जाऊं....? मौसम है थोड़ा मैं भी मूड बना लंू....?”

सूरज उसे देख हंसा.... “साला, हरामी.....। ले जा, ले जा, ऐष कर......।”

रात गये देर से जब सूरज सन्तरा बाई के घर से लौटा तो घर के दरवाजे से ही अन्दर पत्नी की खांसी की आवाज सुनकर ठिठक गया। वो निरन्तर खांसे जा रही थी। खांसते-खांसते बडबडाती भी जा रही थी -

“है भगवान अब तो उठा ले....। कोई पानी देने वाला भी नहीं। खुद तो चले जाते हैं आठ-आठ दिन के लिए और मेरे माथे छोड जाते हैं सारी गृहस्थी....।”

उसे नषे में भी उसकी पत्नी की सारी बात साफ-साफ सुनाई दे गई उसने गुस्से सेे जोर से दरवाज़ा भड़भड़ा दिया। और दरवाज़ा खुलते ही चिल्ला पडा पत्नी पर -

“हाथ-पांव टूट गये हैं क्या ? दरवाज़ा भी नहीं खोल सकती ? खांसे जा रही है टी.बी. की मरीज़ कहीं की।”

“हे भगवान इतने दिनों बाद और इतनी रात गये आये हैं फिर भी सिवाय चिल्लाने के कुछ नहीं। प्यार से पूछोगे नहीं...... कैसी हूं, मां कैसी है... बच्चे...?” उसने आष्चर्य से कहा।

“हां, हां पूछ लूंगा। जा सो जा, क्या अभी इतनी रात में ही पूछना ज़रूरी है....? सुबह तक मर जायेगी क्या....? जा, जाकर सो जा मुझे अभी परेषान मत कर, मुझे ज़ोरों की नींद आ रही हैं।” और कुछ ही देर में वह सन्तरा बाई का ख्याल किये खर्राटे भरने लगा।

उसे लगा जैसे वह तेज़ी से सन्तरा बाई के घर के सामने से अपना ट्रक लिये गुजर रहा हो। चारों तरफ आंधी-तूफान मचा हो, धूल का गुबार, पंछी फड़फड़ाकर किसी अनहोनी आषंका से यहां-वहां उड, भाग रहे हों। उसे सन्तरा बाई का मकान बिल्कुल भी नज़र नही आ रहा हो। उसी वक्त अंधेरे को चीरती हुई सन्तरा बाई उसके सामने प्रकट हों गई हो। दोनो बांहे फैलाये उसने ट्रक के सामने आकर ट्रक रोक लिया हो-

“चलो घर चलते हैं।”

“नहीं, आज नहीं, आज मुझे जरूरी डिलीवरी देने जल्दी जाना है....। लौटते वक्त जरूर आंऊगा।” उसने जैसे सन्तरा से विनती की हो।

“नहीं, मैं आज तुम्हंे नहीं जाने दूंगी। आज तुम्हंे मेरे साथ चलना ही होगा...।” कहते हुए सन्तरा ने अपनी लम्बी-लम्बी बांहे फैलाकर उसे अपने आगोष में भर लिया है...। और ये क्या उसे लगा सन्तरा अपनी बाहों मे उसे उठाकर उड़ी, चली जा रही है अपने घर की ओर...। और घर पहुंचते-पहुंचते उसके उंगलियों के नाखून बड़े-बडे़ और बहुत पैने हो गये हैं। उसके बडे़-बड़े राक्षसी जैसे दांत भी नुकीले होकर होठांे के कोनो से बाहर निकल आये हैें.....। और ये क्या सन्तरा के घर पर नज़मा, गुलाबो, सफीना, ज़ोरा बाई सभी दरवाजे़ पर खड़ी हैं... सभी के नाखून और दांत निकल आयें है। सभी ने जाते ही उसे बिस्तर पर पटक दिया है और सन्तरा बाई उसके सीने पर चढ़कर उसके कलेजे को चीरने की कोषिष में अपने लम्बे-लम्बे नाखून अन्दर घुसाकर फाड़ डालना चाह रही हो। और देखते ही देखते उसने उसके सीने में अपने लम्बे पैने नाखून घुसेड़ दिये हो और उसका कलेजा बाहर निकाल लिया हो...। वह दर्द से तड़प रहा हो और नज़मा, गुलाबो, सफीना, जोरा सभी अपने लम्बे-लम्बे दांतो को दिखाकर दहाड़कर हंस पडी हो। और उसका कलेजा खाने के लिये टूट पडी हों...। वह तड़प रहा है उसे सांस लेने मे तकलीफ हो रही है.... तब तक जोरा बाई अपने लम्बे-लम्बे दांतो से उसके गले से लगकर उसका खून पीने लगी हो, और वह ज़ोर से चिल्लाने की कोषिष कर रहा हो, मगर उसकी आवाज़ उसके कण्ठ में ही घुटकर रह गई हो.....।

और सच ही में

वह पसीने से तरबतर हो चीख मारकर खाट पर बैठा हो गया.... “छोड़ दो ....मुझे छोड़ दे ज़ोरा..... मैं मर जाऊँगा....।”

तब उसकी पत्नी ने आकर उसे झिंझोडकर पूछा -

“क्या बात है ? क्यों चीख रहे हो.....?” और उसे छूते हुए बड़बड़ा उठी -

“अरे ! तुम्हें तो तेज़ बुखार हो गया है ? तुम चुपचाप लेटो, मैं चाय बनाकर लाती हूं। क्या हो गया जो जोर-जोर से चीखे जा रहे थे ? कोई सपना देखा क्या.... ?”

“हां, बहुत बुरा सपना.......चाय के साथ कोई दर्द की गोली पड़़ी हो तो ले आना, सिर फटा जा रहा है और बदन भी बुरी तरह टूट रहा है।”

और दर्द को सीने में दबाकर डर के मारे चुपचाप ओढ़ कर पुनः लेट गया। मन ही मन अनहोनी आषंका से डर गया। अच्छा खासा सोया। सन्तरा के यहां से आने के बाद ये तबियत क्यों खराब हो गई...? फिर ये सपना इतना भयानक....।

“लो चाय। गोली तो कोई भी नहीं है।” उसकी पत्नी ने कहा।

“बच्चे और मां अभी तक सो रहे हैं क्या ?” उसने पत्नी से पूछा।

“हां ! तुम कहो तो जगा दूं।” वह बोली।

“नहीं रहने दे। देख मेरी तबियत ज़्यादा बिगड़ रही है। जी मिचला रहा है, घबराहट भी हो रही है। ऐसा कर तू करतार को ही बुला दे। मैं उसी के साथ अस्पताल चला जाऊंगा।” उसने पत्नी से कहा।

“अच्छा बुलाती हूं। ”

संक्षिप्त सा उत्तर दे, उसकी पत्नी करतार को बुलाने चली गई और वह चाय पीकर, आंखे बन्द कर, ज्यों ही लेटा। उसे सपने वाली सारी आकृतियां पुनः नज़र आने लगी....? वह घबरा उठा, उसकी दिल की धड़कन उसे कनपटियों पर महसूस होने लगी। लगा जैसे तमाम कौए उसके चारों और कांव-कांव चिल्लाने लगे हो। उसने अपने आपको छू-कर देखा बदन बुखार से जल रहा था। मन ही मन सोचने लगा -

“ये क्या हो गया.....? कौनसी बीमारी ने अचानक घेर लिया मुझे ?”

तभी उसकी पत्नी ने उसे बताया कि करतार तो रात को ही अहमदाबाद निकल गया है। वह स्वयं ही उसके साथ चली जायेगी। अपनी खांसी की दवा भी ले आयेगी और उसे भी दिखा देगी। फिर ऑटो मंे बैठ दोनों सरकारी अस्पताल की ओर तुरन्त रवाना हो गये। बच्चों, बूढ़ी मां से बिना मिले ही वह फौरन ऑटो में बैठ गया।

ऐसा तो उसे पहले कभी नहीं हुआ था। इतनी घबराहट, इतनी कमज़ोरी.... फिर रात के स्वप्न से भयभीत हुआ। मन में तमाम बातें सोचने लगा था... करतार कहता है यहां-वहां मुंह मारने की आदत से एड्स..... जानलेवा खतरनाक बीमारी हो जाती है....। नहीं..... नहीं..... भगवान ना करे ऐसा कुछ हो। वह इस गंभीर बीमारी के बारे में सोचकर ही अन्दर तक कांप गया। अगर ऐसा हुआ तो....? वह तो जीते जी मर जायेगा...। उसकी बूढ़ी मां, बच्चों और पत्नी का क्या होगा....?

रास्ते भर बुरे विचारों के अलावा उसके दिमाग में कुछ भी नहीं आया और पता नहीं कब वह अस्पताल पहंुच गया। डॉ. ने उसे देखकर तमाम जांचे लिख दी और रिपोर्ट आने तक उसे भर्ती कर लिया गया। अकेली औरत उसकी दवाईयां, इन्जेक्षन और जांचो की रिपोर्ट के लिए चक्कर काटते-काटते अधमरी हो गई। उसका भी खंासते-खंासते बुरा हाल था।

और जांच रिपोर्ट देखते ही डॉ. ने सूरज को अलग वार्ड में भर्ती कर लिया साथ ही वो ही जांचे उसकी पत्नी की भी करवाई। मगर ईष्वर का शुक्र रहा कि पत्नी उसकी उस खतरनाक बीमारी की चपेट में आने से बची रही थीं। बस उसने इतना ही सुना था डाक्टर के मुंह से - “गनीमत है तुम तुम्हारे आदमी की तरह एचआईवी पॉजिटिव नहीं हो....।”

उसने उत्सुकता से पूछा - “डाक्टर साहब, ये क्या होता है ? मेरे आदमी को क्या हुआ है ? वो ठीक तो हो जायेगा ?”

“ईष्वर ही मालिक है। उससे दुआ करो।” डाक्टर सपाट सा जवाब देकर चला गया था।

वह अन्दर ही अन्दर रो पड़ी थी। तो क्या उसके पति को कोई घातक बीमारी...। और तब उसे किसी तरह पता पड़ ही गया था कि ये उसके पति का इधर-उधर मुंह मारने का ही नतीज़ा है। तब उसे भी घृणा हो आई थी ऐसे पति से। जी में आया था सड़ने दे यूं ही अस्पताल में। मगर क्या कर सकती थी सिवाय अपने भाग्य को कोसने के अलावा।

और उधर कई दिन बाद जब करतार लौटा तो उसकी सबसे पहले इन्दर से ही मुलाकात हुई। और इन्दर ने किसी खबरी की भांति ही सबसे पहले सूरज का किस्सा ही छेडा

“सरदार जी, सूरज का पता है आपको ?”

“ओए की होया सूरज को ? मैं तो चंगा-भला छोड़ अहमदाबाद गिया सी।” करतार ने लुंगी समेटते हुये कहा।

“बस तभी से अस्पताल में भर्ती है। डाक्टर ने बहुत बुरी बीमारी बताई है।” कुछ अटक कर “वो क्या.... हां एड्स....।”

“ओ की कैंदा है इन्दर ? ओ रब ना करे यार....।”

“हां-हां, एड्स ही है।” पूरे आत्मविष्वास से इन्दर ने कहा।

“तू गिया सी ?”

“सरदार जी मन तो बहुत किया, मगर डर के मारे नहीं गया। कहीं मुझे भी...।”

“अरे एैसे नी होंदा है एड्स। बात करने, साथ खाने, हाथ मिलाने से भी नीं होंदा है।”

“तो फिर कैसे होता है ?”

“ओ ये तो असुरक्षित शारीरिक संबंध और किसी एड्स रोगी का खून लेने से होंदा सी। मगर बेवकूफ तू नी गिया....? उना नूं किन्ना बुरा लग्या होगा। चल उठ, मैनू बता कित्थे भर्ती है...?”

“मगर सरदार जी ढाबा ? अभी तो धन्धे का...” इन्दर ने जैसे मज़बूरी ज़ाहिर करते हुए कहा।

“ओ गोली मार धन्धे नूं। साडा यार मुसीबत में है और तेनू धन्धे दी फिकर होंदी है ? तेरे चेले ने छड और मेरे नाल चल। देखूं मेरे यार नू की होया...।”

रास्ते भर करतार को सूरज के साथ बिताये पल याद आते रहे। आखिर दोनों गांव के एक ही स्कूल में साथ-साथ जो पढे़ थे। कितना शैतान था सूरज शुरू से ही। क्लास की लड़कियों को कच्ची इमलियां लाकर देना और उन्हें किसी न किसी बात पर छेड़ना, उसकी फितरत थी।

उसे अच्छी तरह याद है उस दिन गुरदीप को कच्ची इमली देने के लिए उसने उससे कहा था-“मेरी जेब से निकाल ले....।” और कच्ची इमली के लालच में जैसे ही उसने सूरज की जेब में हाथ डाला था तो उछल पड़ी थी। गिलगिली सी चीज़ उसके हाथ में आ गई थी। दूर फैंकते हुये कांपने लगी थी गुरदीप। सूरज एक मरी छिपकली अपनी जेब मंे जो डाल लाया था। फिर रूआंसी होकर गुरदीप ने सदा के लिए सूरज से कुट्टी कर ली थी और सूरज उसकी हालत देखकर हंस-हंस कर पागल हो गया था।

मगर उसकी बचपन की हरकतंे आज तक नही सुधरी थी। पढ़ाई छोड़कर ट्रक ड्राईवरी के साथ ही उसे सन्तरा, जोरा और गुलाबो का जो चस्का लगा तो छटा ही नहीं। और आज मौत के मुंह की ओर धकेल ही दिया उसे उसकी बुरी आदतों ने। वह रास्ते भर उसकी चार-चार लडकियों, बूढ़ी मां और उसकी देवी जैसी पत्नी के बारे में ही सोचता रहा। अब कैसे चलेगी उनकी घर-गृहस्थी....? और अस्पताल पहुंचते ही सूरज को देखकर भौचक्का-सा रह गया करतार।

“ओए ए की होग्या तेनू...? मेरे यार तेनू तो मैं भला चंगा छड गया सी मगर तू तो भर्ती हो गया। की होया तेनू..? डाक्टर की कैंदा है.....?” उसने लगभग रूंआसे स्वर में सूरज से कहा।

“करतार तू सही कहता था...। मैं बर्बाद हो गया... मैं जीते-जी मर गया....। मैंने तेरी बात नहीं मानी... तू सच् कहता था मेरे यार। सच्चा सुख घर में ही मिलता है, सड़क के किनारे सिर्फ गन्दगी..... जो मौत के रास्ते तक आदमी को ले जाती है। मैं भी उसी रास्ते की दलदल में....। मुझे एड्स हो गया करतार...। अब मैं नहीं बचूंगा....। नहीं बचूंगा मेरे यार। अब मेरे बीवी-बच्चों और बूढ़ी मां का क्या होगा....?” कहते-कहते फूट पड़ा सूरज।

करतार की आंखो में भी आंसू छलछला आये वह उससे लिपट गया -

“ओए मेरे यार कुछ नीं होना तेनू...। मैं हूं ना। वाहे गुरू की कृपा से तू जल्दी ही अच्छा हो जावेगा....।” करतार लगभग रो पड़ा।

“हां सूरज, भगवान के घर देर है मगर अंधेर नहीं। मेरा दिल कहता है तू जरूर अच्छा हो जावेगा.....।” इन्दर भी करतार के साथ ही आंखों में आंसू लिये कह पड़ा।

सूरज भी भर्राये स्वर मे जैसे सिसक पड़ा -

“नहीं..... नहीं मेरे यारों मैं अब नहीं बचूंगा। डॉक्टर कहता है एड्स के कीटाणु मेरे सारे खून में फैल चुके हैं अब कोई गुंजाईष नहीं है मेरे बचने की...। मैं पापी हूं करतार.....। मैं गुनहगार हूं उस देवी जैसी पत्नी का जिसको मैंने एक लड़के की खातिर चार-चार बेटियांे की मां बनाकर टी.बी. का मरीज़ बना दिया। मैं गुनहगार हूं उन बेकसूर बेटियों का जिन्हे मैं इस धरती पर तो ले आया मगर उनके लिए कुछ ना कर सका...। मैं शर्मिन्दा हूं उस मां से जिसने मुझे नौ माह कोख में रखा, जिसने मुझसे ना जाने क्या-क्या उम्मीदें लगाई.... और मैं उसकी उम्मीदों पर पानी फेर उसी की आंखों के सामने अपने और उसके माथे पर बदनामी का दाग लगाकर इस दुनिया मंे उसे बेसहारा छोड़ जा रहा हूं...। मैं वो बेषर्म इन्सान हूं जो तेरे समझाने, रोकने के बावजूद अपनी देवी जैसी पत्नी से छल करके पराई औरतों के पास जाता रहा, रास्ते की गंदगी में मुंह मारकर भी उसके सामने पाक-साफ होने का झूठा दंभ भरता रहा...।” फिर अपने रूदन पर नियंत्रण कर वह फिर बोलने लगा -

“आज.... आज मैं अपनी ही नज़रों मे गिर चुका हूं। लोग मुझसे नफ़रत करने लगे है...। मेरे पास आने से भी डरते हैं कि कहीं उनको भी एड्स ना हो जाये...। और तो और मेरी पत्नी..... मेरे बच्चे भी मुझसे दूर.....।” फिर अनायास ही पुनः बिलख-बिलखकर रोने लगा। काफी देर तक करतार से लिपटकर रोने के पष्चात अपने रूदन पर नियंत्रण कर उसने पुनः कहना शुरू किया -

“मैं इस समाज ही नहीं देष का भी कोढ़ बन गया हूं। मुझे जीने का कोई हक़ नही करतार...। मैं अब मर जाना चाहता हूं। मगर मरने से पहले एक विनती है तुझसे...।” उसने दोनों हाथ जोड दिये।

करतार अपने आंसू पोंछते हुये बोला -

“बोल ना...। तू कुछ भी कह मैं तेरे वास्ते सब करण लेई तैयार हूं, मगर मरने की बात ना कर मेरे यार....। ओ गुरू महाराज तेनू जरूर चंगा करेंगे।”

“तू... तू हर ट्रक ड्राईवर, हर ढाबे और तुझसे मिलने वाले हर इन्सान को मेरी कहानी सुनाना..... जिससे और लोग मेरी तरह इस दलदल में गिरने से बच जायंे......। इस देष को मुझ जैसे नही तुझ जैसे लोगो की जरूरत है मेरे यार जो लोगो मे एड्स जैसी घातक बीमारी से आगाह कर सकें। और..... और हो सके तो मेरे बीवी -बच्चों और बूढ़ी मां का ख्याल....।” कहते-कहते सूरज खामोष हो गया। उसे खामोष देख करतार और इन्दर भी उससे लिपटकर फूट पड़े -

“ऐसा मत कह मेरे यार...... ऐसा मत कह.....।“

मगर बहुत देर तक सूरज में कोई हलचल ना देख दोनो घबरा उठे और उसे झिंझोडकर कह उठे -

“सूरज....... सूरज तू कुछ बोलता क्यों नहीं....? डाक्टर..... डाक्टर.... ओए इन्दर ! सूरज हमें छोड़ गिया सी.... ओए सूरज डुब गया....सूरज डुब गया।”

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राजेश कुमार भटनागर

सहायक सचिव

राजस्थान लोक सेवा आयोग,

अजमेर