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नियति

हरफनमौला निर्मिति हर महफ़िल की जान हुआ करती थीं । शादी-ब्याह हो या कोई पार्टी, रौनक तो निर्मिति के आने के बाद ही आती थी। गाना-बजाना हो, शॉपिंग हो, मेहमानों की खातिरदारी या लेनदेन का मामला, उनके पास हर चीज का अच्छा खासा अनुभव था । छोटे से लेकर बड़े, सभी उनका बहुत मान करते थे ।

पर पति के स्वर्गवास के बाद उनमें बहुत फर्क आ गया था। वे काफी चुप सी रहने लगीं थीं। घरवालों ने उनके कमरे में हर सुख – सुविधा का इंतज़ाम कर दिया था । उन्हें किसी तरह की परेशानी न हो इसके लिए एक नौकरानी भी थी । अब यह नौकरानी उनकी सुविधा के लिए थी या बाकि सबकी सुविधा के लिए….. भगवान जाने । खैर, आस पड़ोस तो क्या दूर दराज के नाते रिश्तेदारों में भी उनके और उनके परिवार की ठाठ का खासा रौब था ।

और एक सर्द रात….. रात के चार बज रहे थे । रजाई शरीर से अलग की ही थी कि ठण्ड से उनके पूरे बदन में कंपकंपी दौड़ गई । चप्पल पहन कर, वे कमरे से अटैच्ड बाथरूम की ओर जाने लगी । भाग्य का फेर कहो या उनकी किस्मत, बाथरूम में अचानक वे किसी चीज से टकरा कर जमीन पर गिर पड़ीं और एक लम्बी चीख के साथ ही वे बेहोश हो गयीं। पास ही के कमरे में रजाई में दुबके बेटे-बहू के कानों में पता नहीं उनकी दर्दभरी आवाज़ पहुंची या नहीं, इसका उन्हें नहीं मालूम । अगले दिन लगभग आठ बजे, जब नौकरानी उनके लिए चाय ले कर आयी, तब घरवालों को उनके बेहोश हो जाने की सूचना मिली ।

आननफानन में दूसरे फ्लोर में रहने वाले बहू – बेटे को भी बुला कर, सब लोग शहर के नामी हॉस्पिटल को भागे । उनके कंधे की हड्डी टूट गयी थी । चार दिन बाद उनका आपरेशन हुआ, उम्र का तकाजा दे कर डॉक्टर ने निर्मिति अम्मा को लगभग दो महीने बिस्तर से उठने से मना कर दिया । उनके पति जिन्दा होते तो ज्यादा मुश्किल न होती, पर बहू – बेटे ,,,, सबकी अपनी भी जिंदगी थी । दो महीने का वक्त कोई पलक झलकते नहीं बीतता

हरफनमौला निर्मिति हर महफ़िल की जान हुआ करती थीं । शादी-ब्याह हो या कोई पार्टी, रौनक तो निर्मिति के आने के बाद ही आती थी। गाना-बजाना हो, शॉपिंग हो, मेहमानों की खातिरदारी या लेनदेन का मामला, उनके पास हर चीज का अच्छा खासा अनुभव था । छोटे से लेकर बड़े, सभी उनका बहुत मान करते थे ।

पर पति के स्वर्गवास के बाद उनमें बहुत फर्क आ गया था। वे काफी चुप सी रहने लगीं थीं। घरवालों ने उनके कमरे में हर सुख – सुविधा का इंतज़ाम कर दिया था । उन्हें किसी तरह की परेशानी न हो इसके लिए एक नौकरानी भी थी । अब यह नौकरानी उनकी सुविधा के लिए थी या बाकि सबकी सुविधा के लिए ,,,, भगवान जाने । खैर, आस पड़ोस तो क्या दूर दराज के नाते रिश्तेदारों में भी उनके और उनके परिवार की ठाठ का खासा रौब था ।

और एक सर्द रात ,,,,,,रात के चार बज रहे थे । रजाई शरीर से अलग की ही थी कि ठण्ड से उनके पूरे बदन में कंपकंपी दौड़ गई । चप्पल पहन कर, वे कमरे से अटैच्ड बाथरूम की ओर जाने लगी । भाग्य का फेर कहो या उनकी किस्मत ,,, बाथरूम में अचानक वे किसी चीज से टकरा कर जमीन पर गिर पड़ीं और एक लम्बी चीख के साथ ही वे बेहोश हो गयीं। पास ही के कमरे में रजाई में दुबके बेटे-बहू के कानों में पता नहीं उनकी दर्दभरी आवाज़ पहुंची या नहीं, इसका उन्हें नहीं मालूम । अगले दिन लगभग आठ बजे, जब नौकरानी उनके लिए चाय ले कर आयी , तब घरवालों को उनके बेहोश हो जाने की सूचना मिली ।

आननफानन में दूसरे फ्लोर में रहने वाले बहू – बेटे को भी बुला कर, सब लोग शहर के नामी हॉस्पिटल को भागे । उनके कंधे की हड्डी टूट गयी थी । चार दिन बाद उनका आपरेशन हुआ, उम्र का तकाजा दे कर डॉक्टर ने निर्मिति अम्मा को लगभग दो महीने बिस्तर से उठने से मना कर दिया । उनके पति जिन्दा होते तो ज्यादा मुश्किल न होती, पर बहू – बेटे ,,,, सबकी अपनी भी जिंदगी थी । दो महीने का वक्त आखिर कोई पलक झलकते नहीं बीतता । दिन में तो नौकरानी के साथ नर्स रह जाती, पर मुसीबत रात की थी । कोई भी रात को रुकने को तैयार न था । आखिरकार, विमर्श-विमर्श के बाद यह तय हुआ कि निर्मिति अम्मा को ओल्ड एज केयर सेंटर में दो महीने भर के लिए दाखिल करा देते हैं ताकि उनकी अच्छे से देखभाल भी हो जाए और घर में किसी भी सदस्य को तकलीफ भी न हो ।

और इस तरह निर्मिति अम्मा ओल्ड ऐज केयर सेंटर में दाखिल हो गयीं । घर में सब सुख सुविधाओं में चाहे वो अकेली थीं पर बच्चे चहलकदमी करते दिख जाते थे, सो इतना अकेलापन अनुभव नहीं होता था । पर ओल्ड एज केयर सेंटर में एकाकीपन ने उनको बिलकुल ही अकेला कर दिया । तीन चार बार बच्चे मिलने तो आये, पर वे लोग १० मिनट से ज्यादा न बैठे थे । थोड़े दिनों बाद उनकी पहचान वहां रहने वाले कुछ एक लोगों से हो गयी । वहां बहुत से लोग ऐसे भी थे, जो आए तो कुछ दिन या महीनों के लिए थे, पर लगता था उनके घर वाले उनको घर में ले जाना ही भूल गए थे । एक बंधी बंधाई रकम देकर उनके घरवालों ने शायद अपने कर्तव्यों से इति श्री कर ली थी । घर वापस जाने की उम्मीद और झूठे वायदों के संग न जाने कितने बजुर्ग ओल्ड एज केयर सेंटर में रह रहे थे । उन सबको देखकर उनके दिमाग में भी उलटे सीधे ख्याल आने लगे थे ….. पर वो कर भी क्या सकतीं थीं, सिवा इंतज़ार के ।

राम-राम करते आखिर दो महीने का वक्त भी पूरा हो गया और उनके घर जाने का दिन आ गया । बेटे को देख कर ख़ुशी से उनकी आंखें नम हो गई । पर चैकअप करने पर पता चला कि ठीक होने में अभी उन्हें और समय लगेगा । निराशा से उनका चेहरा मुरझा गया । वो समझ चुकीं थीं कि अब उनकी नियति में क्या लिखा है । ख़ुशी के आंसूं अब मजबूरी और बेबसी में बदल चुके थे ।

अंजु गुप्ता