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फाँस

फाँस

कमली न जाने क्यों मन में ईर्ष्या की गांठ लिये बड़ी देर तक मकान के छज्जे की छाया में बैठकर ऊंचे तारागढ़ की चोटी से मंथर गति से उतरती उस छांव को एकटक देखती रही जो पहाड़ से उतरकर न जाने कब मैदान में आकर मकानों की छतों से उतरते चढ़ते न जाने कहां खो गई । उसी के साथ न जाने कब तक खोई रही कमली अपने आप में.......।

ऐसा तो कभी नहीं हुआ उसके साथ .....कि वो सुगना को अकेला छोड़ बिना कुछ खाये-पिये ऐसे एकान्त में धूनी रमा सके...। फिर आज ऐसा क्या हुआ उसे जो...। वह मन ही मन उस दृष्य को दोहराने लगी जिसे देखकर उसकी ये हालत हो गई है । सुगना ने उसे कितना मनाया, कितना कहा -“आ जा कमली खा ले, कुछ तो खा ....। आखिर थाने कांई हुयो है जो थारो मन खावा को भी नीं कर रिया हा ...? यूं भूखे पेट तगारियां क्यान उठावेगी रे....? थारी तबियत तो ठीक है ...?”

मगर न जाने क्यों आज उसकी भूख मर गई है ....यह तो शायद वह भी नहीं जानती । बस जानती है तो इतना कि सुगनी की बेटी ने हाथ में कोई कागज लहराते हुए अपनी मॉं को कहा-“माँ...माँ......म्हारी आस पूरी वै गी ......। म्हारो बिदेस जाबा के वास्ते सलेक्सन वी गियो..........ये देख सगलाराजस्थान री स्कूलां में फर्स्ट आ गी थारी बेटी..........देख इक्यावन सौ रो चेक भी मिलो है म्हाने..........।” कहते हुए सुगनी की बेटी ने मॉं को अपनी बाहों में भर लिया था । यह दृष्य देख सारे मज़दूर अपना-अपना काम छोड़कर सुगनी और उसकी बेटी को देखने लगे थे जिसका चयन उन होनहार बच्चों में कर लिया गया था जिन्हें अमेरिका के राष्ट्रपति नेे गाँव के स्कूल के निरीक्षण के दौरानअमेरिका घूमने हेतु आमंत्रित कर लिया था ।

सुगना तो यह सब सुनकर पगला गई थी जैसे । एक-एक मज़दूर को झिंझोड़-झिंझोड़कर उसने बेटी की सफलता की कहानी सुनाई थी और चोली में बड़ी हिफाज़त से ठूसे दस के नोट को काँपते हाथों से हरि बेलदार को थमाते हुए कंपकंपाई आवाज़ में बोली थी, “ले रे जल्दी जाकर सिद्धी की दुकान से आधा किलो गुड़ ले आ और सबको बांट दे । मीठा मुंह करा दे सबका ....।” कहते हुए कमली को झिंझोड़ बैठी थी, “तू क्यूं चुप है ? थाने खुसी कोनी...?

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सुना तूने आपणी लाली सगला राजस्थान मॉयने फर्स्ट आई है ...। बहुत दूर सात समुन्दर पार बिदेस भी जावेली....।”

मगर आंखों में आंसुओं का सैलाब लिये कमली के मुंह से बस इतना ही निकला था, “हां...हां....सुगना मैं खुस हूं रे....। मैं बहुत खुस हूं.......।” कहते हुए दूर ऊंचाई पर उड़ती चील को सूनी आँंखों से निहारने लगी थी, लेकिन यह वही जानती थी कि कितनी खुष है यह सब सुनकर ।

आज उसे अपने आप पर क्रोध आ रहा था । आखिर वह सुगना की बचपन की इकलौती सहेली होकर भी अन्दर से खुष क्यों नहींे हो पा रही थी ...? आँखों में आँसुओं का सैलाब लिए षायद वह उस दिन को कोसने लगी थी जिस दिन से उसने कल्याणी का जीवन नरक बना डाला था । उस दिन उसे पूरे हफ्ते की मज़दूरी मिली थी । पूरी तीन हज़ार......। मज़दूरी तो सुगना को भी मिली थी मगर सुगना को लाख मनाने, समझाने के बावजूद भी सुगना टस से मस नहीं हुई थी और उसने सुगना को साथ ले जाकर उसी के सामने फोटो खींचने वाला मोबाइल खरीद डाला था । सुगना के समझाने पर उसे उल्टा ही समझाने लगी थी, “तू ही लगा थप्पी...। म्हारो तो ये ही उसूल है । खावो-पीवो और एैष करो । काल किसने देखो है ?”

“मगर जरा अपनी कल्याणी और जो तूने दो और छोरियां पैदा कर डाली उनकी जिन्दगी के बारे में भी सोच । तुझे क्या हो गया है कमली...? क्या बच्चियेां को मेहनत-मज़दूरी करवाने के लिए ही पैदा किया है तूने ?”

वह खिलखिलाकर हंस पड़ी थी, “अरे पगली ! सब अपना-अपना भाग लावें हैं । तेरे मुंह पे कपड़ा बांध लेने से ही लाली पढ़ेगी कांईं ? बीने भी काम पे लगा, चार पीसा कमायेगी तो बी की शादी रे काम आवेगा । पढ़ावा से कुछ नी होवेलो । बल्कि ज़्यादा पढ़-लिख गी तो पढ़ो-लिखो लड़का कोनी मिलेला । क्वांरी रह जावेली छोरी.।”

और खुषी-खुषी घर में कदम रखते ही उसकी नज़र आंगनवाड़ी वाली बाई पर पड़ गई थी जो उसकी कल्याणी को स्कूल में दाखिला दिलाने के लिये आई थी । बस फिर क्या था कमली ने उसे फटकार लगाते हुए फिर कभी उसके घर आने और उसकी कल्याणी को पढ़ाई के लिए उकसाने पर देख लेने की धमकी देते हुए उसे घर से निकाल दिया था । उस दिन कल्याणी कितना रोई थी फूट-फूटकर । वह भी आज कल्याणी की तरह ही फूट-फूटकर कर रोना चाहती थी ..।

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आज उसे अहसास हुआ था किवह सुगना कीबचपन की सहेली होने के बावजूद उसकी सफलता पर सबसेज़्यादा ईर्ष्या से भर उठी थी । मगर षायद यह उसकी ईर्ष्या ही नहीं, अन्दर ही अन्दर अपने किये पर प्रायष्चित की वह ज्वाला थी जो सुगना की बेटी की सफलता से उसके अन्दर और तेज़ धधक उठी थी ।

सूरज अधूरे बने मकान की ओट में चला गया था । ठेकेदार उसे यूं ठाली बैठे देख एक बार टोक गया था जिसे उसने पेट में दर्द होने का बहाना कर टरका दिया था । वह सूरज के मकान की ओट में चले जाने से हुई आधी छाया, आधी धूप में ठेकेदार की परवाह किये बगैर गली के नुक्कड़ से गुड़ लेकर आतेबेलदार हरि कोएकटक घूरती रही । मन में न जाने कैसा तूफ़ान मचा था उसके । आज उसे पहली बार महसूस हुआ था कि जिसे सबसे ज़्यादा चाहो उसी की सफलता से इन्सान को कितनी जलन होती हेै । मगर वह समझ नहीं पा रही थी कि ये जलन सुगनी की सफलता पर है या उसकी असफलता पर.....साथ ही उसे इन्सान की इस फितरत पर घृणा होने लगी थी ।

आखिर उसकी बेटी कल्याणी में ऐसी क्या कमी थी जो वह राजस्थान में फर्स्ट नहीं आ पाई .....? आखिर उसकी बेटी कल्याणी सुगना की लाली की तरह बिदेस में सात समुन्दर पार क्यों नहीं जा पायेगी....? आखिर कल्याणी का क्या कसूर था जो वह उसे बचपन से ही लाली के साथ स्कूल भेजने की बजाय चूल्हे-चौके में घुसेड़कर लोगों के घरों में झाडू-पोचा लगवाली रही ...? कमली की आँखों में उसकी कल्याणी आज भी उसे स्कूल जाने के लिए गिड़गिड़ाती नज़र आती रही और वह आँखों में प्रायष्चित से भर आये आँसुओं का सैलाब लिए यूं ही बैठी रही चुपचाप.......निष्चल.......पत्थर-सी जड़वत........।

आखिर जब-जब सुगना उससे कल्याणी को भी स्कूल भेजने के लिए कहती तो वह झट से मना कर बैेठती, “तू भी पागल है सुगना । काँई होवे है पढबा-लिखबा से ? घणे पढे-लिखे मज़दूरी करे हैं । नौकरी-चाकरी तो बस रसूखवालों को ही मिले है । और करणो भी कांई हैं ? लड़की की जात है आगे-पीछे चूल्हो ही फूकणों है । बेकार के सपने देखबा सेकुछ नीं होवे । म्हारी बात मान, लाली ने भी कल्याणी के साथ काम पे लगा दे । चार पीसा कमायेगी......।”

मगर वह कितनी ग़लत थी उसे आज महसूस हो रहा था । आज उसे सुगना और उसके पति की तपस्या का अहसास हो गया था । किस तरह सुगना का पति घीसू रिक्षा चला-चलाकर, खुद रूखा-सूखा खाकर भी अपनी लाली कोे पढ़ा रहा था । न दारू न कोई और

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शौक..........। कितनी ही बार वह उसे भी मज़ाक में कह भी देती, “अरे जीजा इतना कमा कठै ले जावेगा ? देख म्हारे मरद को चैन से कमावे है तो मौज से खावै-पीवै भी है, थारी ज्यान नी जो थप्पी पे थप्पी लगावै ।”

मगर वह हंस कर कहता, “बच्ची को पढाबा को फर्ज तो पूरो करणो ही चावै । मैं तो कहूं हूं तू भी कल्याणी को स्कूल भेज, लाली की ज्यान ही पढेली तो पछे नाम कमावांगी....।”

तब वह हंस पड़ती, “कमा लियो नाम.....? आपां तो कमावां और खा-पी ऐैष करां । जितना हाथ उतना काम.......उतनी रोजी.....।” और अपने पति के साथ रात को दारू-मछली का स्वाद लेकर अपने बच्चों के भविष्य की परवाह किये बिना ही परिवार बढ़ाती चली गई । यही सोच कर कि जितने हाथ, उतने काम..........। मगर आज उसे अहसास हो रहा था कि उसने जितने हाथ पैदा किये उन्हें भीख मांगने के काबिल बनाने के सिवाय कुछ नहीं किया ........। उसे लगा जैसे उस जैसे लोग ही देष को बेरोज़गारी और भुखमरी के कगार पर खड़ा करने के दोषी हैं । उसकी कल्याणी दूसरे बच्चों को स्कूल जाता देख स्कूल जाने के लिए कैसी तड़पती रही..........और वह उसे मार-मारकर घरों के काम पर भेजती रही ...? कितनी निर्दयी माँ है वह...........।

पल प्रतिपल सोच-सोचकर प्रायष्चित की वहीं फांस उसकी बेटी कल्याणी की रोती-बिलखती आवाज़ बनकर जैसे उसके कलेजे में गढ़ती-सी महसूस हो रही थी उसे । उसने देखा सूरज अब तारागढ़ के पीछे पूरी तरह छुप चुका था । सारे मज़दूरों के साथ ही आज उसकी सुगना भी उसे अकेला छोड़ घर जा चुकी थी ।

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(राजेश कुमार भटनागर)