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आघात - 5

आघात

डॉ. कविता त्यागी

5

कौशिक जी के समक्ष रामनाथ द्वारा अपनी बात खुलकर न कह पाने का और इस प्रकार की अप्रकृतिस्थ मनोदशा का एक ठोस कारण था । चूँकि रामनाथ जी ने ही पूजा का विवाह रणवीर के साथ करने के लिए कौशिक जी को प्रेरित किया था । रणवीर के विषय में अनेक सकारात्मक और प्रभावोत्पादक बातें, जिनमें से कई बातें वास्तव में नहीं थी, बताकर और कुछ नकारात्मक बातें छिपाकर कौशिक जी को तैयार किया था, इसलिए आज वे रणवीर अथवा उसके परिवार के विषय में कुछ नकारात्मक प्रभाव डालने वाली बात नहीं कहना चाहते थे । परन्तु कौशिक जी को वे किसी भी अनहोनी से बचाना चाहते थे । रामनाथ जी नहीं चाहते थे कि उनका मित्र व उसकी बेटी उनके कारण किसी विपत्ति का शिकार बनें । दुविधा में फँसे रामनाथ जी की दशा अत्याध्कि दयनीय देखकर कौशिक जी ने कहा -

‘‘क्या बात है रामनाथ ? बहुत परेशान दिखाई दे रहे हो !’’

‘‘यार कौशिक, यह क्या कह दिया तुमने ! तुम्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए था ! ऐसे अवसर पर भावावेश में कुछ भी कहना महँगा पड़ जाता है !’’

‘‘पर ऐसा क्या कह दिया है मैने ?’’

‘‘मैं अब कैसे समझाऊँ तुम्हें !... आज तक तुम समझे हो दुनियादारी की बातों को ? जो आज समझ जाओगे ! देखो कौशिक, हम लड़की वाले हैं ! यदि तुम इनकी प्रत्येक बात की सहमति में अपना सिर हिलाते रहे, तो स्मरण रखना, कभी इन्हें सन्तुष्ट नहीं कर पाओगे और शीघ्र ही सम्बन्धें में खटास आ जाएगी ! लड़के वालों का पेट बहुत बड़ा होता है । उसे भरना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है । तुम आज एक माँग पूरी करोगे, कल वे उससे बड़ी माँग तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत कर देंगें !’’

रामनाथ जी जितने व्याकुल और विचलित हो रहे थे, कौशिक जी उतने ही शान्त और अविचलित भाव से बोले -

‘‘कुछ नहीं होगा ऐसा, जैसा तुम सोच रहे हो ! मित्र, अभी तो सम्बन्धें की नींव है, इसे कमजोर बनाना उचित नहीं है ! रुपया-पैसा इतना महत्त्व नहीं रखता है, जितना तुम सोचते हो ! दान-दहेज तो हमारी संस्कृति की परम्परा है ! तुम चिन्ता छोड़कर बात को आगे बढाओ ! मैं चाहता हूँ, इन्हीं सायों में शुभ मुहुर्त दिखवाकर विवाह-सम्पन्न हो जाए ।’’ कौशिक जी की बात सुनकर रामनाथ जी निरुत्तर हो गये ।

कमरे में वापिस लौटकर कौशिक जी ने रामनाथ की ओर अर्थपूर्ण मुद्रा में देखते हुए कहा -

‘‘पंडित जी को बुलाकर देखो कि विवाह का योग कब का बनता है !’’

कुछ क्षण चुप रहकर कौशिक जी ने पुनः कहा -

‘‘पंडित ऐसा होना चाहिए, जो केवल ब्राह्मण वंश में उत्पन्न होने के कारण पंडित न कहलाता हो, थोड़ा कुछ ज्योतिष-विद्या का ज्ञान भी रखता हो !’’

कौशिक जी के कथन ने रणवीर तथा उसकी माता की प्रसन्नता का ग्राफ और ऊपर उठ गया। महँगाई के युग में पंडित जी के शुल्क और दान-दक्षिणा से बचने का इससे अच्छा अवसर उन्हें और कब मिल सकता था । अतः माँ-बेटे दोनों ने एक साथ एक सुर में कहा - ‘‘हमारा पुरोहित तो बस नाम का ही पंडित है । उससे विवाह के लिए शुभ मुहुर्त या वर-वधू की कुंडली आदि के बारे में न ही पूछें, तो ज्यादा ठीक है !... आप यदि किसी विद्वान पंडित के विषय में जानते हैं, तो उसी से कुंडली दिखाकर शुभ समय ज्ञात करा लें और हमें बता दें !’’ अपनी शालीनता का परिचय देने के लिए क्षण-भर चुप रहकर रणवीर की माँ ने पुनः कहा -

‘‘आज यदि रणवीर के पिता जीवित होते, तो रणवीर को या मुझको कुछ भी सोचने-करने की आवश्यकता न होती ! भगवान ने आपको हमारे घर भेजकर हमें सब चिन्ताओं से मुक्त कर दिया है ! ऐसा लगता है, जैसे भगवान स्वयं चलकर हमारे घर आये हैं ! अब रणवीर आपका ही है, इसके विवाह के सम्बन्ध में निर्णय लेेने के लिए आप स्वतन्त्र हैं ! आप जब और जैसे चाहें, कर सकते हैं ! हमें कोई आपत्ति नहीं होगी !’’ कहते-कहते रणवीर की माता उदास हो गयी ।

कौशिक जी उनकी बातों से गदगद हो गये थे । उनके ऊपर रणवीर और उसकी माता के व्यवहार का निरन्तर ऐसा प्रभाव पड़ रहा था कि वे उत्तरोत्तर अपनी सोचने- निर्णय लेने की क्षमता को खोते-से जा रहे थे, जैसे - उन्हें सम्मोहित कर दिया गया हो । कौशिक जी की इस दशा से रामनाथ की चिन्ता बढ़ती जा रही थी, परन्तु वे प्रत्यक्षतः कुछ नहीं कह सकते थे । कुछ मिनट पहले वे ऐसा एक प्रयास करके देख चुके थे । अपने प्रयास.में वे विफल रहे थे और कौशिक जी पर उनकी बातों का कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा था ।

रामनाथ मन ही मन सोचने लगे - ‘‘ये माँ-बेटे कौशिक जी का शिकार कर रहे हैं, और कौशिक जी हैं कि उन्हें कुछ भी एहसास ही नहीं है ! मेरा ही दोष है ! मैं ही तो इन्हें यहाँ लेकर आया था ! न मैं कौशिक जी को लेकर आता, और न यह यहाँ आकर बलि का बकरा बनते ! काश ! मुझे यह ज्ञात होता कि रणवीर इतना कपटी है और इसकी माँ घडियाल के आँसू बहाकर दिखाने में इतनी दक्ष है !... अभी भी समय है ! कौशिक जी चाहें, तो परिस्थिति पर नियन्त्रण किया जा सकता है ! अभी इतना कुछ नहीं बिगड़ा है । अभी तो बेटी बाप के घर है ! हे परमात्मा ! मेरे मित्र को इतनी मति और शक्ति दे कि वह उचित-अनुचित का निर्णय करके इन लोगों की बातों को अस्वीकार कर दे ! अन्यथा बड़ा अनर्थ हो जाएगा ! ईश्वर ! तू एक भले आदमी के साथ अन्याय होते हुए कैसे देख सकता है ?’’ रामनाथ अपने विचारों में लीन होकर बड़बड़ाने लगे । रामनाथ को बड़बड़ाते देखकर रणवीर क्षण-भर में उनके अन्तर्द्वन्द्व के विषय को भाँप गया । यद्यपि उनके मुख से एक शब्द भी स्पष्ट नहीं निकल रहा था, जिसे कोई सुन सके अथवा समझ सके ।

कौशिक जी ने रामनाथ को बड़बड़ाते हुए देखा, तो मुस्कराते हुए कहने लगे -

‘‘बचपन की आदत अभी तक नहीं गयी है इनकी ! बैठे-बैठे न जाने किस दुनिया में खो जाते हैं !’’ तत्पश्चात् रामनाथ के कंधे पर हाथ रखकर पुनः बोले-‘‘अरे भाई, कहाँ खो गये ? हमें यहाँ छोड़कर किस दुनिया की सैर करने चले गये ?’’

कौशिक जी के आह्वान पर रामनाथ हड़बड़ाकर यथार्थ-जगत में लौटे और मुस्कुराकर सामान्य दिखने के प्रयास में बोले -

‘‘कहीं नहीं गया था, बस ऐसे ही सोच रहा था कि हमें अपना प्रत्येक कदम सोच-समझकर आगे बढ़ाना चाहिए ! बिना सोचे-समझे आगे बढ़ते रहने से ऐसा न हो कि परिस्थितियों के चक्र में इस कद्र फँस जाएँ कि निकलना कठिन हो जाए अथवा असम्भव ही हो जाए ! चमन ! ईश्वर भी तभी हमारी सहायता करता है, जब हम स्वयं सचेत और संघर्षशील होते हैं ! तुम समझ रहे हो ना, मैं क्या कह रहा हूँ और किस संदर्भ में कह रहा हूँ ?’’

‘‘हाँ-हाँ, मैं समझ रहा हूँ ! पर तुम जानते हो, मेरे और तुम्हारे स्वभाव में कितना अन्तर है ! तुम प्रत्येक विषय पर, अपने प्रत्येक कदम पर गम्भीरतापूर्वक विचार करके आगे बढ़ते हो ! मैं हानि-लाभ, सपफलता- विपफलता, सब कुछ ईश्वर पर छोड़कर आगे बढ़ता हूँ !... आज तक हम दोनों के इस स्वभाव में परिवर्तन नहीं हो सका है, क्या आज यह सम्भव है ?’’ कौशिक जी ने पुनः मुस्कुराकर कहा और अपना हाथ रामनाथ की गर्दन के पीछे से निकालकर उनके कंधे पर रखकर इस प्रकार उन्हें अपने साथ सटाकर हिलाया और कहा -

"चिन्ता मत करो ! चिन्ता करने से कुछ नहीं होगा, ईश्वर सब कुछ ठीक करेगा !’’

रामनाथ का दूसरा प्रयास भी विफल रहा । रणवीर की लोभवृत्ति से कौशिकजी को बचाने का अब उन्हें कोई ठोस उपाय नहीं सूझ रहा था । इस विषय पर सोचना अथवा कुछ बात करना भी अब उन्हें उचित नहीं लग रहा था । अतः उन्होंने इस मुद्रा में घड़ी की ओर देखा कि चलने का समय हो गया है, अब विलम्ब करने का कोई अर्थ नहीं है । उनके इस भाव को समझते हुए रणवीर की माँ ने कहा - ‘‘एक-एक कप चाय और हो जाए, जाने से पहले ?’’ यह कहकर वह चाय बनाने के लिए चली गयी ।

अब बैठक में बातचीत का विषय बदल गया था । गम्भीरता का स्थान हल्के-फुल्के वातावरण ने ले लिया था । पास-पड़ौस और नाते-रिस्तेदारों की चर्चा, मौसम की चर्चा और फिर खाने-पीने में पुराने समय की अपेक्षा आज के समय में आये हुए बदलाव पर चर्चा होने लगी थी कि किस प्रकार प्रत्येक घर में दूध का स्थान चाय ने ले लिया है और छाछ के तो दर्शन ही दुर्लभ हो गये हैं ।

कुछ ही समय बाद रणवीर की माता चाय लेकर आ गयी । सभी लोग हास-परिहास करते हुए चाय का आनंद लेने लगे । रणवीर ने चाय नहीं पी । वह उठकर अन्दर की ओर चला गया, कुछ इस मुद्रा में जैसे कि अपने आदरणीयों के साथ बैठकर खाना-पीना उसके संस्कारों के विरुद्ध है । जब कौशिक जी और रामनाथ जी विदा लेने के लिए खड़े हुए, तब रणवीर वहाँ आ पहुँचा और उन्हें विदा करने के लिए उनके साथ-साथ बाहर की ओर चल पड़ा ।

कौशिक जी रणवीर से बातें करते हुए चल रहे थे और रामनाथ जी रणवीर के ताऊजी से अर्थात अपने समधी से । अवसर पाकर रणवीर ने कौशिक जी को सहज बोधगम्य संकेत किया कि वह उनसे अकेले में कुछ कहना चाहता है । कौशिक जी उसका संकेत समझकर अपनी चाल अति धीमी करके बोले -

‘‘कहो, क्या कहना चाहते हो ?’’

‘‘मैं चाहता हूँ कि विवाह में जो कुछ भी, जैसे भी करना है, उसके सम्बन्ध में हम दोनों ही विचार-विमर्श करें ! हम आपकी सुविधनुसार कोई स्थान और समय निश्चित कर लें और सप्ताह में एक बार वहाँ मीटिंग कर लिया करें ! मैं नहीं चाहता हूँ कि विवाह से सम्बन्धित किसी भी कार्यकलाप के बारें में आप ताऊजी से बातें करें ! ये जैसे दिखते हैं, वैसे हैं नहीं । ये कभी नहीं चाहेंगे कि हम किसी भी विषय में उनसे आगे बढ़ें ! चूँकि रामनाथ जी मेरे ताऊ जी के रिश्तेदार हैं, इसलिए हमारे बीच जो भी बातें हुई हैं, या आगे होंगी, प्लीज, आप इन्हें भी न बताइयेगा ! बस, मेरी आपसे हाथ जोड़कर यही विनती है !’’

‘‘ठीक है, जैसा तुम कहते हो, मुझे ऐसा करने में कोई आपत्ति नहीं है !... लेकिन, तुम्हारे ताऊजी के विषय में तो मैं नहीं जानता, ये कैसे व्यक्ति हैं ? तुम्हारे प्रति कैसे भाव रखते हैं ? रामनाथ को मैं बचपन से जानता हूँ ! वह एक बहुत ही सुलझा हुआ व्यक्ति है ! वह किसी के प्रति द्वेष-भाव नहीं रखता है ! तुम्हारे प्रति भी उसके मन में कोई ईष्र्या-द्वेष नहीं है ! यदि ऐसा न होता, तो वह पूजा का विवाह तुम्हारे साथ करने के लिए मुझे प्रेरित न करता !’’

‘‘आप ठीक कह रहे हैं !... परन्तु, इस बात को भी नहीं झुठलाया जा सकता कि हमारे किसी भी कार्य के विषय में जो बात उन्हें ज्ञात होगी, उसको वे अपनी बेटी से कदापि न छिपायेंगे । वही बात जब ताऊजी तक पहुँचेगी, तब कुछ भी हो सकता है ! हो सकता है, हमारे और आपके बीच वे कोई गलतप़फहमी पैदा करने का प्रयास करें ! यदि वे अपने प्रयास में सपफल हुए तो... !’’ रणवीर अपनी बात पूरी नहीं कर पाया था और वे दोनों उस स्थान पर पहुँच चुके थे, जहाँ पर रामनाथ जी और रणवीर के ताऊ जी - जयराम खड़े होकर उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे ।

ऐसा लग रहा था कि वे दोनों रणवीर के विषय में ही बातें कर रहे थे । रणवीर और कौशिक जी के पहुँचते ही जयराम ने कहा -

‘‘अरे रणवीर, होने वाले ससुर को पहली मुलाकात में ही इस कद्र हथिया लिया कि अन्य किसी से बातें करने के लिए छोड़ ही नहीं रहे हो !... हम हैं, रामनाथ जी है, सब तुम्हारे अपने ही हैं । बड़ों के होते हुए अपने विवाह में जरूरत से ज्यादा दखलअंदाजी शोभा नहीं देती है !’’

जयराम जी की बातें सुनकर रणवीर ने दृष्टि झुकाकर कहा - ‘‘जी !’’ और कौशिक जी की ओर इस मुद्रा में देखा, जैसे कह रहा हो - "मेरी ओर से ‘जी’ शब्द ताऊजी का समर्थन नहीं है ! आप उसी बात पर दृढ़ रहें, जो अभी-अभी कुछ मिनट पहले हमारे बीच में हुई थी !’’ कौशिक जी ने भी धीरे-से गर्दन हिलाकर संकेत दिया कि वह चिन्ता न करे, सब कुछ निर्विघ्न सम्पन्न हो जाएगा !

जयराम जी अपने भतीजे रणवीर की प्रकृति से भली-भाँति परिचित थे । वे सारी स्थिति समझ चुके थे, फिर भी, चुपचाप अपने कर्तव्य को समझते हुए उन्होंने सम्मानपूर्वक अतिथियों को विदा किया ।

डॉ. कविता त्यागी

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