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आघात - 8

आघात

डॉ. कविता त्यागी

8

प्रातः काल रणवीर की नींद खुली तो उसका सिर भारी था । रात-भर वह दुःस्वप्नों में घिरा हुआ वैवाहिक जीवन की सफलता-असफलता की विचार-लहरों पर डूबता-तैरता रहा था । बिस्तर छोड़ने के पश्चात् भी वह जितना प्रयास करता था कि अपने जीवन की अप्रिय घटनाओं को भूल जाए, उतना ही वे घटनाएँ स्मृतियों के रूप में उसकी आँखों में उभर आती थी । दिन-भर उन स्मृतियों ने रणवीर का पीछा नहीं छोड़ा । अन्त में उसने निश्चय किया कि चाहे कुछ भी हो जाए, वह किसी अन्य व्यक्ति को ऐसा अवसर नहीं दे सकता कि उसके जीवन की एक बड़ी घटना, सबसे बड़ी गलती या सबसे बड़ी असफलता को कोई अन्य तीसरा व्यक्ति उसकी पत्नी को बताए । उसने इस विषय पर गम्भीरता से सोचना आरम्भ किया -

‘‘यदि मेरी इस घटना की चर्चा कोई अन्य व्यक्ति पूजा से करेगा, तब वह अपनी इच्छानुसार तथ्यों को तोड़-मरोड़कर कई गुना बढ़ा-चढ़ाकर तथा चटपटा बनाकर मेरी पत्नी के समक्ष प्रस्तुत करेगा । यह मेरे लिए अत्यन्त अहितकर होगा । इसकी अपेक्षा यह अधिक उचित होगा कि मैं स्वयं इस घटना को अपनी पत्नी के समक्ष इस प्रकार प्रस्तुत करूँ, जिससे उसको विश्वास हो जाए कि मैं अपनी किशोरावस्था में अज्ञानवश की गयी गलतियों के प्रति अपराध-बोध के चलते अत्यन्त शर्मिन्दा हूँ ! मुझे उन गलतियों के लिए पश्चाताप है और मैं अपनी पत्नी के प्रति सच्चा प्रेम रखता हूँ, इसलिए उससे कुछ भी छिपाना अनुचित समझता हूँ ! ऐसा करके पूजा के मन में मेरे प्रति विश्वास और अधिक दृढ़ हो जाएगा ! न केवल विश्वास दृढ़ होगा, बल्कि साथ ही हमारा दाम्पत्य-सूत्र भी अधिक सुदृढ़ होगा । तब किसी भी व्यक्ति द्वारा दी गई कोई भी सूचना - सच्ची हो अथवा झूठी, मेरे प्रति पूजा के विश्वास को कम नहीं कर सकती !’’

अपने इसी निश्चय और आत्मविश्वास के साथ रणवीर उस क्षण की प्रतीक्षा करने लगा जब उसकी पूजा के साथ द्वितीय भेंट होगी । दूसरी ओर, पूजा भी रणवीर से मिलने के लिए आतुर थी । वह दिन-भर सोच-सोचकर बेचैन थी कि रणवीर आखिर क्या बताना चाहता था ? वह क्या बात थी, जिसे बताने से पहले ही वह निर्णय-अनिर्णय के हिंडोले में झूलने लगा था और अन्त में रात अधिक होने का बहाना बनाकर उस बात को टाल दिया ।

विवाह के तीसरे दिन रणवीर और पूजा की दूसरी बार भेंट हुई, तो उनके बीच बातचीत का विषय और विश्वास वही रहा, जो पिछली भेंट में था । उनकी बातचीत भी उसी बिन्दु से आरम्भ हुई जिस बिन्दु से पिछली रात को बन्द हुई थी ।

दोनों ने परस्पर एक-दूसरे की आँखों में झाँककर अपने प्रति प्रेम और विश्वास की थाह लेते हुए स्वयं को आश्वस्त किया कि अब वे अपनी बात कहने-सुनने के लिए पूर्णतः अनुकूल स्थिति में हैं । अपनी बात को कहने का साहस पहले पूजा ने किया और रणवीर ने उसको अपने मृदु-व्यवहार और मूक वाणी से ऐसे प्रोत्साहित किया, जैसे कह रहा हो कि पत्नी की कड़वी बात भी उसके लिए प्राणदायिनी सुधा के समान है । पति की अनुकूल दृष्टि से पोषण पाकर पूजा ने कहा -

‘‘आप कल कुछ बताना चाहते थे ? लेकिन, रात अधिक हो गयी थी और आपको नींद भी आने लगी थी, इसलिए बात आगे... !’’ अपने वाक्य को अधूरा छोड़कर पूजा अपनी आँखों से प्रेम और विश्वास की ऊर्जा प्रदान करती हुई रणवीर की ओर मुस्कराकर इस प्रकार देखने लगी, मानो बीज के अंकुरण के लिए अनुकूल उष्णार्द वातावरण तैयार कर रही है । पूजा की इस दृष्टि का रणवीर पर अनुकूल प्रभाव पड़ा और उसके अन्तः में दबी हुई वह बात प्रस्फुटित होने लगी, जो कि पिछली रात उसके होंठों पर आते-आते लौट गयी थी । रणवीर ने कहना आरम्भ किया -

‘‘पूजा, जब मैं बारहवीं कक्षा में पढ़ता था, तब एक दिन मैं बस में यात्रा कर रहा था । एक स्टाॅप पर बस रुकी, कई यात्री चढ़े और बस पुनः चल दी । तभी उन तुरन्त चढ़ने वाले यात्रियों में से एक लड़की निकलकर मेरे पास आयी । उसने मुझे सीट से उठने का संकेत किया । उसका संकेत समझकर भी मैं नहीं उठा, तो वह मुझ पर चिल्लाने लगी -

‘‘अजीब लड़का है ! अपनी गाँठ की अक्ल तो है ही नहीं, कहने पर भी शरम नहीं आती कि एक वृद्ध महिला खड़ी है और जवान मर्द बैठा है । कितना ढीठ है, च.. च.. च.. च. . ! हद होती है ढीठता की भी !’’ उसके कहने के पश्चात् मैंने देखा कि मेरी सीट के पास ही एक वृद्ध महिला कमर झुकाये हुए खड़ी थी । वृद्धा की ओर देखते हुए मैंने उन्हें बैठने का संकेत किया और अपनी सीट से उठकर खड़ा हो गया ।

दिल्ली के छतरपुर, जो पहले एक गाँव था, और कालान्तर में आबादी बढ़ने और विकास होने के साथ-साथ दिल्ली के अन्दर आ गया है, में मेरी दादी का मायका था । वे उस समय अपने भाई के पास वहीं पर गई हुई थी । अपनी दादी को वापिस लिवाकर लाने के लिए उस दिन मैं बस द्वारा वहीं जा रहा था । मेरे साथ मेरा एक मित्र भी था । मेरे उस मित्र के चाचा भी दिल्ली में रहते थे । अपने वांछित स्टाॅप पर बस से उतरकर मैं उस दिन दादी को लेने के लिए नहीं गया, बल्कि मेरे मित्र के साथ उसके चाचा के घर पर चला गया । उस रात हम दोनों को वहीं - उसके चाचा के पास रुकना पड़ा । अगले दिन जब हम दादी के भाई के घर पहुँचे, तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा । वहाँ मैंने जो देखा, उस पर मुझे विश्वास नहीं हो रहा था । मैं बार-बार अपनी आँखों को मलता रहा कि कहीं कुछ गड़बड़ है। लेकिन, अन्त में मुझे मानना पड़ा कि मैं जो कुछ देख रहा था, वह सब कुछ सत्य था । मैंने देखा कि पिछले दिन जो वृद्धा मुझे बस में मिली थी, जिसके लिए मैंने अपनी सीट छोड़कर पूरी यात्रा खड़े होकर की थी, वह दादी के साथ बातें कर रही थी और वह लड़की उनके पास बैठी हुई नाश्ता कर रही थी । उसने मुझे घूरते हुए शंकापूर्ण कठोर स्वर में कहा - ‘‘तुम यहाँ ? यहाँ... ?

उसके दबंग अंदाज को देखकर मुझे पिछले दिन की बातें याद आयी, तो मैंने भी क्रोध की मुद्रा बनाकर कहा - ‘हाँ, मैं यहाँ ! मैं अपनी दादी के पास आया हूँ, लेकिन तुम मेरी दादी के पास क्या करने के लिए आयी हो ? कौन हो तुम ?’’

हम दोनों को झगड़ते हुए देखकर मेरी दादी, जो अभी तक चुप बैठी थी, मुझे समझाने का प्रयास करने लगी । उन्होंने मुझे बताया कि वह वृद्धा महिला दादी के बचपन की सहेली थी और वह लड़की उनकी पोती थी । उस लड़की का नाम वाणी था । वह भी मेरी तरह अपनी दादी के साथ उनके भाई के घर आयी हुई थी । उस दिन हम दोनों के बीच परिचय के अतिरिक्त कोई विशेष बातें नहीं हो सकी थी, क्योंकि कुछ देर पश्चात् ही वह और उसकी दादी वहाँ से विदा लेकर अपने घर चली गयी थीं ।

उस प्रथम परिचय के पश्चात् हम दोनों के मस्तिष्क में एक दूसरे के प्रति कोई आकर्षण अथवा कोई स्मृति विशेष नहीं थी । परन्तु,... परन्तु कुछ महीने के अन्तराल के बाद हमारे स्कूल से एक टूर गया । उस टूर में हमारा प्रथम पड़ाव मथुरा था । और वहाँ पुनः मेरी भेंट वाणी से हो गयी । वाणी भी अपने स्कूल की ओर से टूर पर आयी थी । वह भेंट हमारी मित्रता में परिवर्तित हो गयी । उसके बाद हम प्रायः मिलने के लिए दादी के भाई के घर चले जाते थे और वहाँ खूब बातें होती थी । अगली भेंट के लिए भी हम कोई तिथि और समय निश्चित कर लेते थे । निश्चित समय पर वहाँ पहुँचकर हम दोनों अपनी सच्ची मित्रता का प्रमाण प्रस्तुत करके घंटो तक बातें करते रहते थे । कहने की आवश्यकता नहीं है कि धीरे-धीरे हमारी मित्रता प्रेम का रूप धारण करने लगी । तब परस्पर मिलने का समय और स्थान भी हम अपनी इच्छा के अनुरूप निश्चित करने लगे, जहाँ हमें कोई डिस्टर्ब न करे ; हम स्वतन्त्रातापूर्वक मिलकर बातें कर सकें ।

इसके बाद हमारे बीच पत्र-व्यवहार तथा मुलाकातें बढ़ती ही चली गयी । हमारा प्रेम नित्य नयी ऊँचाइयों को छू रहा था । इतनी निकटता हम दोनों के बीच में स्थापित हो चुकी थी कि एक पल के लिए भी हम एक दूसरे से दूर रहने में कष्ट का अनुभव करते थे । हमारे बीच बढ़ती निकटता और घटती दूरी किसी से छिपी नहीं थी, इसलिए हमारे परिवार वालों ने निश्चय किया कि हमारा विवाह-सम्पन्न करा दिया जाए ।

परन्तु, ईश्वर को यह स्वीकार नहीं था । उन्हीं दिनों वाणी की दादी का स्वर्गवास हो गया । दादी के स्वर्ग सिधारते ही पता नहीं क्या हुआ था कि वाणी ने मुझसे मिलना बन्द कर दिया । मैंने अनेक बार उससे मिलने का प्रयास किया, परन्तु वह कुछ न कुछ बहाना बनाकर टालती रही ।... और अन्त में एक दिन... ।’’

एक लम्बी गहरी साँस लेकर रणवीर चुप हो गया । उसकी दृष्टि धरती को घूरने लगी । कुछ क्षण रणवीर के चुप रहने पर पूजा ने कहा -

‘‘अन्त में एक दिन क्या हुआ ?’’

पूजा का प्रश्न सुनकर रणवीर ने उसकी आँखों में झाँककर उसके अन्तस्थ भावों को पढ़ने का प्रयास किया और एक क्षण रुककर पुनः बोलना आरम्भ किया -

‘‘और अन्त में एक दिन मुझे सूचना मिली कि वाणी ने एक विवाहित पुरुष के साथ विवाह कर लिया है । मुझे पता चला कि वह पुरुष कोई अपरिचित नहीं, बल्कि उसकी स्वयं की मौसेरी बहन का पति है । वह अकूत सम्पत्ति का मालिक है, इसलिए उसने पहले उसके ऊपर अपने प्रेम का जाल डालकर उसको अपने वश में किया । तत्पश्चात् अपनी ही बहन का घर उजाड़कर वाणी ने अपना घर बसा लिया ।

उस दिन मुझे बहुत दुःख हुआ था । मैं उस घटना को अपने जीवन का एक दुःस्वप्न समझकर भूलने का प्रयास करने लगा । कुछ ही महीनों में मै प्रकृतिस्थ हो गया । उसी घटना ने मुझे सिखाया कि शान्त गम्भीर लड़कियाँ ही वास्तव में एक अच्छी पत्नी बन सकती है । जो एक स्त्री होकर स्त्री की पीड़ा का कारण बन सकती है, वह किसी को सुख भला क्या देगी ?.... और तभी,... मुझे ईश्वर ने तुमसे मिला दिया । ये मेरा भाग्योदय ही कहा जा सकता है कि आज मुझे तुम - एक पत्नी के रूप में - जीवन- संगिनी के रूप में मिली हो ! इसके लिए प्रभु को कोटि-कोटि धन्यवाद करके भी श्बदों में उसका आभार व्यक्त नहीं किया जा सकता ।’’

‘‘आपको अब वाणी की याद नहीं आती है क्या ?’’ पूजा ने गम्भीरतापूर्वक, किन्तु सहानुभूति की मुद्रा में पूछा ।

‘‘पूजा, तुम मेरी पत्नी हो ! मैं तुमसे कुछ भी छिपाना नहीं चाहता हूँ, इसलिए वाणी के साथ अपने सम्बन्ध के विषय में सब कुछ बता चुका हूँ ! अब तुम्हारा प्रश्न है कि याद आती है या नहीं ? तो मेरा उत्तर सीधा-सच्चा और सरल है कि कोई भी व्यक्ति स्त्री हो अथवा पुरुष अपने प्रथम-प्रणय को कभी नहीं भूल सकता !... मैंने अपनी किशोरावस्था में वाणी से सच्चा प्रेम किया था । उसने मुझे धेखा दिया, इसमें मेरा क्या दोष ? पर मैं इस सत्य को स्वीकार करता हूँ कि वह मेरी गलती थी ; मेरी अज्ञानता थी, जिसका दण्ड मुझे वाणी के धोखे से मिला । अब मेरे हृदय में उसकी स्मृति केवल इसलिए है कि मैं उचित-अनुचित में भेद कर सकूँ !’’

‘‘तब के बाद आपकी और वाणी की कभी कोई भेंट अथवा बातचीत नहीं हुई ?’’

‘‘कई बार ऐसा अवसर आया है, जब हम दोनों अचानक एक-दूसरे के सामने आ गये । ऐसी स्थिति में हम दोनों अपरिचितों की भाँति मिले और बातचीत की, क्योंकि वह प्रायः अपने पति के साथ होती थी । मैं नहीं चाहता था कि मुझे लेकर उसकी गृहस्थी में कोई बाधा उत्पन्न हो !’’

‘‘अब... ?’’

‘‘पूजा, अब मैं केवल तुम्हें - अपनी पत्नी को प्रेम करता हूँ ! मैं अपने कल को विस्मृत करके तुम्हारे साथ एक सुखी जीवन व्यतीत करना चाहता हूँ ! मुझे विश्वास है कि तुम मेरी पुरानी गलतियोें को क्षमा करके मेरे जीवन को आगे बढ़ाने में सहयोग करोगी ! करोगी न ! तुम क्या कहती हो ?’’

‘‘आपके जीवन में विवाह से पहले जो कुछ भी हुआ, मैं उसे लेकर अपने वैवाहिक जीवन में कटुता नहीं भरना चाहती हूँ ! इसलिए पुरानी बातों को भूलकर हमें आगे बढ़ना चाहिए ! पति-पत्नी का विश्वास और प्रेम ही दाम्पत्य-जीवन को सुखी और उनके सम्बन्धें को सुदृढ़ता प्रदान करता है । मुझे वचन दो कि तुम कभी वाणी को अपनी स्मृति में तथा उसका नाम अपनी जुबान पर नहीं लाओगे !’’

‘‘मैं वचन देता हूँ !’’ रणवीर ने पूजा की बात का समर्थन करते हुए पूजा का हाथ अपने हाथ में लेकर धीरे-से दबाया और अपनी मुद्रा से उसको अहसास करा दिया कि वह कभी वाणी को अपने और पूजा के बीच में नहीं आने देगा ।

पूजा चार दिन ससुराल में रहकर अपनी सास, ननद, देवर और पति, सबको अपना बना चुकी थी और स्वयं भी सबके व्यवहार से सन्तुष्ट थी । विवाह के चार दिन पश्चात् वह पग फेरों की रस्म के लिए अपने पिता के घर वापस चली, तो अत्यन्त प्रसन्न थी । उसके मुखमण्डल से उसकी प्रसन्नता का अनुमान कोई भी लगा सकता था । उसकी प्रसन्नता के कारण का अनुमान भी प्रत्येक व्यक्ति लगा सकता था । स्वभाविक सी बात थी कि पहली बार ससुराल में चार दिन रहने के बाद प्रत्येक लड़की माँ के घर जाने के लिए उतावली और उत्सुक रहती ही है । परन्तु पूजा की प्रसन्नता का एक कारण और भी था । वह प्रसन्न थी इस एहसास से कि ससुराल में उसको माँ, बहन और भाई की कमी को पूरा करने के लिए ममतामयी सास, सखी जैसी ननद और भाई जैसे देवर का सान्निध्य मिला था, जिससे मायके का वियोग अधिक कष्टकारक नहीं बना था ।

पूजा के मायके में उसकी माँ रमा के लिए वे चार दिन चार युगों के समान बीते थे । वह बेटी को विदा करने के क्षण से ही बेटी के मायके में वापिस लौटने की प्रतीक्षा करने लगी थी । जो दिन पग फेरों की रस्म के लिए निश्चित था, उस दिन रमा को प्रातः होने की प्रतीक्षा में रात अपेक्षाकृत अधिक लम्बी प्रतीत होने लगी थी । वह शीघ्रातिशीघ्र बिस्तर से उठकर घर के कार्यो में व्यस्त हो गयी और समय से पहले ही अतिथियों के स्वागत आदि की तैयारियाँ पूर्ण करके बेटी की प्रतीक्षा में आँखे बिछाकर बैठ गयी ।

दोपहर के लगभग ग्यारह बजे पूजा ने अपनी माँ के घर में पुनः प्रवेश किया । एक माँ के लिए प्रतीक्षा की घड़ी की समाप्ति तथा मिलन की घड़ी का शुभारम्भ हुआ । घर में पूजा के चरण पड़ते ही माँ ने पूजा को बाँहों में भरकर उस पर ऐसे मातृत्व लुटाया, जैसे एक माँ अपने नवजात शिशु को देखकर उसके लिए लुटाती है । पूजा को अपने सीने से लगाये हुए रमा का हृदय तृप्त नहीं हो रहा था । ऐसा लग रहा था, मानों एक माँ को युगों-युगों से बिछड़ी हुई अपनी बेटी मिल गयी है और उस माँ के हृदय में अभी भी भय समाया हुआ है कि उसकी बेटी उससे दुबारा बिछुड़ न जाए ! काश ! माँ का यह भय सत्य न होता और उसकी बेटी सदैव के लिए उसके आँचल की छाँव में रह पाती ।

माँ-बेटी एक-दूसरे से जी-भरकर बतिया भी नहीं पायी थी ; वे अपनी वियोग-व्यथा को साझा भी नहीं कर पायी थीं, तभी रमा को उनके कर्तव्य-बोध ने उस अमूल्य सुख से वंचित कर दिया, जिसकी वह अभिलाषी थी । बेटी तो अपनी थी, परन्तु उसकी ससुराल वालों के स्वागत-सेवा में किसी प्रकार की कोई त्राुटि रह गयी, तो बेटी को जीवन-भर का ताना-उलाहना हो जाएगा । इस विचार को धारण करके रमा के कई घंटे अतिथियों के नाश्ते-भोजन की व्यवस्था में व्यतीत हो गये । तब तक बेटी को पुनः विदा करने का समय हो गया था। लगभग तीन बजे अपरान्ह पूजा पुनः ससुराल के लिए विदा हो गयी ।

अपनी लाड़ली से माँ कुछ समय बातें तो नहीं कर पायी थी, परन्तु उसके हाव-भाव और उल्लसित-आभायुक्त मुखमंडल से इतना अनुमान अवश्य ही लगा पायी थी कि उसकी बेटी अपनी ससुराल में पति के साथ प्रसन्न है । अपने इसी अनुमान से रमा बेटी की चिन्ता से मुक्त और सन्तुष्ट हो गयी थी ।

डॉ. कविता त्यागी

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