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आघात - 7

आघात

डॉ. कविता त्यागी

7

पिता के घर से विदा होकर पूजा जब ससुराल के लिए चली, तब वह रणवीर को लेकर अनेक शंकाओं से त्रस्त थी । उसके मस्तिष्क में उस समय की सभी स्मृतियाँ वर्तमान होकर चलचित्र की भाँति उसकी आँखों में तैर रही थी, जब उसने रणवीर को एक जिद्दी, आवारा और गैर जिम्मेदार युवक मानते हुए अनेक बार उसका तिरस्कार किया था । पूजा को वह भी घटना याद थी, जब रणवीर उसकी इच्छा के विरुद्ध उसके साथ-साथ काॅलिज से घर तक आ पहुँचा था और बहुत विनती करने पर वापिस गया था । उस घटना के बाद से पूजा ने काॅलिज जाना लगभग बन्द-सा कर दिया था । माता-पिता के बार-बार पूछने पर भी पूजा ने कुछ नहीं बताने में ही अपनी भलाई समझकर सारी घटना को अपने मन में दफन कर लिया था । परन्तु, आज वही रणवीर एक नये रूप में - उसके पति के रूप में उसके समक्ष खड़ा है । वह सोचने लगी- ‘‘क्या यह संयोग है ? अथवा... ?’’

सोचते-सोचते उसको पता ही नहीं चला कि वह कब नैहर से ससुराल पहुँच गयी । उसकी विचार- शृंखला तब टूटी, जब कई महिलाएँ - कुछ अधेड़, कुछ युवती तथा कुछ किशोरियाँ कार का दरवाजा खोलकर उसको कार से उतारने का उपक्रम कर रही थी । विचार-जगत से यर्थाथ-जगत में प्रवेश करते ही पूजा के मनोमस्तिष्क पर एक अज्ञात-अकल्पनीय भय का साम्राज्य छा गया-

‘‘अब क्या होगा ? कैसे होंगे रणवीर के परिवार के लोग? रणवीर कैसा व्यवहार करेगा? यहाँ तो सभी अपरिचित हैं ! किसको अपना मित्र मानूँ ? क्या ससुराल में कोई मित्र भी हो सकता है ?’’

कार से नीचे कदम रखते ही पूजा के कानों में माधुर्य-भाव से आपूरित एक मधुर स्त्री-स्वर गूंजा । उस मधुर स्वर में पूजा को अपनत्व का अनुभव हुआ । कुछ ही क्षणों में वह मधु में डूबा स्त्री-स्वर पूजा के और अधिक निकट आ पहुँचा । निकट आकर वह स्त्री पूजा से इस प्रकार चिर-परिचित मुद्रा में बातें करने लगी, जैसे कि उसकी बड़ी बहन हो । उसकी बातों से तथा बातें करने के रंग-ढ़ंग से पूजा ने अनुमान लगा लिया था कि अवश्य ही वह युवती उसके पिता के मित्र रामनाथ की बेटी तथा रणवीर के ताऊजी की पुत्र-वधू है । कुछ ही क्षणोपरान्त पूजा को ज्ञात हो गया कि उसका अनुमान शत-प्रतिशत सही था । वहाँ पर खड़ी हुई कई महिलाओं ने उस पर व्यंग्यात्मक आरोप लगाकर चुटकी लेना आरम्भ कर दिया था कि वह बहन को देखकर हरी हो गयी है और उसका पक्ष ले रही हैं ।

पूजा ने देखा कि दरवाजे पर वर-वधू के स्वागत की भव्य तैयारियाँ की गयी थी । रणवीर की बहन आरती का थाल लिए हुए खड़ी थी । द्वार पर आरती की रस्म के पश्चात् गृह-प्रवेश हुआ । पति के घर में पदार्पण करते ही पूजा के अनुभवहीन कन्धों पर गृहस्थी का भार आ पड़ा था । ‘फर्स्ट इम्प्रेशन इज द लास्ट इम्प्रेशन’ के अनुसार पूजा ससुराल में प्रथम दिन ही एक आदर्श बहू, एक आदर्श भाभी और आदर्श पत्नी के रूप में सभी परिवारजनों को प्रभावित कर देना चाहती थी । अपने इस प्रयास में वह सपफल भी हुई । रणवीर की ताइजी कह रही थी-

‘‘घर में साक्षात लक्ष्मी का प्रवेश हुआ है आज ! दान-दहेज से भी और बहू से भी ! लगता है, हमें आज प्रभु से अपने कई-कई जन्मों का पुण्य-फल मिल गया है !’’

उनका समर्थन करते हुए रणवीर की बहन ने कहा-

‘‘ताइजी, भाभी नाम की भी पूजा हैं और वास्तव में भी पूजा ही हैं !’’

अपनी बेटी और जेठानी की बातें सुनकर पूजा की सास मन्द-मन्द मुस्करा रही थी । पूजा ने देखा कि रणवीर भी प्रसन्नचित्त से अपनी मम्मी के साथ बातें कर रहा था । आज उसने अनुभव किया कि घर में रणवीर बिलकुल शान्त स्वभाव वाला, एक जिम्मेदार बेटा बनकर रहता है । आज उसके स्वभाव में उद्दंडता का अंशमात्रा भी पूजा को आभास नहीं हो रहा था । यह सब देखकर पूजा को बहुत सन्तोष हुआ । पिता के घर से विदाई होने के पश्चात् से उसके मन में उठने वाली शंकाएँ और भय अब उसको व्यर्थ और निराधर अनुभव होने लगे थे । उसको अपनी बुआ चित्रा द्वारा कही हुई बात याद आने लगीं कि ससुराल भी अपना परिवार होता है जैसेकि मायका होता है । अब पूजा के अन्तःकरण में ससुराल के प्रति अलगाव-भाव समाप्त होता जा रहा था । इसके विपरीत ससुराल के प्रत्येक सम्बन्ध् के प्रति अब उसके हृदय में अपनत्व-भाव जाग्रत हो रहा था । यह भाव उसके अपने विचारों, व्यवहारों के साथ-साथ प्रतिपक्ष के व्यवहारों को परखने में भी महती भूमिका निभा रहा था । इसी का परिणाम था कि पूजा अब भयमुक्त और शंकायुक्त होकर पूर्णतः उदार, सहनशील और क्षमाशील बन गयी थी । प्रतिपक्ष ससुराल वालों के व्यवहारों का छिद्रान्वेषण करने की अपेक्षा वह उन्हें सहजता से और मित्रवत् ग्रहण कर रही थी । पूजा के इस प्रकार के व्यवहार की प्रतिक्रियास्वरूप वहाँ पर उपस्थित अधिकतर महिलाओं ने उसे सीधी-भोली-भाली बहू की संज्ञा प्रदान की, तथा कुछ ने बेवकूपफ की, तो कुछ ने आवश्यकता से अध्कि बुद्धिमान होने की संज्ञा प्रदान की । उन महिलाओं में बहुत कम ऐसी थी, जिन्होंने पूजा की वास्तविक भावनाओं को समझा था और यह अनुभव किया था कि माँ-बाप का घर छोड़कर सदैव के लिए पति के घर - नितान्त अपरिचित लोगों के बीच रहना कितना कष्टप्रद और चुनौतीपूर्ण कार्य होता है । यद्यपि यह परम्परा हमारी सामाजिक-व्यवस्था की आनुषांगिक संस्था ‘विवाह’ का महत्त्वपूर्ण अंग है, जिसमें प्रत्येक लड़की को विवाह के पश्चात् पति के घर जाकर रहना पड़ता है और पति के परिजनों से सामंजस्य बनाकर रहना उसकी जिम्मेदारी होती है, तथापि इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि हर लड़की के लिए यह स्थिति कष्टप्रद होती है और उस समय वह अपने आस-पास उपस्थित प्रत्येक स्त्री से और प्रत्येक सम्बन्धी से प्रेम और सौहार्द्रपूर्ण व्यवहार की अपेक्षा रखती है । नवविवाहिता की इस स्थिति को समझते हुए प्रत्येक व्यक्ति को, जो उसके पितृपक्ष या पतिपक्ष से किसी प्रकार सम्बन्ध रखता है, उसकी अपेक्षानुरूप संवेदनशील होना ही चाहिए ।

वैवाहिक कार्यक्रम में उपस्थिति दर्ज कराने के लिए आयी हुई उन स्त्रियों की सोच और दृष्टि से बेपरवाह पूजा अपनी ही विचार-दृष्टि में मग्न थी । उसके अपनत्व-भाव तथा और मैत्रीपूर्ण-व्यवहार को और अधिक दृढ़ता प्रदान की रणवीर के साथ विवाहोपरान्त उसकी प्रथम भेंट ने । अपनी प्रथम भेंट में रणवीर ने अपने मनोभाव इतने आकर्षक ढ़ंग से अभिव्यक्त किये कि पूजा अभिभूत हो गयी । रणवीर ने पूजा को उपहार-स्वरूप हीरे का जड़ाऊ हार दिया और अपने मधुर व्यवहार से उसको अपने विषय में इस बात का विश्वास कराने में सपफल हो गया कि वह वास्तव में चरित्रावान और अपने सभी दायित्वों का समुचित निर्वाह करने वाला एक सज्जन पुरुष है ।

रणवीर लड़कियों के मार्मिक-भावों को भली-भाँति समझता था । वह जानता था कि पूजा के मन में उन घटनाओं को लेकर अनेक प्रश्न उठ रहे होंगे, जिन्हें उसने काॅलिज जाते-आते समय पूजा के विरुद्ध अंजाम दिया था तथा जिन घटनाओं ने पूजा के मस्तिष्क में रणवीर की छवि को निकृष्ट और एक आवारा लड़के की-सी बना दिया था । अपनी उस छवि को निर्मल बनाने के उद्देश्य से उसने पूजा के समक्ष अपनी दीवानगी की विवशता प्रकट करते हुए कहा -

‘‘पूजा, मैं सचमुच तुमसे बहुत अधिक प्रेम करता हूँ, इसलिए मैं चाहता था कि तुम मुझसे बातें करो !... मैं कभी भी तुम्हें कष्ट देना नहीं चाहता था !... जब मुझे अनुभव हुआ कि तुम्हें मेरी उस प्रकार की गतिविधियों से कष्ट होता है, तब मैंने वह रास्ता छोड़कर तुम्हारा साथ- जीवन-भर का साथ पाने का रास्ता चुना ! उसी का आज मुझे यह फल मिला है कि इस समय तुम मेरे साथ हो !’’

पूजा चुपचाप रणवीर की बातें सुन रही थी । उसकी मुखमुद्रा से रणवीर अनुमान लगा पा रहा था कि पूजा के मन में उसके प्रति प्रेम और विश्वास दृढ़ होने की प्रकिया में है । उसने पुनः कहना आरम्भ किया µ

‘‘पूजा, मैं तुम्हें विवाह से पहले जितना प्रेम करता था, आज उससे भी अधिक प्रेम करता हूँ और सदैव इतना ही प्रेम करता रहूँगा ! तुम्हारे एक संकेत पर मैं अपने प्राणों का त्याग कर सकता हूँ ! तुम मेरे इस प्रेम की परीक्षा ले सकती हो ! अपने इसी प्रेम के वशीभूत होकर मैं तुम्हें कभी कष्ट में देख भी नहीं सकता, कष्ट देना तो दूर की बात है !’’

‘‘अच्छा ! तो मेरे काॅलिज से आते-जाते हुए तुम मुझे कष्ट क्यों देते थे ? क्यों मेरे हजार बार मना करने और समझाने पर भी मुझे परेशान करते रहते थे ? ’’

‘‘मुझे यह ज्ञात नहीं था कि मेरी उन गतिविधियों से तुम्हें कष्ट की अनुभूति होती थी ! मुझे लगता था कि तुम झूठ-मूठ के नखरे करती हो ! उस दिन जब मैंने तुम्हें रोते हुए देखा, तब मुझे अनुभव हुआ कि तुम वास्तव में ...! उसी दिन मैंने अपने जीवन से इस प्रकार की निकृष्टता का बहिष्कार कर दिया था !...पूजा, उसी दिन मैं तुम्हारी अच्छाई का सच्चा भक्त बना था !’’

‘‘हूँ-ऊँ-ऊँ ! तो अब आप मेरे भक्त हैं ! या दीवानें हैं ?’’ पूजा ने आत्मीयता की मुद्रा में कहा और रणवीर की ओर प्रेमपूर्ण दृष्टि से एकटक देखने लगी । पूजा की प्रेमभरी दृष्टि से रणवीर आत्मविभोर होकर बोला -

‘‘पूजा ! तुम मेरे लिए मेरी पत्नी के साथ-साथ और भी बहुत कुछ हो ! तुम मेरे जीवन में मेरे लिए एक ऐसी प्रेरणा बनकर आयी हो, जो बुराइयों का अन्त करने में तथा सद्वृत्तियों का सृजन करने में पूर्णतः सक्षम है ! मुझे पूर्ण विश्वास है कि जब तक तुम मेरे जीवन में रहोगी, कोई दुष्वृत्ति मुझे छू भी न सकेगी !’’

‘‘क्या आशय है आपकी इन बातों का ? मैं समझ नहीं पा रही हूँ ! जब तक मैं तुम्हारे जीवन में रहूँगी... ? आपकी इन बातों का मतलब निकालना मेरी सामर्थ्य से बाहर की बात है !’’ पूजा ने असमंजस की मुद्रा बनाते हुए कहा ।

रणवीर ने पूजा की ओर देखा और सोचा, तो उसे अनुभव हुआ कि अभी-अभी उसने ऐसी अकथनीय बात कह दी है, जो उसे शायद नहीं कहनी चाहिए थी । अपनी भूल को सुधरते हुए उसने कहा -

‘‘मेरी बात को समझने के लिए किसी सामर्थ्य की नहीं, बल्कि एक प्रेमपूर्ण हृदय की आवश्यकता है ! उतने ही प्रेम से निमज्जित हृदय की, जितना प्रेम मैं तुम्हें करता हूँ ! पूजा, तुम्हें अपनी जीवन-संगिनी के रूप में देखकर मैं कितना प्रसन्न हूँ, मैं इसका वर्णन नहीं कर सकता और न ही मेरी प्रसन्नता का कोई अनुमान लगा सकता है !’’

‘‘मैं भी नहीं ?’’

‘‘तब तक नहीं, जब तक तुम भी मुझे उतना ही प्रेम न करोगी, जितना मैं तुम्हें करता हूँ ! कभी तो लगता है, यह स्वप्न है कि तुम मेरी पत्नी हो और भय लगता है कि मेरा स्वप्न टूट न जाये ! जब मैं सोचता हूँ कि यह सब यथार्थ है, तो मुझे अपने ही भाग्य से ईर्ष्या-सी होने लगती है !’’

‘‘विवाह से पहले की बातें आप भूल जाइये ! किन्तु अब मैं आपको इतना प्रेम करती हूँ, जितना न तो आप मुझसे करते हैं और न मैं स्वयं से ! मतलब... मैं आपको आपसे भी और स्वयं से भी अधिक प्रेम करती हूँ !’’

‘‘सच ?’’

‘‘बिल्कुल सच !’’

रणवीर ने अनुभव किया कि पूजा अब उसे पति के रूप में स्वीकार करके एक आदर्श भारतीय पत्नी बनकर उसके सभी दोषों को विस्मृत कर चुकी है । वह पूजा को प्रेम करता है या नहीं, उसे ज्ञात नहीं था । किन्तु उसने अनुभव किया कि एक पत्नी के रूप में पूजा उसे सच्चा प्रेम करती है । वह पूजा के प्रेम से अभिभूत हो गया था । उसके हृदय में एक आकांक्षा अपना विस्तार करने लगी । यह आकांक्षा थी - पूजा का सच्चा प्रेम पाने की आकांक्षा, जिसकी अनुभूति वह कुछ क्षण के लिए कर चुका था । अब तक जिन बातों को मधुर शब्दों में ढ़ालकर वह पूजा को धोखा देने का प्रयास करता रहा था, अब उसके मन में वे बातें वास्तविक भावों का रूप धरण करके अनुभूति की भूमि पर पल्लवित होने लगी थीं । उसके हृदय में अब पूजा को लेकर वास्तविक भय की अनुभूति होने लगी थी कि पूजा उससे दूर न चली जाए और पूजा के हृदय में उसके प्रति प्रेम कम न हो जाए ! अपने इसी भय के वशीभूत होकर रणवीर ने निश्चय किया कि वह कोई ऐसा कार्य नहीं करेगा, जिससे पूजा के हृदय में उसके प्रति बन चुका यह विश्वास कम हो !

अपने विवाह से पहले, जब रणवीर काॅलिज से आती-जाती हुई पूजा को छेड़ता था, और जब उसने पूजा के साथ अपने विवाह-बंधन के लिए प्रयास किये थे, जिनकी सफलता के परिणामस्वरूप पूजा आज उसकी पत्नी थी, तब वह पूजा से प्रेम नहीं करता था, केवल प्रेम की बातें करता था । उस समय उसमें एक ज़िदद् थी, उस लड़की को पत्नी बनाने की, जो उसे घास नहीं डालती थी और उसे एक गैरजिम्मेदार आवारा लड़का समझती थी । उस समय उसके मस्तिष्क में एक स्वार्थ था - उस लड़की को पत्नी बनाने का, जो सुन्दर थी ; सुशिक्षित थी, सच्चरित्रा थी और सोने पर सुहागा यह कि लड़की उसकी जाति की तथा अच्छे कुल की थी ।

अब रणवीर की ज़िदद् और स्वार्थ दोनों पूरे हो चुके थे । अपनी इस सपफलता से वह अत्यन्त प्रसन्न था । इस सफलता के बाद पूजा को पत्नी के रूप में पाकर और स्वयं के प्रति उसके प्रेम की अनुभूति से उसे नितान्त नया अनुभव हुआ था । अपनी इस मधुर हृदयानुभूति से गदगद होकर उसने मन ही मन एक निश्चय किया और बोला-

‘‘पूजा ! तुम मेरी पत्नी हो ! मुझे प्रेम भी करती हो ! मैं सच और एकदम सच कह रहा हूँ ! मैं चाहता हूँ कि तुम मेरी उन बातों को पूरी तरह भूल जाओ और मुझे उनके लिए क्षमा कर दो जो हमारे विवाह से पहले घटित हुई थी । मुझे पूर्ण विश्वास है कि तुम मुझे क्षमा करके हमारे वैवाहिक-जीवन में माधुर्य बनाये रखोगी ! इसलिए, मैं तुमसे कुछ बताना चाहता हूँ !’’

‘‘तुम मुझसे अपनी प्रत्येक बात निस्संकोच कह सकते हो ! मुझ पर विश्वास कर सकते हो ! मैं तुम्हारे विश्वास को कभी नहीं टूटने दूँगी ! कहो, क्या कहना चाहते हो तुम !’’

पूजा ने इस प्रकार हृदयस्पर्शी ढ़ंग से यह भावाभिव्यक्ति की, कि उसके प्रेम और विश्वास के आगे रणवीर का निश्चय डगमगा गया । वह पूजा के प्रेम के सम्मुख स्वयं को परवश अनुभव करने लगा । साथ ही उसे शंका होने लगी कि उसके विवाहपूर्व जीवन की एक घटना कहीं भावी जीवन की रूपरेखा को विकृत-बदरंग न कर दे । अतः तुरन्त सम्हलकर वह बोला -

‘‘पूजा ! आज बहुत रात हो गयी है, इसलिए अब सो जाना चाहिए ! बाकी बातें हम कल करेंगे ! शुभरात्रि !’’

‘‘शुभरात्रि !’’

शुभरात्रि कहने के पश्चात् रणवीर सोचने लगा कि उसने जो बात पूजा को, अधिक रात होने का बहाना बनाकर आज नहीं बतायी, कल बताने का वचन दिया है, क्या कल उसे वह बात बता देनी चाहिए ? उस बात को जानने के बाद पूजा के प्रेम और विश्वास में कमी तो नहीं आ जाएगी ? लेकिन अब स्वयं न बताने पर, बाद में यदि किसी अन्य व्यक्ति से पूजा को इस बात का पता चला तब ?... तब पूजा का उसके प्रति प्रेम और विश्वास कम ही नहीं होगा, समाप्त भी हो सकता है ! हो सकता है, दाम्पत्य जीवन में कडवाहट आ जाए और वह कड़वाहट इतनी बढ़ जाए कि दाम्पत्य-सूत्र ही टूट जाए ! नहीं ! ऐसा नहीं हो सकता ! परिस्थितियाँ बिगड़ने से पहले ही यदि व्यक्ति यथोचित कदम उठा ले, तो उन पर नियन्त्रण पाया जा सकता है ! यह सोचते-सोचते रणवीर बड़बड़ाया -‘‘नहीं ! मैं ऐसा नहीं होने दूँगा । मैं ऐसा नहीं होने दे सकता !’’

बड़बड़ाते हुए उसे याद आया कि पूजा उसी के साथ है । उसे चिन्ता हुई कि पूजा ने उसके शब्द सुन तो नहीं लिये हैं । अतः वह उठा और पूजा को देखने लगा । पूजा निश्चिन्त होकर सोई हुई थी । वह स्वप्नलोक में विचरण कर रही थी । उसके बाल-सुलभ मुखमण्डल पर निश्चिन्तता तथा होठों पर निश्छल मुस्कान बिखरी हुई देखकर रणवीर भी निश्चिन्त हुआ और सो गया ।

डॉ. कविता त्यागी

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