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कुबेर - 3

कुबेर

डॉ. हंसा दीप

3

नींद की राह तकते अनींदे बच्चे को बहुत याद आती माँ की और सोचता रहता माँ के बारे में, लेकिन साथ ही साथ वह पीठ पर पड़ी मार भी याद आती थी जिसकी चोट थके-हारे-भूखे बच्चे के ज़ेहन से जा नहीं पाती। बहुत गुस्सा था। इतना गुस्सा न जाने किस पर था, ख़ुद पर था, नेताजी पर था, बहन जी पर था या फिर माँ-बाबू पर था मगर था तो सही और बहुत गहरा था।

घर से भागे किसी भी भूखे बच्चे के लिए रास्ते के ढाबे शरणगाह बनते हैं। ऐसे होटल में काम करना एक आवश्यक सीढ़ी है जो और कहीं ले जाए, न ले जाए, पर पेट की भूख को ज़रूर शांत कर देती है। धन्नू ने भी वही किया। चलते-चलते उस ढाबे को देखा जहाँ लोगों की गहमा-गहमी थी। हर कोई कुछ न कुछ कर रहा था। साहस करके आगे तक गया जहाँ पर काउंटर पर खड़े व्यक्ति ने उसे इशारा किया। पास जाकर उसने पूछा – “कोई काम चाहिए”। ऐसे काम माँगने वाले लड़कों से शायद यह ढाबा परिचित था। वह व्यक्ति और कोई नहीं इस ढाबे के मालिक थे, गुप्ता जी। उन्होंने जब उस लड़के का चेहरा देखा तो बगैर कुछ पूछे अपनी गर्दन हिलायी और मेज़ साफ़ करते एक लड़के को बुलाकर कहा कि – “इसे काम समझा दो।”

वह बीरू था अपने हमउम्र लड़के को आया देख बात करने की कोशिश करने लगा – “क्या नाम है तुम्हारा”

“धनंजय, सब धन्नू कहते हैं”

“कहाँ रहते हो?”

“गाँव में”

“गाँव में तो सब रहते हैं, कौन से गाँव में रहते हो?”

धन्नू कोई जवाब दे तब तक महाराज ने आवाज़ दे दी और बीरू चला गया। वैसे भी धन्नू किसी को बताना नहीं चाहता था कि वह कौन से गाँव से है, ना ही किसी से पूछना चाहता था कि तुम कौन से गाँव से हो। डर था कि कभी भी कोई भी उसे वापस गाँव छोड़ आएगा या फिर गाँव जाकर बता देगा कि धन्नू यहाँ इस ढाबे पर है। किसी भी हालत में उसे वापस लौटकर गाँव जाना ही नहीं था।

इस ढाबे में एक और लड़का था जिसे सब छोटू कहते थे। छोटू और बीरू दोनों उसकी बराबरी के लग रहे थे। वह भी उनके साथ बर्तन धोने लगा। काम तो करने लगा धन्नू मगर चुप-चुप। मानो कुछ भी बोला तो सब कुछ उगलना पड़ेगा, अपना इतिहास और भूगोल सब कुछ। चुप रहते हुए भी आसपास नज़र डालता जा रहा था कि कितने लोग आ-जा रहे हैं। वे सारे अधिकतर ड्राइवर थे जो अपनी गाड़ी को खड़ी करके खाने-सुस्ताने का विराम लेते थे और वापस अपने रास्ते निकल जाते थे।

बीरू और छोटू दोनों की तरह रास्ते के इस ढाबेनुमा होटल में धन्नू ने काम शुरु किया, प्लेटें धो-पौंछकर जमा दीं एक के ऊपर एक। उसके बाद जब अंधेरा होने लगा तो उन तीनों को खाने के लिए कहा मालिक गुप्ता जी ने। बीरू और छोटू दोनों अपनी प्लेट भर लाए – “धन्नू, जाओ खाना ले लो।”

संकोच में प्लेट तो लेकर गया धन्नू पर थोड़ा-सा खाना ही लेकर आया। दो दिन से भूखा था। खाने को देखकर ऐसा लग रहा था जैसे कि पूरे के पूरे तपेलों का बचा खाना खा ले पर धैर्य रखा। बीरू और छोटू को और खाना लेते देख वह भी फिर से प्लेट भर लाया। इस बार थोड़ा डर कम था इसलिए खाने का स्वाद भी आने लगा। इतना स्वादिष्ट खाना कभी नहीं खाया था धन्नू ने। ऐसी हरी सब्ज़ी भी पहली बार ही खायी थी। ये सारे नाम भी उसके लिए नये थे। मोटी रोटी जो नान थी और ख़ूब घी लगा था उसमें। ऐसी चिकनाई जो धन्नू ने कभी अपने घर की रोटी पर नहीं देखी थी, हाथों पर यह चिकनाई ऐसी चिपकती रही कि रगड़-रगड़ कर धोने से भी नहीं धुली।

खाना खाकर एक संतोष की साँस ली धन्नू ने कि कम से कम अपना पेट तो वह अच्छी तरह भर लेगा यहाँ। खाना खाने के बाद महाराज और तीनों बच्चों को यहीं सोना था, मालिक गुप्ता जी घर चले गए। वह भी एक खाट बिछा कर सो गया। आकाश में चमकते तारों को गिनने लगा इतने ध्यान से कि कोई एक भी उसकी गिनती से छूट न जाए। दस-ग्यारह-बारह तक जाते ही उसकी आँखें मूँद गयीं।

इतनी अच्छी नींद कभी नहीं आयी थी उसे क्योंकि पेट भर कर इतना खाना भी कभी नहीं खाया था। मदहोशी भरी वह नींद की खुमारी उड़ गयी जब सुबह की खटर-पटर शुरू हुई। महाराज जी के उठते ही चाय का तपेला चढ़ गया और उनकी पुकार लगते ही उठ गए वे तीनों बच्चे, धन्नू, बीरू और छोटू। कई शौचालय बने हुए थे वहाँ पर ग्राहकों के लिए। मुँह धोकर ताज़ा हुआ तो दो बिस्कुट के साथ गरम चाय दी महाराज जी ने। गरम चाय और बिस्कुट का कुरकुरापन जीभ के स्वाद का चरम था उसके लिए। बस यहीं मन बना लिया था धन्नू ने कि इतना काम करेगा कि यहाँ से कहीं जाना ही न पड़े उसे। ऐसे करारे बिस्कुट गरम-गरम चाय के साथ और कहीं खाने के लिए नहीं मिलेंगे उसे।

महाराज जी ने जो-जो काम बताया, फुर्ती से निपटाया उसने। तब तक मालिक भी आ गए थे। चाय नाश्ते की तैयारी के साथ खाने के लिए ताज़ी सब्ज़ियाँ भी थीं जिन्हें धो-पौंछकर काटना था। एक दिन में यहाँ की दिनचर्या को अच्छी तरह समझ गया था धन्नू। दोनों बीरू और छोटू से भी बातें करनी शुरू हो गयी थीं। गाने बज रहे थे। उन दोनों को गुनगुनाते देख उसे अच्छा लग रहा था। उसे भी गाना पसंद था। माँ के साथ उनके कई गीत गुनगुनाता था। लेकिन यहाँ जो गाने बज रहे थे वे सारे उसके लिए नये थे। संगीत की धुन पर अपना मुँह हिला रहा था बस। एक रात का यह नया अनुभव उसके लिए इतना अच्छा रहा था कि नन्हा मन यह सोचने लगा था कि बस अब यहीं मन लगाकर काम करेगा, यहीं रह कर गुप्ताजी के ढाबे को अपना घर बनाना है उसे।

तीनों बच्चे काम ख़त्म करके सुस्ताने लगते तो धन्नू का तेज़ दिमाग़ बहुत कुछ सोचता। उन सारे कामों के आगे भी जो कोई उसे करने के लिए नहीं कहता। बीरू और छोटू की सोच से आगे भी उसने बहुत कुछ सोचा जो किसी और बच्चे के लिए सोचना शायद मुमकिन नहीं था। वह सब करने लगा जो दूसरे बच्चे कभी नहीं करते थे।

सबसे पहले तो जितना कहा जाता उससे कहीं अधिक काम करके सोता। सारे बर्तन धोकर, सफाई करके, ख़ुद नहाता फिर सोता। मालिक के ढाबे पर आने से बहुत पहले ही उठ जाता। काम सीखने की ऐसी ललक थी कि किसी भी काम को करने में उसे आलस नहीं आता। एक साथ कई मोर्चों पर काम संभालता था। कोई सामान ख़त्म हो जाए तो धन्नू दौड़ कर जाता जितनी जल्दी ला सकता, ले कर आता। किसी बच्चे को खाना पकाने के बारे में जानने की इच्छा नहीं होती पर उसे तो सब कुछ जानना होता था। देख-देख कर खाना बनाना भी सीख रहा था। कई बार खाना बनाने वाले महाराज जी को दस मिनट के लिए जाना होता पानी-पेशाब के लिए तो धन्नू को ही अपना काम सौंप कर जाते।

वैसे उसके जैसे इन छोटे बच्चों का ख़ास काम होता था ढाबे में वेटर का काम करना। इस काम में तो धन्नू इतना माहिर हो गया था कि एक बार एक ग्राहक को जो परोसा तो अगली बार उसे कुछ कहने की ज़रूरत नहीं होती। उसके आते ही उसकी ज़रूरत का सारा सामान टेबल पर आ जाता। फटाफट और उम्दा सर्विस मिलने से खाने के लिए आने वाले ग्राहक ख़ुश थे और मालिक भी ख़ुश थे। उनका धंधा ख़ूब बढ़ने लगा था।

सा’ब लोगों की जी हुजूरी करके टिप्स भी मिलती थीं। एक सप्ताह की तनख़्वाह देते हुए मालिक ने उससे कहा था कि – “बाज़ार जाकर नये कपड़े ख़रीद लो।” तब उसी दोपहर को धन्नू, महाराज जी, बीरू और छोटू चारों बाज़ार गए थे। धन्नू ने नये कपड़े ख़रीद लिए। नये जूते भी खरीदे। अपने रुखे बालों को सँवारने का कंघा और साबुन भी खरीदा। ढाबे के पिछवाड़े जहाँ जगह-जगह नल बने हुए थे, वह वहीं नहाता था। दीवारों पर मालिक ने जगह-जगह काँच के छोट-छोटे टुकड़े लगवा रखे थे चेहरा देखने के लिए। ग्राहक भी आकर अपना हाथ-मुँह धोकर कंघी करके तरोताज़ा हो जाते।

धन्नू उन सबको देखता। जब आसपास कोई नहीं होता तो वह भी अपने आपको आइने में निहारने लगता। आगे-पीछे करके अपनी शकल को देखता, अपने बेतरतीब बालों को देखता। वहाँ पड़े कंघे से अपने बालों को कंघी करता। एक बुझे-से चेहरे को ज़रा-सा ध्यान ही चाहिए था, धीरे-धीरे वह खिलने लगा। आइने में ख़ुद को देखता तो माँ को ज़रूर याद करता कितनी ख़ुश होंगी माँ जब उसे देखेंगी, अच्छे सँवारे हुए बालों में, अच्छे कपड़ों में। ख़ुश-ख़ुश, हँसता-खिलखिलाता और भरपूर खाता-पीता उनका धन्नू।

कई ख़्वाब जाग रहे थे माँ-बाबू के चेहरे की ख़ुशी को देखने के – “एक दिन माँ-बाबू को भी यहाँ लाऊँगा खाना खिलाने के लिए।”

“माँ के लिए नयी साड़ी ख़रीदने के पैसे जमा करूँगा और फिर जाऊँगा घर, उन्हें लेने के लिए।”

“बाबू के लिए भी नयी कमीज़ ख़रीद लूँगा।”

“अब उन्हें फटे कपड़ों में कभी नहीं रहना पड़ेगा।”

अपने परिवार के बारे में तो वह सोचता ही साथ में ढाबे में रह रहे और काम कर रहे दूसरे लोगों का भी ध्यान रखता। बीरू या छोटू किसी काम में अटक जाते तो धन्नू सबसे पहले मदद का हाथ बढ़ाता। कई बार सब्जी काटते हुए हाथों में चाकू भी लग जाता जो कि काम का एक हिस्सा था, वह दौड़ कर पट्टी का सामान लाता। ऐसे भी कई मौके आते जब बच्चे बहुत थक जाते मगर काम ख़त्म नहीं होता। उनके हाथ धीरे चलने लगते और मालिक गुप्ता जी घर जाने की जल्दी में चिल्लाने लगते।

“ए, बीरू सो रहा है क्या, फटाफट हाथ चला”

“छोटू, अपने मुँह से मक्खी उड़ा और काम कर”

“छोकरों, जल्दी करो रात हो गयी है”

“सारी मेजें साफ़ करना, नहीं तो रात भर मक्खियाँ भिनकती रहेंगी”

थके हुए बच्चों पर यह चिल्लाहट बहुत भारी पड़ती, आँखों में पानी उमड़कर आ जाता बाहर आने को बेताब, लेकिन वे छुपा लेते उन आँसुओं को। डाँट सुनते-सुनते थके हुए बीरू और छोटू को रोना तो आता ही, गुस्सा भी आने लगता - –“यह मालिक खाली-पीली डाँटता है और काम कराता है।”

छोटू कुड़कुड़ाता गुप्ता जी पर - “दिन भर काम करो और ऊपर से इतनी डाँट खाओ, इनकी तो चिक-चिक ख़त्म ही नहीं होती।”

“जब देखो तब चिल्लाता रहता है मालिक का बच्चा।”

धन्नू धीरे से समझाता उन्हें कि – “धीरे बोलो, ज़रूरत तुम्हारी है यहाँ खाने की और काम करने की। मालिक को तो और बहुत मिल जाएँगे काम करने के लिए।”

“धन्नू तू हमेशा मालिक का पक्ष क्यों लेता है...”

“अरे समझने की कोशिश कर छोटू, यहाँ से निकाल देंगे मालिक तो हम भूखे-प्यासे कहाँ भटकते रहेंगे!”

यह वही धन्नू था जो गुस्से में घर छोड़ आया था मगर काम के बदले भरपेट भोजन ने उसे बदला था। उसकी सहनशक्ति को बढ़ाया था। अभी भी गुस्सा था अंदर, बीते दिनों की याद आती तो गुस्सा आता, माँ-बाबू की मजबूरी पर गुस्सा आता। उन्हें भरपेट खाना नहीं मिलता था उस बात पर सबसे ज़्यादा गुस्सा आता। ढाबे पर आकर तो उसका मन मालिक के अहसानों के बोझ तले दब गया था। बगैर किसी झिकझिक के मालिक ने जब उसे काम पर रख लिया तो मानो उसके लिए गुप्ता जी के रूप में एक बड़े मददगार का मिलना था। बहुत मान था उसके मन में उनके लिए।

छोटू और बीरू दोनों बच्चे अपनी शिकायत लेकर धन्नू से बात करते - “कब तक सहन करेंगे हम, अब यह सब नहीं होता धन्नू” थका-हारा बीरू रोती आवाज़ में कहता।

“मेरा तो घर भी नहीं है, आख़िर मैं जाऊँ तो जाऊँ कहाँ... ?” छोटू अपनी विवशता को शब्द देता।

धन्नू मरहम लगाने की कोशिश करता – “मेरा भी घर नहीं है छोटू। अब हम दोनों का घर यही ढाबा है। देख, तू थक जाए तो मुझको बोल, मैं करूँगा तेरा काम।”

थक कर चूर हुआ बीरू कहता – “अब जरा भी दम नहीं बचा, नींद आ रही है और काम तो ख़त्म ही नहीं हो रहा।”

“छोड़ दे बीरू, जा जाकर सो जा, तेरा काम मैं कर लूँगा।” थके हुए दोनों बच्चे धन्नू की इस सहानुभूति से जाकर सोने की कोशिश करने लगते।

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