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कुबेर - 8

कुबेर

डॉ. हंसा दीप

8

आज दीवाली की रात है और ढाबे पर कई तरह की मिठाइयाँ बनी हैं। गुलाबजामुन, रसमलाई, चमचम, काजू-कतली, खोपरापाक और मोतीचूर के लड्डू। ढाबा बंद करके सब बच्चे मालिक के घर जाएँगे पटाखों के लिए। सबको नये कपड़े पहनने थे। दिन भर की मिठाइयों की ख़ुशबू, इलायची की ख़ुशबू, केसर की ख़ुशबू पूरे माहौल में फैली हुई थी। जल्दी ही सबको भरपेट मिठाइयाँ खाने को मिलेंगी। जितनी मिठाई खाना है खाओ, जितने पटाखे जलाने हैं जलाओ। रौशनी भी बहुत की गयी है ढाबे पर। रंग-बिरंगे बल्बों की जलने-बूझने की निरंतर प्रक्रिया कुछ नया महसूस करवा रही थी। मिठाइयों की ख़ुशबू और जलते पटाखों के बारूद की ख़ुशबू मिलकर दीवाली के त्योहार की अनुभूति दे रहे थे। आँखें दूर-दूर से आती चौंधियाती रौशनी देखतीं तो मन उत्सव-उत्सव हो जाता।

ढाबे पर धन्नू की पहली दीवाली थी। सब कुछ नया और रोमांचक था उसके लिए। वह शाम और वह रात इतनी अच्छी थी उन तीनों बच्चों के लिए कि शायद अगले साल की दीवाली का इंतज़ार अगले दिन से ही शुरू करने लग गए थे। मालिक के घर ख़ूब पटाखों का मजा लेकर वापस आकर ढाबे पर सो गए।

यह सुबह नये साल की थी। ज़्यादा ग्राहक नहीं आने वाले थे। मालिक भी घर ही रुकने वाले थे। महाराज जी को बहुत कम खाना बनाना था तो वे भी सुस्ता रहे थे। काम नहीं था। सब गाने सुनते हुए कभी नाचते, तो कभी खेलते, तो कभी कुछ खाते-पीते।

दीवाली की धूमधाम को बीते एक सप्ताह हो गया था। सामान्य कामकाज चल रहा था। धन्नू भूलने लगा था कि दादा उसे लेने आने वाले थे पर आए नहीं थे। एक दिन वही पौं पौं करती गाड़ी रुकी। दादा उतरे एक मुस्कान के साथ और धन्नू ने भी उन्हें हाथ जोड़कर नमस्ते किया।

धन्नू को अच्छा लगा उन्हें देखकर। मन से तैयार था पर कई दिन हो गए थे तो उत्साह थोड़ा धीमा पड़ गया था। वह नहीं जानता था कि आज दादा उसे अपने साथ ले जाने को कहेंगे या नहीं पर कुछ तो ऐसा था कि बगैर कहे ही कहा जा रहा था और सुना भी जा रहा था। आज दादा काफी देर तक बैठे, कुछ खाया-पीया तो नहीं परन्तु गुप्ता जी से बातें करते रहे।

वह काम निपटाता, इंतज़ार करता रहा कि कब वे उसे साथ चलने के लिए कहें। तभी गुप्ता जी ने उसे बुलाया और कहा कि – “बेटा, तुमको दादा ले जाना चाहते हैं आज, तुम्हें जाना है क्या?!”

“जी मालिक” उसने दादा की तरफ़ देखा तो वे मुस्कुरा रहे थे।

कहने भर की देर थी कि वह अंदर जाकर बीरू को सब काम समझाने लगा और अपनी छोटी-छोटी दो थैलियाँ उठाकर अपने मालिक के पास गया। वे भी उसके बाकी पैसे देकर उसे स्नेह से देखने लगे। वह उनके पैर छूने लगा तो उन्होंने उसे गले से लगा लिया। उनका चहेता बच्चा जो उनके परिवार के भी बहुत क़रीब था, अब जा रहा था।

“मिलने के लिए आते रहना बेटा, तुम बहुत याद आओगे।”

“हमारे सारे ग्राहक तुम्हें याद करेंगे धन्नू।”

“ख़ूब पढ़ना और दादा का, जीवन-ज्योत का नाम रोशन करना।”

एक अच्छी-सी मुस्कुराहट और शाबाशी वाली पीठ थपथपा कर विदा किया गुप्ता जी ने उसे। मालिक से और वहाँ काम कर रहे सब लोगों से अलविदा कहना उसकी आँखों में उदासी ले आया। भूखे पेट को जो राहत यहाँ मिली थी उसकी संतुष्टि में मालिक गुप्ताजी का चेहरा गहरे तक पैठ गया था। खाने और जीने का ऐसा सबक था यह जो इस ढाबे के साथ उसके रिश्ते की पक्की बुनियाद रख चुका था।

लेकिन जाने वाले को भला कौन रोक सकता है।

भीगी आँखें लिए एक उत्साही बालक अपने बढ़ते अनुभवों को और बढ़ाने के लिए नये सफ़र के लिए तैयार था। तन और मन से विविध रास्ते खोल रहा था, धन को अभी जोड़ना शेष था जिसकी ज़रूरत भी नहीं थी इस समय।

जीवन-ज्योत के बड़े परिसर में गाड़ी रुकी। एक ओर जीवन-ज्योत के बड़े परिवार के लिए कई कमरे थे, दूसरी ओर एक बड़े कमरे में हर धर्म के अनुयायियों के लिए स्थान था। हर धर्म के भगवान थे। जो नहीं थे उन्हें आप विराजमान कर सकते थे। जीवन-ज्योत के नियम दादा की विनम्रता और सख़्ती दोनों का प्रतिनिधित्व करते थे।

“हर किसी को काम करना ज़रूरी है।”

“पढ़ने की उम्र है तो स्कूल जाना होगा”

“दादा की कक्षा में हर कोई सीखने आ सकता है”

“इच्छा नहीं है तो न पढ़ो पर कोई न कोई हुनर सीखना होगा जो जीवनचर्या में मदद कर सके।”

“जीवन-ज्योत में हर कोई समान है, किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं होगा।”

“हर किसी को किसी एक समूह में रहकर काम करना होगा।”

किचन का समूह था। स्कूलों का समूह था, कॉलेजों का समूह था, खेलों का समूह था, दादा की कक्षा में जाने वालों का समूह था। हर समूह का एक इंचार्ज था। साप्ताहिक रिपोर्ट देनी होती थी। रिपोर्ट लेने के लिए भी एक कमेटी थी जो यह तय करती थी कि कौन कामचोरी कर रहा है और कौन बहुत अच्छे तरीके से अपना काम पूरा कर रहा है। यह सबके लिए प्रेरणादायी भी होता था। सब को और अच्छी तरह काम करने का प्रोत्साहन मिलता था। सबको अपनी ज़िम्मेदारी का अहसास होता था कि अगर दिया हुआ काम पूरा नहीं हुआ तो इससे पूरी संस्था को परेशानी होगी।

पीछे बने कमरों में से एक धन्नू का कमरा हो गया। एक महिला उसे उसका कमरा बताने आयी तो अपने बारे में, रास्ते की सब चीज़ों के बारे में बताती रही – “मेरा नाम सुखमनी है। सब मुझे ताई बुलाते हैं। मैं यहाँ रोज़ सबके लिए खाना पकाती हूँ। यहाँ से रोज़ कोई अपने काम पर जाता है तो कोई वापस आता है। कोई भी, कभी भी खाली नहीं बैठता। सब एक दूसरे की मदद करते हैं। यहाँ पर कभी ग़लती से भी कोई ग़लत काम नहीं कर सकता इस बात का ध्यान रखना।”

ऐसी उम्र थी धन्नू की कि ग़लत काम कभी भी लुभा सकते थे। सबसे बड़ी चेतावनी यही दी गयी थी सुखमनी ताई के द्वारा। वह सब कुछ सुन रहा था और समझ रहा था। नया घर था, नयी सुविधाएँ थीं। नाम था जीवन-ज्योत जो अब धन्नू के जीवन से जुड़ रहा था। एक बड़ा-सा किचन था उसी में खाने की मेजें लगी हुई थीं। सब अपने-अपने बर्तन ख़ुद धोते थे। धन्नू ने भी उन्हें दादा बुलाना शुरू किया और दादा ने धन्नू और धनंजय प्रसाद से बदल कर उसका नाम ‘डीपी’ कर दिया। डीपी ने ईश्वर को माथा टेका अपने नये नाम के साथ।

नयी जगह पर पूरी रात सो नहीं सका डीपी। करवटें बदलता रहा, बाएँ से दाएँ, दाएँ से बाएँ। कहाँ तो अपने घर में एक फटे पुराने कपड़े को बिछा कर सोता था, फिर गुप्ता जी के यहाँ खाट पर तारे गिनते-गिनते सो जाता था लेकिन यह सबसे अलग था। यहाँ कमरे में पंखे के नीचे आरामदेह गद्दे पर सोना कुछ नया था। जगह भी अपरिचित थी। अधिक सुविधाओं वाली इस नयी जगह पर बेचैनी भी अधिक थी। सब कुछ इतना साफ़-सुथरा था कि वह आरामदेह कम लग रहा था और उसे संकोच करने पर मज़बूर अधिक कर रहा था। बिस्तर, चादर, तकिया इन सबसे आराम नहीं मिल रहा था बल्कि इनके बिगड़ने, सिलवटें पड़ने और ख़राब होने का डर अधिक था।

कौतुहल और सहमी हुई भावनाएँ नयी सुबह के इंतज़ार में थीं। नया दिन नये सूर्योदय की नयी रौशनी के साथ शुरू हुआ। हर किसी को छ: बजे उठना था। एक घंटी बजती थी जो सबको उठाने के लिए होती थी। सब उठकर अपनी-अपनी दैनिक आवश्यकताओं को पूरा करके अपना काम शुरू कर रहे थे। आज रविवार था। प्रार्थना का समय दस बजे होता है। उस समय तक हर किसी को अपना काम ख़त्म करके सभागृह में आना होता है।

रविवार की तैयारियों में जुटे दादा ने जीवन-ज्योत की रोज़मर्रा की चीज़ें सिखाने के लिए उसे अपने साथ रखकर सब कुछ समझाया। वे बेहद दयालू थे। जब बोलते थे तो उनकी आवाज़ इतनी अधिक कोमल और विनम्र होती थी मानो ख़ुद भगवान ही कुछ समझा रहे हों। जब वे मोमबत्ती के महत्व को समझा रहे थे तो वह पिघलते मोम के बारे में सोच रहा था जो रेंगता हुआ नीचे जाकर फिर से मोमबत्ती से जुड़ रहा था अपनी वफ़ादारी को निभाते, उसके पैंदे को और मजबूत बनाते।

दादा की अनुभवी आँखें देख-परख रही थीं। उसकी सोच को, उसकी समझ को और उसके व्यक्तित्व को जो हर किसी को अपना बना लेता था। ढाबे पर काम करते हुए धन्नू में कुछ ऐसा देखा था उन्होंने जो वे उन कामकाजी होशियार बच्चों में ढूँढते थे। वे जानते थे कि इन बच्चों को अवसर मिले तो कुछ बच्चे तो बहुत आगे जा सकते हैं। यही सोचकर उनकी निगाहें धन्नू पर थीं। उसकी काम की लगन देखकर उसे लाए थे वे, उसे बहुत पढ़ाना चाहते थे लेकिन इसके पहले उससे बात करनी भी ज़रूरी थी। उसका विश्वास भी जीतना था। उसे जीवन-ज्योत से परिचित भी करवाना था। किसी भी चीज़ को उस पर थोपने की जल्दी नहीं थी।

“धन्नू बेटा, तुम स्कूल जाओगे या यहीं पढ़ोगे”

“पता नहीं दादा”

“तुम सोच लो, बहुत सारे बच्चे स्कूल जाते हैं, यहाँ तो बस बड़े-बड़े लोग पढ़ते हैं।“

“स्कूल में तो बहुत धीरे पढ़ाते हैं। मैं यहीं पढ़ूँगा, आपके साथ।”

“यहाँ भी पढ़ना तो रोज़ होगा, बिल्कुल स्कूल की तरह। जितनी तेजी से सीखोगे उतनी तेजी से आगे बढ़ोगे।”

“जी दादा”

कुछ बच्चे जल्दी स्कूल के लिए निकलते थे कुछ ऐसे थे जो रोज़ सुबह दादा से पढ़ते थे। बाकी वहाँ पर रहने वाले, काम करने वालों के लिए भी अक्षर ज्ञान ज़रूरी था। अगर किसी को रुचि है तो अंग्रेज़ी सीखने की भी सुविधा थी। सुखमनी ताई को बहुत शौक था अंग्रेज़ी में गिटपिट करने का। ग़लत-सलत बोलने का प्रयास ज़रूर करतीं वे। दादा को बहुत अच्छी लगती उनकी यह सीखने की इच्छा। सबके लिए उदाहरण थीं ताई कि सीखने की इच्छा हो तो कभी भी कुछ भी सीखा जा सकता है। शायद इसीलिए और किसी कक्षा में बैठे न बैठे पर अंग्रेज़ी की कक्षा में वे ज़रूर बैठती थीं। कई बार दादा से छोटे-मोटे अंग्रेज़ी के वाक्य बोलतीं और बहुत ख़ुश होतीं। छोटी-मोटी ग़लती को सुधार कर दादा जब ताई की तारीफ़ करते तो वे फूली नहीं समातीं। दोबारा उस वाक्य को ठीक करके बोलतीं। इस कक्षा के अलावा उनका सारा समय किचन में ही बीतता था।

अगर किसी को सीखने की रुचि नहीं भी हो तो भी हिन्दी में पढ़ना और लिखना सबको अनिवार्य था। जीवन-ज्योत के सदस्यों को लिखने-पढ़ने के लिए कभी किसी पर निर्भर नहीं रहना पड़े यह दादा का नियम था, आदेश था और इसका पालन भी शत-प्रतिशत होता था। इसमें चाहे अस्सी साल का नया सदस्य हो या छोटा बच्चा हो, सबके लिए पढ़ाई ज़रूरी थी। एक उम्र होने के बाद पढ़ना-लिखना सीखने में या सिर्फ़ अक्षर-ज्ञान होने में भी समय लग जाता था। चाहे कितने ही महीने लग जाएँ सीखने में लेकिन देर से ही सही सब लोग सीख जाते थे और जीवन-ज्योत का यह नियम अपनी नीतियों से एक हद तक सबको आत्मनिर्भर बना देता था। कई नए सदस्य आते जिन्होंने कभी कलम को छुआ नहीं था वे भी स्लेट लेकर ‘अ आ’ लिखने का अभ्यास करते देखे जा सकते थे।

दादा के हज़ारों कामों में एक काम यह भी था सुबह के तीन घंटे सबको पढ़ाना। इनके अलावा सब बच्चे स्कूल जाते थे। अंग्रेज़ी नयी नहीं थी डीपी के लिए, बहनजी ने सिखाई थी। दादा ने उसके लिए अब नियम बना दिया अंग्रेज़ी में ही बात करने का – “टूटी-फूटी जैसी भी आए बस बोलो, मेरे साथ अंग्रेज़ी में ही बात करो। इससे तुम्हारा ज्ञान और बढ़ेगा। दो भाषाओं में दक्ष होने से तुम्हारी पढ़ाई को नये धरातल मिलेंगे।”

किसी किताब का एक पेज उसे समझाते और जो भी वह समझता लिखने को कहते। अब लिखना अनिवार्य था धन्नू के लिए। यहाँ उसे कागज़ या स्याही की कोई चिन्ता नहीं थी। सब कुछ उसके लिए था वहाँ। जितना चाहे लिखे, गलतियाँ करें और फाड़कर फेंक दे लेकिन फिर भी उसे कागज़ बिगाड़ना और फेंकना अच्छा नहीं लगता था। कई बार पहले अपनी स्लेट पर लिखकर अभ्यास करता फिर कागज़ पर लिखता ताकि साफ़-सुथरा काम रहे और उसे कागज़ भी न बिगाड़ना पड़े।

सिर्फ़ यही नहीं गणित की कक्षा होती, सामाजिक अध्ययन और इतिहास भी पढ़ाए जाते। इसके लिए बाहर से दो शिक्षक आते थे। कुल मिलाकर यह भी एक स्कूल था जो जीवन-ज्योत के परिसर में ही लगता था। इसमें सिर्फ़ बच्चे ही नहीं जितने बड़े भी रहते थे सभी आकर बैठ सकते थे। शारीरिक शिक्षा, व्यायाम सब कुछ बारह बजे तक ख़त्म करके खाना होता और उसके बाद जीवन-ज्योत के बाकी कामों में हाथ बँटाना होता।

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