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कुबेर - 10

कुबेर

डॉ. हंसा दीप

10

दादा की इसी नसीहत के चलते जीवन-ज्योत का हर समझदार व्यक्ति ऐसे तत्वों की सूचना दादा को देना अपना पहला कर्तव्य समझता। यही कारण था कि जीवन-ज्योत किसी ऐसी समस्या के साए में आने लगता तो तुरंत उस समस्या का निदान हो जाता। ऐसा नहीं है कि अभी तक ऐसे तत्वों की पहुँच से दूर ही रहा था जीवन-ज्योत का परिसर। कई बार एकाध-दो ऐसे ग़लत व्यक्ति आ जाते थे मदद माँगने के लिए जो असहाय नहीं होते पर दिखावा करते। जीवन-ज्योत के बढ़ते प्रभाव पर अपनी भड़ास निकालते लेकिन वरिष्ठ सदस्यों की होशियारी और चतुराई से ऐसे व्यक्तियों को तत्काल बाहर कर दिया जाता। सुखमनी ताई और बुधिया चाची सालों से दादा के साथ थीं। ऐसी गिद्ध नज़र थी उनकी कि कोई भी ग़लत आदमी उनकी निगाहों से बच नहीं पाता। एक तरह से वे दोनों जीवन-ज्योत को गुंडों से बचाने का सुरक्षा कवच थीं।

महीने और साल निकलते रहे। सर डीपी अब जीवन-ज्योत के मुख्य वक्ता और एक तरह से जूनियर दादा के रूप में ख़्याति प्राप्त कर चुके थे लेकिन अभी भी अंदर धन्नू और डीपी दोनों छुपे हुए थे जो सर डीपी को बच्चों के साथ खेलने, मस्ती करने और चिल्लाने के लिए उकसाते रहते थे। उन्हीं दिनों कुछ ऐसा हुआ जो डीपी के लिए अनोखा था। जीवन-ज्योत के पास वाले एक मैदान में जहाँ वह बच्चों के साथ खेल रहा था। बच्चों की गेंद लगातार एक सिरे से दूसरे सिरे तक जा रही थी। वह उनकी गेंद को उठाने इधर-उधर दौड़ रहा था कि बाहर पार्क में एक लड़की दिखी, प्यारी-सी, गुड़िया-सी। वह रुक कर उसे देखने लगा। वह बेंच पर बैठ कर एक किताब पढ़ रही थी। मासूम-सी वह लड़की जो अपनी किताब में इतनी अधिक तल्लीन हो गयी थी कि उसे पता भी नहीं चला कि वहाँ कोई है।

वह उसे देखता रहा अपलक, तब तक, जब तक कि सारे बच्चे भाई डीपी को ढूँढते हुए वहाँ नहीं आ गए - “भाई गेंद फेंको”

“भाई गेंद फेंको, आपका ध्यान कहाँ है”

“डीपी भाई” एक बच्चा उसे झकझोरते हुए बोला तो उसकी तंद्रा टूटी। गेंद तो लौटा दी डीपी ने परन्तु लड़की को अपनी तरफ़ देखते पाकर घबरा गया।

वह भी भौंचक्की थी कि – “यह कौन है।” वह तो रोज़ यहाँ आती है पर पहले तो कभी इसे देखा नहीं। इन बच्चों को भी नहीं देखा। दोनों में से किसी ने भी एक-दूसरे से कुछ पूछा नहीं, न ही कुछ कहा। आमने-सामने एक नज़र डाल कर अपने-अपने रास्तों पर निकल गए। निकल तो गए थे पर शायद कुछ लेकर या फिर देकर। एक उत्सुकता, एक निगाहों का टकराव या फिर एक मौन जो शब्दों की तलाश में था।

अब डीपी रोज़ ठीक उसी समय वहाँ आकर एक चक्कर लगा जाता इस उम्मीद में कि वह लड़की फिर से दिख जाए। उस लड़की की एक झलक पाने के लिए नज़रें आतुर थीं मगर वह नहीं आयी। एक दिन, दो दिन, तीन दिन वह नहीं आयी। डीपी काम की व्यस्तताओं से समय निकाल कर उसी समय पर वहाँ आता रहा। उसके लिए वहाँ आने में कोई मुश्किल भी नहीं थी क्योंकि एक तो यह जगह जीवन-ज्योत के बहुत क़रीब थी दूसरा यह समय बच्चों के साथ खेलने का ही समय था। बच्चे स्कूल से आने के बाद नाश्ता करके एक बार बाहर जाकर खेलते थे किसी बड़े के साथ। जो भी उस समय उपलब्ध होता वह बच्चों के साथ खेलने के लिए चला जाता।

आख़िर सातवें दिन वह आयी। इस बार हिम्मत करके डीपी ने उससे बात की - “नमस्ते, मेरा नाम डीपी है, आप?”

“मैं नैन्सी”

“आप इतने दिनों तक क्यों नहीं आयीं?”

“मैं तो सिर्फ़ रविवार को ही यहाँ आती हूँ।”

“अच्छा!” ज़्यादा कुछ नहीं बोल पाया डीपी। पहली मुलाकात नाम से शुरू हुई अब हर रविवार प्रार्थना के बाद नियमित था वहाँ जाना और नैन्सी से मिलना। उसे देखने पर ऐसा प्रतीत होता था कि वह शायद किसी संपन्न परिवार से थी। अगली मुलाकात में कुछ और जानकारी का आदान-प्रदान हुआ। यहाँ से कुछ दूरी पर उसका घर था। रविवार को आती थी सैर करने। डीपी ने बताया वह जीवन-ज्योत का सदस्य है।

हर रविवार को जीवन-ज्योत की प्रार्थना ख़त्म करके उस और निकल जाता डीपी जहाँ नैन्सी के मिलने के पूरे आसार होते। दोनों मिलते, बातें होतीं और फिर एक सप्ताह बाद मिलने का वादा होता। वह कार से आती थी। ड्राइवर छोड़कर चला जाता था। उसके कपड़े और रहन-सहन से अमीरी का बोध होता था पर अब तो डीपी भी धन्नू नहीं रहा था। सर डीपी कहा जाने लगा था। उसके पास भी कपड़ों की, जूतों की कोई कमी नहीं थी। चूँकि उसे स्पीच देनी होती थी इसलिए दादा ने उसके लिए बहुत अच्छे कपड़े बनवा कर रखे थे।

उनका कहना था कि – “अपनी हर इच्छा को पूरी करने का प्रयास करो जो एक सीमा में हो, जिससे तन-मन को ख़ुशी मिलती हो। साफ़ और अच्छे कपड़े आत्मविश्वास को बढ़ाते हैं। बस अपने जूते का साइज़ ज़रूर याद रखो।”

नैन्सी से मिलने में उसे कोई संकोच नहीं होता था। दोनों समझदार थे और दोनों को एक दूसरे से बात करना अच्छा लगता था। एक दिन उसने दादा को भी बताया कि वह इस लड़की से मिलता है। परिवार के बारे में कुछ मालूम नहीं है। वह दादा से छुप कर कोई काम करने की सोच भी नहीं सकता था। दादा ने ध्यान से सब कुछ सुना, ख़ुश हुए कि डीपी अब अपने युवाकाल में प्रवेश कर चुका है।

“ठीक है डीपी, मैं इस परिवार के बारे में जानने की कोशिश करूँगा।” दादा ने अपने तई जानकारी निकाली तो पता चला कि वह यहाँ के जिला स्वास्थ्य अधिकारी की भतीजी है जो अपने माता-पिता के न रहने पर अब उन्हीं के साथ रहती है। इस बच्ची ने बचपन में ही एक दुर्घटना में अपने माता-पिता को खो दिया था। चाचा-चाची के कोई बच्चा नहीं है। नैन्सी ही उनकी सब कुछ है।

खैर इस जानकारी से कुछ बदल नहीं पाया क्योंकि नैन्सी ने कभी डीपी के बारे में ज़्यादा कुछ जानने की कोशिश नहीं की। वे लोग वैसे ही मिलते रहे और अपने रोज़मर्रा के कामों के बारे में बातें करते रहे। कभी किसी को आने में थोड़ी देर हो जाती तो प्रतीक्षा होती लेकिन बगैर किसी सवाल जवाब के।

कुछ दिनों के इस मेलजोल के बाद डीपी उसे जीवन-ज्योत में भी बुलाने लगा। नैन्सी इतने बड़े परिवार को पाकर ख़ुश थी। उसे अच्छा लगता था वहाँ आना, सुखमनी ताई की मदद करना, कभी-कभी रोटियाँ बेलना, खाना परोसना, सफाई में हाथ बँटाना। जितने हाथ होते उतना काम जल्दी ख़त्म होता। डीपी और नैन्सी दोनों की दोस्ती बढ़ती रही। नैन्सी जीवन-ज्योत में मैरी जैसी दोस्त पाकर बहुत ख़ुश रहती। कभी यह भी कहती कि वह भी यहीं रहना चाहती है। मैरी अब भाई डीपी को अहसास दिलाने लगी कि उसके लिए नैन्सी एक अच्छी जीवन साथी होगी, उसे इस बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए।

दोनों की सोच अब उस ओर थी जहाँ दो दिलों का मिलाप होना था। जीवन साथ बिताना था। डीपी को भी कई दिनों से ऐसा कुछ महसूस हो रहा था। लेकिन किसी भी नतीजे पर पहुँचने से पहले नैन्सी को अपना सच बताना ज़रूरी लगा। यह कि वह किस गाँव से आया है। कितने ग़रीब थे उसके माँ-बाबू। अब गाँव में उसका कोई नहीं है लेकिन वह अनाथ नहीं है। दादा हैं उसके अपने। दादा का वरदहस्त है उसके सिर पर। जो कुछ हैं, बस दादा ही हैं। दादा के साथ ही पूरा जीवन-ज्योत परिवार उसका अपना है।

नैन्सी सब कुछ सुनकर मुस्कुरायी – “मेरी भी कहानी इससे कुछ ज़्यादा अलग तो नहीं है डीपी।”

“बहुत अलग है नैन, तुमने वह सब नहीं देखा जो मैंने देखा है।” अपने बचपन का वह कटु सत्य जो कभी भूल नहीं पाता डीपी। वह ग़रीबी, वह भूख से लड़ती माँ-बाबू की ज़िंदगी, वह कॉपी-पेंसिल के लिए तरसती धन्नू की आँखें।

डीपी की सोच से परे नैन्सी अपने बारे में बताती और डीपी का संकोच, हिचक दूर करने का प्रयास करती। उसके लिए इन सब चीज़ों के कोई मायने नहीं थे। अब तक वह भी स्वयं को जीवन-ज्योत का सदस्य मानने लगी थी। वहाँ रहने वालों को जानने लगी थी। कभी बच्चों को पढ़ाती, उनके गृहकार्य में उनकी मदद करती तो कभी उनके साथ खेलती।

डीपी को समझाती - “डीपी इतना मत सोचो प्लीज़, मेरा बचपन भी मम्मी-पापा की प्रतीक्षा करते गुजरा है। हर रोज़ मैं दरवाजे पर खड़ी सोचती कि आज तो वे आ ही जाएँगे। दिन, महीने साल निकलते रहे पर वे लौट कर कभी नहीं आए। आते भी कैसे, वे तो जा चुके थे। हाँ, मैं मानती हूँ कि उन्होंने, मेरे चाचा-चाची ने मुझे बहुत प्यार से बड़ा किया है लेकिन मेरा मन मम्मी-पापा को ही ढूँढता रहता था।”

“नैन, मेरे अपने परिवार में कोई नहीं है। मैं अकेला हूँ। तुम्हारे चाचा-चाची तो हैं।”

“कोई नहीं? डीपी क्या कह रहे हो तुम। मेरे तो सिर्फ़ चाचा-चाची ही हैं। तुम्हारा दादा के साथ इतना बड़ा जीवन-ज्योत का परिवार है। ऐसी बात मन में लाकर हमारे रिश्ते को हम छोटा नहीं करेंगे।”

“फिर से एक बार सोच लो नैन, मैं नहीं चाहता कि कल को तुम्हें कोई पछतावा हो।”

“डीपी, मुझे तुम्हारे लिए जो सोचना था वह मैं काफी पहले ही सोच चुकी हूँ।”

नैन्सी की प्रतिक्रिया उसकी स्वीकृति थी। उनकी युवा धड़कनें दिन-ब-दिन बढ़ती रहीं, और उनकी दोस्ती गहरी होती गयी। दोस्ती के साथ वे सारे सपने सजते रहे जो दो युवाओं के बीच की दूरियाँ पाटते जा रहे थे, उन्हें क़रीब लाते जा रहे थे। इतना क़रीब कि अब एक दूसरे के बगैर रहना मुश्किल लगने लगा था।

एक दिन रविवार को अचानक नैन्सी अपने चाचा-चाची के साथ जीवन-ज्योत आयी। तब डीपी की स्पीच चल रही थी। उन सबने बैठकर ध्यान से डीपी की स्पीच सुनी। उसे सुनते हुए एक-दूसरे को देखा और शायद तभी उस रिश्ते को स्वीकृति मिल गयी थी। अब दादा और नैन्सी के चाचा-चाची की आपस में बातचीत होने लगी, एक रिश्ता जोड़ने की, एक अनोखे बंधन में डीपी और नैन्सी दोनों को बांधने की। अनोखा इसलिए कि ढाबे और जीवन-ज्योत की छत्रछाया में पला-बढ़ा लड़का आज अपनी क़ाबिलियत से एक ज़िम्मेदार नामी परिवार का दामाद बनने वाला था।

नैन कहता था उसे। नैन्सी को बहुत पसंद था यह नाम। किसी की आँखें बनकर वह सातवें आसमान पर रहने लगी थी। सिर्फ़ डीपी ही नहीं, जीवन-ज्योत के सभी सदस्य जितना डीपी को चाहते थे उतना ही वे नैन को भी चाहने लगे थे। वह थी ही उतनी प्यारी, मददगार और सबका ध्यान रखने वाली। धीरे-धीरे नैन और डीपी एक दूसरे के इतने क़रीब हो गये थे कि दोनों को एक दूसरे की हर बात की जानकारी होती। कब, कहाँ, कौन और क्या दिनचर्या होगी इन सब बातों की सूचना पहले ही मिल जाती थी। अनसुने और अनपूछे सवाल एक दूसरे की आँखों से जवाब पा लेते थे।

आँखों की इस भाषा में आगे आने वाली एक ज़िंदगी थी, एक भरा-पूरा परिवार था और मिलकर काम करने की ऊर्जा थी। सपने थे अपने बच्चों के, सपने थे अपने छूटे अपनों के, सपने थे आने वाले ख़ुशहाल पलों के।

ख़ासतौर से डीपी, जो अपने बचपन में न पा सका था वह अब उसे युवाकाल में मिलने की तमन्ना पूरी होते दिखती। गुप्ता जी की पत्नी का सौंदर्य जो वह माँ में देखना चाहता था, अब उसे नैन्सी में दिखाई देता। आँखों को अपनी प्यास बुझाने की, अपने ताने-बाने बुनने की आदत जो थी। हालांकि नैन एक मॉडर्न लड़की थी परन्तु साड़ी पहनना और सजना सँवरना तो उसे भी बहुत पसंद था। कभी-कभी वह साड़ी पहनती, बिन्दी भी लगाती और चूड़ियाँ भी पहनती थी। जब भी वह साड़ी पहनकर डीपी के पास बैठती तो वही माँ के आँचल की ख़ुशबू हवा में फैलती उसके नथूनों में होती।

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