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कुबेर - 7

कुबेर

डॉ. हंसा दीप

7

दिन निकलते रहे। किशोर था वह। उसे अपनी सही उम्र पता नहीं थी, न ही अपना जन्म दिन पता था। पता भी कैसे होता क्योंकि जहाँ वह पैदा हुआ था वहाँ जन्म सिर्फ एक बार नहीं होता, बार-बार जन्म होता था। कई बार एक दिन-दो दिन भूखे रहने के बाद खाना मिलता तो उस दिन लगता कि आज नया जन्म हुआ है। हर निवाले के साथ जान में जान आती। उसके गाँव के घर-घर में ऐसे कई बार जन्म होते थे, बच्चों के भी और बड़ों के भी।

हाँ, स्कूल में दाखिले के समय अंदाज़ से जो माँ-बाबू ने लिखवाया था उसके अनुसार अब वह चौदह का हो चुका था। बचपन से किशोरावस्था में प्रवेश तब हो रहा था जब उसे भरपेट खाना नसीब हो रहा था। शरीर पर इस खाने के प्रभाव हर कहीं झलक रहे थे। क़द भी काफी बढ़ गया था। हल्की-हल्की बालों की लकीरें होठों के ऊपर और होठों के नीचे, इधर-उधर, चेहरे पर नज़र आने लगी थीं। कपड़े नये बनते तो पहले पहन कर देखने पड़ते वरना छोटे हो जाने का डर था।

बीरू और छोटू भी क़द-काठी में तेजी से बढ़े थे। उनकी काम करने की क्षमताएँ भी बढ़ी थीं। यही वजह थी कि काफी काम बढ़ने के बावजूद गुप्ता जी को और लोग रखने की ज़रूरत नहीं पड़ी। ये तीनों सारा काम संभाल लेते थे।

एक सुनसान दोपहर में अपने काम से निपट कर सब लोग सुस्ता रहे थे। महाराज मुँह पर गीला गमछा डाले झपकी ले रहे थे। बीरू नहा रहा था और छोटू अपनी छुपायी हुई अंटियों को निकाल कर खेल रहा था। धन्नू अपनी धुन में कुछ गुनगुना रहा था। गाने सुन-सुनकर अब याद हो गए थे उसे। गुनगुनाने लगा था उन पंक्तियों को जो बार-बार लगातार बजती थीं। दोपहर का समय था इसलिए ग्राहक नहीं थे ज़्यादा। जो थे वे खा-पीकर सो रहे थे। वह भी थोड़ा सुस्ता रहा था। एकाध घंटे में तो फिर से शाम के खाने की तैयारी होगी। सब्जी काटने से लेकर आटा गूँथने तक में हर जगह उसके हाथ ज़रूर लगेंगे।

फिर से वही गाड़ी आकर रुकी। यह दादा की गाड़ी थी तुरंत पहचान गया धन्नू। उन्होंने सिर्फ़ चाय ऑर्डर की। धन्नू चकित था। यहाँ सिर्फ़ चाय पीने के लिए तो बहुत कम लोग आते हैं। हो सकता है कि रास्ते से गुज़रते हुए रुक गए हों।

दादा ने वही बात दोहरायी – “धन्नू बेटा, कुछ सोचा तुमने, जीवन-ज्योत चलने के बारे में?”

“नहीं सर, मैं तो भूल ही गया था। मुझे तो लगा कि आप चले गए हैं अब वापस क्या आएँगे।” इस बार धन्नू उनकी आँखों में आँखें डाल कर ध्यान से बात कर रहा था।

“देखो धन्नू अगर तुम्हें अच्छा नहीं लगे तो वापस आ जाना, मैं तुम्हारे मालिक गुप्ता जी से बात कर लूँगा।” दादा ने अपने तई कोई दबाव न डालते हुए विकल्प बताना उचित समझा।

धन्नू को सोचते देख वे बोले – “कोई जल्दी नहीं है, आराम से सोचो। मैं तो आता रहता हूँ इस तरफ़।” उन्होंने आराम से चाय पी, पानी खरीदा और चले गए।

दादा चले तो गए पर इस बार कुछ छोड़कर गए थे धन्नू के लिए। उसकी सोच के लिए। उसके दिमाग़ में नये जीवन का बीज बोकर गए थे। उसकी इच्छाएँ पानी देती रहीं उस बीज को और वह उगने लगा।। ख़्याल आते रहे, सोचने को मज़बूर करते रहे – ‘ज़्यादा से ज़्यादा क्या होगा वापस लौट कर आएगा।’

‘ऐसा क्या देखा होगा दादा ने उसमें जो सिर्फ़ उसी को ले जाना चाहते हैं।’

‘अगर मालिक फिर से उसे रख लेंगे तो फिर कोशिश करने में क्या हर्ज़ है।’

‘अगर अच्छा नहीं लगा तो कोई उसे ज़बर्दस्ती तो रोक नहीं सकता।’

‘पहले अपने मालिक गुप्ताजी से बात करनी होगी।’

इतने दिनों में उसे यह पता चल गया था कि गुप्ता जी जब घर जाने वाले हों तभी बात करने का उचित समय होता है। वरना काम की व्यस्तता में हर सवाल का जवाब ‘ना’ ही होता था। बीरू कहता है – “वे कुछ सुनते ही नहीं हैं बस ना कह देते हैं।”

लेकिन धन्नू जानता था कि वे सुनते तो हैं पर काम की व्यस्तता में कुछ भी पूछो बस ना ही कह देते थे। जानते थे कि ये बच्चे उन्हीं की सुनते हैं। जो वे कहेंगे वही करेंगे शायद इसीलिए वे ज़्यादा कुछ सोचते नहीं होंगे।

धन्नू प्रतीक्षा करता रहा। आख़िर जब सारा काम निपटा कर वे घर जाने को हुए तो बोला – “मालिक वो दादा आए थे न, वो मुझे ले जाना चाहते हैं।”

“कहाँ जीवन-ज्योत में?” गुप्ता जी दादा के बारे में सुन कर उनकी संस्था जीवन-ज्योत का जिक्र करने लगे।

“हाँ, ऐसा ही कुछ नाम बोले थे।”

“और कुछ बताया उन्होंने?”

“वो पढ़ाना चाहते हैं” मालिक के सवालों का जवाब देते हुए उसे किसी प्रकार का संकोच नहीं हो रहा था।

“अच्छा, तुमको जाना है?” धन्नू की राय जानना ज़रूरी थी गुप्ता जी के लिए। अगर वह ख़ुद ही नहीं जाना चाहता हो तो बात यहीं पर ख़त्म हो जाती है।

“नहीं मैं तो नहीं जाना चाहता पर वो बार-बार यही कह रहे हैं। पहले भी कह कर गए थे उनके साथ जाने के लिए और आज भी आए थे तो यही कह रहे थे।”

“अगर तुम जाना चाहते हो तो मैं रोकूँगा नहीं तुमको।”

“पर मालिक, अगर दादा के यहाँ अच्छा नहीं लगे तो वापस आ जाऊँ मैं?”

“हाँ, हाँ, जब भी तुम्हारा मन करे आ जाना, यहाँ कभी भी आ सकते हो, अब कब आएँगे दादा?”

“पता नहीं, कुछ कह कर नहीं गए हैं। आज तो मैंने ‘हाँ’ नहीं की थी।”

“अगर वे चाहते हैं कि तुम उनके साथ जाओ जीवन-ज्योत में तो वे वापस ज़रूर आएँगे। वे दादा हैं, बहुत पारखी हैं। कुछ तो ऐसा देखा होगा उन्होंने जो तुमसे उनके साथ जाने की बात की।”

मालिक उदास तो हुए कि इतना मेहनती लड़का हाथ से निकल जाएगा पर वे भी जानते थे कि अगर धन्नू पढ़ना चाहता है तो दादा उसे ज़रूर पढ़ाएँगे। वे सालों से जानते थे दादा को। इस इलाके में दादा का नाम ही काफी था। हर कोई जानता था उन्हें। कई लड़कों की ज़िंदगी सँवारी थी उन्होंने। पढ़ाया-लिखाया और कई बच्चों को तो विदेश भी भेजा है। कहते हैं यहाँ से गए हुए वे बच्चे ख़ूब आगे बढ़ गए हैं वहाँ। अच्छी नौकरियाँ मिल गयी हैं उन्हें और वे वहाँ से जीवन-ज्योत के लिए काफी मदद भी भेजते हैं।

सिर्फ़ बच्चों की ही नहीं दादा ने कई परिवारों की सहायता भी की थी। दूर-दूर तक उनकी संस्था जीवन-ज्योत एक ऐसे एनजीओ के रूप में जानी जाती थी जिसके दरवाज़े हर ज़रूरतमंद के लिए खुले थे। समय-समय पर कई धार्मिक कट्टरपंथी इसे मात्र धर्म का प्रचार करने वाली संस्था कहकर जीवन-ज्योत की सेवाओं का मज़ाक उड़ाते। लोगों को कहते फिरते कि – “ये मिशनरी वाले हैं, इन मिशनरी वालों को समाज सेवा के नाम पर अपने धर्म का प्रचार-प्रसार करने के लिए बहुत पैसा मिलता है। सिर्फ़ प्रचार-प्रसार ही नहीं करते हैं ये, इसके साथ ही साथ धर्म परिवर्तन भी कर देते हैं।”

उन ग़रीबों का कोई धर्म था ही कहाँ जो धर्म परिवर्तन होता। इलाके में बेहद ग़रीबी थी। फसल नहीं होने से अधिकतर गाँव वाले मजदूरी पर ही गुज़ारा करते थे। जिनके पास रहने को घर नहीं, खाने को अन्न नहीं, तन ढँकने को कपड़ा नहीं, उनका भला क्या धर्म हो सकता है। भूख मिटाने के लिए किसी को भी हाथ जोड़ लें क्या फ़र्क पड़ता है चाहे फिर सामने दादा हों, गुप्ता जी हों या फिर कोई भी पत्थर की मूरत हो।

एक बार जब इलाके के कुछ फ़ितरती दिमाग़ों को दादा का वर्चस्व चुभने लगा था तो उन्होंने धर्म बदलते लोगों के नाम से लोगों को भड़काना शुरू कर दिया था। जगह-जगह परचे लगा दिए थे उनके ख़िलाफ़। किसी भी अच्छे काम करने वाले की टांग खींचने में ऐसे दिमाग़ों को महारथ हासिल होती है। दादा के विरोध की एक लहर बनाने की असफल चेष्टा थी यह। जो लोग इसमें लगे थे स्वयं उन्हें ही दादा की शरण में आना पड़ा था। क्योंकि उन्हीं दिनों क्षेत्र में फसल चौपट थी। सूखाग्रस्त इलाका पानी और अन्न के बिना त्राहि-त्राहि कर रहा था तब दादा ने सबके लिए अपने जीवन-ज्योत के द्वार खोल दिए थे। दूर-दूर से पानी मंगवाया था, जगह-जगह पानी की व्यवस्था करवायी थी और हर भूखे को खाना दिया था, हर प्यासे को पानी उपलब्ध करवाया था।

उस हृदयविदारक घटना के बाद दादा को कुछ कहने की या सफाई देने की ज़रूरत नहीं थी। लोग उन्हें देवता के समान पूजने लगे थे। लेकिन तब से दादा ने वहाँ हर धर्म का एक पूजा स्थान बना दिया था जिसे जहाँ प्रार्थना करना है, कर सकता है। हालांकि वे स्वयं बाइबल के विद्वान थे इसलिए हर रविवार को बाइबल के अंश की व्याख्या करके एक अच्छी-सी स्पीच देते थे फिर भी हर धर्म की किताबें रखी जाती थीं जीवन-ज्योत में।

रविवार का दिन तय था प्रार्थना के लिए। उस दिन उनकी स्पीच को सुनने दूर-दूर से लोग आते थे। वे बाइबल के अंशों का सारांश अपनी ख़ास शैली में सुनाते थे। सबसे ख़ास बात यह होती थी कि उनके भाषण उनकी मीठी आवाज़ में मानवता का संदेश देते थे जो किसी एक धर्म का नहीं होता, हर धर्म का आधारभूत संदेश होता। वह धार्मिक ग्रंथों की सामान्य व्याख्या नहीं होती थी। वे उन संदेशों को अपनी सरल भाषा में इतनी अच्छी तरह समझाते थे कि लोग मंत्रमुग्ध होकर सुनते रहते थे। रविवार को जीवन-ज्योत में जमा भीड़ इस बात की गवाह थी कि वे सारे लोग दादा का कितना सम्मान करते थे।

दादा कई मामलों में ऐसे एनजीओ के संरक्षकों से अलग थे। लोग कब उन्हें दादा कहने लगे पता नहीं लेकिन यह उनकी पहचान थी। शुरुआती दिनों में लगे धर्म परिवर्तन और धर्म के प्रचार के आरोपों से बहुत जल्दी बरी हो गए थे वे। जल्दी ही उनकी पहचान एक मददगार के रूप में, एक सहयोगी के रूप में और बच्चों के लिए एक फ़रिश्ते के रूप में हो गयी थी। हर कोई उनका अपना था। स्नेह और प्यार का समुंदर उनके अंदर बहता था। उनके दरवाज़े यानि उनकी संस्था जीवन-ज्योत के दरवाज़े कभी किसी के लिए बंद नहीं होते। किसी तरह का कोई भेदभाव नहीं था वहाँ। उन्हें पता था कि भूखे आदमी को सबसे पहले खाना ही चाहिए। उसके बाद उन्हें जो आता था वही सिखाते थे वे। कई ग़रीबों को रोटी, कपड़ा और मकान मिलता था वहाँ।

उनकी उदारता और नि:स्वार्थ सेवा से सारे विरोधी चुप हो गए और संस्था की भलाई के लिए ज़्यादा से ज़्यादा लोग आगे आने लगे। किसी को यह सिखाने की ज़रूरत नहीं थी कि पेट की आग को सिर्फ़ रोटी से ही शीतलता मिलती है, किसी किताब से नहीं फिर चाहे वह गीता, बाइबल या कुरान ही क्यों न हो। पेट की याददाश्त दिल और दिमाग़ से कई-कई गुना ज़्यादा होती है। धर्म तो उन लोगों का चोंचला रह गया है जो अगर डकार भी लें तो दस लोग सुन सकें। जानवर भी अपने को खाना देने वाले हाथों को कभी नहीं भूलता तो फिर ये तो सारे इंसान थे, दादा के दयालू दिल को कैसे नहीं समझते।

दादा सालों से इस संस्था जीवन-ज्योत में थे। परोपकार का बड़ा धर्म इनके जीवन-ज्योत से शुरू हुआ था। मजदूरों की टोलियों को पानी पिलाने की व्यवस्था करना। जगह-जगह पर शौचालय बनवाना। प्रसूति गृहों में मशीनों और पलंगों की व्यवस्था करना। जच्चा-बच्चा की सेहत के लिए आवश्यक उपकरणों की अनिवार्यता करना। ऐसे कई काम थे जो आसपास के इलाकों में दादा की देखरेख में होते थे। इन सबके लिए इस क्षेत्र में दादा का एनजीओ जीवन-ज्योत काफी जाना पहचाना नाम था। दादा ने धन्नू को देखकर यही सोचा था कि इस लड़के में अगर क़ाबिलियत होगी तो पढ़-लिख कर इसकी ज़िंदगी सँवर जाएगी।

ढाबे का काम करने के लिए गुप्ता जी को तो आज नहीं तो कल कोई न कोई मिल ही जाएगा। उनकी अनुमति के साथ धन्नू का जीवन-ज्योत जाना लगभग तय सा हो गया। था ही क्या ऐसा जो मना करे वह। चलो, एक और घर मिल रहा है। हामी तो भर दी धन्नू ने पर न जाने क्यों ऐसा लग रहा था कि लौट कर आना होगा। अगर लौट कर आया तो मालिक मना नहीं करेंगे इस बात का भी विश्वास था।

अब धन्नू दादा के आने का इंतज़ार कर रहा था। दादा को भी धन्नू के चेहरे पर जो आशा दिखी थी उसके चलते उन्हें विश्वास था कि वह ज़रूर आएगा। लेकिन अनुभवी मन कहता था कि इंतज़ार करना चाहिए। जल्दी में बात नहीं बनती। अगर उसने अपना मन बनाया होगा तो वह आएगा, चाहे दो दिन बाद चाहे दस दिन बाद।

हर रोज़ सुबह धन्नू उठता तो उसे आशा होती कि आज दादा आ सकते हैं। किसी भी गाड़ी की आवाज़ पर उसकी निगाहें उठतीं कि शायद दादा की गाड़ी हो। एक सप्ताह तक दादा नहीं आए तो उसकी आशा निराशा में बदलने लगी। अपने रोज़मर्रा के कामों को निपटाते वह भूलने लगा कि वह इंतज़ार कर रहा था दादा का। रोज़ सूरज उगता और डूबता, दिन निकलते रहे।

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