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बहीखाता - 29

बहीखाता

आत्मकथा : देविन्दर कौर

अनुवाद : सुभाष नीरव

29

चाल

इंग्लैंड में मेरे बसने के पीछे निरंजन सिंह नूर का बहुत बड़ा हाथ है। नूर साहब मेरे लिए जिंदा रोल मॉडल बनकर साबित हुए। लंदन में मुझे न कोई नौकरी मिली और न ही मेरी इसमें किसी ने कोई मदद की। यदि चंदन साहब के हाथ-वश में होता तो वह कभी भी मेरे पैर वहाँ न लगने देते। वह तो जो भी मेरे साथ जुड़ता था, उसके संग ही लड़ पड़ते थे। यूँ दिल से वह यही चाहते थे कि मैं नौकरी न करूँ। इसके पीछे मेरी शख्सियत पर कब्ज़ा करने की भावना थी। वह मुझे हर समय घर में अपने इर्दगिर्द देखना चाहते थे। वह अकेले रहने में अपने आप को महफूज नहीं समझते थे। लेकिन अपने साथी के साथ बराबरी का व्यवहार करने की उनमें योग्यता भी नहीं थी। वह सदैव अपने आप को दया का पात्र बनाकर पेश करने के लिए अपने माँ-बाप को गवां लेने वाली बचपन की घटना की मिसाल देते थे। अपनी बात सुनाने के लिए उतावले हुए रहते थे, पर दूसरे की सुनने के लिए उनके अंदर धैर्य नहीं था। परंतु मैं जेहनी तौर पर उनकी इस गिरफ्त में से निकल आई थी। कारण, दिल्ली में मैं अपनी अच्छी खासी नौकरी गवां चुकी थी और चंदन साहब के ताने-उलाहने भी सुन चुकी थी और अब जितना भी सही, आर्थिक तौर पर अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती थी।

निरंजन सिंह नूर बिलस्टन कम्युनिटी कालेज में एशियन कंटीन्यूइंग एजूकेशन विभाग के डायरेक्टर थे। डायरेक्टर से अधिक वह विभाग के रूहे-रवां थे। हर कोई उनके पास अपनी समस्या लेकर आता, वह पिता समान हर कर्मचारी का बोझ अपने कंधों पर उठा लेते। विभाग में अपनी डायरेक्टर की कुर्सी पर बैठे कम दिखाई देते, कर्मचारियों के पास खुद जाकर उनकी समस्याओं का हल करते रहते। उनके साथ ही मैनेजर के तौर पर निरंजन सिंह ढिल्लों भी थे। निरंजन ढिल्लों भी मेरी मदद के लिए हमेशा आगे आते थे। इन दोनों ने मिलकर कालेज में बी.ए. और एम.ए. की कक्षाएँ शुरू की थीं। मेरे से अच्छी अध्यापिका इन्हें और कौन मिल सकती थी। बी.ए. गुरुनानक यूनिवर्सिटी के साथ मिलकर शुरू की थी और पंजाबी की एम.ए. पंजाबी यूनिवर्सिटी, पटियाला के साथ एफिलियेट करके प्रारंभ कर ली। अच्छे खासे विद्यार्थी भी मिल गए। मैं अध्यापिका बनकर वुल्वरहैंप्टन में आ गई। मेरी मनपसंद नौकरी। रहने के लिए निरंजन सिंह ढिल्लों ने अपने घर का बॉक्स रूम दे दिया। मैं तीन महीने वहाँ रही, उन्होंने कोई किराया भी नहीं लिया। उसकी पत्नी महिंदर ढिल्लों मेरे साथ बहनों जैसा व्यवहार करती थी। मुझे तो जैसे नया परिवार मिल गया हो।

सप्ताह में चार दिन मैं काम करती। कालेज यद्यपि घर से अधिक दूर नहीं था लेकिन ढिल्लों साहब मुझे हमेशा अपने संग लेकर जाते। कक्षाओं का समय शाम 6 बजे से 9 बजे तक का होता था। ढिल्लों साहब सवेरे कालेज चले जाते थे। शाम को साढ़े पाँच बजे घर लौटते। शाम का भोजन करने के बाद हम दोनों एकसाथ कालेज जाते। एम.ए. की क्लास में उन्होंने दाखि़ला लिया हुआ था। सो, दिन के समय जिस विभाग में वह मैनेजर होते, उसी विभाग में शाम के समय वह विद्यार्थी होते। वीरवार तक पढ़ाकर सप्ताहांत पर मैं हेज आ जाया करती थी।

हेज़ आकर एक दिन अच्छा बीतता और दूसरे दिन चंदन साहब अपने असली रंग में आ जाते। शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि मैं खुश होकर वुल्वरहैंप्टन वापस गई होऊँ। एक अन्य बात अब सामने आ रही थी कि चंदन साहब की बेटी यदि घर में आई हुई होती तो वह मेरे साथ ईष्र्या सी करने लगती। वह मुझे एक बार फोन पर यह कह भी चुकी थी कि जब से मैं आई हूँ, चंदन साहब उसकी ओर कम ध्यान देते हैं। कभी कभी वह चंदन साहब के साथ कुछ अधिक ही मोह दिखाती। घर में कोई न कोई प्राॅब्लम खड़ी रहती। अमनदीप के लिए लड़कियाँ देखी जातीं। बात न बनने पर घर में क्लेश पड़ जाता। कई बार परेशानी इतनी बढ़ जाती कि मन बेचैन होने लगता। अचानक क्या हुआ कि मेरे ब्लीडिंग शुरू हो गई। इसी हालत में मैं कई हफ्ते वुल्वरहैंप्टन पढ़ाने के लिए जाती रही। जब तीन महीने बीत गए, ब्लीडिंग बंद होने पर ही न आई तो लगा कि पेट में कोई पुराना ही रोग बैठा हुआ है जो ठीक होने में नहीं आ रहा था। मैं और चंदन साहब हिलिंग्डन होस्पीटल में दिखाने गए। सभी टैस्ट किए गए। कोई पता न चला। सभी टैस्ट ठीक थे। डॉक्टर का कहना था - पीट्यूटरी ग्लैंड का संतुलन बिगड़ने के कारण ब्लीडिंग बंद नहीं हो रही, इसलिए बच्चेदानी निकालने के लिए डाॅक्टर आपरेशन करने के लिए कह रहे थे। अब मेरा जी.पी. डाॅक्टर महिंदर गिल्ल था। उसने मुझे कोई ऐसी दवाई दी कि ब्लीडिंग तो बंद हो गई पर दर्द वैसा ही रहा। फिर मैं दर्द की दवाई भी लगातार खाने लगी थी। ब्लीडिंग रोकने की दवाई ऐसी थी कि एक गोली रोज़ खानी पड़ती। मासिक धर्म के कुछ दिन बाद यह दवाई मैं छोड़ देती और शेष दिन बिना नागा खाती। चंदन साहब से दर्द होने की शिकायत करती तो वह कहते कि मैं नाटक कर रही हूँ।

इन्हीं दिनों चंदन साहब इंडिया जाने का प्रोग्राम बनाने लगे। अलका और अमनदीप भी जा रहे थे। शायद कोई लड़की देखने ही जाना था क्योंकि अभी तक अमनदीप को लड़की नहीं मिली थी। परंतु मुझे इन्होंने ऐसा कुछ नहीं बताया था। कालेज से मुझे छुट्टियाँ मिल गईं और मैं भी तैयार हो गई। हम चारों जन दिल्ली पहुँच गए। आधी रात के बाद हमारी फ्लाइट लगी। मेरा भाई सुरजीत सिंह हमें एअरपोर्ट पर लेने आया हुआ था। हम सवेर के तीन बजे अपने फ्लैट पर पहुँचे। सबने अपने अपने कमरों पर कब्ज़ा कर लिया और सुरजीत को सोने के लिए किसी ने भी नहीं कहा। मैंने चंदन साहब से कहा भी कि इसको कह दो कि अब कहाँ जाएगा, यहीं सो जाए, पर चंदन साहब ने नहीं कहा। उसने घर जाने के लिए टैक्सी पकड़ ली।

दिल्ली पहुँचकर फिर चंदन साहब के अंदर से पहले वाला चंदन निकल आया। वह मेरी पूरी तरह उपेक्षा करने लग पड़े। वह तीनों आपस में यूँ बातें करते जैसे मैं घर में उपस्थित ही न होऊँ। मैं चंदन साहब से कोई बात करने को होती तो अलका टोकती हुई कोई बात खुद ही शुरू कर देती। वह तीनों मेरे से चोरी चोरी कुछ सलाह-मशविरा भी करते फिरते थे। एक दिन मुझे भनक लग गई कि वह तो फ्लैट बेचने की तैयारी किए घूमते थे। वाह ! अजीब चाल थी इनकी। मेरा ही फ्लैट, मेरे से चोरी बेच रहे थे। ठीक था कि यह चंदन साहब के नाम था, पर इसको खरीदने में मेरे पहले वाले फ्लैट की कीमत लगी हुई थी। इस बार मुझे झगड़ा करना ही पड़ा। इतना बड़ा धक्का मैं नहीं झेल सकती थी। यहाँ अलका का एक रूप और सामने आया कि वह चंदन साहब की तरह ही गुस्सेबाज थी और लड़ाई-झगड़े में हाथापाई तक उतर जाती थी। वह मुझे मैंटल तक कह जाती। जितने दिन भी वे दिल्ली में रहे, घर कुरुक्षेत्र बना रहा। उन्होंने मुम्बई जाने का प्रोग्राम बना रखा था। मुझे वे साथ नहीं ले जा रहे थे। मुझे पहाड़गंज में माँ के पास भेज दिया गया और वे तीनों मुम्बई चले गए। मुम्बई से कब वे वापस आए, कब वे इंग्लैड चले गए, मुझे इसकी कोई ख़बर नहीं दी। मैं एकबार फिर दिल्ली में छोड़ दी गई।

एक दिन मैं कुछ कपड़े लेने फ्लैट में गई तो देखा कि सभी ताले बदले हुए थे। यानी अपने फ्लैट पर से मेरा कब्ज़ा खत्म! मैं हतप्रभ रह गई। मेरे साथ ज़िन्दगी क्या खेल खेल रही थी, कुछ समझ में नहीं आ रहा था। यह मेरी गृहस्थी थी या नज़र का धोखा !

(जारी…)