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पी.के. - 1

पी.के.

(1)

बालभवन के पास चाय की दुकान पर वह मित्र के साथ चाय पी रहा था. उनके हाथों में चाय के छोटे गिलास थे और वे दुकान और सड़क के बीच दुकान के निकट ही बातों में मशगूल थे. लंबे समय बाद वह मित्र से मिला था जो उन दिनों पास के कैनेरा बैंक में पो.ओ. था. वे बातों में इतना तल्लीन थे कि सामने खड़े शख्स को देख नहीं सके, जिसकी कमर हल्की-सी झुकी हुई थी, चेहरे पर सफेद दाढ़ी और सिर पर बेतरतीब बिखरे रूखे सफेद बाल थे. कपड़े चीकट और फटे हुए थे. प्रथम दृष्ट्या उसे कोई भी पागल समझ सकता था, लेकिन वह पागल नहीं था. शायद देर से वह उनकी ओर अपना दाहिना हाथ फैलाए खड़ा हुआ था, लेकिन हमारी बातों का अंतहीन सिलसिला देख आखिर उसने बुदबुदाते हुए कहा, “बाबू जी---.” उसकी आवाज बहुत धीमी थी, फिर भी उसने सुना और उसकी ओर मुड़ा. उसका हाथ पर्स पर जा टिका, लेकिन पर्स निकालता कि उससे पहले ही मित्र ने उससे पूछा, “चाय पिओगे?”

उस व्यक्ति के चेहरे पर सकुचाहट उभर आयी. मित्र ने उसके लिए चाय और समोसे का आदेश दिया और एक कुर्सी खिसकाकर उसे बैठने के लिए कहा. “क्या हाल है?” मित्र ने उसके बैठते ही पूछा.

“ठीक है” वह बुदबुदाया. उसकी आवाज कठिनाई से उन तक पहुंची.

“तुम जानते हो इसे?” उसने मित्र से इस प्रकार पूछा कि वह सुन न ले. इस बीच चाय सर्व करने वाला लड़का उसे चाय और दो कागज की प्लेट में समोसे पकड़ा गया था. वह समोसा कुतरने में तल्लीन था और मित्र उसे धीमे स्वर में बता रहा था, “रोज ही जब मैं चाय पीने आता हूं, यह आ जाता है---कौन है नहीं जानता.”

वे दोनों फिर बातों में मशगूल हो गए थे.

मौसम सुहावना था. मध्य मार्च की जाती हुई ठंड थी—लेकिन इतनी नहीं कि गर्म कपड़े के बिना रहा न जा सके. सामने पेड़ों के सूखे पत्ते नीचे फैले हुए थे और नयी कोंपलें निकल आयी थीं. हल्की गर्माहट लिए हवा सरसरा रही थी और पेड़ पर चिड़ियां चहचहा रही थीं. बैंक के एटीएम में लंबी लाइन थी. ’लोग नोट बंदी की मार से उबर नहीं पाए हैं’ मित्र से बात करता हुआ वह सोचने लगा था, ’बावजूद आरबीआई की इस सूचना के कि नोटों की कोई समस्या नहीं ---पांच सौ और दो सौ के नोट हर बैंक को भेजे जा रहे हैं, लेकिन किसान थे कि आत्महत्याएं कर रहे थे और उड़ीसा में एक परिवार कई दोनों से भोजन न मिलने पर पेड़ की छालें खाकर मर गया था. पैसों के लिए तरसते—अपने पैसों के लिए ---तब तक सत्तर से अधिक लोग जान गंवा चुके थे. दिल्ली में ही कई बुजुर्ग ए.टी.एम. की लाइन में खड़े खड़े दिल का दौरा पड़ने से दुनिया को अलविदा कर चुके थे. मौतों के लिए सरकार लोगों की बीमारी को दोष दे रही थी, पंक्ति में घण्टों खड़े होने, खाली हाथ लौटने, थकान के बावजूद फिर जा खड़े होने को कारण नहीं मान रही थी. पूंजीपतियों को किसी ने परेशान नहीं देखा—इतिहास गवाह है कि सरकारें पूंजीपति चलाते हैं---लोकतंत्र है तो क्या!’

“तुम्हें देर हो रही है?” उसने मित्र से पूछा.

“काम निबटा आया हूं. मैनेजर संभाल लेगा.”

“बैठें?” उसने मित्र को प्रस्ताव दिया.

वह समोसा खा चुका था और चाय सुड़क रहा था. दोनों उसी के बगल में कुर्सियां खींच बैठ गए. वहां पेड़ से छनकर आती हल्की धूप थी और अच्छी लग रही थी.

चाय सुड़कता वह उसे गौर से देख रहा था. उसने उसे उस प्रकार घूरकर देखते पूछ लिया, “मित्र मेरे चेहरे पर कुछ खास खोज रहे हो?”

वह सकुचा गया, फिक से हंसा और सड़ाक की आवाज के साथ चाय सुड़की.

“गले में लग जाएगी चाय---भाई इत्मीनान से पियो” वह बोला, “और मंगा दूं?”

उसके चेहरे पर एक प्रकार की दयनीयता उभर आयी. सिर हिलाकर उसने मना किया और गुमसुम होकर कुछ सोचने लगा.

दोनों मित्र पुनः बातों में डूब ही रहे थे कि उसकी मिनमिनाती हुई आवाज सुनाई दी. “बुरा न मानें तो---?”

“किससे कह रहे हो?” उसने पूछा.

“आपसे?”

“नहीं, बुरा क्या मानना. बोलो?”

“आप विनोद पाण्डे हैं न!”

“ऎं---आप—?” इस बार उसके अचकचाने की बारी थी. मित्र कभी उसे तो कभी उस व्यक्ति की ओर देख रहा था.

वह ही ही करके हंसा, “मैं देखते ही पहचान गया था.” वह पहले की अपेक्षा अब अधिक खुल गया था,

“कि आप विनोद पाण्डे हैं.”

“लेकिन मैं आपको पहचान नहीं पा रहा हूं” विनोद मस्तिष्क में उसे पहचानने के लिए बल देता हुआ बोला.

कुछ देर तक वह कभी विनोद तो कभी उसके मित्र की ओर देखता रहा, जो लगभग प्रतिदिन ही उसे चाय पिलाता था, फिर बोला, “मैं पीके.”

“पी.के.?” विनोद ने पुनः मस्तिष्क पर जोर डाला और सोचने लगा.

वह समझ गया कि पचीस साल पहले के पीके को विनोद कैसे याद कर सकता है. हुलिया भी बदला हुआ है उसका. खड़ा होता हुआ वह बोला, “मैं प्रेम कुमार शर्मा हूं---विश्वविद्यालय में अटेण्डेण्ट था लाइब्रेरी में और---.”

“ओह---आप?” विनोद तपाक से खड़ा हुआ और उसने पी.के. को गले लगाते हुए फिर उसी कुर्सी पर बैठा दिया जिससे वह उठ खड़ा हुआ था और मित्र से बोला, “एक-एक चाय और.” फिर पी.के. की ओर मुड़कर पूछा, “क्या हाल बना रखा है?”

“बस्स—“ इतना ही बोल पाया पी.के. और उसके आंखें पनिया गयीं.

देर तक चुप्पी पसरी रही. इस बीच चाय आ गयी. चाय का कप थामे पी.के. कभी विनोद तो कभी उसके मित्र की ओर देखने लगा. काफी देर बाद वह बोला, “आप इन दिनों कहां हैं?”

“मैं मुम्बई में हूं एक डिग्री कॉलेज में.”

“ओह! परिश्रम सार्थक रहा.” पीके बोला.

“आपका सहयोग---अब अपनी कहें. यह---.”

पीके की आंखें फिर पनिया आयीं और वह अपने विषय में बताने लगा था. इस बीच विनोद का मित्र अगले दिन फिर मिलने के वायदे के साथ ऑफिस चला गया था.

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वह मेरठ विश्वविद्यालय से पी-एच.डी. कर रहा था और दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष की विशेष अनुकंपा पाकर उसने वहां के केन्द्रीय विश्वविद्यालय पुस्तककालय की सदस्यता प्राप्त कर ली थी. पढ़ने के लिए सप्ताह में एक और कभी दो दिन वह वहां जाया करता था. पारिवारिक स्थितियां ऎसी थीं कि वह बंग्लो रोड के एक प्रकाशक के यहां काम करता था. सुबह दस बजे से लेकर रात आठ बजे तक. रविवार को अवकाश होता और उस दिन वह सुबह आठ बजे ही पुस्तकालय पहुंच जाया करता और शाम सात बजे के बाद तक बैठता. काम के दिनों में यदि वह प्रकाशक के काम से कहीं निकला होता तब कुछ समय के लिए पुस्तकालय में बिता लिया करता था या त्योहारों के दिन रविवार की ही भांति वहां जाता. लेकिन बहुत कम ऎसे त्यौहार थे जब प्रकाशन बंद होता था. माह में चार या छः दिन जाने से उसके कार्य में प्रगति नहीं थी, और उसके निर्देशक ने कहना शुरू कर दिया था कि यदि वह काम नहीं कर पा रहा तब पी-एच.डी. का स्वप्न छोड़ क्यों नहीं देता. उसके निर्देशक मेरठ में एक कॉलेज के विभागाध्यक्ष थे और दूसरे-तीसरे माह कार्य की प्रगति दिखाने उसे उनसे मिलने मेरठ जाना पड़ता था. दो वर्ष बीत चुके थे, लेकिन वह एक अध्याय भी पूरा नहीं कर पाया था. कितनी ही बार निराशा के गर्त में डूबकर उसने शोध छोड़ देने के विषय में सोचा, लेकिन हर बार अंदर से एक आवाज आती कि एक बार हताश होकर छोड़ा तो हताशा जिन्दगी भर तेरा पीछा करती रहेगी और कोई भी कार्य तू कभी पूरा नहीं कर पाएगा. ’क्या प्रकाशक के यहां ही पुस्तकों के बंडल बांधते, उन्हें कॉलेजों और विद्यालयों में पहुंचाते, प्रूफ पढ़ते और प्रकाशक की झिड़की सहते काटनी है या कुछ बेहतर करना है! बेहतर करना है तब शोध पूरा कर---रास्ता निकाल’ और रास्ता निकाला था उसने.

वह रास्ता उसे प्रेम कुमार यानी पीके के निकट ले गया था. प्रेम कुमार वहां तब जूनियर लाइब्रेरी अटेण्डेण्ट था और उसकी ड्यूटी सुबह आठ बजे से तीन बजे तक होती थी. विशेषरूप से उसने यह समय ले रखा था, उसके बाद वह ट्यूशन पढ़ाने जाता था. वह तीमारपुर के एक सरकार फ्लैट में उन दिनों सब-लेटिंग में किराएदार था. बाद में, पीके के अनुसार, सीनियर अटेण्डेण्ट बनते ही किसी प्रकार मेडिकल आधार पर उसने विश्वविद्यालय का मकान हासिल कर लिया था. यह तब की बात थी जब उसने पी-एच.डी. का काम समाप्त कर लिया था और पुस्तकालय जाना बंद कर दिया था.

एक दिन वह एक संदर्भ ग्रंथ खोज रहा था, जो कैटलॉग में तो था, लेकिन उसे रैक पर मिल नहीं रहा था. वह पीके के पास गया और उसने उससे सहायता मांगी. पीके ने उसे अपनी सीट पर बैठने के लिए कहा और आध घण्टा में संदर्भ ग्रंथ ले आया. उसने धन्यवाद दिया तब मुस्कराता हुआ पीके बोला, “जब भी कोई कठिनाई हो, मुझे बता दिया करें बिना संकोच---“

“जी, जरूर” उसने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया और ग्रंथ खोलने लगा था. लेकिन उसने अनुभव किया था कि पीके उसके पीछे खड़ा पिछली डेस्क में एक युवती से बात कर रहा था. उसने अपनी सीट निश्चित कर रखी थी. सुबह जल्दी पहुंचने का उसे लाभ मिलता और वह अपनी परिचित सीट पर जा बैठता. उसके पहुंचने के पांच –दस मिनट बाद उसकी पीछे की डेस्क पर ठीक उसके पीछे वह युवती आ बैठती थी और उसे आश्चर्य होता कि शाम उसके जाने के समय भी वह युवती उसी प्रकार सिर गड़ाए पढ़-लिख रही होती थी. उसने अनुमान लगाया था कि संभवतः वह सिविल सर्विसेज की तैयारी कर रही होगी तभी इतना घोर श्रम कर रही थी या उसी की भांति वह भी किसी विषय में शोध कर रही थी. उसने एक बार सोचा कि उससे पूछे, लेकिन वह इतनी सुन्दर थी कि उसकी ओर देखने का साहस भी वह नहीं जुटा पाता था---बात करना तो दूर---और लड़कियों से बात करने में वैसे भी उसके पैर कांपने लगते थे. उस दिन जब उसने पीके को उस लड़की से खुसुर-पुसर करते सुना तब अनुमान लगाया कि उस लड़की को भी उसी की भांति किसी पुस्तक की आवश्यकता होगी और उसी विषय में वह पीके से बात कर रही होगी. कुछ देर बाद पीके चला गया और वह अपने काम में व्यस्त हो गया था. दोपहर वह लंच करने बाहर जाता---कभी छोले कुलचे तो कभी स्नैक के साथ केवल चाय. उस दिन चाय के लिए जब बाहर निकला, पीके अपने एक अटेण्डेण्ट साथी के साथ गेट के बाहर बातें करते मिल गया. उसे देखते ही पूछा, “कहां चले बाबू?”

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