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पी.के. - 2

पी.के.

(2)

“चाय पीने.”

“मैं पिलाउंगा चाय आज आपको.” पीके बोला और साथ हो लिया था. वह कुछ नहीं बोल पाया था, लेकिन तभी उसके मन में एक बात पैदा हुई थी और उसने सोचा था कि चाय पीते हुए वह पीके से अपनी बात कहेगा.

“यह मेरे सहयोगी नबारिया हैं. दस बजे से पांच बजे तक की ड्यूटी पर हैं. पीछे बैठते हैं---“

उसने नबारिया से हाथ मिलाया.

“पीके की ड्यूटी तीन बजे तक है. उसके बाद आपको जब भी कोई पुस्तक की जरूरत हो और न मिल रही हो तब मुझे बताएंगे.” नबारिया बिना कुछ कहे ही अपनी सेवाएं अर्पित कर रहा था और वह सोच रहा था कि दुनिया में भले लोगों की कमी नहीं है.

पीके ने तीन चाय का आदेश दिय और उससे कुछ खाने के लिए कहा. उसने इंकार कर दिया, जबकि वह सीट से यह सोचकर उठा था कि वह चाय के साथ मठरी या ब्रेड पकौड़ा लेगा. लेकिन चाय पीके पिला रहा था, उसे लेना उचित नहीं लगा था. पीके और नबारिया बातें करते रहे और वह चुपचाप चाय पीता रहा और सोचता रहा कि अपनी बात अब कह ही देना चाहिए. तभी इसका अवसर पीके ने ही दे दिया, “इतना चुप क्यों हैं मित्र---?“ और तत्काल मुस्कराते हुए, “आपका नाम जानने की इच्छा है.”

“मैं विनोद पाण्डे हूं.” और उसने संक्षेप में अपने शोध का विषय, कहां से कर रहा है और अपनी नौकरी की विवशता बतायी.

“वाह! बहुत अच्छा लगा विनोद जी. हम दोनों हापुड़ के हैं और एक साथ पढ़े हुए हैं. यह संयोग है कि एक साथ ही नौकरी कर रहे हैं और उससे भी बड़े संयोग की बात कि दोनों ही जूनियर अटेण्डेण्ट हैं---“ कहकर पीके ही ही करके हंसने लगा. लेकिन वह गंभीर बना रहा. उसके दिमाग में अपनी बात घूम रही थी.

“आप इतना गंभीर क्यों हैं ?” नबारिया, जो पीके से अधिक बातूनी लगा उसे, ने पूछा.

“आप लोगों से एक बात कहना चाह रहा हूं.”

“बेखटक कहें.” पीके बोला.

“क्या जरूरी संदर्भ ग्रंथ मुझे घर ले जाने की सुविधा मिल सकती है? बस एक हफ्ते के लिए---अगले रविवार लौटा दिया करूंगा और यदि काम पूरा नहीं होगा तब यहां लाकर दोबारा ले जाया करूंगा.”

“विनोद जी---यह मामूली बात आपने आज तक क्यों नहीं कही थी.!” पीके बोला.

“क्योंकि तब आपसे परिचय नहीं था.”

“आपको लंबे समय से देख रहा हूं---कभी पूछकर ही देख लिया होता” पीके क्षणभर के लिए रुका फिर बोला, “आप जानते हैं कि ये पुस्तकें इश्यू के लिए नहीं होतीं लेकिन हम दे सकते हैं----बस सहायक लाइब्रेरियन को पता न चले---आप एक सप्ताह नहीं पन्द्रह दिन रखें. बस लौटा जरूर देंगे.”

“आप लोगों की बहुत मेहरबानी.”

“इसमें मेहरबानी की क्या बात विनोद जी. आप चिन्ता न करें ---जो पुस्तक चाहिए बता देंगे. मैं अपने कार्ड पर या पर्ची बनाकर आपको दे दिया करूंगा और यदि मेरी अनुपस्थिति में चाहिए होगी तब नबारिया जी तो हैं ही.” पीके ने नबारिया की ओर विजयी भाव से देखा था.

“बिल्कुल---“नबारिया बोला, “आप चिन्ता न करे विनोद जी. जल्दी से अपना शोध करें और कहीं प्राध्यापक बनें---हमारी शुभकामनाएं.”

“शुक्रिया आप दोनों का .”

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पीके और नबारिया का सहयोग ही था कि उसने एक वर्ष में शोध-प्रबन्ध पूरा कर लिया था और उसके एक वर्ष के अंदर डिग्री भी पा ली थी. सहयोग गाइड का भी था, जिन्होंने कहीं बाधा पैदा नहीं की थी. उसके बाद दिल्ली और उत्तर प्रदेश के अनेक कॉलेजों में असफल साक्षात्कार देने के बाद मुम्बई के एक महाविद्यालय में प्राध्यापक बनने में सफल रहा था. वहां सफल रहने की कहानी लंबी है और यह लगभग हर कॉलेज और विश्वविद्यालय में उन दिनों दोहराई जाती थी और आज भी दोहराई जाती है. भला हो चेतन जी का जिन्होंने उसके लिए एड़ी-चोटी का जोड़ लगाया था----प्रिन्सिपल से लेकर प्रबन्धन तक और वह प्रवेश पा गया था. वह सब यहां नहीं. यहां तो पीके ने जो बताया वह आपको बताना है.

जिन दिनों पीके से उसका परिचय हुआ उन दिनों उसकी पत्नी उत्तर प्रदेश शिक्षा बोर्ड से इंटरमीडिएट की प्राइवेट परीक्षा देने की तैयारी कर रही थी. पीके ने ही एक दिन गर्व के साथ बताया था कि उसके ठीक पीछे बैठी युवती उसकी पत्नी है. तीन वर्ष पहले दोनों की शादी हुई थी और तब वह केवल आठवीं थी. शादी के बाद उसने प्राइवेट हाई स्कूल किया था. पीके पत्नी की बहुत प्रशंसा किया करता था. लगभग हर दिन वह उसे ग्यारह बजे चाय पिलाने ले जाता और कभी भी चाय का भुगतान उसे नहीं करने देता था. लंच के समय पीके नबारिया के साथ चाय पीता था. उसकी पत्नी उसकी सीट के ठीक पीछे बैठी होती, लेकिन उसने न कभी उससे बात की और न ही उसकी पत्नी ने जबकि वह पीके को उसके साथ आता-जाता देखती थी. लड़कियों से बात करने के मामले में वह शुरू से ही संकोची रहा, और यदि लड़की सुन्दर ही नहीं अति-सुन्दर हुई तब उसकी जुबान तलवे से ही चिपक जाती थी. लेकिन उसे उत्सुकता तो थी ही कि इतनी सुन्दर लड़की ने उस बदसूरत चेचकारू चेहरे वाले व्यक्ति को कैसे पसंद किया जिसके तेल सने बाल हर समय सिर पर चिपके रहते थे. एक दिन चाय पीते समय उसने पीके से पूछ ही लिया और लगा कि जैसे पीके पूछे जाने की ही प्रतीक्षा कर रहा था.

“विनोद बाबू” चेहरे पर प्रफुल्लता लाता हुआ वह बोला, “सब किस्मत का खेल है.”

“वह तो है ही” उसके यह कहते ही पीके ने उसके चेहरे की ओर देखा और यह भांपने का प्रयास किया कि कहीं उसने व्यंग्य तो नहीं किया था, जबकि उसने सहज भाव से ही कहा था.

कुछ देर तक पीके गंभीर रहा फिर बोला, “हुआ यह कि मैंने एक मैरिज ब्यूरो चलाया था---“.

“मतलब?”

“लोगों की शादी के लिए----जैसे करोल बाग का सचदेवा चला रहा है---उसका तो जाल पूरे उत्तर प्रदेश में फैला हुआ है.”

“उसके विज्ञापन देखे हैं. उत्तर प्रदेश ही क्यों मुझे लगता है कि चण्डीगढ़ की ओर जाते हुए ---रेलवे लाइन के दोनों ओर दीवारों पर मोटे-मोटे अक्षरों में उसके विज्ञापन देखे हैं. आप भी वैसे ही---?” उसने प्रश्न किया.

“नहीं मैंने छोटे स्तर पर शुरू किया था.”

“कैसे?”

“आप भी शुरू करना चाहते हैं?” हंसा था पीके.

“नहीं,मैं क्यों करने लगा.”

“सुन्दर पत्नी पाने के लिए---जैसे मुझे सुमन मिली.”

“ओह!” वह अवाक पीके की ओर देखता रहा, “मिसेज शर्मा उस मैरिज ब्यूरो की देन हैं.”

उसकी बात सुनकर पीके मुस्कराया, “मैंने अपने ब्यूरो का विज्ञापन हिन्दुस्तान और नवभारत टाइम्स में प्रकाशित करवाया. लोगों ने संपर्क किया---लड़के वालों ने और लड़की वालों ने भी. मैरिज ब्यूरो वालों का काम दोनों पार्टियों को मिला देना होता है---लोग संपर्क करते और जब उन्हें यकीन हो जाता कि मेरा ब्यूरो जेनुइन है और मेरी फीस भी कम है तब बच्चों के बॉयो डॉटा और फोटो भेजते, जिन्हें मैं लड़के-लड़की वालों तक पहुंचाता, उनके पतों के बिना और जब कोई पार्टी किसी में रुचि लेती तब उन्हें सीधे संपर्क करने के लिए कहता और मेरा काम समाप्त हो जाता.”

“कठिन काम था—जोखिम वाला.” वह बोला.

“कोई जोखिम नहीं—क्योंकि मैं दोनों पार्टियों को कह देता कि मेरा मैरिज ब्यूरो है इन्वेस्टिगेशन एजेंसी नहीं ---आप एक-दूसरे के बारे में स्वयं पता करें और आश्वस्त होने के बाद ही शादी करें.” क्षणभर तक पीके कुछ सोचता रहा फिर बोला, “आप भी एक दिन और मेरा अनुमान है कि शोध पूरा करने के बाद शादी करेंगे. आज लड़कीवाले शादी के लिए जितना परेशान रहते हैं लड़के वाले कम नहीं. यह अनुभव आपको तब होगा---“ बहुत ही रहस्यमय स्वर में पीके बोला था.

“कैसे?”

“पता नहीं लड़की कैसी आए—घर वालों के साथ एडजस्ट करेगी या नहीं---झगड़ालू हुई तो---?ये बातें लड़के वालों को परेशान करती हैं और लड़की वालों की स्थिति तो सदैव एक-सी रही है----.”

“सही” वह बोला फिर पूछ लिया, “मिसेज शर्मा से आपको कोई शिकायत?”

“सुमन बहुत भली है विनोद बाबू.” वह उस दिन सब कुछ बता देने के मूड में था. कुछ रुककर बोला, “ब्यूरो के पहले ही विज्ञापन में सुमन के पिता ने सुमन का बॉयो डॉटा और फोटो भेज दिया. देखकर मैं चमत्कृत था. उन्होंने अपने दफ्तर का फोन नंबर भी दिया था. मैंने अगले ही दिन उन्हें एक पीसीओ से फोन मिलाया. वह एक दफ्तर में चपरासी हैं. चार बेटियां---लड़का नहीं है. मैंने उन्हें लड़का देखने के बहाने यहां बुला लिया. एक सप्ताह के अंदर वह विश्वविद्यालय में मुझे खोज रहे थे. उन दिनों मैं शक्तिनगर में एक कमरे के किराए के मकान में रहता था. मैंने उन्हें पूरा विश्वविद्यालय घुमाया ---अपने यहां ठहराया. कमला नगर के अच्छे रेस्टारेण्ट में डिनर करवाया. वह प्रसन्न. रात लड़के के विषय में जब उन्होंने पूछा, मैंने सीधे उन्हें अपना प्रस्ताव दिया. सुनकर वह गदगद. बोले, मुझे रिश्ता मंजूर है. आप अपने परिवार से मिलवा दें मुझे. बात किससे करूं. मैंने कहा, मैं ही हूं परिवार में. मां पिता की मृत्यु हो चुकी है और भाई बहन कोई है नहीं. गांव में कुछ खेत हैं, चाहें तो कल चलकर दिखा दूं.” पीके ने दम लिया.

“सुमन के पिता को गांव में रुचि न थी. उनके लिए इतना ही पर्याप्त था कि होने वाला दामाद अर्थात मैं विश्वविद्यालय में नौकरी कर रहा था. उन्होंने अगले दिन साथ चलकर सुमन को देखने का प्रस्ताव किया. कानपुर बहुत दूर नहीं. मैं गया. सुमन को मैंने फोटॊ से ही पसंद किया हुआ था, बस आशंका थी कि मुझे सुमन पसंद करेगी कि नहीं, लेकिन उसने भी स्वीकृति दी और फरवरी में शादी हो गयी.”

“निश्चित ही भाग्यशाली हैं आप कि आपको सुमन जैसी पत्नी मिलीं.”

हि हि करके हंस दिया था पीके.

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