P.K. - 3 books and stories free download online pdf in Hindi

पी.के. - 3

पी.के.

(3)

पीके उन दिनों हाई स्कूल था और उत्तर प्रदेश शिक्षा बोर्ड से प्राइवेट इंटरमीडिएट कर रहा था. वही नहीं नबारिया भी हाई स्कूल ही था और वह भी पीके के साथ प्राइवेट परीक्षा की तैयारी कर रहा था. इस प्रकार पीके की पत्नी और वे दोनों परीक्षार्थी थे. पीके उससे पहले तीन बार प्रयास कर चुका था और असफल रहा था. वह उसका चौथा अवसर था.

“विनोद बाबू, इंटर होता तब मैं आज जूनियर अटेण्डेण्ट नहीं होता. मैं भी सीनियर हो चुका होता----.” यह कहते हुए पीके के चेहरे पर मायूसी उभर आयी थी.

“इंटरमीडिएट करना इतना कठिन नहीं---कोशिश करें---और आपके विषय भी इतने कठिन नहीं हैं. न विज्ञान और न गणित जैसे विषय----.”

“अंग्रेजी मार देती है. हर बार उसी में फेल हो जाता हूं और हिन्दी ही कौन-सी सरल है---विनोद बाबू.”

वह चुप रहा था. उस बार भी पीके और नबारिया फेल हो गए थे, जबकि सुमन अच्छे नंबरों से उत्तीर्ण थी. प्रथम श्रेणी में कुछ अंक ही कम थे उसके. सुमन के उत्तीर्ण होने से पीके बहुत प्रसन्न था. “सुमन को पत्राचार से बी.ए. और डीपीएल से लाइब्रेरी साइंस का सर्टीफिकेट कोर्स करवाउंगा.” पी.के. उस दिन कैंटीन में नबारिया के साथ उसे गुलाब जामुन और समोसे के साथ चाय पिलाने की दावत देते हुए बोला था.

“मेरी अग्रिम बधाई.”

मुस्करा दिया था पी.के.

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सुमन ने बहुत ही सफलतापूर्वक बी.ए. प्रथम वर्ष के साथ लाइब्रेरी साइंस में सर्टिफिकेट कोर्स किया और पी.के. ने अपने डिप्टी लाइब्रेरिययन की सिफारिश से सुमन को एडहॉक सहायक अटेण्डेण्ट लगवा दिया था. बी.ए. करते ही सुमन वहां स्थायी हो गयी थी और उन्हीं दिनों इंदिरा गांधी ओपेन विश्वविद्यालय ने लाइब्रेरी साइंस में डिग्री कोर्स प्रारंभ किया. सुमन ने वहां प्रवेश लिया और उसमें सफल रही थी. साल बीतने से पहले ही विश्वविद्यालय ने सेमी प्रोफेशनल असिस्टेंट के खाली पड़े पदों को भरने के लिए विज्ञापन दिया, जिसके लिए प्रति वर्ष कर्मचारी यूनियन दिसंबर से मार्च तक धरना प्रदर्शन करती थी और यह सिलसिला सालों से जारी था. बीस मांगे होतीं तो उनमें दस या उससे भी काम मान ली जातीं और शेष के साथ कुछ अन्य को जोड़कर अगले जाड़ों में यूनियन के लोग अपना अभियान शुरू कर देते. उन मांगों में किसी न किसी पद के खाली रिक्त स्थानों को भरने की बात अवश्य होती. ऎसा केवल पुस्तकालय के यूनियन वाले करते ऎसा नहीं केन्द्रीय कार्यालय अर्थात विश्वविद्यालय के प्रशासनिक विभाग की कर्मचारी यूनियन भी करती. वास्तव में ठंड में कमरों में बैठने के बजाए वे धूप सेंकते और प्रशासन पर दबाव बनाकर कुछ भला कर्मचारियों का करते, लेकिन उससे अधिक यूनियन के पदाधिकारी अपना करते. अपने निकट के लोगों को यूनियन के पदाधिकारी नियुक्त करवाने में सफल रहते थे. यह उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि होती थी उनकी.

सुमन को ध्यान में रखकर उसके बी.ए. करने के दौरान ही पीके यूनियन से संबद्ध हो गया था.उसने आगे की पढ़ाई को, “मेरे वश में नहीं आगे पढ़ना” कहकर तिलाजंलि दे दी थी. हर दिन शाम वह यूनियन कार्यालय में बैने लगा था. पीके ने बताया.

पत्नी सुमन के बी.लिब करते ही एस.पी.ए. का विज्ञापन निकला, जिसकी यूनियन वालों को जानकारी थी. पी.के. ने अध्यक्ष और सचिव को ही नहीं अपने लाइब्रेरियन और डिप्टी लाइब्रेरियन को पत्नी की नियुक्ति के लिए कहा और सुमन जूनियर अटेण्डेण्ट से सीधे सेमी प्रोफेशनल असिस्टेण्ट बन गयी थी. पीके उस समय तक सीमा से अधिक वर्षों तक जूनियर अटेण्डेण्ट रच चुका था इसलिए सीनियर बनने में योग्यता बाधा न थी. वह सीनियर अटेण्डेण्ट के पद पर पदोन्नत हो गया था.

पीके अपनी नौकरी से प्रसन्न नहीं था और जानता था कि बुढ़ापे तक ही वह सुमन के पद पर पदोन्नत हो सकेगा, लेकिन सुमन के एस.पी.ए. बनने से वह प्रसन्न था और उसे मास्टर ऑफ लाइब्रेरी साइंस करवाने के विषय में सोचने लगा था. इस बीच वह एक बेटे का पिता भी बन चुका था. सुमन के प्रोबेशन समाप्त होते ही उसने उसे मास्टर डिग्री के लिए प्रोत्साहित किया. बेटा तीन साल को हो चुका था और स्कूल जाने लगा था. सुमन ने स्टडी लीव लेकर ग्वालियर विश्वविद्यालय में मास्टर डिग्री के लिए प्रवेश ले लिया. बेटे की देखभाल के लिए पीके को परेशानी थी, लेकिन ’एक वर्ष की ही बात है’ उसने संभाला था. बेटे की स्कूल बस साढ़े सात बजे मॉरिस नगर बस स्टैंड में आ रुकती थी . बेटे को बस में चढ़ाकर वह लाइब्रेरी पहुंच जाता. बस तीन बजे के बाद दौलतराम कॉलेज स्टैंड पर बेटे को छोड़ती थी. तीन बजे से दस मिनट पहले ही वह ऑफिस से निकल लिया करता था. पांच मिनट का रास्ता भी नहीं था लाइब्रेरी से स्टैंड तक का.

एक वर्ष कब और कैसे बीता उसे पता नहीं चला. ग्वालियर से लौटने के एक वर्ष के अंदर पीके दूसरे बेटे का पिता बन गया. छोटे बेटे के स्कूल जाना प्रारंभ करने तक सुमन पी.ए. बन गयी थी और इस बार भी विज्ञापन के माध्यम से ही उसने नियुक्ति पायी थी. उसके पीए का मतलब साहायक पुस्तकालयाक्ष. लाइब्रेरी में पीके अपना रुतबा बढ़ा मानने लगा था. प्रमोशन के बाद सुमन का स्थानांतरण फिजिक्स लाइब्रेरी में हो गया, जबकि पीके सेण्ट्रल पुस्तकालय में ही बना रहा. पीके ने अपना समय वही रखा, जबकि सुमन का समय सुबह दस बजे से शाम छः बजे तक था. घर सुव्यवस्थित रूप से चल रहा था और पीके सोच रहा था कि अफसर बनने के बाद भी उसके प्रति सुमन के मन में उतना ही प्रेम था जितना तब था जब वह विवाह होकर आयी थी. वह सुमन से चुहल करके उसके मन के भाव जानने की कोशिश करता, लेकिन पहले की अपेक्षा अब सुमन कम बोलने लगी थी. इसे वह अफसर होने की स्वाभाविक प्रक्रिया मान रहा था, उसकी चुहल पर या तो सुमन दूसरे कमरे में चली जाती या “आप भी क्या हर समय छिछोरी बाते करते रहते हैं.”

“सुमन---मेरी---“ पीके आगे बढ़ता सुमन को आलिंगनबद्ध करने के लिए ---उसे चूमने के लिए लेकिन सुमन उसकी छाती पर हाथ रखकर उसे दूर करती कहती, “ठीक है---हो गया. बच्चे बड़े हो रहे हैं प्रेम जी.”

“तो?”

सुमन कुछ देर चुप रहती फिर कहती, “जमाने से कह रही हूं कि सिर पर इतना तेल न थोपा करें,लेकिन----.”

“यह तेल ही है जिसके कारण मेरे बाल झड़ने नहीं शुरू हुए---.”

सुमन को पीके के चेहरे पर चेचक के दाग अब और अधिक गहरे दिखाई देने लगे थे और वह सोचने लगी थी कि बढ़ती उम्र में उन दागों के कारण प्रेम का सांवलापन और अधिक गहरा हो गया था. उसे अब पीके के ढीले-ढाले कपड़े भी बुरे लगने लगे थे. एक दिन उसने टोक ही दिया, “इन सिलबिले पैंटों से निज़ात लो प्रेम जी. बच्चों पर बुरा असर पड़ेगा. मुझे उन्हें आपकी तरह अटेण्डेण्ट नहीं बनाना----बड़े होकर ये क्या सोचेंगे.?”

“क्या सोचेंगे?”

“सोचेंगे तो मैंने अपनी ओर से कहा---वे सोचने लगे हैं. बड़े ने कल कहा कि पापा को कपड़े पहने की भी तमीज नहीं. सिलबिले कपड़े पहनकर पिछली पेरेण्ट्स मीटिंग में पहुंच गए थे. मेरे दोस्तों को पता चला तो वे आज भी मेरी खिल्ली उड़ाते हैं.”

“ओह! तुम्हें जाना चाहिए था मीटिंग में”

“आपको मालूम है कि उस शनिवार लाइब्रेरियन ने सभी असिस्टेण्ट लाइब्रेरियन्स की मीटिंग बुला रखी थी---वर्ना आज तक मैं ही तो जाती रही हूं और सही कहूं----“ सुमन ने पीके के चेहरे पर नज़रें गड़ा दी थीं, “केवल इसलिए आपको कभी नहीं जाने दिया कि बच्चों पर बुरा असर पड़ेगा. आपको एक शब्द अंग्रेजी बोलनी नहीं आती. आप बच्चों की टीचर से बात क्या करते और उससे भी बड़ी बात यह कि आप इसी वेश-भूषा में जा पहुंचते वहां और -----आखिर गए ही पिछली मीटिंग में---किसी बच्चे ने बड़े से कहा कि तेरे पापा क्या रिक्शा चलाते हैं!”

“रिक्शा चालक क्या इंसान नहीं होते?”

“किसने कहा कि नहीं होते, लेकिन उनके बच्चे कान्वेण्ट में नहीं पढ़ते----.”

चुप रह गया था पी.के.

यह शुरूआत थी. लेकिन सुमन पीके को जैसा बनाना चाहती थी वह बनने को तैयार नहीं था और घर में लड़ाई होने लगी थी. एक दिन तो सुमन ने यहां तक कह दिया कि उसने उसे कभी नहीं चाहा. यह मजबूरी की शादी थी. पिता की आर्थिक विवशता के साथ समझौता था---“तुम मेरे पैरों की धोवन भी नहीं---.” सुनकर अवाक था पीके. सोचता रहा था कि क्या नहीं किया उसने सुमन के लिए. हाई स्कूल से लेकर उसे मास्टर की पढ़ाई तक----और आज अफसर बनते ही----.

निराशा के गर्त में डूब गया था पीके. पन्द्रह दिनों तक घर में तनाव की स्थिति रही थी. दोनों जब लड़े बच्चे स्कूल गए हुए थे. बच्चों को अहसास नहीं होने दिया था पीके ने और न ही सुमन ने लेकिन बच्चे बड़े हो रहे थे और समझ चुके थे कि मां-पिता के बीच तनाव रहने लगा था और उस बार कुछ अधिक था. बड़े बेटे ने तो एक दिन मां से कह ही दिया, “मम्मी रोज रोज लड़ने से अच्छा होगा कि आप पापा से अलग हो लें. हम दोनों आपके साथ रहेंगे. मुझे भी पापा की आदतें पसंद नहीं---खासकर उनका रहन-सहन और उनके गंदे दांत और बालों में चुपड़ा घना तेल. उबकाई आती है मम्मी---आप इतने दिनों रहीं कैसे उनके साथ. मैंने छोटे से भी बात की थी और वह भी अलग रहने को तैयार है.”

’बच्चे ऎसा सोचते हैं’ बेटे की बात सुनकर सोचने लगी थी सुमन. ’उसे अब अलग ही व्यवस्था करनी होगी. क्लास फोर्थ की नौकरी करने वाले व्यक्ति की सोच और रहन-सहन को नहीं बदला जा सकता.’

सुमन और पीके के बीच तनाव बरकरार था कि तभी सुमन बीमार पड़ गयी. उसने पीके को नहीं बताया कि उसे तेज बुखार था, लेकिन पीके समझ गया और उसने स्वयं संवाद शुरू करते हुए उसकी तीमारदारी शुरू कर दी. लेकिन ज्वर जाने का नाम नहीं ले रहा था. कमलानगर के डाक्टर तनेजा को दिखाया. टेस्ट करवाए और पता चला कि उसे जाइण्डिस था. डाक्टर तनेजा का इलाज होने लगा. पीके स्वयं सुमन को डाक्टर के पास लेकर जाता, डाक्टर के कहे अनुसार उसके भोजन की व्यवस्था करता, बच्चों की देखभाल करता. लगभग दस दिनों तक सुमन बिस्तर पर रही. उतने दिनों पीके ने अवकाश लिया, लेकिन जैसे ही वह चलने-फिरने योग्य हुई वह उसकी और बच्चों की व्यवस्था कर लाइब्रेरी जाने लगा था. सुमन रिक्शा लेकर स्वयं डाक्टर तनेजा के पास जाने लगी थी और कुछ दिनों बाद क्लीनिक बंद करके तनेजा स्वयं उसे देखने आने लगा था, हालांकि सुमन पूर्ण स्वस्थ थी. केवल कमजोरी थी और दवा के रूप में लिव फिफ्टी टू ही लेनी थी---कुछ परहेज थे.

डाक्टर तनेजा प्रायः बारह बजे से एक बजे के बीच या सुबह दस बजे आता. वह सुमन से चार वर्ष छोटा था. स्मार्ट, पांच फुट दस इंच लंबा, गोरा, गोल चेहरे पर काली दाढ़ी ---कुल मिलाकर सुन्दर व्यक्तित्व था उसका. उसने अभी तक विवाह नहीं किया था. मेडिकल कॉलेज में एक सहपाठी से उसे प्रेम हुआ था, लेकिन लड़की के घर वाले जाति को लेकर कट्टर थे--- लेकिन उससे बड़ा कारण उन लोगों के लिए यह था, जैसा कि तनेजा ने समझा था कि लड़की धनाड्य परिवार से थी जबकि तनेजा एक सामान्य परिवार से ---उसके बाद तनेजा का मन उखड़ गया था. लेकिन जब वह सुमन से मिला ---- उसके प्रति तेजी से आकर्षित हुआ था और सुमन भी तनेजा को पसंद कर रही थी.

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