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बहीखाता - 43

बहीखाता

आत्मकथा : देविन्दर कौर

अनुवाद : सुभाष नीरव

43

हमदर्दी

एक दिन दिल्ली से किसी वकील की चिट्ठी आई। यह चिट्ठी चंदन साहब की ओर से भिजवाई गई थी। लिखा था कि मैं दिल्ली वाले फ्लैट से दूर रहूँ। यदि इस पर किसी तरह का कब्ज़ा करने की कोशिश की तो इसके नतीज़े बुरे होंगे। ज़ाहिर था कि चंदन साहब फ्लैट हड़पना चाहते थे। मैं बहुत कुछ कर भी नहीं सकती थी। फ्लैट तो उनके नाम पर ही था जो उन्होंने पहले ही मेरी बीमारी के दिनों में अपने नाम करवा लिया था। मुझे पता चला कि जब चंदन साहब ने उस फ्लैट के ताले तोड़कर उस पर कब्ज़ा किया तो डाक्टर जगबीर भी साथ ही थे। एकबार तो मुझे बहुत दुख हुआ। एक तो वह हम दोनों के लिए बराबर थे और दूसरे हमारे रिश्तेदार भी थे। मेरे लिए मेरे हक़ में बेशक न खड़े होते, पर इस प्रकार मेरे साथ होने वाली जबरदस्ती में भी शामिल न होते। फिर मैं सोचने गी कि शायद उनकी भी कोई मजबूरी रही होगी। मैं भारत तो हर वर्ष जाती ही थी। जब भी डाॅक्टर जगबीर सिंह मिलते थे तो बहुत प्यार से मिलते। मैंने कभी भी किसी बात का जिक्र उनसे नहीं किया। कभी कभी कोई दोस्त गुस्से में यह बात कर भी देता तो मैं ध्यान न देती।

एक दिन अमनदीप का फोन आया कि वे मुझसे मिलने आ रहे हैं। मैं विस्मित थी कि वे क्यों आ रहे थे। पहली हैरानी तो मुझे यही थी कि मेरा फोन नंबर उन्होंने कहाँ से ले लिया। दूसरी बात यह कि उन्होंने अब मेरे से क्या लेना था। अमनदीप का यद्यपि अपने पिता के साथ हर समय झगड़ा चलता ही रहता था, पर वे फिर भी एक हो जाते थे। चंदन साहब को भी शायद पोते का मोह खींचता होगा। उनके मुँह से मैंने कभी भी अमनदीप के बारे में अच्छे शब्द नहीं सुने थे। जो भी था, वे पिता-पुत्र थे। शायद चंदन साहब ही उसे भेजना चाहते हों किसी भेद को जानने के लिए। जो भी था, पर मैं खुश थी कि वे आ रहे थे। वैसे भी, मुझे सिम्मी बहुत पसंद थी। अनीश के साथ तो मुझे बहुत ही अधिक मोह था। जब छोटा -सा था, तब मेरे हाथ में ही खेला था। मैं उनकी प्रतीक्षा करने लगी।

सप्ताहांत पर वे आ गए। अनीश अब थोड़ा थोड़ा चलने लग पड़ा था। थोड़ा बहुत बोलता भी था। उसकी मोटी मोटी आँखें बिल्कुल चंदन साहब जैसी थीं। हम हँसने लगे कि यह तो निरा स्वर्ण चंदन ही है। मैं मन में सोचती कि बस, स्वभाव वैसा न हो। वे कई घंटे मेरे पास रहे। मैं अनीश के साथ खूब खेली। वे दोनों चंदन साहब के खिलाफ़ बोल रहे थे। चंदन साहब ने अलका के नाम पर वसीयत करा दी थी, इस बात पर वे नाराज़ हुए पड़े थे। दिल्ली वाले फ्लैट पर चंदन साहब के कब्ज़े वाली बात चली तो अमनदीप ने बताया कि चंदन साहब तो वुल्वरहैंप्टन वाला घर भी बेच रहे हैं। घर बेचकर किसी दूसरी तरफ पैसे लगाने की योजनाएँ भी बनने लगी थीं। मेरे हाथ-पैर फूल गए। मेरा दिल्ली वाला फ्लैट भी गया और इस घर में से भी मुझे कुछ नहीं मिलने वाला। वे तो मिलकर वापस लौट गए, पर मैं तड़पने लगी। चंदन साहब तो सच में ही मुझे मक्खन के बाल की तरह निकालकर फंेकने वाले थे। वह इतनी दूर तक जाएँगे, यह मैंने कभी सोचा भी न था, पर उन्होंने ऐसा करके साबित कर दिया था।

संयोग से उसी शाम मुश्ताक का फोन आ गया। शायद उसको भी इस बात का पता चल गया था। वह मुझे समझाने लगा कि मैं क्या कर ही हूँ, चंदन मुझे सड़क पर लाने की योजनाएँ बना रहा था और मैं वाकई दूध पीकर सोई पड़ी थी। उसका कहना था कि इस देश में अनपढ़ स्त्रियों को भी अपने हक़ों की जानकारी थी और मैं तो पढ़ी लिखी होकर भी कुछ नहीं कर रही थी। उसकी सारी बात सुनकर मैंने उसी वक्त फैसला कर लिया कि हर्गिज ऐसा नहीं होने दूँगी। उनके किसी भी मंसूबे को कामयाब नहीं होने दूँगी। अपना हिस्सा लेकर रहूँगी। मैं अपने वकील शर्मा के पास गई और उनके द्वारा घर बेचने पर रोक लगवा आई। दिल्ली वाला फ्लैट बेचने पर भी नोटिस भिजवा दिया। मैं जानती थी कि यह ख़बर मिलते ही वह तडप उठेंगे। अपनी तकलीफ़ उनको बहुत बड़ी दिखती थी और किसी दूसरे की तकलीफ़ को वह मजाक की तरह लेते थे। एक शाम उनका फोन आया था, पर मैंने काट दिया था। जब ज्यादा ही शराब पी लेते तो मुझे फोन करने लगते। कई बार तंग भी करते, पर मैं फोन काट दिया करती थी। उनके साथ बात करने का कोई लाभ नहीं था। मेरी सारी आजमाइशें झूठी हो चुकी थीं। चंदन साहब ने रिश्ते तोड़ने के लिए हर हद पार कर ली थी और मेरा उन पर से विश्वास बिल्कुल खत्म हो चुका था। इस बात का मुझे अफसोस अवश्य था, पर मेरा फैसला अटल था।

अब मैं अपने फ्लैट में रहती थी। मेरी ज़िन्दगी बहुत सुखी थी। एक ही पश्चाताप था कि मैं अपनी माँ को नहीं बुला सकती थी। एक तो वह अब बहुत वृद्ध हो गई थी और दूसरे एकबार इस देश में स्थायी तौर पर रहने की कोशिश कर चुकी होने के कारण उसको अब वीज़ा नहीं मिलने वाला था। वैसे मैं उसको जाकर मिल आया करती थी। मेरी बाकी बीमारियाँ तो सब ठीक हो गई थीं, पर ऑर्थराइटिस रहने लगा था। मैं अतीत में झांकती तो देखती और मुझे पता चलता कि जब भी मैं चंदन साहब के साथ रहने लगती थी तो डिपै्रशन का शिकार हो जाती थी, पर उसने अलग होकर डिपै्रशन की मेरी सारी दवाइयाँ छूट जाती। एक दिन बैग साफ़ करते हुए मुझे डिप्रैशन की गोलिया मिल गई जो मैं कभी खाया करती थी। मैंने उन्हें डस्टबिन में फेंकते हुए कहा कि अब नहीं चाहिएँ मुझे ये चंदन गोलियाँ।

प्रगतिशील लेखक सभा की बहुत सारी बैठकें मेरे फ्लैट में होने लगी थीं। बहुत सारे लेखक भी आते-जाते थे। लंदन से भी मेरे पास रहने आ जाते। अब मैं मित्रता के आसमान में खुली उड़ाने भरती थी। ऐसी उड़ाने जो एक कै़दी मन नहीं भर सकता। अमनदीप दुबारा कभी मिलने नहीं आया और न ही उसका फोन आया था। इतना मुझे पता चल गया था कि अमनदीप के मुझसे मिलने की ख़बर चंदन साहब को हो गई थी और उन्हें यह भी मालूम हो गया था कि घर को सेल पर लगाने वाली बात भी उसी ने मुझे बताई थी। मुझे यकीन था कि चंदन साहब ने जी भरकर उसको गालियाँ दी होंगी। गालियों से डर कर ही अमनदीप ने मुझे कभी दुबारा फोन नहीं किया होगा। जब कभी भी मैं छोटे-से बच्चे को देखती तो मुझे अनीश की याद आ जाती। वैसे मैंने उसकी कुछ तस्वीरें अपने फ्लैट में रखी हुई थीं जिसमें एक वह तस्वीर थी जब वह सिर्फ़ दो ही दिन का था।

चंदन साहब मुझे साहित्यिक समारोहों में दिखते रहते थे, पर कभी कोई बात नहीं होती थी। बस, दूर से नज़रें-सी मिलती थीं। किसी समारोह में वह परचा पढ़ते तो मैं उनके परचे पर बोलती और किसी समारोह में मैं परचा पढ़ती तो वह भी बोलते, पर कभी कोई बदमग़जी न होती। सब ठीक रहता। एक समारोह में मैंने देखा कि चंदन साहब बहुत बूढ़े बूढ़े लग रहे थे। मैंने एक साझे दोस्त से पूछा -

“यह चंदन साहब को क्या हो गया ?”

“बाल रंगने छोड़ दिए, बस।”

उस दोस्त ने कहा। मैं सोच रही थी कि इससे भी भद्दी कोई बात होगी। मैंने दुबारा कहा-

“बाल न रंगने से किसी का चेहरा यूँ नहीं उतरा करता।”

मेरे कहने पर उसने इधर-उधर देखा और कहा -

“असल में जो इनकी मुम्बई वाली सहेली थी रीमा, यह उसको महबूबा समझते रहे, पर वह थी पूरी वेश्या। आखिर, इन्हें कई लाख रुपये का रगड़ा लगा गई। वही रगड़ा इनके चेहरे पर बैठा है।”

(जारी…)