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कहानी किससे ये कहें! - 3

कहानी किससे ये कहें!

  • नीला प्रसाद
  • (3)
  • ‘क्यों किया तुमने यह सब?’ आधी रात के अँधेरे में, जो सिर्फ नाइटलैंप की रोशनी से बाधित था, निरंजन ने पूछा। उमा चुप रहीं।

    ‘बोलो, क्यों किया तुमने यह सब?’

    प्रश्न दुहराया गया तो उमा को बोलना पड़ा।

    ’आप भी यह कहना चाहते हैं कि मैंने कुछ किया? मानते हैं कि कुछ हो चुका है?’

    ‘मुझे जिरह में मत फँसाओ। मैं तुमसे तर्क करना नहीं चाहता इसीलिए तुमने सारी आज़ादी ले रखी है। क्या नहीं दिया मैंने तुम्हें, क्या नहीं किया तुम्हारे लिए!! तुम अपनी जिद से यहाँ नौकरी करने आईं और एक पुरुष देह उपलब्ध होते ही बिछ गई। यही हैं तुम्हारे संस्कार, तुम्हारे आदर्श! तुम्हें घर या मेरी प्रतिष्ठा का खयाल तक नहीं आया, बच्चों का लिहाज भी नहीं रहा..?? कल को बच्चे क्या सोचेंगे?’

    उमा क्रोध और विवशता में जलकर हौले से बोलीं-

    ‘आपने इतने वर्षों में मुझे इतना ही पहचाना है?’

    ‘खेद है कि नहीं पहचान सका... कभी सोच तक नहीं पाया कि तुम इतना गिर जाओगी।’

    ‘इन बहसों का कोई अंत नहीं है निरंजन! आप कुछ सुनना चाहते नहीं, मैं आपके साथ वापस जाना चाहती नहीं। अब मुझे आपके सहारे के बिना ही जीना-लड़ना सीखना होगा। मैं अफवाहों से डरकर नौकरी नहीं छोड़ूँगी।’ उमा जिद पर उतर आईं।

    ‘पर लम्बी छुट्टी तो ले ही सकती हो’, निरंजन ने कहा।

    ‘नहीं’, उमा ने जलकर कहा।

    ‘मेरी खातिर?’

    ‘नहीं’

    निरंजन अगली सुबह ही वापस चले गए।

    *

    ऑफिस अपनी गति से चलता रहा। वही-वही फाइलें, पार्टियाँ, मीटिंगें, बहसें और अफवाहें। अय्यर जब-तब उन्हें बुलाते, अब पहले की अपेक्षा ज्यादा महत्वपूर्ण फाइलें उन्हें थमाते, डिस्कशन करते, उनकी बात कभी-कभी मान भी लेते...और लंबे डिस्कशन्स के दौरान चाय, कॉफी के साथ खाने के पैकेट भी आ जाते। ये सारे ऑफिशल डिस्कशन थे, मिसेज़ चन्द्र की उपस्थिति उस कमरे में अय्यर की जूनियर ऑफिसर होने के नाते जब-तब दर्ज होती रहती थी और उन्हें लगता था कि इन सबमें आपत्तिजनक क्या था? कुछ भी तो नहीं! उन्हें भरोसा था कि धीरे-धीरे लोग वस्तुस्थिति समझने लगेंगे, अफवाहें कम होती जाएँगी। निरंजन बीच-बीच में आने लगेंगे तो सब कुछ सामान्य होता जाएगा। हकीकत यह थी कि जितना अधिक महत्व अय्यर उन्हें देते, उतनी ज्यादा खुशी उनके मन में पनपती, उतना ही अधिक अफवाहों का बाजार गर्म होता जाता। यहाँ तक कि वे धीरे-धीरे दुविधाग्रस्त होने लगीं कि जो कुछ हो रहा है, ठीक हो रहा है या नहीं? कहीं उनके अपने व्यवहार में ही तो कोई खोट नहीं कि वे एक संभ्रांत, शिष्ट, गंभीर, जिम्मेदार, शालीन ऑफिसर की छवि नहीं बना पा रहीं? वे कुछ दिनों तक कोशिश करतीं कि अय्यर साहब के कमरे में नहीं जाना पड़े। फोन से बातें कर लेतीं या बिना डिस्कशन अपनी ओपिनियन देकर फाइल बढ़ा देतीं। बिना डिस्कशन वाली फाइलों में अय्यर साहब सख्ती बरतते हुए ज्यादातर उनकी राय की धज्जियाँ उड़ाते निर्णय देते। ऑफिस में कुलीग्स और जूनियर्स को हँसने का मौका मिल जाता। वे और परेशान हो जातीं।

    तभी उस ऊहापोह की स्थिति को झटका देता, इन सब पर विराम लगाता अय्यर साहब का प्रमोशन और ट्रांसफर ऑर्डर आ गया। उन्हें हेडक्वार्टर भेजा जा रहा था। उमा कुछ समझ पातीं, उसके पहले ही विदाई समारोह संपन्न हो चुका था। जिस दिन अय्यर साहब चले गए, उस रात अपने सारे काम निबटा और बच्चों को सुलाकर जब उमा बिस्तर पर लेटीं, अचानक उन्हें अकेलापन लीलने लगा। निरंजन की बेतरह याद आने लगी। उन्हें विचित्र लगा कि अभी कुछ घंटे पहले ही तो अय्यर को विदाई देते उनके दिल में कसक उठ रही थी और बार- बार नकारने पर भी दिल में लगाव की लहरें उठती महसूस हो रही थीं, अब अचानक उनके बदले पति की याद इतनी शिद्दत से कैसे आने लगी? क्या अय्यर द्वारा दिल में खाली की गई जगह भरने की कोशिश में? क्या पति की हैसियत उनके दिल में इतनी ही रह गई है? उन्हें खुद पर बहुत शर्म आई। यह भी लगा कि उन्होंने निरंजन के प्रति स्पष्ट तौर पर ज्यादतियाँ की हैं और इसमें कहीं उनका भी दोष है कि इन दिनों निरंजन विरले ही यहाँ आते हैं। जब भी आते हैं, सुबह आकर बच्चों से मिलकर शाम को निकल जाते हैं। लगने लगा कि वे निरंजन को रोक सकती थीं, उन्हें समझा सकती थीं, उनके आहत अहम् को सहला सकती थीं। आखिर निरंजन ने अपनी तरफ से उनका दिल कम ही दुखाया है। जब शादी हुई तो एक लंबा, खूबसूरत, शालीन, सुसंस्कृत, कुलीन परिवार का गोरा पति पाने पर सबों ने बधाई दी- खासकर इसीलिए कि वे खुद कुलीन परिवार की होती हुई भी, पति से कम पढ़ी-लिखी, साँवली, देखने में साधारण लड़की थीं। शादी के बाद निरंजन के विरोध के बावजूद सास-ससुर ने पढ़ाई जारी रखने का आदेश दिया, तो आखिरकार निरंजन को भी हामी भरनी पड़ी। पढ़ाई पूरी करके नौकरी शुरु कर देने पर तो कइयों को उनसे ईर्ष्या हुई। कई सहेलियों को लगने लगा कि उमा किसी स्वर्ग की साम्राज्ञी बन गई हैं। पर अंदर का सच यह था कि उमा के नौकरी में आने तक निरंजन और उमा दोनों को लगने लगा था कि वे साथ नहीं रह सकते- पर उन्हें एक- दूसरे से अलग रहना भी मंजूर नहीं। यह सही था कि उमा, निरंजन की मनोनुकूल पत्नी सिद्ध नहीं हो पा रही थीं पर तब भी वे उमा का ससम्मान जीने का हक समाप्त करना नहीं चाहते थे। वे नहीं चाहते थे कि उमा परित्यक्ता की लांछना के साथ जिएँ...और बच्चे? सवाल उनका भी तो था। तभी शायद निरंजन ने बीच की राह ही सही समझी कि उमा अपने पाँवों खड़ी हों, अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाएँ। न चौबीसों घंटे पति के सिर लदी रहें, न पति पर निर्भर जीवन जिएँ। निरंजन खुलकर साँसें लेते, बिना अपराध बोध अपने तरीके से जी पाएँ, तो उमा भी। इसमें सामाजिकता का निर्वाह हो जाता था और घुटन झेलनी भी नहीं पड़ती थी। उमा इतने धनी, सम्मानित परिवार की बेटी और बहू होते हुए रिसेप्शनिस्ट जैसी छोटी नौकरी से अपना करियर शुरु करें यह निरंजन को नहीं रुचा था, पर उन्होंने ज्यादा विरोध नहीं किया। झगड़े, बहसें, शब्दों की उठापटक निरंजन की दुनिया में कम ही आते थे। निरंजन की माँ भी निहायत ही सीधी, सरल, मीठे स्वभाव की महिला थीं। भाई-बहन विहीन इकलौते निरंजन को उस जमाने में कॉलेज में पढ़ते जो इक्का-दुक्का सहपाठिनें मिलीं, उनसे ज्यादा मेलजोल से वे बचते रहे। शादी के बाद उमा से उनका परिचय किताबों की सपनीली दुनिया में जीने वाले किसी भावुक पुरुष का, हमउम्र नारी जाति के यथार्थ से पहले परिचय की तरह था। उमा अच्छी लड़की थीं पर प्रवृत्ति और प्रकृति दोनों में निरंजन के अनुकूल नहीं थीं। पत्नी पर शासन करने, ज्यादतियाँ करने या अपने अनुकूल ढाल लेने की कोशिश करने की बात कभी निरंजन के मन में उपजी तक नहीं। अगर उमा अंत तक पढ़ी- लिखी, कोमल स्वभाव, कलाकार प्रकृति की, साहित्यिक किताबों में रमनेवाली लड़की होतीं तब भी क्या ऐसे पति का मानसिक, भावनात्मक साथ निभा सकती थीं, जिसे खुद पता न हो कि उसे चाहिए क्या? ऐसी नहीं तो आखिर कैसी पत्नी चाहिए? पर विवाह में सौभाग्यशाली सिद्ध नहीं हुए तो भाग्य से शिकायत करने, बैर मोल लेने के बदले मैट्रिक में पढ़ रही, औसत नाक- नक्श की साँवली पत्नी को दिल में जगह देने की बजाय निरंजन ने अपने घर में पूरे मन से जगह दे दी, और अपना दिल अपने काम, किताबों और संगीत से भरते रहे। उमा अति स्वाभिमानी और महत्वाकांक्षी स्वभाव की थीं। मिठबोली थीं, औसत इंटेलिजेंट भी और सास की दुलारी तो खैर थीं ही। एम.ए. तक आते- आते इतना समझ चुकी थीं कि वे पति के मनोनुकूल नहीं। इस नाते उनकी नौकरी करने की इच्छा और प्रबल हो उठी थी।

    उस रात उमा ने जब लेटे- लेटे अतीत पर पुनर्विचार किया तो लगा कि निरंजन को समझने में उनसे निश्चित तौर पर भूल हुई है। भावुकतावश उन्होंने पति को एक पत्र लिख मारा जो उनके वैवाहिक जीवन में पति को लिखा पहला पत्र था। पत्र पाकर निरंजन आए और अतिव्यस्तता के बावजूद तीन दिनों तक टिक गए। कठोर, अभिमानिनी, चुनौती देने वाली उमा उनके लिए कभी परेशानी का सबब नहीं रहीं- वे उनपर ध्यान ही नहीं देते थे; पर पिघली हुई, कमजोर, अकेलापन महसूस कर रही उमा को वे अकेली कैसे छोड़ते! अब सप्ताहांतों में भी वे अक्सर आ जाने लगे। ऑफिस में काम की अधिकता से जूझ रही उमा खुश हो जातीं। बिना किसी कवच में लिपटी उमा की खुशी और बच्चों का साथ निरंजन को भी खुश कर देता। कॉलोनी और ऑफिस में लोग चर्चा करने लगे कि निरंजन पत्नी पर नजर रखे हुए हैं कि अय्यर साहब के बाद अब कोई और उन्हें फाँस न ले।

    अय्यर को गए चारेक महीने बीत चुके थे। निरंजन- उमा के दाम्पत्य जीवन की कटुता कुछ–कुछ गलने लगी थी कि एक विषबुझा तीर नियति ने उनपर फिर से छोड़ दिया। अय्यर चूँकि हेडक्वार्टर में जेनरल मैनेजर थे, फील्ड में काम कर रहे कर्मचारियों के ट्रांसफर ऑर्डर निकालना उनके अधिकार क्षेत्र में था। उन्होंने कई कर्मचारियों के ट्रांसफर ऑर्डर तत्काल प्रभाव से लागू करके निकाल दिए, जिनमें से एक मिसेज़ चन्द्र भी थीं। उन्हें तुरंत पदभार ग्रहण करने का आदेश मिला था। निरंजन और उमा दोनों विचलित हो गए- बावजूद इस तथ्य के कि उमा हेडक्वार्टर चली गईं तो निरंजन अपनी कार से उमा और बच्चों तक मात्र डेढ़ घंटे में पहुँच जा सकेंगे। उमा के मन में क्षण भर को यह विचार भी आया कि अय्यर साहब के साथ अफवाहों के चक्रवातों में फँसने की बजाय क्यों न वे नौकरी छोड़ ही दें! आखिर निरंजन से रिश्ते सुधर रहे थे और अतिरिक्त पैसों की कोई जरूरत थी नहीं। पर इस विचार को उन्होंने तत्काल कुचल दिया। अभी उनकी नौकरी के बीस साल बचे थे, अगला प्रमोशन होने ही वाला था, जबकि अय्यर साहब अगले आठ वर्षों के बाद रिटायर होकर घर चले जाने वाले थे। निरंजन ने जब तक उनका फैसला पूछा, वे स्पष्ट निर्णय ले चुकी थीं। उमा के मुँह से ’जाना तो होगा ही‘, सुनकर सामान बाँधे जाने लगे, यात्रा की तैयारी शुरु हो गई। ‘अब शालिनी और मनस्वी की पढ़ाई अच्छे स्कूलों में हो सकेगी’- बच्चों का हवाला देते हुए उमा बोलीं, तो निरंजन खामोश रहे। उन सबों को शहर पहुँचाकर, जहाँ उमा के लिए पहले से कॉलोनी में फ्लैट एलॉटेड था, वे लौट गए। ट्रांजिट लीव समाप्त करके उमा ने ज्वायनिंग रिपोर्ट अय्यर के सेक्रेटरी को दे दी। सेक्रेटरी उनका ज्वायनिंग लेटर लेकर जैसे ही अंदर गया, पल भर में उमा की बुलाहट हो गई। अय्यर प्रसन्न मुद्रा में विशालकाय कुर्सी पर विराजमान थे। मिसेज चन्द्र को सामने पाकर वे हँसे और अंग्रेजी में बोले–

    ‘मिसेज चन्द्र, मैंने आपको फील्ड के गर्द-गुबार से निजात दिलवा दी। गर्द-गुबार का मतलब आप समझ गईं न! प्रतीकों में बात तो समझती ही होंगी। अब यहाँ स्वच्छ हवा में स्वतंत्रता से साँसें लीजिए और मज़े से काम कीजिए। मेरी टेकनिकल सेक्रेटरी बनने में आपको आपत्ति तो नहीं? वैसे तो टी.एस. आपसे तीन रैंक ऊपर के ऑफिसर्स हुआ करते हैं पर एक जूनियर लेवेल की दक्ष लेडी ऑफिसर की सेवाएँ परखने में हर्ज ही क्या है! हम साथ काम कर चुके हैं और यहाँ मुझे एक विश्वस्त ऑफिसर की सख्त जरूरत है, जिसके बारे में मुझे भरोसा हो कि वह और चाहे जो करे, मेरे साथ पॉलिटिक्स नहीं करेगा’ - वे ठहाका मारकर हँसे- ‘ वैसे भी फील्ड आप जैसी संभ्रातकुल महिलाओं के काम करने की जगह नहीं है। वहाँ का वातावरण और लोगों के विचार, बात-व्यवहार सब दूषित हैं। यहाँ आपको कोई परेशानी तो नहीं? फ्लैट पसंद न आए तो बतलाइएगा, मैं चेंज करवा दूँगा। और कोई परेशानी?’ उन्होंने गंभीरता से पूछा।

    उमा ने निहायत ही संजीदगी से कहा कि वे बच्चों के अडमिशन अच्छे स्कूल में करवा लें, उसके बाद ही निश्चिंतता से काम कर पाएँगी।

    ‘ओह हाँ’, अय्यर साहब ने दिमाग पर जोर डाला और घंटी बजाकर अपने पी.ए. को डायरी में नोट करवा दिया– ‘कल सुबह ग्यारह बजे दो स्कूलों के प्रिंसिपल से बात करवानी है।’ फिर वे मिसेज चन्द्र से मुखातिब हुए। ‘मैं वादा तो नहीं करता पर कोशिश जरूर करूँगा। अब आप घर जाकर आराम करें और कल सुबह ऑफिस आ जाएँ।’

    क्रमश....

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