Kahaani kisase ye kahe - 4 books and stories free download online pdf in Hindi

कहानी किससे ये कहें! - 4

कहानी किससे ये कहें!

  • नीला प्रसाद
  • (4)
  • अय्यर के चैंबर से बाहर निकलते ही उमा पल भर में फिर से झंझावातों में घिर गईं। टी.एस. बनने का मतलब था साहब के ठीक बगल के कमरे में उनके सेक्रेटेरियट में बैठना, उनके आदेशों के पालन के लिए हर वक्त उपलब्ध रहना, घर अकसर देर से लौट पाना...और फिर से अफवाहों, चर्चाओं के केन्द्र में आकर अपना दाम्पत्य जीवन बिगाड़ना! निरंजन को पति रूप में ठीक से पा सकने के पहले ही फिर से उन्हें खो देना!! वे रात भर जागती रहीं और उन दलीलों के बारे में सोचती रहीं जो टी.एस. न बनाए जाने के पक्ष में दी जा सकती थीं। वे दलील पेश करतीं और फिर अय्यर साहब के नज़रिए से उनके काट प्रस्तुत कर उन्हें धराशायी कर देतीं। इसी उधेड़बुन में रात गुजर गई। अगले दिन ऑफिस जाते ही एक कागज उनके हाथ में थमा दिया गया, जो दरअसल उनके टी.एस. बनाए जाने का ऑफिस ऑर्डर था। फोन पर बधाइयाँ मिलने लगीं, मिठाई खिलाने की जिद की जाने लगी। सवा ग्यारह बजे अय्यर साहब ने उन्हें बुलाकर सूचना दी कि अमुक- अमुक स्कूल के प्रिंसिपलों से उनकी बात हो गई है। बच्चों की औपचारिक परीक्षा के बाद अडमिशन तय-सा है.. वैसे वे चाहें तो दूसरे स्कूलों में भी प्रयत्न कर सकती हैं पर ये दोनों स्कूल शहर के सबसे अच्छे स्कूलों में से हैं, इसीलिए उनकी राय तो यही होगी कि उमा बिना समय गँवाए, बच्चों को लेकर तुरंत स्कूल चली जाएँ और अडमिशन वाली जिम्मेवारी से मुक्त हो लें। उमा को भी तब यही सही लगा कि अपने बारे में बात करने की बजाय पहले बच्चों के स्कूल में दाखिले का मामला निबटा लें। वे फौरन घर भागीं और बच्चों को साथ लेकर, बारी-बारी दोनों स्कूलों में गईं। मीठी- मीठी बातें करके अभिभावकों को टरका देने में निष्णात माने जाने वाले प्रिंसिपल उमा से बड़े तपाक से मिले और दोनों ही जगह दाखिले की बात तय-सी लगी। वैसे निरंजन ने को-एड वाले किसी तीसरे स्कूल का नाम लिया था, जहाँ दोनों बच्चे पढ़ सकते थे। उमा को जरूरी लगा कि निरंजन से बात करने के बाद ही बच्चों को इन स्कूलों में डालें। उन्होंने ससुराल फोन किया और निरंजन की अनुपस्थिति में सास को सारी बातों की जानकारी दे चुकने के बाद रात को निरंजन से बात करने की इच्छा जताई। यह सुनते ही कि उमा टी.एस. हो गई हैं, को-एड स्कूल में अडमिशन की कोशिश तक बाकी है जबकि दूसरे स्कूलों में बात तय-सी लग रही है और को-एड स्कूल में अडमिशन की कोशिश करने निरंजन को खुद आना पड़ेगा, निरंजन ने अपनी तमाम व्यस्तताओं का हवाला देते हुए फैसला सुना दिया कि अगले कुछ दिनों या शायद हफ्तों तक वे नहीं आ सकेंगे, इसीलिए उमा जो ठीक समझें, खुद ही निर्णय ले लें। उमा निरंजन का क्रोध भाँप गईं, परेशान हुईं, पर नाजुक समय में अकेली छोड़ दिए जाने का गुस्सा दबा भी नहीं पाईं। अगली सुबह उन्होंने बिना और कहीं कोशिश किए, दोनों बच्चों का दाखिला करवा दिया और सेकेंड हाफ में बिना बहस अपने छोटे-से, सजे-धजे चैंबर में टी.एस. की कुर्सी पर विराजमान हो गईं। सेक्रेटेरियट के सारे स्टाफ को चाय पर बुला कर उनसे परिचय भी कर लिया।

    यह सत्तर का दशक था और कॉलोनी में हर ऑफिसर को ऑफिस द्वारा फोन की सुविधा मुहैय्या नहीं कराई जाती थी पर टी.एस. होने के नाते उमा के फ्लैट में अगले हफ्ते ही फोन लगा दिया गया। शालिनी और मनस्वी ने खुश होकर पापा, दादा-दादी और नाना-नानी से फोन पर बातें कीं। ऑफिस में हम-उम्र लेडी ऑफिसर नहीं थीं। उमा को शहर में दो-एक पुरानी सहेलियाँ खोज निकालनी पड़ीं ताकि शामें उन्हीं सहेलियों से लंबी-लंबी बातें करते गुजारी जा सकें। फिर धीरे- धीरे कॉलोनी की महिलाओं से भी दोस्ती हो गई और उन्हें इस शहर में बहुत अच्छा लगने लगा। ऑफिस का काम ठीक-ठाक चल रहा था और उमा को लगने लगा था कि टी.एस. बनने के कारण होने वाली कठिनाइयों के बारे में उनकी आशंकाएँ निर्मूल थीं।

    दो महीने बीत जाने के बाद निरंजन आए। उमा से खिंचे-खिंचे रहे और रात को बच्चों के कमरे में सोए। अगली सुबह बच्चे बस की बजाय पापा की कार से स्कूल गए और स्कूल से वापसी में पापा के साथ बाजार जाकर ढेरों चीजें खरीद लाए। निरंजन को बच्चों के कमरे की सज्जा पसंद नहीं आई थी। वे उन दोनों के कमरे के लिए अपनी पसंद के फर्नीचर, पोस्टर, खिलौने वगैरह खरीद लाए थे। पुराना फर्नीचर पिछले बरामदे में डंप करके बच्चों का कमरा नए सिरे से सजा दिया गया। उमा शाम को ऑफिस से घर लौटीं तो घर बदला-बदला और प्यारा-सा लगा। निरंजन ने कहा कि दादा-दादी बच्चों को बहुत याद कर रहे हैं। तीन दिनों के बाद स्कूल में छुट्टियाँ शुरु हो रही हैं, इसीलिए वे बच्चों को साथ लेकर ही घर जाना चाहते हैं। संभव हो तो उमा भी कुछ दिनों की छुट्टियाँ लेकर साथ ही चलें। उमा ने छुट्टी के लिए आवेदन दे दिया जो शाम से पहले ही रिजेक्ट होकर आ गया। टी.एस. बनने के बाद पहली बार उमा को कुछ माँगने को अय्यर साहब के पास जाना पड़ा। साहब ने सारी बातें ध्यान से सुनीं और कहा–

    ‘मिसेज चन्द्र आप भूल रही हैं कि अब आप टी.एस. हैं। काम की आपकी अपनी जिम्मेदारियाँ हैं और बात-बात पर छुट्टी माँगना आपके पद की गरिमा के अनुरूप नहीं है। क्या आपको भी आम महिलाओं की तरह ऑफिस के काम की चिंता की बजाय, चालाकी का उपयोग करके अपने निजी स्वार्थ साध लेने की चिंता करना ज्यादा पसंद है? लीजिए, आपकी छुट्टी मैं स्वीकृत कर देता हूँ।’

    उमा अपमान से जल गईं पर रूठे निरंजन को मनाना ज्यादा जरूरी था। तीन दिनों के बाद पूरा परिवार फ्लैट में ताला लगाकर रवाना हो गया।

    कार में उमा निरंजन की बगल में आगे की सीट पर बैठीं। पति की बगल में बैठ कर, शहर के भीड़ भरे रास्तों से निकल, शांत पहाड़ी रास्तों के सुकून को महसूसना अच्छा लग रहा था। शालिनी और मनस्वी का उत्साह, चुलबुलापन, उनकी हँसी और पापा से किए सवालों का निरंजन द्वारा दिया जा रहा लाड़ भरा जवाब... तब शायद उमा और निरंजन दोनों को पता नहीं था कि यह सफर उन्हें किसी खुशहाली की ओर नहीं, उस मोड़ की ओर ले जा रहा है, जहाँ से उनके रास्ते फिर से अलग हो जाने वाले हैं।

    *

    उमा बहुत दिनों के बाद ससुराल आई थीं। वे हमेशा से सास की चहेती रही थीं। शालिनी और मनस्वी को भी आयाओं के साथ मिलकर एक तरह से दादी ने ही पाला था, क्योंकि उन दिनों उमा कॉलेज की रेगुलर स्टूडेंट हुआ करती थीं। पढ़ाई के साथ घर या बच्चों को ज्यादा समय दे पाना संभव ही नहीं था। उमा और बच्चों के आ जाने से घर में चहल-पहल हो गई और सबों के चेहरे पर खुशी फैल गई। फिर भी सास की हँसी, उनका ला़ड़ उमा के मन में कोई उत्साह नहीं जगा पा रहा था क्योंकि निरंजन एक ही कमरे में रहते हुए भी अजनबियों-सा बर्ताव कर रहे थे। बिस्तर के एक कोने पर आँखें मूँदकर लेटे, उमा के कमरे में आने से पहले ही या तो सो जाते, या सो जाने का सफलतापूर्वक नाटक करते। उमा दुश्चिंताओं से घिरी रातों को जागती रह जातीं। जब पाँच दिन बीत गए और निरंजन ने उनसे कोई बात नहीं की तो छठी रात निरंजन के कंधे पर हाथ रख, उन्हें जगाती हुई उमा ने हिचक के साथ पूछा-

    'आप मुझसे नाराज तो नहीं?’

    ‘नहीं तो’, निरंजन ने सपाट स्वर में कहा और करवट बदल ली। अब आगे क्या कहें, उमा समझ नहीं पाईं, इसीलिए चुप लगा गईं।

    सातवें दिन उमा सासूजी के साथ मंदिर जाने को तैयार हो रही थीं। नई साड़ी पहनकर ड्रेसिंग टेबल के सामने बैठी उमा, सिंदूर-लिपस्टिक लगा चुकने के बाद बिंदी ढूँढ रही थीं कि किसी काम से निरंजन कमरे में घुसे और सजी-धजी उमा को देखकर ठिठके खड़े हो गए। उमा सकपका गईं, बिंदी लगाने को माथे तक उठ चुका हाथ रुक गया। इस विचित्र स्थिति का भान शायद निरंजन को भी हुआ और वे बोल उठे-

    ’तुम खुश तो हो न उमा?’

    ‘आप बेहतर जानते हैं।’ उमा के अंदर आक्रोश उमड़ने लगा।

    ‘मुझे तो बस एक ही बात समझ नहीं आई कि जिस व्यक्ति के कारण तुम फील्ड में इतनी बदनाम हुई, उसी के साथ, उसी की बगल के चैंबर में, बतौर उसी की टी.एस. काम करना तुमने स्वीकार क्यों कर लिया?’

    उमा क्षण भर को चुप रहीं, पति के मनोभावों को रेशे-रेशे कर समझने का प्रयत्न करती हुईं - जो हमेशा उनकी पकड़ से परे रहे थे। फिर बोलीं-

    ’अफवाहों, बदनामियों के डर से नौकरी छोड़ दूँ, या कि अच्छी पोस्टिंग रिजेक्ट कर दूँ?’

    ‘नौकरी छोड़ भी दोगी तो भूखी नहीं मरोगी, पर करती रहना चाहो तो तुम्हारी कंपनी के ऑफिस दूसरे शहरों में भी हैं...और नौकरी बदलना चाहो तो दूसरी कंपनियों की कमी भी नहीं।’

    ‘मैं दूसरी जगह क्यों जाऊँ जब मैंने कुछ किया ही नहीं! बिना पाप किए पाप-स्वीकार करूँ? झूठी अफवाहें फैलाने वाले लोगों को ही सच्चा साबित कर दूँ?’

    ‘लोगों की बात मत करो। मैं “लोग” नहीं हूँ।’

    निरंजन उन्हें और कुछ कहने का मौका दिए बिना तेजी से कमरे से बाहर चले गए। उमा उठीं और पूजा की थाल लेकर सास के साथ मंदिर चल दीं। उसके बाद उनमें और निरंजन में, नौकरी छोड़ने या करने के बारे में और कोई बात नहीं हुई। छुट्टियाँ खत्म हुईं तो निरंजन ने अपने पिता से कहा कि वे सबों को अपनी कार से वापस छो़ड़ आएँ। दो दिन उमा के फ्लैट में साथ रहने के बाद सास-ससुर वापस लौट गए। उस रात अपने सूने कमरे के एकांत में उमा फूट-फूटकर रोईं। लगा कि कहीं कुछ गलत हो गया है, जिसपर वे उंगली नहीं रख पा रही हैं।

    ऐसे ही दिन गुजरते रहे और आखिर वह दिन आ पहुँचा, जिसने उनके जीवन की दशा और दिशा पूरी तरह बदल दी।

    *

    उस शाम ऑफिस में देर हो गई थी। रात के आठ बजे अय्यर साहब ने आदेश दिया कि वे कंपनी की कार लेकर घर चली जाएँ, पर कोई कार उपलब्ध थी कहाँ! तमाम अधिकारियों की निजी सेवा में, गाड़ियों के इंचार्ज की सेवा में, किसी बड़े सरकारी अफसर की सेवा में लगी हुई थी! इकलौती कार जो उपलब्ध थी, उसके ड्राइवर का कहीं अता-पता नहीं था। साथ के लोग सब परेशान हो उठे कि उमा घर कैसे जाएँगी। 'अब मुझे अपनी खुद की कार ले ही लेनी चाहिए'- उमा सोच रही थीं पर तत्काल तो किसी तरह घर पहुँच जाने की समस्या थी। ड्राइवर की खोज जारी थी कि वह आखिर गया कहाँ! सेक्रेटेरिएट के तमाम लोग उसकी खोज में भागे- भागे फिर रहे, यहाँ-वहाँ फोन लगा रहे थे। वे इसीलिए भी परेशान थे कि उमा को घर पहुँचवाए बिना वे खुद घर नहीं जा सकते थे। पौने नौ बजे अय्यर कमरे से निकले और उमा को अपनी सीट पर बैठी पा ठिठक गए।

    ‘क्या बात है?’ उन्होंने आदतन अंग्रेजी में पूछा।

    ‘सर, इतनी रात गए कॉलोनी की तरफ जाने को कोई थ्री व्हीलर तैयार नहीं होता और ऑफिस की कार का ड्राइवर मिल नहीं रहा, तो...’

    ‘तो? आप यहीं बैठकर रात गुजारेंगी, घर नहीं जाएँगी? बच्चों के प्रति आपकी कोई जिम्मेदारी नहीं है क्या?’

    उमा चुप रहीं। विचित्र बात थी। खुद रोका, कार की व्यवस्था हो नहीं पाई और अब ये व्यंग्य वाण!!

    ‘चलिए, मैं आपको घर तक छोड़ देता हूँ।’ वे बोले।

    उमा असमंजस में बैठी रहीं।

    ‘ होप आई ऐम नॉट स्पीकिंग फ्रेंच! मैंने कहा कि मैं आपको घर तक छोड़ देता हूँ। अब आप उठ जाइए प्लीज़.. मेरा समय बर्बाद मत कीजिए।’ अय्यर कठोरता से बोले। उमा बेमन से अपना पर्स उठाकर उनके साथ चल दीं। सेक्रेटेरिएट के पी.ए., पिअन, स्टेनो, क्लर्क वगैरह ने राहत की साँस ली और फटाफट स्कूटर स्टार्ट होने, ड्रार बंद होने तथा कमरों के लैच लॉक किए जाने की आवाजें आने लगीं।

    क्रमश...

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