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तैय्यब अली प्यार का दुश्मन

तैय्यब अली प्यार का दुश्मन

दिन का मुँह धुंआं धुआं हो रहा था। सूरज अपने कंधे पर दिन का लहू-लुहान जिस्म लिए चलता हुआ। लौटे हुए पंछी हाय-तौबा मचाए पेड़ों की शाखाओं पर लुढ़क-पुढ़क रहे थे। कस्बाई वातावरण थेाड़ा नम, सोंधा और मादक-सा हो आया था। सठियायी बूढ़ियां अपने-अपने घरों के सामने छोट-छोटे समूह बनाए बैठी थीं। बावर्चीखानों से दाल-चावल की अनूठी वाष्प और सब्जियों का छौंक उठ-उठ के आसमान में फैल रहा था। झुटपुटा थोड़ा और बढ़ आया। शाम थेाड़ी और गाढ़ी हुई। कि तभी गली के बिल्कुल पीछे वाले घर से एक खरखराता सा शोर उठा। धड़ाधड दरवाजे खुले, खिड़कियां खुलीं और ‘‘क्या हुआ‘‘ की फिराक में दुपट्टे और शॅाल संभालती औरतों ने झांकम-झांक शुरू कर दी। बच्चे भी दोड़ पड़े, और तभी गली से खालिस पटरे की निक्कर और सैंडो बनियान में सद्दन कसाई का लड़का अबरार भागता हुआ नजर आया। सबने देखा तो हल्की सी मुस्कान चेहरे पर तैर गई।

मोहल्ले वालों के लिए ये कोई अप्रत्याशित घटना नहीं थी। रोज का तमाशा था। नसीम खां साहब के वहां हंगामा बरपा। हमेशा-हमेशा की तरह आज भी अबरार नसीम खां की बेटी और अपनी महबूबा नूरा से छुप कर मिलने गया था। घर के बाकी सारे लोग कहीं शादी में शिरकत करने गए थे। नूरा बीमारी का बहाना बना के घर में ही रह गई थी। पूरी फैमिली चली तो गई मगर नसीम खां साहब कुछ छनक गए। मूड घूमा और मुह अंधेरे छापा मारा आखिर। अबरार उस वक्त नूरा की गोद में सिर रखे लेटा उसकी लम्बी चोटी से सरगोशियां कर रहा था। बाहरी दरवाजे पर भीतर से कुंडी चढ़ी थी। तभी अचानक दरवाजे पे नसीम खां साहब की पुकार सुन के दोनों के हाथों के तोते उड़ गए। अबरार छत की तरफ जाते हुए जीनों की तरफ दौड़ा और पिछवाड़े कूद गया। नूरा हवर्नक सी खड़ी देखती रह गई। तब तक नसीम खां साहब खिड़की के रास्ते घर में दाखिल हो चुके थे। नूरा ने जीने की तरफ भागतें में खुल कर गिर गई अबरार की लुंगी उठाई और पीछे घूमी तो हक से रह गई। अब्बू सामने खड़े लाल-पीले हो रहे थे। उसने झट से लुंगी दुपट्टे की तरह कांधे पे डाल ली और हकलाई-

‘‘ अ...अब्बू आ ही रही थी दरवाजा खोलने‘‘

‘‘ बकवास बंद करो, यह लुंगी कैसी?‘‘

‘‘ओह..‘‘ वह हड़बड़ाई-

‘‘ ये...ये तहमद तो आपका है अब्बू...धो के फैलाया था हवा से गिर गया।‘‘

‘‘..तो जाओ अलगनी पे डाल के आओ..‘‘

नूरा होश में आती भीतर दौड़ गई। अब्बू पलंग खींच कर आंगन में ही बैठे लानत-मलामत करते रहे। वह कमरे में गायब हो गई। जब अब्बू चलने लगे तो पुकारा। वह नामुदार हुई।

‘‘ जी अब्बू..‘‘

‘‘भीतर से कुण्डी चढ़ा लो। मैं जा रहा हूं। विदाई के बाद आउंगा। और हां, खबरदार जो दरवाजा खुला।‘‘

उधर, अबरार मिंयां सिर पे पांव रखे भागे जा रहे थे। और औरतें खींसें निपोर रही थीं। बूढ़ियां लाहौल पढ़ के मुंह फेर लेतीं। आखिर वह तीर की तरह अपने घर में घुसे। दादी मां नल के पास बैठी गोश्त धुल रही थीं। अबरार को इस हुलिए में देखा तो हाथ रूक गए-

‘‘ ऐ...हे मर्दुए...लुंगी कहां छोड़ आया?‘‘

‘‘ अभी कुछ मत पूछो, मुँह बंद रखो‘‘

‘‘ ठीक है, मगर ये चेहरे पे हवाईयां क्यूं उड़ रही हैं?‘‘

‘‘ ...ओ...फ्.फ दादी मां..‘‘ कहते हुए अबरार ने अलगनी पर फैली दादी मां की चिकन की चादर उतार कर लपेट ली। वह भिन्ना गईं-

‘‘ ये...ल्लो..धुल के फैलाई थी नापाक कर दी‘‘

‘‘ मैं धो दूंगा..‘‘कमर में चादर का सिरा खोंसते हुए वह बोला।

‘‘..खैर ये बताओ मुआमला क्या है?‘‘ उन्होंने चुटकी ली।

‘‘ नूरा के वहां गया था‘‘

‘‘...ओह, मिंयां यह बचपना छोड़ो। आए रोज यही हरकत, जान हथेली पे ले के मिलने जाते हो फिर सिर पे पांव रख कर भागते हो। मुला मोहल्ले वाले क्या थूकते होंगे। आग लगे ऐसे इश्क में और झाड़ू फिरे तुम नव जवानों की अक्ल पे।‘‘

‘‘..ये दादी मां बुड्ढा बहुत चालाक निकला। आने वाला था ईशा बाद और आ टपका मगरिब में ही। इसने जान बूझ कर ऐसा किया। जी तो चाहता है इसी मोगदे से इसे हलाल कर दूं। ‘‘

‘‘..हां, फिर तो जा कर चक्की पीसना। वह बुड्ढा बाप है बेटी का। निगरानी नहीं करेगा।....मुला जब मैं कह रही हूं कि उससे अच्छी लड़की अपनी ही बिरादरी में ढ़ूंढ़ दूंगी तो क्यूं पगलाया है उसके पीछें?‘‘

‘‘ खूब बता रही है तू दादी अम्मा। मैने मुहब्बत की है। खूबसूरती लेकर कोई चाटना है....तुम लोगों की सोंच भी बस्स...इत्ती सी है‘‘

‘‘..तो ऐसा कब तक चलेगा? कब तक ऐसे सिर पे पांव रख-रख के भागेगा?‘‘

‘‘..मजाक ना उड़ाओ दादी अम्मा‘‘

‘‘..गलत कह रही हूं क्या? अच्छा रिश्ता आते ही वह अपनी बेटी ब्याह देगा, तुम गल्ली-गल्ली छाती पीटते घूमना..‘‘

‘‘...तू इतने कड़ुवे सच क्यूं बोल रही है दादी अम्मा‘‘

‘‘..इसलिए, कि तेरी आँखें खूल जाएं‘‘

‘‘..अभी आँखें बंद रहने दे दादी अम्मा.....कुछ चीजें बंद आँखों से देखने पे बड़ी खूबसूरत दिखाई देती है..‘‘

‘‘ तो अब ये नौबत भी आ गई?‘‘

‘‘ मुझमें क्या कमी है दादी अम्मा?‘‘

‘‘ अब ये भी बताना पड़ेगा। कहां तू कसाई, कहां वह पठान‘‘

‘‘तो इसमें हमारी क्या गलती। हम यह काम तो नहीं करते अब। जब था तब था‘‘

‘‘इससे क्या होता है। कव्वा गू खाना छोड़ दे तो उसकी गिनती बगुलों में थोड़े ही होने लगेगी?‘‘

‘‘ कुछ दिल की भी एहमियत होनी चाहिए।‘

‘‘ जब मंजनूं और रांझे के दिल नहीं देखे गए....‘‘

‘‘ वो साले चूतिया थे...रांझे....मंजनूं हुं....ह‘‘

‘‘ तो तू ही अक.ल दिखा‘‘

‘‘..मैं नूरा के बगैर नहीं रह सकता...‘‘

‘‘ तो एक ही रास्ता है..‘‘

‘‘ वो क्या ?‘‘

‘‘ खुदकुशी कर ले..‘‘

‘‘ तू तो दादी अम्मा बस जी जलाने वाली ही बात बोलेगी‘‘.

‘‘ तो और कौन सा रास्ता हो सकता है। नामुमकिन को मुमकिन करने चला हे।‘‘ वह नल के पास से उठीं और बावर्चीखाने में जा कर पतीली रख आईं फिर ओसारे में आ कर उसी पलंग पर बैठ गईं। कुछ देर खामोशी और फिर वह बोला-

‘‘ मैं तो कहता हूं दादी अम्मा ये जातें, मजहब से ज्यादह खतरनाक होती हैं। मजहब तो बदला भी जा सकता है मगर जात का क्या करें। हिंदू होता तो मुसलमान हो जाता, मुसलमान होता तो हिंदू बन जाता। राम से रहीम हुआ जा सकता है, रहीम से राम हो सकता है लेकिन यहां कसाई ‘खान‘ नहीं हो सकता, ‘खान‘ ‘कसाई‘ नहीं हो सकता। अबरार,, अबरार ही रहेगा। नूरा, नूरा ही रहेगी। जात किसी माने में भी नहीं बदल सकती। बिरादरी वाले ही डंडा कर देंगे।‘‘

‘‘...छी...क्यूं जुबान खराब करता है?‘‘

‘‘..अब तुझे कौन समझाए दादी अम्मा। कबबू मोहब्बत की थी या नहीं?‘‘

‘‘ तौबा करो । तब जमाने में लड़कियां इतनी बेबही नहीं थीं न ही उनकी आँखों का पानी इतना मरा था। लड़के तक तो अपने बुजुर्गों के सामने अपने बच्चों तक को हया के मारे गोद में नहीं उठाते थे।‘‘

‘‘ अब ये बाबा आदम हौव्वा का जमाना नहीं रहा। ‘‘

इस दरम्यान दरवाजे पर कई दफा खड़-खड़ हुई लेकिन उसने दादी अम्मा से दरवाजा न खोलने का इशारा कर दिया। मालूम था, मोहल्ले वाले खास कर बूढ़ियां अब चैन से नहीं बैठने वालीं। हाल हवाल या तफरीह करने आएंगी जरूर। आखिर दादी अम्मा बावर्चीखाने में चली गईं। गोश्त की पतीली गैस पर चढ़ा दी और मसाले तैयार करने लगीं। उसने जेब से सिगरेट निकाली और सुलगा कर सीधा लेट गया। लम्बे-लम्बे कश लेता सोंचता रहा-‘‘ आखिर क्या किया जाए‘‘

............

अबरार के माँ-बाप बचपन में ही किसी हादसे में हलाक हो गए थे। तब वह सात-आठ साल का रहा होगा। दादी अम्मा बचीं। वही अब उसको सीझने-पसीझने लगीं। प्राईमरी स्कूल में उसका दाखिला करवा दिया और खुद गोश्त-मोश्त का ध्ंाधा छोड़ उसी स्कूल में आया की नौकरी करने लगीं। खाली वक्त में घर पर सिलाई करतीं। कारखाने से कपड़े ले आतीं और बच्चों के नेकर और झबला केे ढेर लगा देतीं। शाम को या दूसरे-तीसरे रोज अबरार ही वह गट्ठर ले जा कर दे आता और पैसे ले आता। एक झबले पे अठन्नी और एक निक्कर पे एक रूपया मिलता। इस तरह से उन दादी पोते का बसर हो जाता। तमाम मशक्कत के बाद भी वह बारहवीं तक ही पढ़ पाया और अब बर्तन की दुकान कर ली थी। तबसे घर के हालात थेाड़े सुधर गए थे। अब वे रोटी पे रोटी रख कर खाने लगे थे। जिंदगी में सुकून भर गया।

अबरार थोड़ा दिल-फेंक, हँसने-हँसाने वाला नवजवान और अलमस्त आदमी था। चलते-फिरते, हँसना-बोलना, सलाम-दुआ उसके मिजाज की खुसूसियत थी। आफत की मारी नूरा भी एक दिन अम्मी के साथ उसके वहां बर्तन खरीदने पहुँच गई। अपने मोहल्ले का होने के नाते मोहल्ले वाले बर्तन उसी की दुकान से खरीदते कि ‘‘ भई, अपने मोहल्ले का है। घी गिरे तो थाली में ही‘‘

नूरा की अम्मी का ये पुराना उसूल। उस दिन तवा और दश्तपनाह खरीदने गईं तो उसी की दुकान पर पहुँचीं। अबरार निहाल। लच्छेदार बातों से दोनों औरतों को बांधता रहा। बर्तनों की एक से एक किस्में पेश करता रहा। रह-रह के कनखियों से नूरा की चिकोटियां भी लेता रहा। यहां तक कि नूरा की झेलम-सी आँखों में खो-खुवा गया। निंगाहों के नुकीले तीर। नूरा सरापा घायल। क्या रूप पाया है जालिम ने। इसे तो कलक्टर होना चाहिए था। क्या-क्या पर्सनालिटी है। यहा ँकहाँ चम्मच-कटोरे लिए बैठा है। सरे आम लुट गई।

‘‘ अम्मी आप किसके वहाँ से तशरीफ लाई हैं, नहीं कुछ खास नहीं, अभी आपने कहा कि हमारे मोहल्ले से हो बस इसी लिए पूछ लिया‘‘

‘‘ कोई बात नहीं बेटा। वो नसीम खान साहब आढ़त वाले को जानते होगे तुम।‘‘

‘‘ हाँ....हाँ बिल्कुल। चचाजान से तो हमारी रोज की सलाम दुआ है।‘‘

‘‘...यह उन्हीं की बेटी है। मैं इसकी माँ हूँ‘‘

‘‘ ओह बहुत खूब। बहुत-बहुत शुक्रिया आप लोगों को कि हमें खिदमत का मौका दिया।‘‘

‘‘ कोई बात नहीं बेटे, हमें तो बर्तन चाहिए ही थे।‘‘

‘‘ आपने हमें फोन क्यू ना कर दिया, हम खुद ही खिदमत में हाजिर हो जाते।‘‘

‘‘ नहीं, तुम क्यूं ज.हमत करो बेटे।‘‘

‘‘ अरे नहीं अम्मी, ख्वाहम ख्वाह क्यूं बाजार-हाट की दौड़ लगाना औरत जात होकर। ...यह देखिए, इस रसीद पर मेरा फोन नं. दर्ज है। आगे से जब भी जरूरत महसूस करें, फोन कर दीजिएगा। हम बर्तन ले कर खुद हाजिर हो जाएंगे।‘‘

क्हते हुए अबरार ने नूरा की अम्मी को रसीद थमा दी।

‘‘शुक्रिया बेटे, शुक्रिया..‘‘ कहते हुए नूरा की अम्मी ने रसीद थामी, बर्तन समेटे और नूरा को चलने का इशारा किया।

अबरार ने थैला पहुँचाने के लिए नौकर को साथ कर दिया। नूरा ने एक गहरी निंगाह से उसे देखा और बुर्के की पट्टी गिरा ली। बस, इत्ती ही देर में दिलों के मसले तय हो चुके थे। दोनो औरतें चली तो गईं मगर अबरार की नींद उड़ा ले गईं। लगा, वह आसमान में उड़ रहा है। कभी लगे समंदरी आँखों के ताल में तैर रहा है। कभी पंख उग आते और आसमान खंगाल आता। वाह री मुहब्बत। तो क्या ऐसी होती है मुहब्बत? ऐसा होता है दिल का आ जाना। खैर।

दुकान पे नया माल आया तो लगा जैसे नया बहाना मिल गया। वह थैले में नयी बनावट के कुछ कामदार गिलास और फैंसी तश्तरियां भर कर उनके घर पहुँच गया। आवाज दी तो कुछ देर बाद दरवाजा खुला। सामने नूरा ही थी।

‘‘अस्सलामवअलैकुम...‘‘

‘‘वालै कुमस्सलाम....अम्मी को बुलाती हूँ.‘‘

‘‘ये थैला लेती जाईए‘‘

‘‘ अभी आई..‘‘

एक लम्हे के बाद भीतर से आवाज आई-

‘‘ ओ हो बैठक खोल दो आराम से बैठ जाए।‘‘

क्हती हुई अम्मी जान ने खुद बैठक का दरवाजा खोल दिया। अबरार थेाड़े तकल्लुफ से आगे बढ़ा।

‘‘ कोई बात नहीं अम्मी जान आप ये सामान रख लीजिए। जो-जो पसंद आए ले लेना बाकी शाम को आ के ले जाउंगा। अभी दुकान भी जाना है मुझे।‘‘

मगर शाम का जुगाड़ नहीं हो सका। अम्मीजान का इसरार उसे बैठक में खींच लाया। बर्तन वाकई लाजवाब थे। अम्मी ने फिर आवाज लगाई-

‘‘ नूरा, जरा चाय लाना और आ कर ये तश्तरियां देख तो लो।‘‘

नूरा तो जैसे इस पल का इंतजार ही कर रही थी। झट हाजिर। अबरार की आँखें तर गईं। नूरा ने बर्तन पसंद किए। अम्मी ने पैसे चुकता किए। अबरार फतह का पहला मजा चख कर रूखसत हो लिया। चलते-चलते नूरा से फुसफुसाया-

‘‘..कुछ नही ंतो फोन तो कर ही लिया करें...मिसकाल ही...‘‘

नूरा खीझ गई। यह बात उसने पहले क्यू न सोंची। फिर मिस्ड काल्स और एस एम एस का दौर शुरू हुआ। दिल के फूल खिलने शुरू हुए। फिर बेचैनियों की झंझा ने हल्ला बोला और हाथों से दिल छूटने लगे। आखिर चोरी छिपे मुलाकातें शुरू की गईं। नूरा बाजार जाते में उधर का चक्कर मार लेती। अबरार भी खिड़की-झरोखे ताकता रहता, मगर कब तक?

होते न होते कनफुसियां शुरू हुईं। नूरा के पांव में बेंड़ियां पड़ीं और अबरार पे लगाम लगाई जाने लगी।

मगर क्या हासिल?

इश्क वो आग है गालिब, लगाए न लगे , बुझाए न बुझे।

अब तो मिलना भी जरूरी हो गया था। छुपी-छुपा मुलाकातें भी होने लगी थीं। पकड़ भी हो जाती। तमाम थूका-फजीहत भी होती मगर नूरा और अबरार वैसे के वैसे चिकने घड़े। लोग अपने मुंह का मजा बदलें तो बदला करें । उनकी बला से। नसीम खां साहब इसी फिराक में कि कब कोई अच्छा रिश्ता मिले और इस नूरा को हाथ-पांव पीले कर दफा कर दिया जाए। बहुएं भी लड़का तलाश रही थीं। तीन बेटों पे अकेली थी। सो वाकई में खां साहब और उनकी फैमिली की आंखों का नूर थी। तीनों लड़के सउदी में कमाते थे। पांच औरतों और चार पोते-पोतियों का जिम्मा खां साहब के सिर था। नूरा के लिए लाखों में एक लड़का ढुंढ़ा जा रहा था मगर उसके मिलते न मिलते नूरा अबरार के गले का हार बन गई थी।

लेकिन अब तो हद थी। आखिर कब तक ये छुपा छिपी और भगम-भाग की जाती। आज तो दादी अम्मा ने अबरार को खुब खरी खोटी सुनाई थी जिससे उसके होश फाख्ता हो गए थे। वह सोंच में पड़ा था कि ‘‘ अगर इस बुड्ढे के बच्चे ने सचमुच नूरा की शादी कहीं और तय कर दी तो...! तेा गजब हो जाएगा। एक तो इतनी थूका फजीहत उस पर से गहरी मात। लोग मेरी बुनियाद को थूकेंगे। बड़ा चला था इश्क लड़ाने। फिर दिल पे क्या गुजरेगी। न बाबा न मुझे उन टुच्चे रांझों और महिवाल की मौत नहीं मरना। मुझे तो कैसे भी फतह हासिल करनी है। जमाने की ऐसी की तैसी।

उसने लेटे-लेटे ही एस एम एस किया।

‘‘ चलो भाग चलते हैं।‘‘

उधर से हड़बड़ाहट में काल बैक की गई-

‘‘ अ...अबरार क्या कहते हो...?‘‘

‘‘ सही कहता हूं मेरी जान। तेरा बाप तो तैय्यब अली निकला। ‘‘

‘‘ क्या मतलब?‘‘

‘‘ अरे वही तैय्यब अली प्यार का दुश्मन। वह हमारा मिलन कभी न होने देगा। पक्का पठान है साला। मैं इन पठानों को अच्छी तरह जानता हूं। नाक पर मक्खी नहीं बैठने देते। अभी फिर गनीमत है। तेरे भाईयों का पलाटून आ गया तो तू घिर जाएगी। सुना है अबकी ईद के चांद में तेरा निकाह हो के रहेगा। तेरे भाई इसीलिए सीना ठोंक के आ रहे हैं। ईद में दिन ही कितने बाकी हैं। सिर्फ दो महीना। एक महीना तो रमजान का ही है और रमजान में सब तेरे भाई आ ही टपकेंगे। फिर ?

‘‘ मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा।‘‘

‘‘ तो जो मैं कहता हूं वही करो। बुर्का होड़ो और बाहर आओ। मैं आता हूं। लखनउ निकल चलेंगे। वहीं निकाह पढ़वा लेंगे। मामला ठंडाएगा तब लौट आएंगे।‘‘

‘‘ लेकिन...‘‘

‘‘ लेकिन-वेकिन कुछ नहीं। शुरू में सब बिदकते हैं बाद में सब ठीक हो जाता है। तो मैं आउं..?‘‘

‘‘ कुछ सोंचने का मौका तो दो। ‘‘

‘‘ सोंचोगी तो सोंचती ही रह जाओगी।

‘‘ ठीक है आओ ‘‘

‘‘ सिर्फ बुर्का और तेरे तन पर का कपड़ा ही आना चाहिए और कुछ मत लाना। अल्लाह का दिया सब है मेरे पास।

‘‘ ठीक है पिछवाड़े आओ‘‘

नूरा ने बुर्का बगल में दबाया। घर के लोग अभी शादी से लौटे ही थे। थकान उतार रहे थे। नूरा ने धीमें से बाहरी दरवाजा खोला और दहलीज से बाहर होती हुई पिछले हिस्से के अहाते की तरफ अंधेरे में खो गई। जब तक बात अयां हुई नूरा पहुंच से बाहर हो चुकी थी। अम्म्मी बेदम पड़ी थीं। बहुएं खामोश।

घर में जैसे ही नसीम साहब ने कदम रखा नूरा की अम्मी सीना पीटने लगीं। उन्होंने झिड़क दिया। आव देखा न ताव बीबी से बोले-

‘‘ अपने सारे कपड़े-लत्ते थैले में रखो और चलने की तैयारी करो।‘‘

‘‘ मगर कहां?‘‘ वह चैंकी।

‘‘ सवाल नही, बस तैयारी करो और चलो।‘‘

बेगम साहिबा ने जल्दी-जल्दी कपड़े और जरूरी अखराजात समेंटे और बुर्का ओढ़ तैयार हो गईं। अबरार नूरा को ले कर निकल चुका था। बस स्टाप से दादी मां को फोन कर दिया था-

‘‘ दादी अम्मा हम बाहर जा रहे हैं। नूरा मेरे साथ ही है। निकाह करके ईद के बाद आएंगे। तुम्हें खर्चा भेजता रहूंगा। ‘‘

‘‘ या मेरे अल्लाह...तेरी मौत आई है। अरे मुए खाना तो खा लिया होता। तंग आ गई हूं तुझसे..‘‘

‘‘ परेशान मत हो, सब ठीक हो जाएगा। जल्दी ही आउंगा।‘‘

फोन कट। दादी अम्मा सिर पकड़ कर बैठ गईं। तब नहीं, अब बना। भूख-प्यास खत्म। खाने की पतीलियां वैसी ही सजा के रख दीं। फिर दालान में आ के धम्म से लेट रहीं। लेटी-लेटी आंख लग गई तो क्या देखती हैं कि रंग-बिरंगे लोगों का एक जुलूस चला आ रहा है। आगे-आगे दो-चार बहरूपिए गोल-गोल नाचे जा रहे हैं। वह एक पेड़ की आड़ में खड़ी हो के खूबसूरत मंजर देखने लगीं कि ईंटों से पांव फिसला और चीख निकल गई। झम्मस से आंखें खुल गईं। सामने सीएफएल की सफेद रोशनी गमक रही थी और बाहरी दरवाजे पर जोर-जोर से दस्तक दी जा रही थी। वह उठ बैठीं।

‘‘ मुला ऐसे वक्त कौन आ टपका? कहीं पुलिस-वुलिस ?‘

वह झटके से उठीं कमर सीधी की ओर आंगन लांघती दरवज्जे तक पहुंची।

‘‘कौन हुजूर..?.‘‘

‘‘दरवाजा खोलिए, मैं नसीम खान‘‘

‘‘ या मौला ‘‘ बढ़ के दरवाजा खोल दिया। नसीम खान और उनकी बेगम दनदनाते से अंदर घुस आए।

‘‘ अस्सलाम वअलैकुम।‘‘ दोनों का मिश्रित स्वर।

‘‘ वालैकुमस्सलाम‘‘ इतना ही कह पाईं दादी अम्मा और और दरवाजा बंद करके उनके पीछे-पीछे दालान में आ गईं।

‘‘ खैरियत खां साहब...?‘‘

‘‘ जी हां, अलहम दोलिल्लाह..‘‘ खां साहब ने गर्दन इधर-उघर घुमाई।

‘‘ मुला अबरार तो है नहीं। कोई खास काम?‘‘ वह अनजानी बनती बोलीं। खां साहब गरजे-

‘‘ हमें मालूम है। कब तक मुंह चोरी करता फिरेगा। आपने लौंडे को घुमा-घुमा के आवारा बना दिया, लखैरा कहीं का‘‘

‘‘ देखिए खान साहब, जरा शराफत के दायरे में रहिए। मेहनत मशक्कत करता है मेरा बेटा। किस सुअर के बच्चे ने कहा कि वह लाखैरा है।‘‘

‘‘ आप हद पार कर रही हैं।‘‘

‘‘ जबान पे लगाम दे मर्दुए वर्ना राख लगा कर जबान खींच लूंगी। मेरे ही घर में खड़ा हो के मुझ पे रौब‘‘

खां साहब की बेगम बीच में आ गईं।

‘‘ देखिए, यह क्या तमाशा कर रहे हैं। बच्चों ने कम अक्ली दिखाई तो हम क्यूं लड़ें-झगड़ें?‘‘

‘‘ तुम चुप रहो, जब तक नूरा नहीं आ जाती हम यहीं रहेंगे। यहां से हिलेंगे नहीं। नूरा को ले कर ही जाएंगे, और तब तक के लिए हम यहीं डेरा डाले रहेंगे।‘‘

‘‘ या अल्लाह...देखिए खां साहब...मैं मजदूरी मेहनत करती हूं। इतना लम्बा खर्च........‘‘

‘‘ आप इसकी फिक्र्र न ही करें खुदाया। जब तक यहां हूं, घर की सारी जिम्मेदारी मेरी। ‘‘

‘‘ ...ये आप क्या कह रहें हैं। बेचारी परेशान होंगी।‘‘ बेगम ने समझाया।

‘‘..क्यूं परेशान होंगी। खर्च मैं चलाउंगा। घर के काम तुम संभालोगी। अम्मीजान बैठ कर खाएंगी, क्या तकलीफ उन्हें। तकलीफ तो हमें होनी चाहिए कि हमें अपना घर-बार छोड़ना पड़ा है। मगर करें भी क्या?........देखते हैं बेटा कब तक बाहर रहते हैं। महीने भर बाहर रहेंगे तो आंटे-दाल का भाव मालूम पड़ जाएगा। सारी आशिकी निकल जाएगी। उल्लू के पटठे....लौंडिया भगाएंगे...‘‘

‘‘...उफ्...मुझे तो भूख मालूम हो रही है।‘‘

‘‘ तो खा लो जा कर। अम्मी, कुछ पकाया है या नहीं?‘‘

‘‘ हां पकाया तो है....गोश्त शलगम। बदनसीब को खाना भी न नसीब हुआ। ‘‘

‘‘ उसकी छोड़िए...आपने कुछ खाया?‘‘

‘‘ जी नहीं, ऐसे खाना धंसेगा?‘‘

‘‘ क्यूँ नहीं धंसेगा ? भई जिसका जहां आबोदाना लिखा होता है वहाँ वो यक ब यक पहुँच ही जाता है। अब यही देखिए क्या पता था कि हमारा खाना यहाँ होगा। और क्या आप जानती थीं कि आप हमारे लिए खाना बना रही हैं। खैर.., जाईए बेगम खाना खाईए और अम्मी को भी खिलाईए। मैने तो शादी में मटन कुछ ज्यादह ही खा लिया। अब गैस बन रही है। खाऊंगा नहीं।‘‘

कुछ ही देर बाद दालान में पड़े तख्त पे दस्तरख्वान सज गया। खान साहब अबरार के कमरे में टहल गए और सोफे पर लेट टांग पे टांग पसारे सिगरेट फूंकने लगे। दादी माँ ने कनखियों से देखा और तमतमाती हुई मन ही मन बड़बड़ाईं-

‘‘ जान मारों पे कोई असर ही नहीं। लौंडिया भाग गई तो भाग गई। कैसे सिगरेट फूंक रहा है पड़ा-पड़ा और यह मरभुक्खी...मेरी तो भूख-प्याास ही उड़ गई। कैसा मेरे सीने पे मूंग दलने आए हैं दोनों...‘‘

‘‘..खान बेगम ने दो अलग-अलग प्लेटों में सालन डाला और रोटी का निवाला तोड़ने लगीं। मरे मन से दादी अम्मा ने भी खाना शुरू किया। बीच-बीच में खान बेगम खाने की तारीफ भी करती जा रही थीं। दादी मां का दिमाग उल्टा घूमने लगा।

‘‘ या अल्लाह... क्या बलाएं हैं।‘‘

सुबह

खान साहब फज्र की अजान होते ही मस्जिद को निकल गए। खान बेगम ने बावर्चीखाना संभाल लिया। दादी अम्मा को चाय-नाश्ता करवा के खाना बनाया। दादी अम्मा को खिलाया। खुद खाया। फिर खाली वक्त में बैठ कर इधर-उधर की हांकती रहीं। दादी अम्मा भी बेमन से साथ देती रहीं मगर पंखं लगे रहे। क्या मुसीबत है। अपने ही घर में कैद कर लिया गया है हमें। अबरार कहां होगा, लुच्चे ने फोन तक न किया। खुद तो मटरगश्ती कर रहा होगा और मुझे इन कोतवालों के हवाले कर गया। किसी काम में उनका मन नहीं लग रहा था। दुपट्टे में मुहं लपेटे पड़ी रहीं।

शाम को ईशा बाद खान साहब रिक्शे पर छोटी-छोटी बोरियां लादे लौटे। सारा सामान भीतर रखवाया। रिक्शे वाले को पैसे दे कर विदा किया। दादी अम्मा चारपाई पर ही संभल कर बैठ रहीं। खान बेगम ने सारा किराने का सामान रखा उठाया। फिर खान साहब दादी अम्मा के पास आ कर बोले-‘‘ भई, अम्मी जान मैने महीने भर का इंतजाम कर दिया।‘‘

‘‘...या खुदा...तो क्या महीने भर तक...?‘‘

‘‘....नहीं...नहीं...मैने बात कही। भई दोनों को वापस आने में महीना भर लमसम लग ही जाएगा। इत्ता तो इंतजाम कर के ही गए होंगे। जब महीने दो महीने में सब खत्म हो जाएगा तब तो घर की सुध लेंगे। वैसे अगर आज आ जाएं तो हम आज चले जाएंगे। कोई महीने भर का रिजर्वेशन थोड़े ही है हमारा।‘‘

दादी अम्मा मन मसोस कर रह गईं। खान बेगम ने सारा सामान सलीके से लगाया। फिर दस्तरख्वान बिछा कर खाना लगा दिया। खाने बैठे तो दादी अम्मा को आवाज दी-‘‘आईए, अम्मी जान खाना खाते हैं।‘‘

‘‘ मुझे भूख नहीं है‘‘

‘‘ एक दो निवाला उतार लीजिए। खाली पेट नहीं सोते हैं।‘‘ बेगम ने समझाया।

‘‘ नहीं जी हो रहा है। दोपहर वाला वैसे ही पेट में रखा है।‘‘

‘‘आपको बदहजमी की शिकायत तो नहीं ?‘‘

‘‘नहीं खान साहब, मैं ठीक हूं‘‘

दादी अम्मा जा कर अपने कमरे में लेट रहीं। तभी फोन बजा। कान में लगाया-

‘‘ कौन?‘‘

‘‘ अबरार, दादी अम्मा आदाब‘‘

‘‘ खुश रहो,...खुश ही होगे। अपनी मर्जी तो कर ली..‘‘

‘‘‘क्या बात है दादी अम्मा...खाना खाया?‘

‘‘नहीं, भूख नहीं है। उन लोगों ने बहुत इसरार किया मगर जी नहीं हुआ‘‘

‘‘किन लोगों ने?‘‘

‘‘ तुझे नहीं पता नूरा के वालिदैन यहीं आ धमके हैं और जब तक तुम दोनों वापस नहीं आ जाते वे दोनों यहां से टस से मस नहीं होंगे।‘‘

‘‘...या अल्लाह...ऐसा भी होता है..‘‘ फोन कट।

बगैर खाए-पिए दादी अम्मा को दो तीन दिन बीत गए। उन दोनों को देख-देख और अबरार को सोंच-सोंच के गली जा रही थीं। खड़ी होतीं तो गश आता। चुपचाप लेटी रहतीं। तशबीह के मनके घुमाती रहतीं। न किसी से कुछ कहना न सुनना। बाहर जाने का मन भी होता मगर....वो भी नहीं । नसीम साहब अलस्सुबह ही बाहरी दरवाजे पर ताला लगा के निकल जाते। ईशा बाद आते। तब ताला खुलता। न कोई बाहरी आ सकता। न वह बाहर जा सकतीं। बेगम साहिबा काम निबटा के एकता कपूर के सीरियल देखने बैठ जातीं। फोन पर घर का हाल-चाल मालूम कर लेतीं। पोती पोतों को दुलार लेतीं। कभी-कभी दादी अम्मा रात बढ़े या दिन के सन्नाटेपन में धीरे से किचेन में हो लेतीं, जब ज्यादा भूख सताती। बचा-खुचा खा-पी लेतीं। मगर टिन्न के मारे उन लोगों के साथ नहीं बैठतीं।

उघर कुछ दिन और गए। अबरार की जेब में खाक उड़ने लगी। उसे क्या पता था कि घर से ऐसे राबता टूटेगा। दुकान बंद। दादी अम्मा नजरबंद। कैसे जुगाड़ हो। आखिर दादी अम्मा को ही फोन लगाया, दादी अम्मा रिंग होते ही मोबाईल ले के छत पर भागीं-

‘‘ बोल बेटा‘‘

‘‘क्या बोलूं दादी अम्मा दोनों जालिम कहां हैं?‘‘

‘‘ वह बाहर गया है, औरत टी.वी देख रही है।‘‘

‘‘..या अल्लाह...क्या मजे हैं और मैं यहां ठोकरें खा रहा हूँ‘‘

‘‘ यह रास्ता भी तुम्हारा तजवीजा हुआ है। मैने क्या कहा था?‘‘

‘‘ अब छोड़ो भी दादी अम्मा...ऐसा करो किसी तरह नब्बन के घर जाओ और उसे कुछ पैसे दे कर लखनउ भेज दो। बड़ी कड़की हो रही है। सारा पैसा खत्म...सड़क पर पड़े हैं दो रोज से। आंतें कुलहुअल्लाह पढ़ रही हैं। नूरा तो बीमार हो गई ‘‘

‘‘...हुं...ह इश्क तो फरमा लिया। देखो मिंयां..., वो हिटलर की औलाद अलस्सुबह घर में बाहर से ताला लगा कर निकल जाता है। फिर ईशा बाद लौटता है, जब मोहल्ले में कुत्ते रो रहे होते हैं और घर में मेरी जासूसी के लिए उस औरत को छोड़ जाता है। अपने ही घर में नजरबंद कर दी गई हूं। दिन भर ठठाती हूं।‘‘

‘‘..........‘‘

‘‘....और सुन ऐसा तब तक रहेगा जब तक तू उसकी बेटी को वापस नहीं कर जाता ‘‘

अबरार ने बड़ी बेचारगी से नूरा की तरफ देखा-

‘‘ तेरा बाप तो एक खास तरह का विलेन निकला। मेरे ही घर में धरना दिए बैठा है। बेचारी दादी अम्मा कैसे रहती होंगी।‘‘

फोन झट से कट गया।

कुछ दिन और निकले।

नूरा के हाथ-पांव, गले नाक, कान, के गहने भी मुहब्बत की भेंट चढ़ गए। अब नूरा भी इस घिन्नी घोंटने से उक्ता गई थी। एक दिन बोली-

‘‘ अब बहुत हो चुकी मुहब्बत-वुहब्बत। चलो लौट चलें।‘‘

‘‘ अच्छा, बस तेरा बाप मुझे पुलिस के हवाले कर दे।‘‘

‘‘ पुलिस के हवाले क्यूं करेंगे?‘‘

‘‘ तो क्या मेरे स्वागत में बैंड-बाजा बजवाएंगे?‘‘

नूरा मुस्कुरा के रह गई। उसने जेबें टटोलीं।

‘‘ साला, एक सिगरेट लेने तक का पैसा नहीं, अर्सा हो गए सिगरेट पिए।‘‘

तभी दरवाजा खड़का।

मुसाफिरखाने का मालिक था। बोला-

‘‘ भाई साहब, हफ्ता भर का किराया चढ़ गया है। बेहतर हो कि तुम रूम खाली ही कर दो। किसी और को देंगे तो कम से कम भाड़ा तो मिलेगा। तुम लोग तो भिखमंगे खानदान से लगते हो।‘‘

अबरार का खून खौल गया-

‘‘देखो साहब, मालिक होगे तो अपने घर के होगे। तुम्हारे रूम की ऐसी की तैसी।‘‘

‘‘...हां....हां...‘‘ नूरा गर्मा-गर्मी देख हाथ हिलाती बीच में आ गई। बीच-बचाव हुआ। मालिक जाते-जाते ताकीद कर गया-

‘‘ आज हर हाल में कमरा खाली हो जाना चाहिए।‘‘

अबरार झल्ला कर बाहर निकल गया। पीछे-पीछे मालिक भी। नूरा को जाने क्या सूझी अम्मी के नंबर पे मिस काल छोड़ दी। तुरंत काॅल-बैक की गई। नूरा तड़प उठी-

‘‘ अम्मी, पांच दिन से पानी पी-पी के रह रही हूं!‘‘

‘‘...हाय मेरी बच्ची, और वह हरामजादा बैठा-बैठा अरड़ा रहा है?‘‘

‘‘ नहीं, वह भी परेशान है। काम की तलाश में कई जगह गया तो मगर काम मिला ही नहीं ‘‘

‘‘झूठ बोलता होगा वह ‘‘

‘‘..नहीं, अम्मी...वह ऐसा नहीं है। कई दफा मुझे खिला के खुद भूखा सोया है, वह है तो खुद्दार इंसान‘‘

‘‘...वो तेरे चीज-जेवर ?‘‘

‘‘ सब बिक-बिका गए। शहर की मंहगाई न पूछो। फिर महीना पूरा होने वाला है। मुसाफिरखाने का भी एक हफ्ते का किराया चढ़ गया है। वह भी आज खाली करवा रहा है।‘‘

‘‘..या अल्लाह.....‘‘ अम्मी की आंखों में आंसू आ गए। जाने कब खान साहब दबे पांव बेगम के पीछे आ कर खड़े हो गए। फिर धीरे से बेगम के हाथ से मोबाईल ले लिया-

‘‘...क्यूं लैला...! सारी आवारगी निकल गई? जब अंतड़ियां सूखने लगीं तब घर याद आया है। उस वक्त मां नहीं याद आई थीं जब नाक कटवा के भाग खड़ी हुई थी? तब यार याद आ रहा था। उससे कह देना हाथ-पांव मजबूत रखेगा। शहर में कदम रखा तो हड्डी-पसली एक करवा दूंगा।‘‘

कि उधर से आवाज आई-

‘‘ खान साहब होश की दवा कीजिए।‘‘

‘‘..अबे...चोप्प कसाई की औलाद...ऐसा सबक सिखाउंगा कि.....‘‘.

‘‘...खान साहब, जरा पाजामें में ही रहिए। आप खान हैं तो मैं भी कसाई हूं। सिर कलम करने का खासा तजुर्बा है और मेरा मुगदर भी तैयार है।‘‘

‘‘...धमकी दे रहा है मुझे...‘‘

‘‘..धमकी नहीं...ताकीद...‘‘ फोन कट।

तब तक दादी अम्मा भी आ खड़ी हुई थीं। कभी खां साहब का मुंह देखतीं कभी बेगम का। फिर गरजीं-

‘‘...मुला मेरे बेटे से क्यूं उलझ रहे हो। अपनी बेटी का नहीं देखते।‘‘

‘‘...ऐ...हे अम्मीजान...आप क्यूँ आपे से बाहर हुई जा रही हैं? उस बदचलन चुड़ैल का तो मैं वह हाल करूंगा कि चील-कव्वे घिन खाएंगे।‘‘

‘‘..मुला कसाई से कुछ बेस ही हो ...कम नहीं हो।‘‘

वह झेंपते हुए बोले-

‘‘ ..चलो बेगम, खाना लगाओ। आज अम्मी जरूर खाएंगी हमारे साथ।‘‘

‘‘...नहीं...बिल्कुल नहीं...वहां बच्चे भूखे मरते हैं..‘‘

‘‘...तो अम्मी...मरने दो ना...। अपनी मर्जी से भूखे मरते हैं। किसने कहा था शहर छोड़ कर भागो। फिर दाने-दाने के मोहताज बनो। ऐसी औलाद से तो बेऔलाद भला।‘‘

तभी बेगम ने दादी अम्मा के कान में कुछ फुसफुसाया तो दादी अम्मा का चेहरा खिल गया और वह खुशी-खुशी दस्तरख्वान पे जा बैठीं। अब से दादी अम्मा साथ ही खाना खाने लगीं। दोनों औरतों में खूब छनने भी लगीं। दादी अम्मा देर रात तक गुजरे जमाने की चर्चा करती रहतीं। बचपन की सरगोशियां। गुजरे जमाने के वलवले। जवानी की उल्टी हवाएं और शादी के बाद के अहलो अहवाल। खान बेगम अपने जमाने के किस्से भी जोड़ती रहतीं। तार से तार जुड़ता जाता। एक सास-बहू का रिश्ता कायम हो गया। खान साहब कमरे में न्यूज-चैनल से चिपके रहते। फिर सोता पड़ जाता। एक स्वाभाविक सी दिनचर्या। बीच की खाई भरने लगी। एक आत्मीयता मुखर हो आई। कभी-कभी दादी अम्मा बेगम के बाल-बच्चों और पोती-पोतों से भी फोन पर गुफ्तगू कर लेतीं। उनके जेहन से ये ठपपा विस्मतृ हो चला था कि वह अपने ही घर में नजरबंद हैं। कैंद में ही मजा आने लगा। गो कि ‘‘ दर्द रहते-रहते, दर्द ही दिल हो गया‘‘

अनजाने में ही वह इस नियति को स्वीकार चुकी थीं और अब मगन रहतीं। गिलाफ सीतीं, पंखे बनातीं और इधर-उधर के छोटे-मोटे काम करतीं। धरना-उठाना। खान बेगम उनका बहुत ख्याल रखतीं-‘‘ बेचारी जईफ हैं। इनका करेंगे तो सबाब मिलेगा‘‘,

रमजान अल करीब थे। मोहलले में हटो-हटो का माहौल। खुशियां ही खुशियां। लच्छे, सिंवईं, पाव रोटियां और रक्स की दुकानें सजने लगीं। इफतार के सामान की बिक्री भी अभी से शुरू हो गई थी। दूर गांव के लोगेां को मद्दे नजर रखते हुए शहरों में ऐसी दुकाने पहले और जल्दी सज जाती हैं क्योंकि गांव के लोग सारा सामान थेाक में और पहले ही खरीदने आते हैं।

खान साहब घर लौटने से पहले बाजार टहल गए। बाजार की रौनक देखी तो मंत्रमुगध से देखते ही रह गए।

‘‘..माशाल्लाह ,क्या रौनक है.‘‘

‘‘अरे खां साहब, यही महीना तो रहमत और बरकत का होता है। रौनक तो रहेगी ही‘‘

‘‘तुमने ठीक कहा सकूर।‘‘ कहते हुए वह आगे बढ़ गए कि किसी ने चुटकी ली-

‘‘ क्यूं सकूर भाई, खान साहब अभी दामाद के वहां ही डेरा डाले हुए हैं या...?‘‘

खान साहब झटके से मुड़े। मुंह की बात मुह में ही रह गई। उस आदमी की घिग्घी बंध गई। खान साहब गरजे-

‘‘क्या बोला आपने...?‘‘

‘‘क्....कुछ नहीं, कुछ नहीं...‘‘ सकूर ने बात संभाली।

‘‘ खान साहब आप इन जाहिलों की कमअक्ली पर मत जाएं। माफ करें...। गलीज हैं साले। क्यूं बे तेरा दिमाग नहीं ठिकाने है?‘‘ कहते हुए उसने लड़के को एक धरा। वह खून का घूंट पी कर चले आए। घर में घुसते ही हुक्म जारी किया-

‘‘बेगम....‘‘ वह दौड़ीं।

‘‘हां जी...‘‘

‘‘ थैला तैयार करो‘‘

‘‘ क्या वो लोग आ गए?‘‘

‘‘नाम न लो उन मनहूसों का। बस्स चलो। वह मर गई हमारे लिए।‘‘

‘‘ कुछ कहिए तो‘‘

‘‘ भई, जब उसने हमारी परवाह न की, हमारी इज्जत की परवाह नहीं की, हमारे घर को लात मार कर चली गई तो हम क्यूं उसका इंतजार कर रहे हैं ? जो हमसे गया, वह जग से गया। उस लड़की ने हमारा ध्यान न रखा तो हम उसकी फिक्र क्यूं करें ?‘‘ कहते-कहते उनका गला भर आया। बेगम को महसूस हो गया आज खान साहब को कहीं गहरे चोट पहुंची है। उन्होंने संभाल लिया-

‘‘ चलिए यह भी ठीक ही है। अम्मी भी काफी परेशान हो गई थीं।‘‘ दादी अम्मा बीच में आती बोलीं-

‘‘खान साहब, आज ठहर ही जाते तो अच्छा था। यक ब यक जाना अच्छा नहीं लग रहा। जहां इत्ते दिन वहां एक रात और सही। सुबह चले जाना। मेरा भी मन लगा रहेगा।‘‘

‘‘ ठीक है अम्मी, ठहर जाता हूं। कम अज कम आपमें इतना अपनापन तो है।‘‘

आकर दालान में बैठ गए चारपाई पर। फिर दादी अम्मा से मुखातिब हुए-‘‘ लेकिन हां अम्मी, उस लौंडिया से कहना कि अब वह हमारे लिए मर चुकी है। हम उसके लिए मर गए हैं। आईन्दा कभी जिंदगी में नाम नहीं लेगी नसीम खान की ड्योढ़ी पे कदम रखने का।‘‘

‘‘...मैं सब कह दूंगी‘‘

बेगम वापस जा कर बावर्चीखाने में गोश्त भूनने लगीं। दादी अम्मा लालटेन का शीशा साफ करने लगीं। खान साहब बेडरूम में जा कर सोफे पर फैल गए। टी.वी. आॅन किया और सिगार सुलगाने लगे।

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