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देह की दहलीज पर - 12

साझा उपन्यास

देह की दहलीज पर

संपादक कविता वर्मा

लेखिकाएँ

कविता वर्मा

वंदना वाजपेयी

रीता गुप्ता

वंदना गुप्ता

मानसी वर्मा

कथा कड़ी 12

अब तक आपने पढ़ा :- मुकुल की उपेक्षा से कामिनी समझ नहीं पा रही थी कि वह ऐसा व्यवहार क्यों कर रहा है ? उसने अपनी दोस्त नीलम से इसका जिक्र किया। कामिनी की परेशानी नीलम को सोचने पर मजबूर करती है कि आखिर उसके साथ क्या हो रहा है। वहीँ अरोरा अंकल आंटी हैं जो इस उम्र में भी एक दूसरे के पूरक बने हुए हैं। मुकुल अपनी अक्षमता पर खुद चिंतित है वह समझ नहीं पा रहा है कि उसके साथ ऐसा क्या हो रहा है ? कामिनी की सोसाइटी में रहने वाला सुयोग अपनी पत्नी प्रिया से दूर रहता है। ऑफिस से घर आनेके बाद अकेलापन उसे भर देता है। उसी सोसाइटी में रहने वाली शालिनी अपने प्रेमी अभय की मौत के बाद अकेले रहती है। वह अपने आप को पार्टी म्यूजिक से बहलाती है लेकिन अकेलापन उसे भी खाता है। वह अकेले उससे जूझती है। कामिनी का मुकुल को लेकर शक गहरा होता जाता है और उनके बीच का झगड़ा कमरे की सीमा पार कर घर के अन्य सदस्यों को भी हैरान कर देता है। रात में मुकुल अकेले में अपनी अक्षमता को लेकर चिंतित होता है समाधान सामने होते हुए भी आसान नहीं है। अब क्या करे वह समझ नहीं पाता।

अब आगे

कुछ दिनों से चलती आ रही रोज रोज की किचकिच से कामिनी का मन उद्विग्नता से भर गया था। सुबह से ही उसका सर दर्द से फट रहा था और मुकुल को निर्विकार देख उसका पारा और चढ़ रहा था पर बच्चों और सास की मौजूदगी में शांत संयत रहने की असफल कोशिश कर रही थी। कांता बाई के साथ लग कर उसने टिफिन बनाया, उसके पहले उसने चाय भी सासू माँ के साथ बैठ कर पी ली थी। मुकुल का चेहरा भी उसे देखने मन नही हो रहा था। नाश्ते के टेबल पर मुकुल ने उसके कंधे को हलके से दबाते हुए पूछा भी,

“क्या हुआ कामिनी इतने तनाव में क्यों हो ? तबियत ठीक नहीं लग रही तो मत जाओ कालेज आज”

उसके पूछने भर की देर थी कि वह तुनक कर उठ खड़ी हुई और नाश्ता अधूरा ही छोड़ वह बैग उठा निकलने लगी, कि उसे अपनी गलती का एहसास हुआ। मनमुटाव बिस्तर से खाने की टेबल तक जा पहुंचा था, उसने मुस्कराते हुए बच्चों को देखा,

“आज सोचती हूँ डाक्टर के यहाँ होती ही आऊँ, मुआ ये सिर दर्द जा ही नहीं रहा”

कालेज पहुँच पता चला कि मुखर्जी सर के पिताजी का आज सुबह सुबह ही देहांत हो गया है, कंडोलेंस के बाद आज छुट्टी हो गई। बैग ले निकल ही रही थी कि नीलम की आवाज आई,

“क्या मुझे घर छोड़ दोगी ? आज मुझे राकेश छोड़ता गया था क्योंकि तबीयत ठीक नहीं लग रही थी।“

“जरूर जरूर मुझे भी अभी घर जाने का मूड नहीं है“, नीलम को निढाल सुस्त देख कर कामिनी ने तपाक से कहा।

घर खोलते ही नीलम सोफे पर पसर गई, आँखें मूँद गहरी साँसे लेने लगी। उसे सोता जान कामिनी कुछ देर बैठी रही फिर दबे पाँव जा किचन से दो कप चाय बनाती आई।

“नीलम आँखें खोलो, जब तबियत इतनी खराब थी तो आज कालेज जाने की क्या जरूरत थी?” चाय का कप पकड़ाते हुए कामिनी ने कहा।

“ओह, आजकल तो अक्सर ऐसा ही हो रहा। कभी बिलकुल चुस्त दुरुस्त तो कभी बेजान बेजार।“ चाय की चुस्की लेते हुए उसने कहा।

“अभी पीरियड्स जो चल रहें, तुम विश्वास नहीं करोगी बारह दिन से ट़ंकी टपक रही है और आई भी तो पूरे अढ़ाई महीने पर। राकेश तो मुझे “बधाई हो बधाई” चिढ़ाने भी लगे थे। पर बिलकुल सोख ले रहा मेरी एनर्जी ये, तिस पर हाट फ्लैशस तो रातों को सोने नहीं दे रहें”

“बारह दिन!” कामिनी ने चौंकते हुए कहा, “तूने तो राकेश को तरसा कर रख दिया होगा, वह तो बड़ा नाराज होता होगा”

“सच कहूँ तो मुझे एक तरह से राहत ही महसूस हो रही है, हाँ राकेश जरूर हैरान परेशान और बेचैन होता है। पर अपने लिए नहीं मेरे लिए अब। या होता भी होगा पर मुझे कुछ कहता तो नहीं। पहले कभी कभी मुझे भी ब्लू फिल्में दिखाने की कोशिश की है उसने ताकि मेरी मंद होती जा रही इच्छाएं जाग्रत हो। मैं ने उसे निर्लज्जता से न्यूड माडल्स के फोटो को घूरते हुए भी देखा है। पर मैं सचमुच खुद को लाचार पाती हूँ, मन ही नहीं होता। बहुत बेबसी लगती है, लगता है कि काश, मैं पहले की तरह ही एन्जाय़ करती अपने सूखे दिनों को। कितनी बार तो वह मुझे कह चुका है कि मैं बिलकुल लाश सी क्यों बन जाती हूँ। पर अब वह कुछ नहीं कहता“ नीलम ने कहा।

“मैं समझ सकती हूँ कि राकेश को कितना बुरा लगता होगा जब तू उसके जवां अरमानों पर पानी फेर देती होगी। मैं महसूस कर सकती हूँ उसकी तड़प उसकी चाहतों के समन्दर को जो तुम्हारे शुष्क रवैयों के किनारों पर सिर पटक बिखर जाता होगा। मैं… मैं… मैं खुद जो गुजर रही हूँ” कहते कहते कामिनी की आँखों से आँसू टपक पड़े। “काश, काश! मुकुल ऐसा होता। सच, कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता, कभी जमीं तो कभी आसमां नहीं मिलता।“

दोनों सहेलियां अपने अपने दुखों की बिसात बिछा चुकी थी पर इस में मोहरें तो वे खुद थी। नीलम अब कुछ संभल सी गई थी, कामिनी को विचारों में डूबा छोड़ वह दोनों के टिफिन से दो प्लेटों में लंच निकाल आई। कामिनी के लंच बाक्स में जहाँ वेज पुलाव और आलू दम था वहीं उसके टिफिन में पराठें और अचार। फ्रीज से दही निकाला और थोड़े से सलाद काट लाई।

“कामिनी, अहा तुमने पुलाव बहुत टेस्टी बनाया है। तुम्हारी बाई तो इतनी जल्दी नहीं आती न?”

उसने बात बदलने की गुरेज से कहा।

कामिनी अभी तक प्लेट धरे बैठी ही हुई थी, नीलम की बातों पर चौंकते हुए बोल उठी, “सुबह सुबह घर से लड़ कर निकलो तो सारा दिन मूड खराब ही रहता है” वह अचानक से बोल पड़ी।

“अब बता भी दो कि मुकुल भाई साहब की तुमने क्यों शामत निकाली?” पेट भरने के बाद प्रसन्न मन से चुहलबाज़ी करते हुए नीलम ने पूछा।

“नीलम तुम तो औरत हो, मीनोपाज से गुजर रही हो। शायद देरसबेर राकेश ये एहसास करने लगा हो। तुम मूड स्वींग्स से गुजर रही हो, भला इसमें तुम्हारा क्या दोष। कुछ दिन महीनों में इससे निजात भी पा लोगी, पर …पर ‘मुकुल’

मुकुल तो नहीं ना अनियमित पीरियड से गुजरता, मर्द हो कर अपनी मर्दानगी पत्नी से ही छुपाने लगे तो मैं क्या समझूँ? बोलो न नीलम, मैं क्या करुँ? इतना बुरा लगता है जब पति मुँह फेर खर्राटे भरने लगे और मैं बौराई सी उसको देखती रह जाऊँ। ऐसा लगता है बिलकुल गर्म तवे पर किसी ने पानी डाल दिया। उसकी उपेक्षाएँ अब मेरी सब्र की सीमा पार कर चुकी है। मुझे तो डर लगता है कि कहीं कोई चक्कर तो नहीं, इतनी बेइज्जती के बाद आत्महत्या कर लेने की इच्छा प्रबल होने लगी है”

कामिनी के इस तरह फटने पर नीलम हैरानी से कामिनी को देखने लगी।

“कामिनी, हो सकता है राकेश भी ऐसा सोचता हो पहले, मुझे स्पष्ट रूप से उसके व्यवहार के बदलने का अनुभव हुआ जब पिछली बार गायनोकोलिस्ट के यहाँ राकेश के साथ गई थी। जब डाक्टर ने मुझे मीनोपाज के शुरुआत का संकेत दिया था। लौटते में वह मुझे ही समझा रहा था कि मैं स्ट्रेस न लूँ। अपनी किसी चाची की कहानी सुना रहा था कि कैसे बुढ़ापे में चाचा जी ने उन्हें पागल ही घोषित कर दिया था। जरूर चाची जी मूड स्विंग्स से गुजर रही होगीं उनकी मानसिक और शारीरिक बदलाव को चाचा जी ने समझा न होगा”

“कामिनी, अपने पति पर विश्वास करो। गलत विचार मत लाओ वैसे भी आत्महत्या कोई समाधान तो नहीं”

नीलम ने सुबुकती कामिनी को ढाढस देते हुए कहा।

“मैं स्वयं खुद से लड़ती हूँ कि राकेश की बेसिक माँग को येन केन प्रकारेण पूरा कर सकूँ। घर में यदि खाना नहीं मिले तो कहीं बाहर भूख न मिटाने लगे। ये भय तो मुझे भी है”

“हम औरतें हैं तो ऐसा सोच डर जातीं हैं कि पति कहीं अफेयर न कर ले तो उन्हें भी डरना चाहिए कि यदि वह हमें संतुष्ट नहीं रखेगा तो हम भी अपनी इच्छा पूर्ति के लिए कुछ कर सकते हैं “,

कामिनी ने तो मानों विद्रोह का बिगुल ही बजा दिया।

दुपहरिया बीत चुकी थी, कामिनी अब चलने को तत्पर हो गई। “तुम से बातें कर जी हल्का लग रहा वरना सुबह तो मैं उबली हुई आलू बन गई थी”, कामिनी ने ऐसा कहा तो नीलम भी हंस पड़ी,

“अब शादी के इतने दिनों के बाद इस उम्र में कुछ रातें ऐसे ही बीतती हैं तो जाने दो न, कभी ये साहचार्य सुख भी उससे ही मिला था ”,नीलम ने उसे समझाते हुए कहा।

जवाब में कामिनी ने, “जय माताजी” कहा तो दोनों हँस पड़ी। मन कुछ हल्का लग रहा था, कह देने से अवसाद जो बह चुका था। अब कार में एक खुशनुमा सा गीत चला वह घर की तरफ निकल पड़ी।

कार पार्क कर घर की तरफ बढ़ने के पहले लान की तरफ नजर फेरी तो बेंच पर अरोरा आँटी बैठी हुईं दिख गईं। “नमस्ते आँटीजी आज अकेले बैठीं हैं, अँकल जी नहीं दिखाई दे रहें” कामिनी ने उनके बगल में बैठते हुए पूछा।

“घर के बहुत सारे सामान लेने थे सो वही सब लेने बाजार की तरफ गयें हैं। तुम कैसी हो बेटा आज का दिन कैसा रहा?”

फिर जो बातों का सिलसिला चला वह देर तक चलते रहा। आँटी अपनी एकमात्र बेटी के बारे में बता रहीं थी जो शादी के बाद से सिडनी, आस्ट्रेलिया में रहने लगी थी। फोन पर उन्होंने अपने दोनो नातियों की तस्वीरें भी दिखाई जो कामिनी के बच्चों से भी बड़े दिख रहें थे। आँटी बता रही थी कि हर साल वो क्रिसमस की लंबी छुट्टियों में देश आती है और अक्सर किसी टूरिस्ट प्लेस पर ही रहने का प्रोग्राम करती है। वेकैशन का वेकैशन और अँकल का भी कुछ घूमना हो जाता है।

“वैसे कहाँ बिचारे मुझ व्हीलचेयर वाली को ले कर घूम पाते हैं?”,कहते हुए आँटी की आँखों में आँसू आ गए।

“आँटी, आप क्यों …..यानी कैसे ये आपको ऐसे हो गया”,

आखिर कामिनी ने पूछ ही लिया। अरोरा आँटी कुछ देर चुप रहने के पश्चात बताया कि एक भयंकर रेल दुर्घटना घटी थी जिसमें उनके शरीर का निचला हिस्सा बुरी तरह कुचला गया था। महीनों अस्पताल में रहने के बाद इस व्हीलचेयर और जीवन भर की अपंगता के साथ लौटी थी। कहते हुए उन्होंने सलवार के चौड़े पांयचे को उठा दिया। दो ठूँठ से सूखे हिस्सों ने उसे सिहरा दिया।

“पर तुम्हारे अंकल ने कभी इसका भान न होने दिया। घर को इसी हिसाब से डिजायन करवाया कि मैं अपने काम कर संकू। अंकल को तुम्हारे मैं क्या सुख दे सकती हूँ, सब तो छिन ही गया पर मैं खाना खुद ही बनाती हूँ। कम से कम एक संतोष रहता है कि मैं भी कुछ कर रहीं हूँ”

आँटी बताए जा रही थीं, इस बीच मुकुल के दो फोन आ चुके थे कि वह कहाँ है। अँधेरा घिरने लगा था, अँकल अब तक नहीं लौटे थे।

“आँटी मैं आपको घर पहुँचा देती हूँ”,

आज उनकी चौबीस घंटे वाली सहायिका उन्हें नीचे लान में बिठा कर घर चली गई थी, सो कामिनी व्हीलचेयर को ठेलने लगी, व्हीलचेयर को लिफ्ट तक पहुँचा उनके फ्लोर का बटन दबा दिया। उनके घर तक लाने में वह वाकई थक गई थी सो कुछ देर उनके ड्राइंगरूम में बैठ गई। घर में आते ही आँटी ने सधी चाल से चक्का घुमाते हुए उसे पानी ला कर दिया। पानी पीते हुए कामिनी ने फिर पूछ ही लिया, “कितने साल हो गए आपको इस पर” व्हीलचेयर को इंगित करते हुए।

“हूँ !! बेटी की शादी हुए साल भर भी नहीं हुआ था । मैं 42 और अँकल 45 वर्ष के लगभग होगें। अब तो तीस साल से ऊपर गुजर गए होगें। मैं तो भूल ही गईं हूँ कि पैरों पर कैसे चला जाता है। आज भी अंकल किसी नवयौवना की ही तरह उठा कर बेड पर लिटाते हैं।“

…..कहते आँटी के रक्ताभ हो रहे कर्णसिरे को देख कामिनी मुसकुरा उठी।

ओह, प्यार इसे ही कहते हैं दैहिक सुखों से परे। कितने जवान रहे होगें ये लोग, ये भी तड़पे होगें। क्या अँकल का मन न भटका होगा या आँटी की इच्छा न हुई होगी। सोचते सोचते कामिनी ने आँटी से इस बाबत पूछ ही लिया,

“बेटा हम जिस हादसे से गुजरे थें उसके बाद एक दूसरे का जिंदा रहना ही हमारे लिए वरदान था। हम हर रात ईश्वर को आज भी धन्यवाद कर सोते हैं कि उसने हमारे साथ को अब तक अक्षुण्ण रखा। सच्चा प्यार तो दैहिक आकर्षण से परे होता है। इतने वर्षों में मैंने ये महसूस भी किया “

आँटी की बातों को कामिनी समझने का प्रयास कर रही थी।

“अरे, क्या बातें हो रही हैं, कहीं मेरी शिकायत तो नहीं…” कहते हुए अंकल घर में घुसे।

वो तो ये मुझे मिल गया नीचे पार्किंग में तो मेरा थैला उठा दिया, कहते हुए अंकल ने अपने पीछे आ रहे लड़के को दिखाया। सामान भरे थैलों से लदाफदा वही मादक ख़ुशबू से तरबतर लड़का, जिसे वह नीचे लान एरिया में कभी कभी दौड़ते देखा करती थी तो कभी बाइक पर जाते।

“कामिनी बेटा इससे मिलो, ये है ‘सुयोग’ हमारे बिल्डिंग के पाँचवें तल्ले पर रहता है।

अरोरा अँकल कुछ और भी बोल रहे थे पर कामिनी मानों सुधबुध खो चुकी थी।

सुयोग की आकर्षण में बिंध कामिनी को अपने आसपास हो रही बातें न सुनाई दे रही थी और न दिखाई।

देर रात तक रह रह कर सुयोग की कसरती देह, बलिष्ठ बाहें, वो चाल, उसकी हंसी सब कामिनी को मदहोश करती रहीं। बार बार वह खुद को उसके बाहुपाश में आलिंगनबद्ध महसूस करती रही।

आज मुकुल के खर्राटे उसे सुनाई भी नहीं दे रहें थे।

क्रमशः

रीता गुप्ता

कहानीकार, स्तंभकार और स्वतंत्र लेखन।

राँची झारखंड से।

छ लघुकथा सांझा संग्रह, तीन सांझा कहानी संग्रह और "इश्क़ के रंग हज़ार" नामक लोकप्रिय एकल कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।

मातृभारती पर बाजूबंद, तोरा मन दर्पण कहलाए, काँटों से खींच कर ये आँचल और शुरू से शुरू करते हैं जैसी पापुलर कहानियाँ मौजूद।

koylavihar@gmail.com