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महामाया - 13

महामाया

सुनील चतुर्वेदी

अध्याय – तैरह

केलकर भवन में इतना बड़ा हॉल था। सौ-सवा सौ लोग आराम से बैठ सके।

वहाँ एक बड़ी दरी बिछी हुई थी। दो तीन भगवा झोले पडे़ थे। एक रस्सी पर भगवा धोतियाँ सूख रही थी। यहाँ कुछ सन्यासी ठहरे हुए थे। जो फिलहाल कहीं गये हुए थे। ऊपर के तल पर तीन कमरे थे। जग्गा ने एक कमरे का दरवाजा धकेला वहाँ तीन-चार लोग ताश खेलने में मस्त थे। दूसरे कमरे में खप्पर बाबा दो-तीन साधुओं के साथ भोजन कर रहे थे।

तीसरे कमरे में दरवाजे के सामने ही आँखें बंद किये एक संत बैठे थे। जग्गा ने अंदर घुसते ही जोर से कहा ‘‘महाराज जी प्रणाम’’ अनुराधा और अखिल ने भी झुककर प्रणाम किया।

गौर वर्ण, सुंदर शरीर, उम्र तीस-पैंतीस वर्ष के बीच, काली-घनी, करीने से छंटवाई गई लंबी दाढ़ी। कंधो से नीचे उतरते काले बाल। गले और हाथों में रूद्राक्ष की मालाएँ। कमर के नीचे के हिस्से में तहमत की तरह लपेटा गया महंगा रेशमी भगवा कपड़ा, ऊपर का शरीर निर्वस्त्र, चेहरे पर बच्चे सा भोलापन। कुल मिलाकर सहज और सरल व्यक्तित्व। प्रणाम की औपचारिकता के बाद सूर्यानंद महाराज और अनुराधा आपस में बातें करने लगे। थोड़ी देर बाद जग्गा, दोनों को वहीं छोड़ जालपादेवी मंदिर चला गया।

अखिल को सूर्यानंद महाराज के बारे में जानने की उत्सुकता थी। लेकिन अनुराधा और सूर्यानंद महाराज बातों में इतने मग्न थे कि कुछ पूछने का मौका ही नहीं मिल पा रहा था। जैसे ही बातों में कुछ पल का विराम आया अखिल बिना देर किये सूर्यानंद जी से पूछ बैठा।

‘‘सन्यास के पहले आप कहाँ रहते थे?

जवाब में महाराज जी ने इतना ही कहा ‘‘दीक्षा के समय ही सन्यासी अपना श्राद्ध कर अपना जन्म भुला देता है।’’

‘‘स्मृतियों का कभी श्राद्ध नहीं होता महाराज जी। यह सिर्फ कहने की बात है।’’ अनुराधा ने बात को काटा। फिर बाबाजी को कोड करते हुए बात आगे बढ़ायी। ‘‘बाबाजी कहते हैं कि पिछले जन्म की स्मृतियाँ प्रारब्ध बनकर इस जीवन को प्रभावित करती हैं। इस जन्म की संचित स्मृतियाँ संस्कार बनकर हमारे अगले जन्म में साथ जाती है। इसलिये शायद सन्यासी भी मुक्त नहीं है, प्रारब्ध और संस्कार से।’’

‘‘इसीलिये तो सन्यासी प्रारब्ध से मुक्त होने, और संस्कार संचित नहीं होने देने के लिये तप करता है। हम भी तप कर रहे हैं माई। सूर्यानंद महाराज जी यह कहते समय निराश दिखाई दिये। कुछ देर कोई नहीं बोला... न अनुराधा, न महाराज जी, न अखिल। थोड़ी देर बाद अनुराधा ने महाराज जी पूछा -

‘‘महाराज जी आप तो समाधि लगाने जा रहे हैं। आपको ध्यान में क्या अनुभव हुआ ?

‘‘बाबाजी हमेशा कहते हैं। ध्यान लगाया नहीं जाता वो घटता है। जिस पल भी तुम्हारे भीतर ध्यान घटेगा तुम शून्यावस्था में पहँचकर समाधि को उपलब्ध हो जाओेगे।’’ महाराज जी ने जवाब दिया।

महाराज जी आप पहली बार समाधि लगा रहे हैं। आपको यह सोचकर थोड़ी घबराहट तो होती होगी कि कैसे होगा...... क्या होगा?

बाबाजी का संकल्प बड़ा तगड़ा है। यह बाबाजी के संकल्प की समाधि है। फिर हमें न कुछ सोचने की जरूरत है और ना किसी बात से घबराने की।

बातचीत चल रही थी कि कौशिक के साथ श्रीमाताजी वहाँ पहुँच गई। श्रीमाता ने आते ही तेज आवाज में कहा -

‘‘महाराज जी आप दो दिन बाद समाधि को उपलब्ध होने वाले हैं। आपको बिल्कुल मौन रहना चाहिये’’

महाराज जी ने किसी जूनियर स्टूडेन्ट की तरह स्पष्टीकरण दिया

‘‘माई हम तो सुबह से चुप थे। अभी इन लोगों के साथ थोड़ा हाँ हूँ करने लगे थे।

श्रीमाता के हाव-भाव और बातचीत से स्पष्ट था कि यदि वे हेड मिस्ट्रेस होती तो स्कूल में अनुशासन सख्त होता। उन्होने महाराज जी से कहा कि ‘‘चलिये महाराज जी अब आप आराम करिये। किसी भी तरह का विचार या भाव आपके चित्त को मलीन करेगा। चित्त की मलिनता से समाधि में परेशानी होगी।’’

यह बात सिर्फ महाराज जी के लिये नहीं थी बल्कि वहाँ उपस्थित अखिल और अनुराधा के लिये भी वहाँ से उठ जाने का ईशारा था। अखिल और अनुराधा शर्मा जी के साथ मंदिर लौट आये।

सूर्यानंद महाराज से हुई चर्चा ने अखिल के अंदर कई सवाल खड़े कर दिये थे। वह सोच रहा था। संकल्प की समाधि और समाधि में क्या फर्क है? क्या समर्थ गुरू अपने संकल्प से लाखों लोगों की समाधि लगवा सकता है। उनकी चित्त शुद्धि कर सकता है।

मतलब बाबाजी प्रसन्न हो जाये तो किसी भी साधन की जरूरत नहीं है। मेरा मानना है कि किसी भी घटना के लिये ‘कार्य-कारण’ का होना जरूरी है। यहाँ शायद बाबाजी का संकल्प ही समाधि का कारण बन जायेगा और सूर्यानंद जी समाधि की अवस्था को प्राप्त कर लेंगे। शायद यही सही होगा। नहीं भी हो सकता है। मैं कन्फ्यूज हूँ।

लेकिन वानखेड़े जी जो अग्नि देवता के प्रकट होने का किस्सा सुना रहे थे उसकी सच्चाई क्या है ? बाबाजी ने तो देव दर्शन को एक मानसिक अवस्था बताया था। फिर वानखेड़े जी की पत्नी के कहने पर अग्नि देवता के दर्शन करवा देना.... कैसे संभव हो सकता है...? बाबाजी ऐसा नहीं कर सकते हैं ? वानखेड़े जी की पत्नि को भ्रम हुआ होगा।

कभी-कभी लगता है यह बड़ी ही अजीबो-गरीब दुनिया है। यहाँ सब कुछ पाखंड है। लेकिन यह भी सही है कि जो व्यक्ति पाखंड के विरोध में इतना पुरजोर बोलता है, वो पाखंडी कैसे हो सकता है? नहीं.....नहीं..... यह सब पाखंड नहीं हो सकता। जरूर कोई रहस्य है। मेरी बुद्धि पकड़ नहीं पा रही है। शायद धीरे-धीरे मैं सब कुछ समझने लगूँ।

जल्दबाजी ठीक नहीं है। मुझे बाबाजी से रोज मिलना चाहिये। उनकी मंडली के अन्य साधु संतो से भी मेलजोल बढ़ाना चाहिये। सत्य, अध्यात्म, धर्म, ईश्वर यह सब सदियों से गूढ़ विषय हैं। दूसरी, अनजानी दुनिया की बातों को सांसारिक तर्क की कसौटी पर कसना बुद्धिमानी नहीं है। फिर अनुराधा भी तो पढ़ी-लिखी है। डाॅक्टर है। पिछले कईं सालों से बाबाजी से जुड़ी हैं। यदि यह सब ढकोसला होता तो अनुराधा बाबाजी से क्यों जुड़ती ? नहीं...नहीं मुझे जरा भी जल्दबाजी नहीं करना चाहिये।

इस सोच-विचार के बीच कब गाड़ी मंदिर प्रांगण पहुँच गई अखिल को पता ही नहीं चला। अनुराधा की आवाज से उसकी तंद्रा टूटी।

‘‘कहाँ खो गये महाशय। आज रात गाड़ी में ही सोने का इरादा है क्या?’’

‘‘नहीं......नहीं तो’’ हड़बड़ाते हुए अखिल गाड़ी से उतरा और अपनी ही धुन में कमरे की ओर बढ़ गया। शर्माजी पहले ही संत निवास की ओर जा चुके थे। अनुराधा कुछ पल अखिल को जाते देखती रही फिर धीमे कदमों से अपने कमरे की ओर चल दी।

क्रमश..