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पराग-कण

आज बहुत दिनों के बाद कुसुम से मुलाकात हुई। मैं उसी से मिलने उसके घर जा रहा था, लेकिन वो रास्ते में ही मिल गई। अचानक आज मुझे अपने सम्मुख पाकर शरमा गई... बावली है! मुझे देखकर पता नहीं उसे क्या हो जाता है। शायद पिछले लमहे याद आ जाते हो या पिछली बातें, वह दिन, वह मेरा प्रेम प्रस्ताव,,,, हां, बिना लफ्जों का प्रेम प्रस्ताव, जिससें वह शर्म से तार-तार हो गई थी,और दिन भर टेबल पर सिर रखकर खिड़की से बाहर झाकती रही। कमबख्त दूसरे दिन तो स्कूल ही नहीं आई...!
हम दोनों का प्रेम संबंध पिछले तीन सालों से चल रहा है। हमारा यह सफर स्कूल से शुरू हुआ था,जो आज भी बरकरार है।
कॉलेज में ऐसी कोई कक्षा नहीं, जहां पर हम दोनों की बातें ना होती हो, ऐसी कोई लड़की नहीं जो कुसुम को कज़रा-री आंखों से छेड़ती न हो।

गांव के नाके पर, एक बड़े से पेड़ के पास हैंड-पंप है, वहां पानी भर रही थी। मुझे देखकर हक्का-बक्का रह गई, कभी मुझे देखती,कभी पतीले की ओर...!
यहां काका आइंस्टीन का सापेक्षता सिद्धांत साफ-साफ लागू हो रहा था। समय धीमा हो चला था उसके लिए, समय सरपट भाग रहा था, मेरे लिए। मैं उसमें जो खो गया था। उसकी मनमोहक छवि देखकर अनायास ही मैं बावरा हुए जा रहा था, हरे रंग की सलवार और हरे और लाल श्वेत धब्बों से युक्त कमीज,और लाल रंग का दुपट्ट...!
वह मुझे देखती और साथ-ही-साथ पतीले को भी बार-बार देखती , लेकिन पतीला भरने का नाम नहीं ले रहा था। मानो समय उसके लिए बहुत धीमा हो गया हो।
मुझे देखकर उसने दुपट्टे से अपने कवल-मुख को ढक लिया, और दांतों से दुपट्टे के एक छोर को अपने होठों में दबाए हुए जल्दी-जल्दी हैंडपंप को हिलाने लगी। उसके लब ऐसे दिखाई दे रहे थे, जैसे किसी लाल गुलाब की पंखुड़ी पर कोई श्वेत पतंगा आ बैठा हो। मैं वही उसके सामने जाकर खड़ा हो गया और रोमांचित कर देने वाले इस दृश्य को देखता रहा।
मेरे जहन में वह गोकुल की पनिहारीने आ रही थी जिन्हें गोकुल का छलिया कृष्ण तंग करता हैं। वह अल-बेला निरा-ही उन सुंदरियों के मटके फोड़ दिया करता था।

मुझे वह मदर इंडिया का बिरजु भी याद आने लगा, जो पनघट से आती हुई लड़कियों को अपनी अल्हड़ता और दीवानगी से परेशान करता था। और ऐसा ही दृश्य मेरे सामने था। आज यह पनिहारीन मेरी अटखेलियों का शिकार हो जाती, गर मैने अपने आप को न संभाला होता। यह सब देख-सोच कर मेरे होठों पर एक भिनी-सी मुस्कुराहट तेर गई। मुस्कुराहट मेरे मुंखबर पर ऐसे उतर गई जैसे तीर या साबुन के झाग में तेल की बूंद।

उसकी बनावट अच्छे-अच्छे को पानी भरने के लिए मजबूर कर दे! तो मैरी बिसाद-ही-क्या? चाहा तो मैने भी, बगल में जाकर खड़ा हो जाऊं और उसकी सहायता करू, खाली गागर भरने में और सापेक्षता को निरपेक्ष कर दुं ,समय के पहियों को रोक दुं। लेकिन नहीं मैं सिर्फ आनंद लेना चाहता था, इस मनोरम दृश्य का! वह मारे शर्म के पानी-पानी हो रही थी। और पतिले का पानी भी शनै-शनै ऊपर पढ़ रहा था। धीरे-धीरे पानी की आवाज में एक परिवर्तन हो रहा था, पानी की तरंग-धैर्य बदल रही थी। पतीले के भरते ही उसने मेरी ओर आंखों से इशारा किया। मुझे हंसी आ गई, इशारा आलोकित करने वाला था। इशारे को मैं क्या समझू! यह इशारा सदिश था या अदिश..?भौतिकी के नियम इस इशारे को परिभाषित नहीं कर सकते! यह इशारा विरला ही था।

मुझसे रहा नहीं गया मैं झट से सीमेंट की बनी उस आठ-इंच ऊंची मुंडेर को लांघ कर उसके सम्मुख जाकर खड़ा हो गया। मेरी नजरे उसकी नजरों पर गड़ी हुई थी। और उसकी नजरें झुकी हुई, पुलकित-सी थी।और वह बार-बार नजर बचाने की कोशिश करती और तिरछी नजर से मेरी ओर देखती, हाय...!
मैं बावरा हुआ जा रहा था। एक तो इतने दिनों बाद मोहतरमा के दर्शन हुए तिस पर भी गुनाहगारो-का-सा व्यवाहर, वह लजाते हुए पतीले को उठाने के लिए झुकी तो मैं भी झुक गया, पतिले को मैने आहिस्ता से छूई-मुई के सिर पर रख दिया।

उसने आदेशात्मक लिहाज़ में मुझसे घर चलने के लिए कहा , मैं बिना कुछ बोले, बिना अपना मुंह खोले, मुस्कुराते हुए उसके साथ चल दिया।

घूंघट की तरह उसके सिर को दुपट्टे ने ढक रखा था। मानो जेठ की दुपहरी चल रही हो और लपेटे उसके कोमल गेहुवें रंग को झुलस रही हो। लेकिन ऐसा कोई माहौल नहीं था।
शायद..! मुझसे अपने आप को छुपा रही थी, लज्जा से अपने जिस्म को मेरी नजरों से बचाने की मशक्कत कर रही थी।
दोनों तरफ के गाल ढके हुए थे। दुपट्टे का एक सिरा वैसे ही दातों में दबोच रखा था,पर फिर भी लाल दुपट्टे में लाल होठ छुप नहीं पा रहे थे।
हम दोनों साथ-साथ चले जा रहे थे, उसके घर की ओर, उसका घर यहां से करीब-करीब 100 मीटर की दूरी पर था। यहां गांव में पानी की बहुत किल्लत है दूर आना पड़ता है, पानी भरने के लिए। वो कुछ बोल नहीं रही थी बस चले जा रही थी।

फिर मैंने उससे पूछा "कॉलेज क्यों नहीं आ रही हो"

" ऐसे ही, घर पर बहुत सारा काम रहता है,खेत पर जाना पापा की मदद करना, और अभी तो नींदाई-गुड़ाई भी चल रही है! " उसने कहा
"झूठ बोल रही हो! वह भी मुझसे।
बताओ ना मुझसे नहीं बताओगे तो किस से बताओगी"

और उसने वैसे ही मुस्कुरा कर कहा " किराया नहीं है, बस का, रोज-रोज कॉलेज आना भी..... कभी-कभी आया करूंगी!

बस इतनी सी बात!
"बस का किराया मुझसे ले लिया करना,पर तुम कॉलेज तो आओ! जानती हो, तुम्हारे बिना मेरा भी मन नहीं लगता। "

वह मेरी बातें अनसुना कर मौन-धारणी बन मुस्कुराहट बिखरते हुए चलती रही!


मैं कहीं ओर खौ गया,समय की विपरीत दिशा मैं, पर समय की तो कोई दिशा होती ही नहीं..! यहा मैरा तात्पर्य भूतकाल से था। मैं हमारे अतीत की ओर झांकने लगा, वह अतीत जो बीत चुका था। वह लम्हे, वह पल, वो यादें जो धूमिल हो चुकी थी, किंतु अब भी हृदय मैं आनन्द के भाव का संचरण कर देती हैं। स्कूल का वह दिन,जब मैंने इसे पहली बार देखा था। वैसे देखता तो में इसे रोज-ही था, लेकिन वह दिन अनोखा दिन था, जिस दिन मैंने,एक कली की फूल की और जाने की प्रवृत्ति को देखा था। वह कमसिन कली हसीन हो रही थी।

कक्षा 11 वीं का वह द्वितीय कक्ष पूरी तरह खाली था, सभी अपने बैग रखकर बाहर जा चुके थे। मैं अंदर बैठा हुआ था, तभी अचानक कुसुम का आना हुआ। स्कूल की वह नीली यूनिफार्म उस पर बेइंतहां जचती है, पर आज उस नीली यूनिफार्म मैं अलंकार कि छटा बिखरी हुई थी।

मैं अपनी ही धुन में डिवाइडर से बेंच को खुरच रहा था,
और उसने धीमे स्वर में कहा " गुड मॉर्निंग अजय"

मैं अपने ध्यान से विक्षेपीत हुआ, पर कुछ कह न सका,
मेरी नजर उस पर एक टक-बंध चुकी थी। और उसी के साथ चल पड़ी।
आज पहली बार उसके होठों पर लालीमा छाई हुई हैं,कृत्रिम लालिमा..! आज वह लाली लगाकर आई हुई थी,पर गालों पर गुलाबी-पन प्राकृतिक था। मैं आश्चर्यचकित था! क्योंकि कल जिसे सजने-धजने की सुध-बुध नहीं थी। आज वो अप्सरा-कि-सी बन कर आई हैं! अपने यौवन पर अलंकार का टांका बुनकर आई हैं , जो उस कम-सीन को ह-सीन बना रहा है।

वह दिन मेरा कैसे गुजरा था! मैं ही जानता हूं। उस दिन, दिन-भार मेरे सामने, मेरे मुख मंडल पर, मेरे मस्तिष्क में उसका ही चेहरा घूम रहा था। बार-बार नजरें उसी की ओर जा रही थी, एक अजीब सा नशा ,शनै-शनै चड़ रहा था।

दूसरे दिन तो मैं महाराज बनकर सुबह से ही सुकुमारी की प्रतीक्षा कर रहा था। कुसुम, नाम कितना अद्भुत है! नाम भी कोमल और फूलों सी वह भी कोमल, इतने दिन कैसे बची रही मुझसे? उसकी यह अद्भुत सुंदर काया! मुझे पहले नजर क्यों नहीं आई?
और जैसे ही वह बस से उतरी मेरी नजर उसी पर जा कर टीक गई । उसने अपनी देह को अलंकृत करने के लिए आज कुछ ओर ही कयामाती रंगों का इस्तमाल कर, श्रृगार की एक छोटी सी झलक पेश की थी। कल तो सिर्फ लालिमा लिए थी, लेकिन आज, काजल , आंखों में चमक की आभा , नयनो के मध्य में मध्य-कालीन लाल रंग की बिंदी, कानों में ग्रीन कलर के ईयर रिंग और दुपट्टे के अंतिम छोर पर फुंदना गुथ रखा था।
सुबह का कालांश तो जैसे-तैसे निकल गया, लेकिन दोपहर होते-होते मेरा संवेग,आवेग में बदल गया।
मैंने जैसे ही कुसुम को क्लास में अकेले जाते हुए देखा, तो उसके पीछे हो-लिया। आस-पास नजरें दौड़ई कोई नहीं था। मैं चुपके से कक्षा में दाखिल हो गया। मुझे देखकर वह मेरी ओर आने लगी, शायद... बाहर जाने का मनसूबा था। पर मैं उसे बाहर नहीं जाने देना चाहता था, तो बस....कदमों को उसकी ओर बढ़ाए चला............



कुसुम ने पतीले को चारपाई नुमा एक बड़ी सी मौहली (मचान) पर रखा, और मैं पास में ही छज्जे के नीचे, एक चारपाई रखी थी, उस पर जाकर बैठ गया। माले की छत (छज्जा) मौसमी-झाड़ियों से बनी हुई थी। ये झाड़ियां वर्षा रितु में बहुतायत होती है, झाड़ियों को एक-दूसरे में गूथ कर चटाई की आकृति दी गई थी, चटाई के ऊपर महूवे के फूल सूख रहे थे, और उसके ऊपर सागवान के पत्तों से बनी एक झोपड़ी....बेहद ही सुंदर लग रही थी! एक लकड़ियों की बनी हुई सीढ़ी, जो सीधे ऊपर माले पर जाती है, लकड़ी की काठी पर टिकी हुई थी। माला चारों ओर से तरह-तरह के फूलों के गमले से लदा हुआ था। कुसुम ने बहुत सारे फूल लगा रखे थे, लेकिन मुझे एक बात का आश्चर्य हुआ! दो-तीन फूलों की किस्म तो एक ही थी, किंतु उनके रंग अलग-अलग थे। बाहर की ओर निकली हुई साटियो पर प्लास्टिक के डिब्बों में तरह-तरह के पौधे लगे हुए थे कुसुम को बागवानी का कुछ ज्यादा ही शौक था।

मैंने तभी एक नजर मौहली को देखा ! (मौहली आदिवासी इलाकों में पानी रखने का एक स्थान होता है,जहां पर मटके को मिट्टी में गाड़ कर रखा जाता है) और आश्चर्यचकित रह गया! मौहली लकड़ी के तीन फुट लंबे स्तंभ से बनी थी, जिसमें वी-आकार मैं लकड़िया लगी हुई थी और वी-नुमा रिक्त खांचे में मिट्टी भरी हुई थी। और मिट्टी में गड़ा हुआ था, मटका..! मटके का सिर्फ गोल-मटोल मुंह बाहर निकलना हुआ था। मिट्टी पर अंकुरित थे कई सारे पौधे, रंग-बिरंगी फुलवारी, तरह-तरह की बेले और कई सारी लताए, जो ऊपर से नीचे की ओर झूल रही थी। यह शायद प्राकृतिक रेफ्रिजरेटर था...!

कुसुम ने झट से लकड़ी के फुद्दीबेट-नुमा ढक्कन को मटके से हटाया, और एक लोटा पानी भर कर मेरे सामने आ खड़ी हो गई। मैंने उसकी ओर ना देखते हुए हाथ से लोटा ले, पानी पीने लगा।

इतने में अंदर से उसकी माताजी बाहर आ गई, उन्होंने मेरी ओर देखा और फिर कुसुम की और देखा।
कुसुम ने माता की जिज्ञासा को भाप लिया और मेरा परिचय देने लगी।
"एर नाव अजय छे, मार साथे भणे " कुसुम ने अपनी माँ से कहा।
( इनका नाम अजय मेरे साथ पढ़ते हैं)

" तू उंघली ले, मी चाय बनाई देव भाया के " माँ ने कहा।
(तुम नहा लो मैं चाय बना देती हूँ।)

मैं तो चुप ही रहा...चाय जो पिनी थी!
" मी हाट कथी आऊन " ( मैं बाजार से आती हुँ )

मैं चाय पी ही रहा था, कि उसकी माँ एक झोला लेकर बाहर आई और कुसुम से "बाज़ार जा रही हूँ " कहा और चले गये।



घर की छज्जा कवेलुऔ से ढकी हुई थी, घर के आधार स्तंभों में , जो की लकड़ी के बने थे, एक अद्भुत नक्काशी की गई थी! ऐसा जान पड़ता है, किसी जानकार सुतार ने ही इस घर को अलंकृत किया है।

यह सोच ही रहा था, की एका-एक फिर मैं अपनी पुरानी यादों में खो गया।

.........मैं उसकी ओर आगे बढ़े चला जा रहा था,के अचानक वह रुक गई, लेकिन मैं नहीं रुका, उसके काम-रुपी यौवन ने मुझे सम्मोहित-सा कर दिया था। मैं उस की नजरों की डोरी में बंद सा गया था, उसकी ही और खिचा चला जा रहा था। मुझे ना ठहरता देख, वह पीछे की और उल्टे पांव चलने लगी। उसकी आंखें, मेरी आंखों से ऐसे लिपट गई थी, कि ना वह रुकने का नाम ले रही थी, ना ही.. मैं । किंतु अंत में दीवार ने उसे रोक ही दिया,पर मुझे, मुझे कौन रोकता! मैं तब तक नहीं रूका जब तक उसकी देह का स्पर्श, मेरी देह से ना हुआ। हम दोनो ऐसे लिपट कर खड़े थे जैसे कोई निर्जीव पुतले। मैंने अपने हाथ से उसके गाल को चिमटाते हुए उसकी देह कि मृद-कोमलता को निचोड़ दिया। भावनाओं की सरिता में, मैने बहकर ,अमृत के तुच्छ से हिस्से को स्पर्श मात्र किया हो, ऐसा प्रतीत हो रहा था। जानो मैंने किसी कमल की पंखुड़ी को छू लिया या फिर उस अरबी के पत्ते को , जिस पर अभी-अभी शबनमी बूंदों ने दस्तक दी हो। इस स्पर्श को देवीय-स्पर्श कहना ही सार्थक होगा!
इस तरह हमारा प्रेम-संबंध एक एसी नौका में सवार हो चुका था, जो बस, अब बहते हुए समुंद्र के अंतिम छोर की ओर निकल चुकी है। और उसमे बैठा युगल, अपनी प्रेम क्रीड़ा में, लवो-लुवाब , ओत-प्रोत, सरा-बोर है।


" क्या हुआ? इतना क्यों मुस्कुरा रहे हो" कुसुम ने अपने गीले बालों को झटके हुए पूछा!

"कुछ नहीं ! वो अपनी , 11 वी कक्षा याद आ गई, जिसमें में था , तुम थी और वह दीवार..... हे याद ? "
मैंने छेड़ने की अंदाज में जवाब दिया।
शरमा गई! फूर्रर्रर्र..... से उड़ गई, जैसे,,,,जैसे पनघट पर पानी पीती हुई चिड़िया, घट लेकर आती हुई पनिहारीन को देख ले और अलबेले-ही-अंदाज से पलायन कर जाए!
कुछ देर बाद वह बाहर आई और सीढ़ी के चौथे पायदान पर जाकर बैठ गई । उसने लटके हुए गमले को उठाया और अपनी गोद में रख, फूलों की खूबसूरती को निहारने लगी। और जैसे ही उसने फूलो को नज़दीक लाकर उसकी महक को महसूस करने का प्रयास किया, तो फूलों के पराग-कण उसकी नाक और गालो से चिपक गए।
जब मैंने अपनी जिज्ञासा-मय दृष्टि से देखा तो मुझे चार रंग के फूल दिखाई दे रहे थे। लाल, श्वेत और गुलाबी लेकिन तीनो एक ही किस्म के थे। ओ हां....! मैं चौथे फूल का जिक्र करना तो भूल ही गया, कुसुम ! कुसुम क्या किसी फूल से कम है बिल्कुल फूलों-की-सी तो है

वह धानी लहंगा उस पर गुलाबी कुर्ता और दुपट्टे का रंग भी गुलाबी जिसे उसने पूरा फैला कर अपने वक्षस्थलो को ढक रखा था। एक भरा पूरा गुलाबी गुलदस्ता लग रही थी, जिसमें सिर्फ गुलाबी रंग के पुष्प हो।
आँखों पर भी गुलाबी पन था ओर तो ओर कंबख्त ने लाली भी गुलाबी लगा रखी थी। ज़ालिम पुरी तैयारी करके आई थी मुझे दो ज़क में भेजने का,यह सब मुझे ही रिझाने के लिए था..शायद!

अजय : " कुसुम तुम्हारे यहां इन फूलों में इतनी विभिन्नता कैसे? मेरा मतलब.... इन फूलों को देखो! कई रंग के फूल है,किन्तु यह सब एक ही किस्म के हैं, इनकी प्रजाति एक-ही है। फिर इन के रंगों में विभिन्नता क्यों? "

कुसुम : "मैंने अपने हाथों से इनका प्रांगण किया है, कृत्रिम रूप से, पहले मैं फूलों से इन पराग कणों को ब्रश की सींक से चुन लेती हूं। फिर उन्हें उसी प्रजाति के अन्य रंग के पुष्प पर स्थानांतरित कर देती हूं।
मेंडल का मटर वाला प्रयोग पढ़ा ही होगा तुमने! हमारी विज्ञान की किताब में दिया है। जब मेंडल बोने मटर का, लंबे मटर से प्रांगण करवाते हैं, तो बोने मटर और लंबे मटर के ज़ीन से आने वाले पौधे में कुछ भिन्नता आ जाती हैं, जो उस मटर की आने वाली संतति में स्थांतरित हो जाती है।"
अजय : "यह तो भंवरों के साथ बड़ी नाइंसाफी है। तुम्हें ऐसा नहीं लगता की तुम प्रकृति के बनाए नियमों के साथ खिलवाड़ कर रही हो। मेरा मतलब... यह कि जो काम प्रकृति ने भंवरों को, कीटों को और पतंगों को दिया है, वह तुम कर रही हो। इसमे प्रकृति के नैतिक मूल्यों का हास नहीं है! क्या यह गलत नहीं ?"

गलत क्या है! मैं तो फूलों को विलक्षणता देती हूं, विभिन्नता देती हूं। उन्हें प्रकृति में बने रहने का एक जटिल रूप प्रदान करती हूं। उनके अनुवांशिक गुणों में, जी़नो में एक परिवर्तन होता है,जो उन्हें विकासवाद की सीढ़ी पर आगे धकेले देती हैं। जिससे भंवरें उनकी ओर मंत्रमुग्ध हो, खिचैं चले आयेगें। और इनमें प्रांगण होने की संभावना ओर भी ज्यादा बढ़ जाएगी, उनकी खुशनुमा जिंदगी और भी, हसीन बन जाएगी।

"तुम्हें पता है अजय फुल खूबसूरत क्यों होते हैं?"

हां बिल्कुल! ताकि मुझ जैसे आवारा भमरें को आकर्षित कर सकें, रींझा सकें ,इश्क़ के ज़ाले में फांस सकें, और देह पिपासा, यौवनाग्नी को बुझा सकें!
तुम भी तो यही कर रही हो। नाहक-ही अपनी नाज़ुक सी काया पर सौन्दर्य-प्रसाधन ऊड़ेले रखे हो, वैसे ये इस माशूक के, मासूम नक्श पर जीवट का कार्य करते हैं।

कितनी सुंदर...आकर्षक , क्या खूब लग रही हो! जी में आता है तुम्हें.......
कुसुम के तन बदन में शर्म-ओ-लाज का एक सैरा दौड़ गया , जैसे दमकती हुई.... बिजली अंबर में बिना आवाज के होले से लुप्त हो जाती है।

" क्या तुम्हें....! " पलकें झुकाए फूलों को ताकते हुए।

मैं ठहर ना सका..। आवारा मसीहा बंन उसके नजदीक जा पहुंचा।

अपने हाथों को उस के आंचल में रखकर अपलक निहारते हुए, उसके जीर्ण गालों से पराग कणों की छटा को, अपने मैं समा....ऐसे साझा कर लिया, जैसे तितलियों के पंखो से रंग हथेलियों पर चिपक जाता है।

दिल ज़ार-ज़ार धड़क रहा था, उसका भी, मेरा भी... ना उसके लबों पर कुछ कहने कों था, ना मेरे ज़़हन मैं....बस! एक अद्भुत सी, नियति को पान की जद्दोजहद थी।
उसकी सुऩ पड़ चुकी काया को, मैं बादलों में समेट ले चला। ज़र-ज़र धरा को आद्रता-मय बनाने, दहलीज कि उस सीमा को लांघे , जो हमें इस सांसारिक दृष्टि से बचा सके, इश्क के नियोजन में कोई विघ्न,,,बाधा ना उत्पन्न हो,,,,,,, तन्मय होकर वासना में रत, इस सुख क्रीड़ा को कोई खंडित,,,भंग ना कर दे।

धीरे-धीरे नशा और बढ़ता गया, रस की लालसा रसिक बनाती गई, काम उल्लास मैं डूबी हमारी काया, प्रेम की नियति की और चल पड़ी , तिनके की भांति सुख की अंतिम घड़ी तक मैं बहता चला गया।

भंवरे का काज पराग गणों को फूलों तक पहुंचाना होता है, बहुधा फूल इस नियति से वंचित रह जाते हैं ,फिर न निषेचन होता है ना संतति आगे बढ़ती है। संभावनाओं और प्रायिकता की दौड़ मैं वही जीतता है, जिसकी संख्या ज्यादा हैं। और नियति को क्या मंजूर यह तो वक्त ही बताता है।

और वो वक्त भी आ गया। कुसुम की लापरवाही ने उसे वहां लाकर खड़ा कर दिया,जहां फिर दर्द और समाज का डर था। असुरक्षित यौन-संबंध के चलते,उसे इस स्थिति से गुजरना पड़ा। यदि समय रहते,उसने प्रेम की रास को कस लिया होता, तो यह तूफान उसे इतना परेशान नहीं करता।

एका-एक उसकी काया में शारीरिक बदलाव होने लगे। मार्ग अवरुद्ध पानी की तरह उसके मासिक धर्म में रुकावट आ गई , उसके स्तनों में हल्का-हल्का दर्द भी उमड़ने लगा, जी मचलना, उल्टी होना, घबराहट और सबसे ज्यादा प्रभावी था, उसका डर.....समाज का डर जो उसे अंदर ही अंदर खाए जा रहा था।

यदि उसने इस स्थिति का पूर्वाभास कर लिया होता और गर्भनिरोधक गोलियों का सहारा लिया होता। तो वह इस दुविधा से तर जाती।
उसने पढ़ा भी था किताबों में..... गर्भ निरोधक गोलियों से अनचाहे गर्भ से बचा जा सकता है। प्रयोगशाला में तैयार यह गोलियां प्रोजेस्ट्रोन और एस्ट्रोजान नामक हार्मोन से बनती है। बाजार में बिकने वाली गोलियों में प्रोजेस्टिन नामक सिंथेटिक हार्मोन होता है, जो प्रोजेस्ट्रोन हार्मोन की ही जगह उपयोग में लाया जाता है।

यह गोलियां ओव्युलेशन यानी अंडाशय से अंडा निकलने की प्रक्रिया को रोक देती है। साथ-ही-साथ गर्भाशय ग्रीवा पर मौजूद तरल द्रव को गाढ़ा कर देती है। जिससे शुक्राणु अंडे तक नहीं पहुंच पाते और गर्भाशय अस्तर को प्रभावित करके भी गर्भधारण को रोक सकती है।

लेकिन अब सिर्फ-और-सिर्फ गर्भपात ही एक रास्ता है। जो उसे इस समस्या से निजात दिला सकता है।
उसे अब अपना गर्भ नष्ट करना होगा और इसके लिए उसे माइ़फप्रिस्टोन नामक गोली का सेवन करना होगा। जो गर्भावस्था के विकास को रोकती है। उसके पास अभी भी समय है, यदि अब उसने कोई लापरवाही बरती तो उसके पास और कोई राह शेष ना बचेगी।
वह सुबह-ही पास के शहर में सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पर जाती है। जहां उसकी मुलाकात डॉ. हिना से होती है, जो एक बहुत बड़ी स्त्री रोग विशेषज्ञ और आधुनिक माहोल से तालमेल बैठा चुकी, सही गलत का सहजबोध रखने वाली महिला हैं।

उन्हेंने पहले तो, कुसुम की अच्छे से खिंचाई की
" तुम पढ़ी-लिखी लड़की होकर इतनी बड़ी गलती किए बैठी- हो, तो उन लड़कियों का क्या होता होगा, जिन्होंने कभी स्कूल का मुंह तक ना देखा। मुझे आश्चर्य होता है तुम्हें इस स्थिति में देखकर!
मैं मानती हूं इस उमर में यह सब गलतियां आम बात है। लेकिन सावधानी बरतना भी तो ज़रूरी है, कमस-कम गर्भनिरोधक गोली का ही इस्तेमाल कर लिया होता, तो यह नौबत ना आती।
बेवकूफ लड़की.....!
पछतावे और डर की ओढनी औंड़े कुसुम बस... बातें सुने जा रही थी।( कटाक्ष ) और रह-रहकर अपनी गलतियों पर शिश्किया भर रही थी।

फिर डॉ. हिना उसकी ओर मुस्कुरा कर देखती है।
" कुछ गोलियां हैं, खा लेना... और समय से, अब लापरवाही नहीं ! और खानपान का अच्छे से ध्यान रखना पौष्टिक भोजन ही लेना।

आंखों में उदासी और बदन में दर्द , उमड़ी हुई काया को संभालते हुए, सुबह कुसुम जागी। तनाव ने उसे झिझोड़ कर रख दिया, कमजोरी साफ नजर आ रही थी। उसने बालो से क्लिप निकाली और नहाने चली गई।
बहती हुई रक्त में लत-पत प्रेम-सरिता, पानी के संग सामंजस्य स्थापित कर, एक छोटी-सी नाली से बहते हुए गंदेले-मटमेले पानी में जा मिली।
प्यार रक्त का रूप लिए कतरों-कतरों में विभाजित बहते-बहते लुप्त हो गया।