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नूरीन - 2

नूरीन

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग 2

हार कर वह अम्मी से बोली थी कि एक बार वह भी चाचाओं से बोले। लेकिन वह तो जैसे अंजाम का इंतजार कर रही थीं। नुरीन की बात पर टस से मस नहीं हुईं । कुछ बोलती ही नहीं। बुत बनी उसकी बात बस सुन लेती थीं। नुरीन हर तरफ से थक हार कर आखिर में दादा के पास पहुंची। उनके हाथ जोड़ फफक कर रो पड़ी कि ‘दादा अब्बू को बचा लो। सबने साथ छोड़ दिया दादा। अब आप ही कुछ करिए। अब तो अम्मी भी कुछ नहीं बोलती। दादा बिना अब्बू के कैसे रहेंगे हम लोग।’ नुरीन को दादा पर पूरा यकीन था कि वह कितना भी जर्जर हो गए हैं, लेकिन फिर भी वह हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने वालों में नहीं हैं। कोई न कोई रास्ता निकालने की कोशिश जरूर करेंगे। नुरीन के आंसू उसकी सिसकियों को सुन कर दादा भी रो पड़े थे। मगर जल्दी ही अपने आंसू पोंछते हुए बोले ‘अल्लाह-त-आला पर भरोसा रख बच्ची वह बड़ा रहम करने वाला है, तेरे आंसू बेकार ना जाएंगे मेरी बच्ची।’ इस पर नुरीन बोली थी ‘लेकिन दादा लाखों रुपए कहां से आएंगे। कोई रास्ता तो नहीं दिख रहा। सबने मुंह मोड़ लिया है। दादा वक़्त बिल्कुल नहीं है।’ नुरीन को दादा ने तब बहुत ढाढ़स बंधाया था। लेकिन खुद को लाचार समझ रहे थे।

पैसे का इंतजाम कहीं से होता दिख नहीं रहा था। उस दिन वह रात भर जागते रहे। पैसे का इंतजाम कैसे हो इसी उधेड़बुन में फजिर की अजान की आवाज़ उनके कानों में पड़ी। वह उठना चाह रहे थे। लेकिन उनको लगा जैसे उनके शरीर में उठने की ताब ही नहीं बची। बड़ी मुश्किलों बाद कहीं वो उठ कर बैठ सके। उस दिन पूरी ताकत लगा कर वह बहुत दिनों बाद नमाज के लिए खुद को तैयार कर सके।

नमाज अता कर वह बैठे ही थे कि नुरीन फिर उनके सामने खड़ी थी। उसने आंगन की तरफ खुलने वाली कमरे की दोनों खिड़कियां खोल दी थीं। कमरे में अच्छी खासी रोशनी आने लगी थी। वह दादा के लिए कॉफी वाले बड़े से मग में भर कर चाय और एक प्लेट में कई रस लेकर आई थी।

वह दादा को बरसों से यही नाश्ता सुबह बड़े शौक से करते देखती आ रही थी। खाने-पीने के मामले में उसने दादा के दो ही शौक देखे थे एक चाय के साथ बर्मा बेकरी के रस खाने और हर दूसरे-तीसरे दिन गलावटी कबाब के साथ रुमाली रोटी खाने का। जब खाते वक़्त कोई मेहमान साथ होता तो वह यह कहना ना भूलते कि ‘भाई इस शहर के गलावटी ‘कबाब और इस रुमाली रोटी का जवाब नहीं। लोग भले ही काकोरी के गलावटी कबाब को ज़्यादा उम्दा मानें लेकिन मुझे तो यही लज़ीज़ लगते हैं।’ यदि कोई कहता कि ‘अरे काकोरी लखनऊ से कौन सा अलग है।’ तो वह जोड़ते’ ‘जाना तो जाता है काकोरी के नाम से ही ना।‘ फिर वह शीरमाल और मालपुआ की भी बात करते। नुरीन को अच्छी तरह याद है कि दादा ने कई बार यह भी कहा था कि ‘अगर मुझे कोई दूसरी जगह तख्तो-ताज भी दे दे और वहां गलावटी कबाब न हो तो मैं वहां ना जाऊं।’ जब मुंह में डेंचर लग गए तो कहते ‘इस डेंचर ने सारा स्वाद ही बिगाड़ दिया।’ नुरीन ने दादा को अब्बू के पहले ऑपरेशन के बाद पल भर में अपनी इस प्रिय चीज को हमेशा के लिए त्यागते देखा था। तब उन्होंने यह कहते हुए कबाब, रोटी से भरी प्लेट हमेशा के लिए सामने से परे सरका दी थी कि ‘जब यह मेरे बेटे के गले नहीं उतर सकती तो मैं इसे कैसे खा सकता हूं।’

उस दिन के बाद नुरीन ने दादा को इस ओर देखते भी ना पाया। आज उन्हीं दादा ने रस भी खाने से साफ मना कर दिया। कहा ‘नुरीन बेटा अब कभी मेरी आंखों के सामने यह ना लाना।’ उन्होंने कांपते हाथों से चाय उठाकर पीनी शुरू कर दी थी। उन्होंने इसके आगे कुछ नहीं कहा था लेकिन नुरीन ने उनकी भरी हुई आंखें देख कर सब समझ लिया था। फिर जल्दी से कुछ बिस्कुट लाकर उनके सामने रखते हुए कहा ‘दादा बिस्कुट भी खा लीजिए, खाली पेट चाय नुकसान करेगी।’ नुरीन के कई बार कहने पर उन्होंने एक बिस्कुट खाया फिर भर्रायी आवाज़ में उससे अब्बू के बारे में पूछा। नुरीन बोली ‘रात भर दर्द के मारे कराहते रहे। घंटे भर पहले ही सोए हैं।’ नुरीन की सूजी हुई आंखें देख कर उन्होंने पूछा था ‘तू भी रात भर नहीं सोई।’ नुरीन ने साफ बोल दिया कि ‘कैसे सोती दादा, अब्बू के पास कोई भी नहीं था। अम्मी बोलीं थी कि उनकी तबियत ठीक नहीं है। वो दूसरे कमरे में सो रही थीं। अभी कुछ देर पहले ही उठी हैं।’

दादा को चुप देख कर नुरीन फिर बोली ‘दादा अब्बू का इलाज कैसे होगा। सबने साथ छोड़ दिया है। तब वह बोले ‘ठीक है बेटा सबने साथ छोड़ दिया है लेकिन अभी मेरी हिम्मत ने साथ नहीं छोड़ा है। मेरी उम्मीद अभी नहीं टूटी है। अपने सामने अपने बेटे को बिना इलाज मरने नहीं दूंगा। भले ही मकान-दुकान बेचने पड़ें। झोपड़ी में रहना पड़े रह लूंगा, मगर हाथ पे हाथ धरे बैठा नहीं रहूंगा।’ तभी नुरीन को लगा जैसे अब्बू के कराहने की आवाज़ आई है। ‘मैं अभी आई दादा‘ कहती हुई वह अब्बू के कमरे की ओर दौड़ गई। उसको यूँ भागते देख उन्हें लगा कि उनका बेटा शायद जाग गया है। उम्र ने उनके सुनने की कुवत भी कम कर दी थी। इसीलिए नुरीन को जो आवाज़ सुनाई दी उसका उन्हें अहसास ही नहीं था। नुरीन को जाते देख वह यह जरूर बुद-बुदाए थे कि ‘ना जाने तुम सब की मुकद्दर में क्या लिखा है।’ फिर उनका दिमाग रात में सोची इस बात पर चला गया कि अब काम-धाम कुछ करने लायक रहा नहीं। आरा-मशीन का धंधा भी बड़ा मुश्किलों वाला हो गया है। रोज कुछ न कुछ लगा ही रहता है।

मुंशी विपिन बिहारी के सहारे यह काम अब कब तक खीचूंगा। गुंडे-माफिया दुकान की लबे रोड लंबी-चौड़ी जमीन पर नज़र गड़ाए हुए हैं। बरसों से गाहे-बगाहे धमकाते आ रहे हैं। सब शॉपिंग-कॉम्प्लेक्स, अपॉर्टमेंट बनवा कर अरबपति बनने का ख्वाब पाले हुए हैं। यही शाद सही होता तो खुद ही कुछ करता। लखनऊ युनिवर्सिटी पास ही है, हॉस्टल ही बनवा देता तो कितना कमाता। मगर जब ठीक था तो मेरी कुछ सुनता नहीं था। होटल से लेकर ना जाने काहे-काहे का ख्वाब वह भी पाले हुए था। अब ना मेरा ठिकाना है ना उसका। इधर बीच भूमाफिया और भी ज़्यादा सलाम ठोकने लगे हैं। जीते जी यह हाल है मरने के बाद तो सब ऐसे ही इन सब को मार धकिया के कब्जा कर लेंगे।

माफिया तो माफिया ये एम.एल.सी. माफिया तो आए दिन हाथ जोड़-जोड़ कर और डराता है। भाई-परिवार सब के सब एक से बढ़ कर एक हैं। चुनाव के समय चचाजान, चचाजान कह के एक वक़्त पूरे डालीगंज में घुमा लाया था। मैंने कभी बेचने की बात ही नहीं की थी। लेकिन ना जाने कितनी बार कह चुका है। चचा जब भी बेचना हो तो हमें बताना आपको मुंह मांगी रकम दूंगा। सारे काम काज बैठे-बैठे करा दूंगा। क्यों न इसे ही बेच दूं। किसी और को बेचा तो टांग अड़ा देगा। माफिया ऊपर से नेता। जान छुड़ाना मुश्किल हो जाएगा। दुकान भी जाएगी पैसा भी नहीं मिलेगा। पांच-छः साल पहले ही साठ-सत्तर लाख बोल रहा था। कहता हूं अब सब कुछ बहुत बदल चुका है।

प्रॉपर्टी के दाम आसमान को छू रहे हैं। सवा करोड़ दे दो तो लिख देता हूं तुम्हारे नाम। सवा करोड़ कहूंगा तो एक करोड़ में तो सौदा पट ही जाएगा। इतने में शाद का इलाज भी करा लूंगा । सत्तर-पचहत्तर लाख जमा कर ब्याज से किसी तरह घर का खर्च चलाऊंगा। इसके अलावा अब कोई रास्ता बचा नहीं है। मकान बेचने से इसका आधा भी ना मिलेगा। पुराने शहर की इन पतली-पतली गलियों और आए दिन के दंगे-फसादों से आजिज आ कर लोग पहले ही नई कॉलोनियों की तरफ खुले में जा रहे हैं तो ऐसे में यहां कौन आएगा। नुरीन के दादा ने सारा हिसाब-किताब करके नेता माफिया के घर जाने के लिए अपने मुंशी को फ़ोन कर कहा कि किसी कारिंदे को आटो के साथ भेज दे। वह नुरीन या उसकी अम्मी को लेकर नहीं जाना चाहते थे। फ़ोन कर के उन्होंने रिसीवर रखा और एक गहरी सांस ले कर बुदबुदाए। ‘जाने मुकद्दर में क्या लिखा है। इस बुढ़ापे में ऊपर वाला और ना जाने क्या-क्या करवाएगा।’

वह करीब दो घंटे बाद जब माफिया नेता के यहां से लौटे तो बड़ी निराशा के भाव थे चेहरे पर। कारिंदा उन्हें उनके कमरे में बेड पर बैठा कर चला गया था। वह ज़्यादा देर बैठ न सके और बेड पर लेट गए। नुरीन उसकी बहनें अम्मी कोई भी आस-पास दिख नहीं रहा था। गला सूूख रहा था मगर किसी को आवाज़ देने की ताब नहीं थी। काफी देर बाद नुरीन दरवाजे के करीब दिखी तो उन्होंने कोई रास्ता न देख अपनी छड़ी जमीन पर भरसक पूरी ताकत से पटकी कि आवाज़ इतनी तेज हो कि नुरीन सुन ले। इससे जिस तरीके से आवाज़ नुरीन के कानों में पहुंची उससे वह सशंकित मन से दौड़ी आई दादा के पास और छड़ी उठा कर पूछा ‘अरे! दादा क्या हुआ ?आप कहां चले गए थे ? अम्मी आपको दुकान तक छोड़ने जाने आईं तो आप ना जाने कहां चले गए थे। वह बहुत गुस्सा हो रही थीं।’ उन्होंने नुरीन की किसी बात का जवाब देने के बजाय इशारे से पानी मांगा।

नुरीन पानी लेकर आई तो पीने के कुछ देर बाद बोले ‘तेरे अब्बू कैसे हैं ?’ नुरीन ने कहा ‘सो रहे हैं। लेकिन आप कहा चले गए थे ?’ तब वह बोले ‘शाद के इलाज के लिए पैसे का इंतजाम करने गया था।’ उनकी यह बात सुन कर नुरीन कुछ उत्साह से बोली ‘तो इंतजाम होे गया दादा। इस पर गहरी सांस लेकर बोले ‘अभी तो नहीं हुआ। बड़ी जालिम है यह दुनिया। सब मजबूरी का फायदा उठाना चाहते हैं। मगर परेशान ना हो मैं जल्दी ही कर लूंगा । और हां सुनो कुछ देर बाद मुझसे मिलने कोई आएगा। उसे यहीं भेज देना। और देखना उस समय कोई शोर-शराबा न हो।‘ नुरीन दादा की बात से बड़ी निराश हुई। पानी का खाली गिलास लेकर वह बुझे मन से रसोई में चली गई। अम्मी कुछ काम से बाहर जाते समय खाना बनाने को कह गई थीं। मगर उसका मन कुछ करने का नहीं हो रहा था। वह अच्छी तरह समझ रही थी कि हर पल अब्बू उन सबसे दूर होते जा रहे हैं। उसने सोचा कि दादा से पूछूं कि वह कहां से कैसे कब तक पैसों का इंतजाम कर पाएंगे। फिर यह सोच कर ठहर गई, कि कहीं वह नाराज न हो जाएं। वह समझदार तो बहुत थी लेकिन अभी दादा की तकलीफ का सही-सही अंदाजा नहीं लगा पा रही थी।

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