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महामाया - 16

महामाया

सुनील चतुर्वेदी

अध्याय – सोलह

माई की बगीची के एक कमरे में वैद्यजी ने अपना डेरा जमा रखा था। उनकी उम्र चालीस-पैंतालीस के बीच थी। धोती-कुर्ते का पहनावा, आँखों में सूरमा, रंग थोड़ा दबा हुआ। चेहरे पर चेचक के निशान।

वैद्यजी बांया पैर लंबा कर दांया पैर मोड़कर बांयी सीवन पर टिकाये अर्द्धपालथी आसन में बैठे थे। उन्होंने सामने बैठे मरीज के दांये हाथ की नाड़ी अपनी तीन ऊंगलियों से थामी और मरीज का हाल कहने लगे।

‘‘जोड़ों में दर्द रहता है...... कभी-कभी कलेजे में डट्ठा सा लग जाता है....... सांस लेने में तकलीफ होती है... दिन भर शरीर में आलस बना रहता है.....’’

‘‘हओऽऽ महाराज। ये ही बात है’’ थुलथुले शरीर वाला चालीस-पैतासील वर्षीय मरीज हतप्रत था।

‘‘हमने नाड़ी पकड़कर ही तुम्हारी सारी बिमारी बता दी और कोई डाॅक्टर होता तो दस जाँचें करवाता।’’ वैद्यजी आत्म मुग्ध थे।

‘‘आप तो बाबाजी के सच्चे चेले हैं। बाबाजी ने ही तो हमें आपके बारे में बताया था।’’ कहते हुए मरीज ने वैद्यजी के चरणों में माथा टिका दिया।

वैद्यजी पर्चा बनाकर मरीज को समझाने लगे। छोटी लेंडी , पीपल, काला जीरा, काला नमक, हर्रबहेड़ा, सोना पत्ती इन सबको पचास-पचास ग्राम लेकर बारिक पिसकर कपड़छन कर लेना। एक चम्मच पाउडर रोज रात को गुनगुने पानी से बाबाजी का ध्यान करके ले लेना। बाबाजी का आशिर्वाद रहा तो तीन दिन में ही आराम पड़ जायेगा।

मरीज ने पचास रूपये वैद्यजी के चरणों में रखे और प्रणाम करते हुए उठने को हुआ तो वैद्यजी ने उसे हाथ के इशारे से वापस नीचे बैठने को कहा। जब मरीज नीचे बैठ गया तो उन्होने थोड़ा आगे की ओर खिसकते हुए बहुत ही धीमे स्वर में पूछा-

‘‘शरीर में कमजोरी लगती है... पूरा आनंद नहीं मिल पता...’’ मरीज ने और आगे खिसक कर लगभग वैद्यजी के मुँह से मुंह लगाते हुए फुसफुसाने वाले अंदाज में कहा-

‘‘सच्ची कह रहे हो महाराज‘‘

वैद्यजी ने पास रखी अटैची को आधा खोलकर उसमें मरीज को हाथ के ईशारे से कुछ दिखाते हुए कहा।

‘‘पन्द्रह दिन का एक हजार का कोर्स है। जरूरत के पहले दो गोली दूध से लो और कूद पड़ो...’’

‘‘दे दो महाराज। अभी तो पाँच सात दिन आप यहीं हो। दवाई का असर भी पता चल जायेगा’’ कहते हुए मरीज ने पर्स में से पाँच-पाँच सौ के दो नोट अटैची में रख दिये और बदले में चमकीली गोलियों का एक पैकिट चुपचाप जेब में रखते हुए उठ खड़ा हुआ।

‘‘अच्छा तो अब चलूं महाराज’’

‘‘खूब मौज करो’’ वैद्यजी ने रहस्मयी अंदाज में एक आँख दबाते हुए कहा और अटैची बंद कर अगले मरीज को देखने लगे।

एक-एक कर मरीज निपटते रहे। किसी को वात दोष तो किसी को पित्त दोष। किसी को कफ दोष। लेकिन एक दोष सभी में था ‘कमजोरी’। वैद्यजी के पास पहुँचने वालों में सभी वर्ग के लोग थे। फर्क सिर्फ इतना था कि निम्न और मध्यम वर्ग के जवान लोगों में कमजोरी के लक्षण थे जबकि उच्च वर्ग के पकी उम्र वाले भी ‘‘बढ़ती कमजोरी’’ का इलाज पाने के इच्छुक थे।

महिला मरीजों को देखते समय वैद्यजी थोड़े से रोमांटिक हो जाते। उनकी आँखों में एक चमक आ जाती मौका देखकर परीक्षण के नाम पर वह महिलाओं के शरीर की अन्य जगहों को भी छू लेते। किसी-किसी को रोज दिखाने के लिये भी ताकीद कर देते।

इसी बीच अनुराधा और अखिल भी वहाँ पहुँच गये। वैद्यजी ने दोनों को अपने पास ही बिठा लिया। तीनों कुछ देर आपस में बातें करते रहे। मरीज टकटकी लगाये तीनों की बातें सुन रहे थे।

‘‘वैद्यजी बाहर आपकी बहुत तारीफ हो रही है’’ अखिल ने कहा।

‘‘बस मैं तो बाबाजी का नाम लेकर नाड़ी पकड़ लेता हूँ बाकि काम तो बाबाजी ही करते हैं’’ वैद्यजी ने विनम्रता से कहा।

‘‘बाबाजी से कबसे जुड़े हैं आप’’

‘‘पाँच साल से तो मैं ही देख रही हूँ वैद्यजी को बाबाजी के साथ’’ अनुराधा ने बीच में कहा।

‘‘सही कह रही है माई, मुझे दस साल हो गये। अब तो जीवन बाबाजी के सानिध्य में ही गुजर रहा है’’ वैद्यजी ने अपनी आँखों को गोल-गोल घुमाते हुए कहा।

‘‘घर परिवार’’ इस बार अनुराधा ने पूछा।

‘‘दिल्ली में है। पर अब यूं समझ लो माई की वानप्रस्थी जीवन है। घर बार का कोई चक्कर नहीं है’’ वैद्यजी ने जवाब दिया।

‘‘आप इतने अच्छे वैद्य हैं तो दिल्ली में वैद्यकी क्यों नहीं करते ?’’ अखिल ने प्रश्न किया।

विद्या बेचकर पैसा कमाना पाप है। बाबाजी के साथ घूमने से लोगों की सेवा हो जाती है। बस इतना ही है।

‘‘यानि आप पैसा नहीं पुण्य कमा रहे हैं’’ अनुराधा ने वैद्यजी के सामने रखे पैसों की ओर देखते हुए चुटकी ली।

‘‘ये तो मरीज प्रेम से दे जाते हैं तो रख लेता हूँ। असली कमाई तो गुरू की कृपा है।’’ वैद्यजी ने पैसों को कुरते की जेब में डालते हुए कहा।

‘‘चलिये वैद्यजी निपटाईये मरीजों को, बाद में मिलते हैं’’ अखिल ने उठते हुए कहा। अखिल के साथ अनुराधा भी उठ खड़ी हुई। दोनों कमरे से बाहर चले गये। वैद्यजी भी दोनों को विदा देने के लिये उठकर खड़े हुए और दोनों के जाते ही फिर अपनी जगह बैठकर एक दुबले-पतले ठेले वाले की नब्ज़ देखने लगे साथ ही साथ उसकी सुगठित देह वाली बीवी से बेतकल्लुफ होकर बतिया भी रहे थे। एक भक्त भागते हुए अंदर आया। वह उत्तेजित था। उसने कहा एक महिला के शरीर में गंगा माई आयी है। जल्दी चलकर पूजन कर लीजिये।

‘कहाँ’ पूछते हुए झटके से वैद्यजी उठ खड़े हुए।

‘‘यज्ञ मण्डप में’’ भक्त ने संक्षिप्त जवाब दिया।

‘‘चलो चलकर प्रणाम करते हैं ’’ कहते हुए वैद्यजी भक्त के साथ बाहर निकल गये। वैद्यजी के बांये पैर में थोड़ी लचक थी। वह लंगड़ाकर चल रहे थे।

वैद्यजी जब यज्ञ मण्डप में पहुँचे वहाँ भक्तों का जमावड़ा हो चुका था। बीच में एक महिला सिर पर कलश लिये झूमते हुए आगे पीछे हो रही थी। उसके चारों तरफ लोग हाथ-जोड़े खड़े थे। एक प्रौढ़ महिला बीच-बीच में बोलती जा रही थी ‘‘बोल गंगा माई की’’ सभी सम्वेत स्वर में उद्घोष करते ‘‘जय्यऽऽऽ..।

बाबाजी ने उस झूमती हुई महिला का रोली अक्षत और पुष्प से पूजन किया। गले में हार पहनाया। उसके पैरों में नारियल चढ़ाते हुए प्रणाम किया। आठ-दस महिलाओं ने भी ऐसा ही किया।

अखिल और अनुराधा भी इस वाकिये के समय यज्ञ मण्डप में पहुँच चुके थे। शाम को यज्ञ समाप्ति के बाद अखिल और अनुराधा बाबाजी और दोनों माताओं के पीछे-पीछे संत निवास में पहुंचे।बाबाजी सामने वाले गद्दे पर आलथी-पालथी लगाकर बैठ गये। दोनों मातायें अंदर वाले कमरे में चली गई। अखिल और अनुराधा सामने कालीन पर बाबाजी के नजदीक बैठ गये। बाबाजी ने अनुराधा और अखिल की तरफ देखते हुए कहा-

‘‘बेटे आजकल कहाँ रहते है, आप लोग’’

‘‘आप बहुत व्यस्त रहते हैं बाबाजी। इसलिये सोचा कि डिस्टर्ब नहीं करें’’ यह अनुराधा थी।

‘‘आपसे डिस्टर्ब थोड़े ही होते हैं बेटा,’’ बाबाजी ने अनुराधा के सिर पर हाथ फिराते हुए स्नेह से कहा। फिर अखिल की ओर देखते हुए बोले-

‘‘आपको कैसा लग रहा है बेटे’’

‘‘अच्छा लग रहा है बाबाजी’’ अखिल ने दोनों हाथ जोड़ दिये।

‘‘अब आप नैनीताल का कार्यक्रम बनाईये। आप तो बहुत अच्छा लिखते हैं’’

‘‘आपका आशिर्वाद है बाबाजी’’ अखिल ने विनम्रता से कहा।

‘‘हम भक्तों के लिये एक पत्रिका निकालना चाहते हैं।

‘‘जी बाबाजी... यह तो बहुत अच्छा रहेगा’’ अनुराधा ने उत्साहित होते हुए कहा।

बाबाजी कुछ देर के लिये चुप हो गये। फिर उन्होने पास रखे मिठाई के पैकिट से मिठाई निकालकर दोनों को दी। अखिल ने मिठाई हाथ में लेकर सकुचाते हुए पूछा-

‘‘बाबाजी क्या किसी के शरीर में कोई आत्मा आ सकती है’’

‘‘नहीं बेटे’’

‘‘फिर उस महिला के शरीर में गंगा माई?’’

‘‘कोई गंगा माई नहीं थी। वो तो सिर्फ उस महिला की भावदशा थी’’ बाबाजी ने संक्षिप्त जवाब दिया।

‘‘आपने भी तो उसका पूजन किया था बाबाजी।’’

‘‘यदि हम उस समय पूजन नहीं करते तो यह हमारा अहंकार होता बेटा। हम यह सब नहीं मानते इसलिये हम ऐसा नहीं करेगे। यही तो ईगो है। और इसी इगो को ही तो मिटाकर सामान्य व्यक्ति योगी बनता है।’’ बाबाजी ने स्पष्ट किया।

‘‘बाबाजी’ समाधि में यज्ञ का क्या महत्व है ?‘‘ अनुराधा ने प्रश्न किया।

‘‘समाधि में यज्ञ का कोई महत्व नहीं है बेटे, लेकिन सामान्य लोग तो इसी भाषा को समझते हैं। एक समर्थ गुरू को साधारण लोगों के संस्कार क्षय करने के लिये उन्हीं की भाषा का उपयोग करना पड़ता है’’

‘‘तो क्या ये लोग इस रास्ते से परमात्मा को प्राप्त कर सकते हैं’’ अखिल ने सहज होते हुए पूछा।

‘‘यह परमात्मा को पाने का रास्ता नहीं है। परमात्मा का पाना इन लोगों का उद्देश्य भी नहीं है। परमात्मा को पाने के लिये पहले खाली होना पड़ता है। परमात्मा को वही पा सकता है जो अपना सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार हो। बुद्ध ने परमात्मा की खोज के लिये सब कुछ छोड़ दिया था। तब उन्हें बुद्धत्व प्राप्त हुआ था।’’

‘‘अखिल और कुछ पूछना चाहता था लेकिन तभी किशोरीलाल जी के साथ शहर के कुछ संभ्रात लोग अंदर आ गये। सभी ने बाबाजी को प्रणाम किया। फिर उन लोगों के बीच समाधि की तैयारियों को लेकर चर्चा होने लगी। चर्चा लंबी चलती देख अखिल और अनुराधा वहाँ से उठकर भोजनशाला की ओर चल दिये।

क्रमश..